गुरुवार, 26 जनवरी 2012

बचपन के गणतंत्र दिवस की यादें

आज बहुत वर्षों बाद किसी शिक्षा संस्थान में गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होने का अवसर मिला. किस तरह आज भी शिक्षक बिरादरी बड़े उत्साह के साथ गणतंत्र दिवस को मनाती है, इसका नजदीक से एहसास हुआ. सचमुच मुझे अपने बचपन के दिन स्मरण हो आये.
बचपन में जिस प्राइमरी पाठशाला में शुरुआती शिक्षा मिली, वहाँ छब्बीस जनवरी बेहद धूमधाम से मनाई जाती थी. हमारा स्कूल एक छप्पर वाले बड़े से कमरे में चलता था. पहली से पांचवीं तक कुल तीस बच्चे थे. सब एक ही कमरे में अलग-अलग पंक्तियों में बैठते थे. गाँव से एक किलोमीटर दूर खेतों और जंगल के बीच यह स्कूल था. हम लोग महीने भर पहले से तैय्यारी करते थे. तरह-तरह के गाने-तराने याद करते थे. ‘इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन-जापान देश.’ ‘जो हमसे टकराएगा, चूर चूर हो जाएगा’, ‘नागाहिल लड़ाई लागी भट्टम भट्टम गोली, सिपाई दाज्यू लड़ना ज्ञान, छाती खोली खोली.’ आदि-आदि. कुछ नारे हिंदी में थे तो कुछ कुमाऊनी में. हम लोग आठ बजे स्कूल में इकट्ठे होते थे और वहाँ से प्रभात फेरी निकालते हुए पूरे गाँव का चक्कर लगाते थे. हर घर से कुछ पैसे बख्शीश के रूप में मिलते थे. फिर एक जगह पर खेल-कूद की प्रतियोगिताएं हुआ करती थीं. दोपहर बाद नदी के उस पार दूसरे स्कूल में इकट्ठे होते थे. उस स्कूल के बच्चों के साथ. और फिर सामूहिक प्रतिस्पर्धाएं हुआ करती थीं. फिर पुरस्कार मिलते थे. पेन्सिल, रबर, कापी, पेन्सिल बॉक्स आदि. जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला, उन्हें गुड़ की डली से संतोष करना पड़ता था. आखीर में गला फाड कर ‘हर्ष हर्ष, जय जय!!’ बोलना पड़ता था. फिर बहुत दिनों तक इसके संस्मरण सुना सुना कर हम लोग समय काटा करते थे. अहा, वे क्या दिन थे!!
गणतंत्र दिवस के प्रति यह उत्साह, जूनिअर हाई स्कूल और हाई स्कूल तक जारी रहा. फिर मैं चंडीगढ़ आ गया कालेज की पढाई के लिए. वहाँ के कालेज इतने बड़े थे कि वहाँ इस तरह के आयोजनों में वैसा अपनत्व नहीं दिखाई देता था. मैं अपने बच्चों के स्कूल-कालेजों में भी देखता हूँ, कोई खास उत्साह नहीं दिखाई पड़ता. शायद समाज में भी गणतंत्र दिवस को लेकर अब वैसा उत्साह नहीं रह गया है. लोग इसे भी एक छुट्टी का दिन मान बैठते हैं. अमेरिकियों की तरह.
पत्रकारिता में आने के बाद मुझे याद नहीं पड़ता कि कहीं किसी संस्थान में कोई आयोजन होता हो. हमारे लिए ऐसे दिवस का मतलब मन में फर्जी जोश जगा कर लेख लिख देना या कुछ लोगों से लेख मंगवा कर छाप देना या कोई सप्प्लीमेंट प्लान कर देना भर रह गया था. कुछ अरसा सरकारी नौकरियों में भी रहा, वहाँ भी झंडा फहराने के अलावा कभी कोई आयोजन नहीं होता था. कोलकाता में जरूर जिस कालोनी में हम रहते थे, वहाँ कुछ आयोजन होता था लेकिन लोग दस बजे की बजाये ११ बजे आयोजन स्थल पर पहुँचते. वैसे कोलकाता की बंगाली बस्तियों में जोर-शोर से छब्बीस जनवरी मनाई जाती थी. कुछ वर्षों से दिल्ली की जिन हाउसिंग सोसाइटियों में मैं रहा हूँ, वहाँ भी झंडारोहण होता है, लेकिन जो बात आज मुझे अपने विश्वविद्यालय में देखने को मिली, वह बीच के तीस वर्षों में नहीं दिखी. शायद इसलिए कि हमारा विश्वविद्यालय अभी नया नया है, और हर किसी के मन में कुछ न कुछ अरमान हैं. देश और समाज के प्रति यह भाव बना रहे, यही कामना है.   

बुधवार, 25 जनवरी 2012

गणतंत्र दिवस पर निराश करती हवाएं

देश तिरसठवां गणतंत्र दिवस मना रहा है. इधर पूरा उत्तराखंड चुनाव प्रचार के आगोश में है. इस प्रदेश को बने हुए ११ साल हो गए हैं. खूब नारे उछाले जा रहे हैं. एक से बढ़ कर एक वायदे किये जा रहे हैं. लेकिन मतदाता जानता है कि इन ग्यारह वर्षों में वह बार बार छला गया है. चुनाव एक तरह से लोकतंत्र का उत्सव न हो कर छल और धोखा खा जाने का समय बन गया है. क्योंकि उत्तराखंड आंदोलन के वक्त जो सपने बुने गए थे, उन्हें बार बार विखरते देखा है.
कल के अखबार में एक शीर्षक था, अंग्रेजो तुम फिर से लौट आओ. बहुत देर तक इस शीर्षक पर नजरें टिकी रहीं. जिस आम वोटर के कथन पर यह शीर्षक रखा गया था, उसकी मनःस्थिति की कल्पना करता रहा. यह केवल एक व्यक्ति की मनःस्थिति नहीं है. देश में ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है, जो ऐसा सोचते हैं. सन चौरानबे में पूरे उत्तराखंड के युवा जब उबल रहे थे, तब वे भी यही सोच रहे थे कि इस उपेक्षा से तो अंग्रेजों का ही शासन बेहतर था. सन २००० में उत्तराखंड बना, तथाकथित रूप से अपने लोग सत्ता में आये, लेकिन सपने फिर भी अधूरे ही रहे. इस बीच लोगों को यह कहते सुना गया कि इस से तो यू पी में ही भले थे. और यह बात वे लोग ज्यादा कहते रहे हैं, जो उत्तराखंड को लेकर सबसे ज्यादा उग्र थे. आज ग्यारह साल बाद फिर आम मतदाता खुद को छला गया महसूस कर रहा है. क्यों? क्योंकि हमारे रहनुमाओं ने अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझा. एक नए राज्य के निर्माण के लिए जितनी मेहनत, ईमानदारी और दृष्टि की जरूरत थी, क्या वह हमारे नेताओं में है? आज हिमाचल सचमुच हिमाचल बना है तो उसके पीछे यशवंत परमार की १५ साल की अथक मेहनत और ईमानदार प्रशासन है.  
लोग यों ही नहीं फेंकते नेताओं पर जूते-चप्पल. आप भले ही उन्हें पागल कह दें, लेकिन वे भी हमारे ही सामूहिक मनोविज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं. विखरे लोगों के भाव जब घनीभूत होकर किसी एक कमजोर व्यक्ति के मन में उतरते हैं, तब इस तरह की घटनाएं बढ़ती हैं. यह गुस्सा अलग अलग रूपों और लोगों पर उतरता है. आज पूरे देश में ऐसी घटनाएं बढ़ रही हैं तो इसीलिए कि हमारे राजनेताओं के प्रति जनता के मन में नफरत घर कर गयी है. कहीं न कहीं तो उसका विस्फोट होना ही है. राजनीति में अब विचारों की कोई जगह नहीं रह गयी है. जो पार्टियां पहले विचारों की राजनीति किया करती थीं, वे भी अब दूकान लगाए बैठी हैं. सचमुच अब राजनीति एक वेश्या की तरह हो गयी है. कहा जा सकता है कि उत्तराखंड भी देश के भीतर ही है. उसकी राजनीति यूपी की राजनीति से कैसे भिन्न हो सकती है? जी हाँ, भिन्न नहीं हो सकती है, लेकिन भिन्न होने की कोशिश तो कर सकती है. क्या पिछले ११ वर्षों में हमारे नेताओं ने राज्य की हालत उत्तर प्रदेश से भी बदतर नहीं कर दी है! इसके लिए हम सब दोषी हैं. चुनाव एक मौका जरूर है, अच्छे लोग चुनने का, लेकिन पता नहीं क्यों, कहीं से भी आशा की कोई किरण नहीं दिखाई देती.  
    

बुधवार, 18 जनवरी 2012

अच्‍छे लोगों को लाइए, राजनीति बचाइए

गोविंद सिंह
मजबूत लोकपाल के लिए अन्‍ना हजारे के संघर्ष से एक बात जाहिर हो गई है कि आने वाले दिनों की राजनीति अब वैसी नहीं रहने वाली है, जैसी कि वह आज है। इस आंदोलन ने यह साफ कर दिया है कि भारत की जनता भ्रष्‍टाचार से आजिज आ चुकी है और वह बहुत दिनों तक इसे बरदाश्‍त  नहीं करेगी। उसने यह मान लिया है कि राजनीति ही भ्रष्‍टाचार की गंगोत्री है। इसलिए राजनीति के इस चेहरे को बदलना ही होगा। आज नहीं तो कल। ये अन्‍ना नहीं तो कोई और अन्‍ना। भ्रष्‍टाचार के विरुद्ध अब भारत जाग उठा है। लोकपाल सिर्फ एक चिंगारी भर है। बन भी गया तो वह सिर्फ एक प्रतीक ही होगा, भ्रष्‍टाचार के खिलाफ असली लड़ाई अभी बाकी है।
इसलिए राजनीतिक दलों को अभी से संभल जाना चाहिए। ठीक उसी तरह, जैसे मिस्र और टयूनीशिया के हालात देख अन्‍य अरब देशों के शासक अचानक से जन हितैषी घोषणाएं करने लगे हैं। क्‍योंकि उन्‍होंने देख लिया है कि यदि वे नहीं बदले तो जनता उन्‍हें बदल देगी। ऐसा ही नब्‍बे के दशक में साम्‍यवादी विश्‍व में भी हुआ था। सोवियत संघ की उथल-पुथल देख कर अन्‍य साम्‍यवादी देश भी धड़ाधड़ अपना चोला बदलने लगे। यहां तक कि चीन ने साम्‍यवादी चोले के भीतर से ही अपनी जड़ों को पूंजीवादी खुराक देनी शुरू कर दी। भारत के सत्‍ताधारी और सत्‍ताकांक्षी दलों को भी जनता के मूड को भांपना चाहिए कि वे लोकतंत्र की इस आंधी में खुद को कैसे बचाए रख सकते हैं। इसमें किसी एक दल के सुधरने की बात नहीं है। लगभग हर दल को बदलना है, सुधरना है। क्‍योंकि अपने देश में लोकतंत्र का जो स्‍वरूप आज है, उसके लिए कमोबेश हर दल बराबर का भागीदार है। हां, सुधार की दिशा में जरूरी कदम उठाने में सत्‍तारूढ़ होने के नाते कांग्रेस की जिम्‍मेदारी कुछ ज्‍यादा है। इसलिए यदि वह मजबूत और कारगर लोकपाल कानून बना लेती तो उसका श्रेय  उसे मिलता। लेकिन लगता है अभी कांग्रेस पार्टी की आंखें नहीं खुलीं। और वह अब भी इसे टीम अन्‍ना की मांग समझ रही है, इसलिए उसके साथ आंख मिचौली खेल रही है।
हम सबको यह समझ लेना चाहिए कि भ्रष्‍टाचार इस देश की सबसे गंभीर समस्‍या है। और उसे इस देश के राष्‍ट्रीय चरित्र से नत्‍थी करने में राजनीति की सबसे बड़ी भूमिका रही है। आज यदि हमारे लोकतंत्र में खामियां हैं तो उसके मूल में भ्रष्‍टाचार और राजनीतिक अक्षमता ही है। यदि राजनीति संकल्‍पवान हो तो भ्रष्‍टाचार पर नकेल कसी जा सकती है। एक बार यदि समाज भ्रष्‍टाचारमुक्‍त हो जाए तो लोकतंत्र को फलने-फूलने से कोई रोक नहीं सकेगा। तो सवाल यह है कि राजनीति सुधरे तो कैसे सुधरे। इसे सुधारने की एक कोशिश टीएन शेषन ने की थी, चुनाव प्रक्रिया को कड़ाई से लागू कर के। लेकिन वह प्रक्रिया अभी अधूरी है। क्‍योंकि उसके आगे के चुनाव सुधार लागू नहीं हो पाए हैं। यदि चुनाव सुधारों को ईमानदारी से लागू कर दिया जाए तो कुछ हद तक राजनीति की बीमारियों को दूर किया जा सकता है। लेकिन राजनीति में वास्‍तविक सुधार राजनीतिक दलों के अंदर से शुरू होगा। इसके लिए उन्‍हें अपने भीतर इच्‍छाशक्ति जगानी होगी। उन्‍हें अपने भीतर आमूल परिवर्तन के लिए न सिर्फ तैयार रहना होगा, बल्कि उसके लिए अभी से पहल भी शुरू कर देनी होगी।
देश के पांच राज्‍यों में चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। मणिपुर और गोवा को छोड़ भी दिया जाए तो उत्‍तर प्रदेश, उत्‍तराखंड और पंजाब हमारे लिए काफी अहम हैं। उम्‍मीदवारों का चयन चल रहा है। लेकिन अभी तक कहीं से भी ऐसा नहीं दिख रहा है कि राजनीतिक दलों में आमूल बदलाव की कोई चाह है। इसका पता इसी से चल जाता है कि वे किन लोगों को टिकट दे रहे हैं। यही समय था, जब राजनीतिक दल स्‍वच्‍छ छवि के लोगों को उम्‍मीदवार बनाकर बदलाव की पहल कर सकते थे। लेकिन अभी वे पुराने फारमूले पर ही चल रहे हैं।
पिछले छह दशकों में हमने देखा कि किस तरह से राजनीति से पढ़े-लिखे और ईमानदार लोग दूर छिटकते गए। आजादी से पहले बड़ी संख्‍या में वकील, शिक्षक और पत्रकार राजनीति में आते थे। गांधी जी स्‍वयं एक बड़े पत्रकार थे। धीरे धीरे दूसरे पेशों के लोग भी राजनीति में आने लगे। फिर राजनीति ही एक पेशा बनने लगा। लोग कॉलेज-विश्‍वविदयालय कैंपस से, ग्राम पंचायत-ब्‍लॉक और जिला परिषद होते हुए विधान सभा और संसद पहुंचने लगे। बीच-बीच में हुए आंदोलनों के जरिये भी लोग विभिन्‍न पेशों से राजनीति में आए। मसलन अयोध्‍या आंदोलन के दिनों भाजपा में बड़ी संख्‍या में सेवानिवृत्त ब्‍यूरोक्रेट और फौजी अफसर शामिल हुए। फिर एक दौर ऐसा भी आया, जब आपराधिक पृष्‍ठभूमि के लोग बड़ी संख्‍या में चुनाव जीतकर संसद पहुंचने लगे। किन्‍नर कहे जाने वाले उभयलिंगी लोगों को भी जनता ने वोट देकर विधान सभाओं में भेजा। जनता ने ऐसे निर्णय इसलिए लिए क्‍योंकि पारंपरिक तौर पर राजनीति करने वाले लोग उनकी उम्‍मीदों पर खरे नहीं उतर रहे थे। ऐसे लोगों को चुन कर जनता ने पेशेवर राजनेताओं के प्रति अपने गुस्‍से का ही इजहार किया। दस साल पहले उत्‍तराखंड में एक अद्भुत किस्‍सा हुआ। गगन सिंह रजवार नाम के एक ऐसे अल्‍पशिक्षित वनराजी युवक को चुन कर विधान सभा में भेजा गया, जिसकी जनजाति के लोगों की संख्‍या महज कुछ सौ में थी, और जो आज भी जंगलों में ही रहना पसंद करते हैं। यानी राजनेता नहीं सुधरेंगे तो जनता विरोध में कुछ भी कदम उठा सकती है। लेकिन ये कदम हमारी राजनीति के लिए कोई स्‍वस्‍थ लक्षण नहीं हैं। इसलिए यही वक्‍त है, जब राजनीतिक दलों को ईमानदार और योग्‍य लोगों को आगे लाना चाहिए। 
लोकसभा में तो फिर भी कुछ पढ़े-लिखे लोग पहुंच जाते हैं, विधान सभाओं का हाल वाकई बुरा है। हाल के वर्षों में जैसे पढ़े-लिखे और समझदार लोग विधान सभाओं से गायब ही हो गए हैं। बड़ी संख्‍या में बिल्‍डर, प्रॉपर्टी डीलर और ठेकेदार लोग राजनीति में आ गए हैं। बल्कि हर राजनीतिक दल को उन्‍होंने अपनी गिरफत में ले लिया है। राजनीतिक दलों के लिए विचारधारा का कोई अर्थ नहीं रह गया है। विधान सभाओं में पहुंच कर वे क्‍या फैसले करेंगे और क्‍या नीतियां और कार्यक्रम बनाएंगे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। हमारा कहना यह नहीं है कि हर ठेकेदार बेईमान ही होता है, हमारा आशय उस प्रवृत्ति की ओर इशारा करना है, जो हमारी राजनीति को अंदर से खोखला कर रही है। इसी प्रवृत्ति के विरुद्ध जनता जाग रही है। राजनीति के पुराने और जर्जर मॉडल को वह उखाड़ फेंकना चाहती है। काश, हमारे राजनीतिक दल इसे समय रहते भांप पाते।  
अमर उजाला, १३ जनवरी २०१२ से साभार.

शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

कौन समझेगा गौला नदी का दर्द


हल्द्वानी पहुँचने से पहले गौला 
हल्द्वानी पहुँच कर गौला अस्तित्वहीन सी लगने लगती है. हम हल्द्वानी वासी बस, इसे रेता-बजरी की खान से अधिक कुछ नहीं समझते. रेत, बजरी, रोड़ियों और पत्थरों से भरा इसका विशाल पाट हमारे मनों में कोई भावना नहीं जगाता. क्योंकि नदी तो बस एक पतली सी जलधारा रह जाती है. इसकी छाती पर सवार सैकड़ों ट्रक और डम्पर इसके अक्षय उदर से रेत और बजरी निकालते ही रहते हैं. और पूरे भाबर और कुमाओं के अन्य शहरों की जरूरतें पूरी करते हैं. सोचता हूँ जहां ऐसी रेत दायिनी नदियाँ नहीं होती होंगी, वहाँ के लोग घर कैसे बनाते होंगे?
खैर, पिछले दिनों हैडाखान आश्रम देखने का मन हुआ तो गौला नदी का एक और ही रूप सामने आया. वहाँ नदी के पार नवदुर्गा मंदिर के पुजारी जी से अच्छी जान-पहचान हो गयी तो उन्होंने गौला का भी महात्म्य सुनाया. उन्होंने बताया कि किस तरह यहाँ इसको गौला की बजाय गौतमी गंगा के नाम से जाना जाता है. इसका पानी भी उतना ही पवित्र है, जितना गंगा का. उन्होंने हमें एक बोतल में भर कर गौतमी गंगा का पानी दिया. हैडाखान में सचमुच गौतमी गंगा का पानी बेहद साफ़ है. कल कल छल छल करता एकदम पारदर्शी पानी. छोटी-बड़ी मछलियाँ अठखेलियाँ करती हुईं. इसका यह रूप देख कर लगता ही नहीं कि यही नदी हल्द्वानी पहुँच कर इतनी असहाय होकर रह जाती है. एकदम निष्प्राण. जैसे बंगाल के घरों में सूखी मछलियाँ बास मारती हुई दिखाई पड़ती हैं, वैसी ही दशा गौला की हल्द्वानी और उसके नीचे के इलाकों में हो जाती है.
२००८ में जब गौला का पुल महज ८ साल में टूट गया 
गौला नदी का उद्गम भीडापानी, मोरनौला- शहर फाटक की ऊंची पर्वतमाला के जलस्रोतों से होता है. उसके बाद भीमताल, सात ताल की पहाडियों से आने वाली छोटी नदियों के मिलने से यह हैड़ाखान तक काफी बड़ी नदी बन जाती है. बाद में रानीबाग, काठगोदाम, हल्द्वानी होते हुए यह बरेली के पास रामगंगा में मिल जाती है. इस बीच यह नदी करीब ५०० किलोमीटर की यात्रा तय करती है. काठगोदाम पहुँचने पर इसके दोहन की प्रक्रिया शुरू होती है. वहाँ बने जमरानी बाँध से न केवल पूरे भाबर क्षेत्र के खेतों में सिचाई होती है, अपितु हल्द्वानी के तीन-चार लाख लोगों की प्यास भी बुझती है. लेकिन सचमुच हमारे हुक्मरान, हमारे नौकरशाह और हम लोग इसके महत्व को नहीं समझ रहे  हैं. यदि समझते होते तो गौला के गर्भ से इस कदर खनन करने की इजाजत नहीं देते. तीन साल पहले हल्द्वानी और गौलापार क्षेत्र को जोड़ने वाला पुल आठ साल की उम्र में ही बाढ़ की मार को नहीं झेल पाया और धराशायी हो गया. जांच के बाद पाया कि लोगों ने नदी को इतना खोद डाला कि पुल के खम्भे बरसाती बहाव को सहन नहीं कर पाए. तीन साल बाद अब फिर से पुल बन कर तैयार होने को है, लेकिन हमने कोई सबक नहीं सीखा. सुप्रीम कोर्ट की नज़र में अवैध खनन अब भी जारी है, शायद और भी ज्यादा रफ़्तार से.
पुराने लोग कहते हैं कि दो-तीन दशक पहले तक भी गौला की यह हालत नहीं थी. बाँध तब भी था. लेकिन पानी भी भरपूर था. गौला खेतों के साथ ही लोगों की प्यास भी बुझाती थी. कुछ वनों के कटाव से, कुछ अतिशय विकास से और कुछ अवैध खनन से आज गौला जैसे अंतिम साँसें ले रही है. वह नहीं रहेगी तो हम नहीं रहेंगे. फिर भी वह कभी चुनाव का मुद्दा नहीं बनती, क्यों?  
  

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

मुक्तेश पन्त: मुक्त गगन का पंछी


शीला भाभी के साथ मुक्तेश जी

मुक्तेश पन्त एक अद्भुत व्यक्ति हैं. जिन लोगों ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में स्थाई तौर पर हल्द्वानी आकर रहने का फैसला किया, उनमें मुक्तेश जी एक हैं. मैं उन्हें नब्बे के दशक से जानता हूँ, जब वह दिल्ली में मेरे नवभारत टाइम्स वाले दफ्तर आया करते थे. पहली बार जब वे मिले थे, तब भी उन्होंने यह नहीं बताया था कि वह पुष्पेश जी के भाई हैं, आज भी जब कोई उनसे पूछता है कि वह पुष्पेश जी के भाई तो नहीं हैं? तो वे व्यग्र और उग्र हो जाते हैं. कहते हैं कि वह मेरा भाई है न कि मैं उसका. चूंकि वे पुष्पेश जी सवा साल बड़े हैं, इसलिए उन्हें पुष्पेश जी के भाई के तौर पर अपना परिचय देना अच्छा नहीं लगता. सचमुच, जितना उनका ज्ञान है, जो उनका अध्ययन है, जितनी तरह की सूचनाएं उनके पास रहती हैं, यदि वे उनका सही इस्तेमाल कर पाते या उन्हें चैनलाइज कर पाते तो उनकी गणना बड़े विद्वानों में होती. क्या साहित्य, क्या संस्कृति, क्या राजनीति और क्या दुनिया भर की जानकारी, वे जहां से शुरू हो जाते हैं, बोलते ही चले जाते हैं. वरना १९६५ में नैनीताल से एम् ए इतिहास करने के बाद उन्हें वहीं पढाने का मौक़ा मिला था, जिसे उन्होंने जल्दी ही छोड़ दिया क्योंकि उन्हें लग गया था कि वे इस सिस्टम में फिट नहीं बैठने वाले. उनके अंदर का विद्रोही उन्हें कोई काम टिक कर करने नहीं देता था. फिर भी उन्होंने १९८२-८३ में हिल रिव्यू नाम का एक अखबार हल्द्वानी से संपादित किया. नब्बे के दशक में ओपिनियन एक्सप्रेस के संपादक रहे. साथ ही थिंक इंडिया का भी संपादन किया. एक खेल पत्रकार के रूप में भी उनकी पहचान रही है.     
वे सचमुच एक फक्कड हैं. उनके जैसा बोहेमियन शायद ही कहीं मिले. वे ६७ वर्ष के हो चले हैं लेकिन जैसे कल थे, आज भी वैसे ही हैं. वही हाव-भाव, वही खिलन्दड पन, जिंदगी में लापरवाही, क्षणजीवी स्वभाव और निरंतर बोलते जाना. उनकी बालसुलभ चेष्टाएं और उत्सुकताएं बिलकुल कम नहीं हुई हैं. जिंदगी इतनी आसान भी हो सकती है, कोई मुक्तेश जी से सीखे. दिल्ली के दिनों में जब कभी मैं सुबह-शाम, उनके यहाँ फोन करता तो भाभी शीला जी ही फोन उठाती. वह कहती उनका ठौर-ठिकाना बताना मुश्किल है. वे सुबह उठकर जे एन यू की तरफ निकल गए तो कब लौटेंगे, कोई नहीं बता सकता. वे कहाँ खायेंगे, कहाँ पियेंगे, कहाँ नहाएंगे, किसे मालूम. लोगों के पास उनसे जुड़े इतने किस्से हैं कि लोग लोटपोट हो जाते हैं. वे थोडा सा तुतलाते हैं, लेकिन इसका उनके व्यक्तित्व पर कोई असर नहीं पड़ता. आप कुछ ही पलों में उनके साथ तादात्म्य कायम कर लेते हैं.
सन १९९९ में उन्होंने दिल्ली छोड़ कर भवाली में अपने पैत्रिक मकान में रहना शुरू किया. दोनों बेटे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए थे. मुझे भवाली वाले घर में भी उनसे दो बार मिलने का अवसर मिला. सदा की तरह वे तब भी कुछ युवाओं को पढ़ा रहे थे. सन २००३ में उनके घर में आग लग गयी. फिर उन्हें हल्द्वानी आना पड़ा. शीला जी के मायके वालों के पास ही कुछ जमीन लेकर उन्होंने एक घर बनवाया और वहीं अपने स्वतन्त्रता सेनानी चाचा-चाची के साथ रहने लगे. बाद में उनके बच्चे अमेरिका में ही पढ़ लिख कर सेटेल हो गए. अब मुक्तेश जी और भाभी शीलाजी साल में छः महीने अमेरिका में ही रहते हैं.
मैं जब हल्द्वानी आया तो मैंने उनका पता लगाया. मालूम हुआ कि वे अमेरिका में हैं. लेकिन एक दिन मैं अपने दफ्तर में किसी मीटिंग में था, तभी मुझे एक स्लिप मिली, मुक्तेश पन्त, न्यूयोर्क सिटी, यू एस ए. मैंने बैठने को कहलवाया, लेकिन बाहर आया तो मुक्तेश जी गायब थे. खैर बाद में संपर्क हो गया. मैं उनके घर गया, वे मेरे घर-दफ्तर आये. वे एक ही सांस में दिल्ली के मीडिया जगत के बारे में सैकड़ों सवाल पूछ बैठते हैं. अपनी जानकारियों को अपडेट करते हैं. कहते हैं, मैं भावनाओं में जीता हूँ, वही मेरी थाती हैं. शीला जी को अब भी दिल्ली कि याद आती है. लेकिन मुक्तेश जी अब हल्द्वानी नहीं छोड़ना चाहते. जे एन यू के दिन अलग थे. अब दिल्ली भी बदल गयी है. मुक्त गगन के इस पंछी को दिल्ली कहाँ रास आयेगी?
नोट: मुक्तेश जी को जानने वाले मित्रों से अनुरोध है कि वे उनके साथ जुड़े अपने अनुभव जरूर शेयर करें.   

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

लेंटाना और कांग्रेस ग्रास से कौन बचाएगा


इन दिनों पर्यावरण के ग्‍लोबल मुद्दों पर तो खूब बहस-मुबाहिसे होते हैं पर जमीनी स्‍तर पर जो समस्‍याएं पसर रही हैं, उनकी तरफ किसी का ध्‍यान नहीं है। ऐसी ही एक समस्‍या है लेंटाना और कांग्रेस ग्रास यानी पर्थीनियम का बेतहाश फैलना। क्‍या पहाड़ क्‍या मैदान आपको लेंटाना और कांग्रेस ग्रास से पटे पड़े मिलेंगे। आम आदमी इन्‍हें सिर्फ घास या एक झाड़ी के रूप में देखता है, लेकिन ये मनुष्‍य जाति के लिए ही नहीं, जानवरों और वनस्‍पतियों के लिए भी अत्‍यंत घातक हैं।

पहले लेंटाना पर आएं। सड़कों के किनारे हेज यानी बाड़ की तरह उग आई लाल, गुलाबी, केसरिया फूलोंवाली यह झाड़ी दिखने में कहीं से भी नहीं लगती कि यह एक धीमे जहर की तरह हमारे पर्यावरण को दूषित कर रही है। पहले यह बता दें कि यह पौंधा हिंदुस्‍तानी नहीं है। वर्ष 1807 में अंग्रेज इसे कोलकाता के बॉटैनिकल गार्डन के लिए लाए थे। पता नहीं इसके पीछे उनके मनसूबे क्‍या थे, सिर्फ गार्डन की शोभा बढ़ाना या कुछ और। वहां से इसे 1850 में देहरादून लाया गया। आज थार के मरुस्थल को छोड़ कर सारा देश इसकी चपेट में है। अब इसके नुकसानों पर। पहली बात तो यह है कि यह जिस पैमाने पर फैल रहा है, उससे खेती की जमीन कम हो रही है। इसके पत्‍तों, टहनियों और फूलों में दुर्गण ही दुर्गण हैं। इसमें जो रासायनिक तत्‍व पाए जाते हैं, वे हैं- लेंटाडीन ए और बी, ट्राइटर्पीन एसिड, डीहाइड्रो लेंटाडीन ए और इक्‍टरोजेनिन। ये सारे ही तत्‍व जहरीले हैं और प्रथम द्रष्‍टया नशा करते हैं, मनुष्‍यों में भी और जानवरों में भी। मनुष्‍यों में इनसे पीलिया, कब्‍ज, पाचन में कमी, भूख कम लगना, मुंह में अल्‍सर, म्‍यूकस मेंब्रेन में घाव जैसी बीमारियां होती हैं। मुख्‍य बात यह है कि ये बीमारियां तत्‍काल नहीं दिखाई देतीं, धीमे जहर की तरह से रुक-रुक कर हमला करती हैं। वनस्‍पतियों के लिए यह और भी घातक है क्‍योंकि यह अपने आपपास और किसी वनस्‍पति को फटकने नहीं देता। हजारों स्‍वदेशी वनस्‍पति प्रजातियों को यह नष्‍ट कर चुका है। आम जनता इसके दुष्‍परिणामों को नहीं जानती। आजकल किसान इसकी झाडि़यों को काटकर टमाटर के खेतों में डाल रहे हैं, ताकि टमाटर के पौंधे इनके ऊपर पसर सकें। लेकिन टमाटरों में भी इनके जहर न फैल रहे हों, इसकी क्‍या गारंटी है।

यही हाल कांग्रेस ग्रास या गाजरघास का है। यह भी लेंटाना की ही तरह एक साम्राज्‍यवादी पौंधा है, जो बहुत तेजी के साथ, नए शहरों, नई बस्तियों में अपनी जड़ें फैला रहा है। विदेशों में तो जहां इसके पौंधे होते हैं, वहां खतरे के साइन बोर्ड लगे होते हैं। देश का शायद ही कोई कोना इससे बचा हो। इंटरनेट पर इसके बारे में पढ़ा तो पता चला कि यह पहाड़ों को छोड़ कर सब जगह होता है, लेकिन पिछले दिनों टिहरी, उत्‍तरकाशी के मार्ग में भी यह इफरात में दिखा तो हैरानी हुई। आम घारणा यह है कि यह पचास और साठ के दशक में अमेरिका से पीएल 480 के तहत आयातित गेहूं के साथ आया लेकिन पिछले दिनों अमेरिकी दूतावास के एक अधिकारी ने इसका खंडन किया और बताया कि इससे पहले भी यह भारत में था। खैर इससे त्‍वचा रोग, खांसी, दमा, आंखों में सूजन, मुंह और नाक की झिल्लियों में सूजन, खुजली, छींक, तालु में खुजली जैसी अनेक अलर्जिक बीमारियां होती हैं। अग्रज पत्रकार केशवानंद ममगाईं की मृत्‍यु इसी वजह से हुई। उनके चेहरे पर तांबई पपड़ी जम गई थी। सचमुच इसकी एलर्जी के साथ जीना बेहद कष्‍टदायक है। इसलिए हेल्‍थ और पर्यावरण की अंतरराष्‍ट्रीय बहसों में उलझे पर्यावरणविदों से अनुरोध है कि वे इन धीमे जहर फैलाने वाले पौंधों के खिलाफ भी कुछ कदम उठाएं। सरकारों से तो कोई आशा करना ही निरर्थक है।

खुले में चिडि़यां देखने का सुख


सुबह- सवेरे जब अपनी छत पर मैनाओं के झुंड के झुंड देखता हूं तो मन हर्ष विभोर हो उठता है। कभी सोचा भी न था कि इनका चहचहाना इतना ऊर्जस्वित करने वाला होगा। इकट्ठे इतनी मैनाओं को पहले कभी नहीं देखा। दिल्‍ली में रहते हुए तो जैसे इनके दर्शन ही दुर्लभ हो गए थे। बचपन की याद है, जब गांव में मैनाओं को अपने साथ-साथ चलते-फिरते, लड़ते- झगड़ते, गाना गाते हुए देखा करते थे, लगता ही नहीं था कि ये हम से किसी मामले में अलग हैं। एक बार की बात है, आमूनी के आम के पेड़ की छांव में बैठे हम बच्‍चों को जोगिया लुहार ने कहा था कि वह इन शिंडालुओं (मैनाओं) की भाषा जान गया है। उसकी इस घोषणा से हम सारे बच्‍चे खुशी के मारे उछलने लगे थे। तभी उसने पास ही टहल रही दो मैनाओं की तरफ अंगुली करके हमसे पूछा, जानते हो वह क्‍या बोल रही है। हमारी समझ में कुछ नहीं आया। उनमें से एक मैना अपने एक पैर को उठा कर चोंच से रगड़ रही थी। जोगिया ने कहा, वह अपने घरवाले से कह रही है, ‘देखते नहीं कि मेरे हाथ नंगे हैं, जल्‍दी से इनमें चूडि़यां पहनाओ’। सचमुच मैना के हाव-भाव और चू-चू की ध्‍वनि से जो अर्थ निकलता था, जोगिया की सीमित बुद्धि ने उसे ठीक ही प‍कड़ा था। आशय यह है कि मैना हमारे बीच रची-बसी थी। यही स्थिति गौरैया और बया की थी, बुल बुल और घुघुती (फाख्‍ता) की थी। गौरैया भी अत्‍यंत घरेलू किस्‍म की चिडि़या है, जो आदमी के साथ रहना पसंद करती है। बया की जो प्रजाति हमारे इलाके में मिलती थी, वह जरूर मानव बस्तियों से कुछ दूर रहती थी। लेकिन उसके घोंसले की अद्भुत कारीगरी देख कर हम हतप्रभ रह जाते थे।

जब से शहर और महानगरवासी हुए, धीरे-धीरे इन नभचर साथियों से दूर होते चले गए। पिछले ढाई दशक से तो महानगर दिल्‍ली में ही रहना हो रहा था। वहां धीरे- धीरे ये चिडि़यां गायब होने लगीं। पहले गौरैया गायब हुई। फिर धीरे-धीरे मैना भी आंखों से ओझल होने लगी। हालांकि मैना अब भी इक्‍का-दुक्‍का दिख जाती है, लेकिन उसका वह सहज साथ अब महानगरों में नहीं मिलता। आश्‍चर्य है कि दिल्‍ली जैसे शहर में पहाड़ी घुघुती का बिरादर फाख्‍ता प्रचुरता में दिख जाता है। बुल-बुल के जोड़ों से भी यदा-कदा मुलाकात हो जाती है। लेकिन गौरैया और मैना का लुप्‍त होना कुछ ज्‍यादा ही खलता है। मुझे लगता था कि गौरैया, महानगरों में भले ही न हो, गांव में तो मिलेगी। पिछले साल की ग्राम यात्रा के दौरान गौरैया को ढूंढता रहा, लेकिन वह नहीं मिली। पता नहीं, वह कौन से कीटनाशक और जहर उगलती गैसें हैं, जो लगातार इन निरीह जीवों को हम से छीन रही हैं। इधर जब से हल्‍द्वानी आना हुआ है, अद्भुत तरीके से मैनाओं के दर्शन हुए हैं। मैनाओं का यह रूप पहले कभी नहीं देखा। वे घरों के आस-पास तो ज्‍यादा नहीं दिखतीं लेकिन सुबह-सवेरे झुंड बनाकर एक छत से दूसरी छत और दूसरी छत से किसी अगले मकान की मुंडेर पर पहुंचती हैं और फिर जब वहां सब की सब इकट्ठे हो जाती हैं, तब आगे की उड़ान भरती हैं। चूंकि इस इलाके में मकान भी दूर-दूर स्थित हैं और सामने खूबसूरत पहाडि़यां हैं। इस तरह वे कई गांवों की सैर कर डालती हैं। पता नहीं उसके बाद कहां जाती होंगी। क्‍या वे भी जंगलवासी हो गई हैं। अपने गांव में शाम के वक्‍त पेड़ में उनका कलरव तो सुनते आए थे लेकिन इस तरह शोर करते हुए सुबह-सुबह इतनी लंबी सैर पर निकलना उन्‍हें अच्‍छा लगता है, यह मालूम नहीं था। यहां बया भी काफी हैं। ये बया मेरे गांव की बया से कुछ भिन्‍न हैं। क्‍योंकि इनके घोंसले में बाहर निकलने का छेद एकदम निचले सिरे पर होता है जबकि मेरे गांव वाली बया के घोंसले में खिड़की कुछ बीच में होती
फिर यह एकदम पालतू जैसी है। एक सुबह गांव की थी। पगडंडियों से गुजरते हुए देखा कि एक घर के बाहर
बया के घोंसले बंदनवार की तरह सजे हैं। और नन्‍ही बया भी आस-पास ही खूब उछल-कूद कर रही हैं। बया के अलावा यहां कई और चिडि़यां भी दिखाई पड़ती हैं, जो मानव बस्‍ती में रहने की आदी तो नहीं हैं लेकिन खेत-खलिहानों और जंगलों में दिखती हैं। कीटनाशक और जहरीली गैसों की मात्रा यहां भी कम नहीं है। बल्कि वे दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही हैं। फिर भी लगता है कि यहां की बया और यहां की मैनाओं ने उनका तोड़ निकाल लिया है। वे बची रहें। काश! गौरैया भी बची रह पाती।

प्‍लास्टिक की प्‍लेट


पिछले कुछ समय से एक चीज मन को कचोट रही है। गांव के गांव शहर में तब्‍दील तो हो रहे हैं पर उनमें नागर तौर-तरीके नहीं आ रहे हैं। जीने का सलीका अभी गांव का ही है। गांव का होना गलत नहीं है लेकिन शहर की उपभोग उन्‍मुखी जीवन शैली अपनाने के बाद कुछ नागर जिम्‍मेदारियां भी आनी चाहिए।

सुबह-सवेरे टहलने जाता हूं तो जगह-जगह कचरे को जला कर लोग आग सेक रहे होते हैं। क्‍या बाजार, क्‍या मोहल्‍ले वाले लोग, सबने कचरे को ठिकाने लगाने का एक आसान तरीका ढूंढ निकाला है- कचरे को जला दो। चूंकि ये गांव अपने रंग-ढंग से शहर बन गए हैं, लेकिन ये नगर पालिका जैसे किसी निकाय के अधीन नहीं आते। न ही लोगों को मालूम ही है कि शहरी जीवन के क्‍या तौर-तरीके होते हैं। लिहाजा कचरे जैसी मामूली (?) समस्‍या की तरफ कौन ध्‍यान दे। इसलिए लोगों को सबसे आसान तरीका लगता है जला देना।

छोटे शहर तो क्‍या, दिल्‍ली जैसे महानगरों में भी लोगों को नहीं मालूम कि जिस कचरे को वे जला रहे हैं, उससे निकलने वाले धुएं में कितने भयावह जहर घुले रहते हैं। दिल्‍ली में भी अकसर सुबह की सैर को निकलते वक्‍त देखता था कि सफाई कर्मी आस-पड़ोस के कई लोगों को साथ बिठाकर कचरे को जलाकर आग ताप रहे हैं। और उस कचरे में प्‍लास्टिक, पॉलीथीन, थर्मोकोल के टूटे-फूटे बरतन, प्‍लास्टिक की प्‍लेटें, गिलास, प्‍लास्टिक और जिंक कोटेड कागज, पाउच और थैलियां आदि होतीं हैं। इस कचरे से निकलने वाले धुएं को सूंघते हुए ये लोग आग सेकते रहते हैं। यहां हल्‍द्वानी में तो हर गली-मोहल्‍ले में कचरे को जलते हुए और आस-पास खेलते बच्‍चों और गपियाते बड़ों को देखता हूं तो कलेजा मुंह को आ जाता है। प्‍लास्टिक, पॉलीथीन और थर्मोकोल के जलने से जो धुआं निकलता है, उसमें हाइड्रोजन सायनाइड और क्‍लोरो फ्लोरो कार्बन जैसी गैसें होती हैं। यह परखी हुई बात है कि इन गैसों से कैंसर जैसे असाध्‍य रोग होते हैं। ये गैसें सेहत के लिए तो घातक होती ही हैं, पर्यावरण के लिए भी अत्‍यंत नुकसानदेह हैं। यह कोई नई बात नहीं है कि पॉलीथीन धरती के लिए भी घातक है और पानी के लिए भी। रंगीन पॉली बैग्‍स में लेड और कैडमियम जैसे रसायन होते हैं जो जहरीले और सेहत के लिए खतरनाक होते हैं। शहरों में लोग पॉलीथीन की थैलियों में बचा-खुचा खाना, सब्जियां और अन्‍य चीजें रख कूड़े में फेंक देते हैं। ऐसी जगहों पर गाएं अकसर मुंह मारती दिख जाती हैं। प्‍लास्टिक की थैलियां खाकर रोज गाएं मृत्‍यु को प्राप्‍त हो रही हैं। अकेले लखनऊ में ही रोज 60-70 गायें प्‍लास्टिक का कचरा खाकर मर जाती हैं। ग्रीनपीस नामक पर्यावरण हितैषी संगठन का अध्‍ययन बताता है कि प्‍लास्टिक बैग्‍स के कारण हर साल दस लाख चिडि़यां और एक लाख समुद्री जीव मारे जाते हैं। यानी हमारे आसपास पॉलीथीन बैग्‍स और उनसे निकलनेवाले धुएं के कारण कितने ही जीव विलुप्‍त हो चुके हैं और हो रहे हैं। हाल के वर्षों में जिस तरह से कैंसर का ऑक्‍टोपस महानगरों की देहरी लांघ कर गांवों में पहुंचा है, उससे यह साबित होता है कि प्‍लास्टिक और अन्‍य कीटनाशक अपना काम कर रहे हैं। हमारी सरकारें प्‍लास्टिक बैग्‍स पर प्रतिबंध तो लगा देती हैं लेकिन उसे लागू नहीं करवा पातीं। सवाल प्रतिबंध का नहीं है, उसे रीसाइकिल करने का है। अमेरिका में हमसे कहीं ज्‍यादा प्‍लास्टिक इस्‍तेमाल होता है लेकिन वहां उसका नुकसान उतना नहीं होता। क्‍योंकि वे प्‍लास्टिक को जहां तहां नहीं फेंकते, न ही जला कर आग तापते हैं। पर्यावरण के नाम पर मोटे अनुदान डकारने वाले एनजीओ भी इस बारे में कुछ नहीं सोचते।

गन्ने के खेत का संगीत

हल्द्वानी के जिस इलाके में मैं रहता हूँ, वह अत्यंत सुरम्य पहाडियों कि तलहटी में बसा है. मेरे घर के पीछे गन्ने का एक विशाल खेत है. गन्ने के इस खेत में सुबह सवेरे बहुत सारी चिडियाँ आ कर कलरव करने लगती हैं. कुछ बिलकुल छोटी, कुछ थोड़ी बड़ी और कुछ बहुत बड़ी. कुछ चिड़ियों को मैंने पहली बार इन्हीं खेतों में देखा. सुबह सवेरे जब इनका कलरव कानों में गूंजता तो मेरी नींद खुलती. कई बार फोटो लेने की कोशिश की, लेकिन बहुत सफलता नहीं मिली, क्योंकि शटर दबाते ही वे फुर्र हो जाती. और मैं और मेरी बेटी देखते ही रह जाते.
लेकिन पिछले दो दिनों से कुछ और ही माजरा दिखाई पड रहा है. चिड़ियों के कलरव की जगह स्त्रियों की गिटपिट सुनाई पड रही है. यानी देखते ही देखते गन्ने का आधा खेत साफ़ हो गया है. चिड़ियों के झुण्ड की ही तरह स्त्रियों का झुण्ड आता है, एक तरफ से गन्ने के खेत को काटता चला जाता है. वे पहले गन्ने को जड से काटती हैं, गन्ने के गन्ने धराशायी हो जाते हैं और उसके बाद उन्हें छीलने का काम शुरू होता है. कुछ काम हंसिया से होता है, कुछ काम हाथों से ही करना पड़ता है. हरे भरे खेत की जगह नंगा खेत देख कर सहसा विश्वास नहीं होता. बहुत बुरा लगता है. लेकिन यही प्रकृति का नियम है. वह तो शुक्र है कि यहाँ कुछ हरियाली बची हुई है, वरना हल्द्वानी के और इलाके धीरे धीरे कंक्रीट के जंगलों में बदलते जा रहे हैं. लोग आते है दिल्ली मुंबई से, जमीन के अनाप-शनाप दाम लगाते है. गरीब किसान इतनी बड़ी रकम देख कर पागल हो जाते हैं और जल्दी ही जमीन बिक जाती है. लगता है, एक दिन सारे खेत खत्म हो जायेंगे. फिर अन्न कौन उपजायेगा, लोग क्या खायेंगे? इसके बारे में कोइ नहीं सोच रहा.  
खैर आज सुबह बहुत देर तक जब मैं कन्ने काटती स्त्रियों को देखता रहा तो उसमें भी एक संगीत सुनाई पड़ा. खट-खट काटने का अलग संगीत और पत्ते छीलने का अलग संगीत. स्त्रियों की बातों का अलग संगीत. पहले मुझे लगा कि वे मजदूरिनें होंगी. जिन्हें खेत का मालिक मजदूरी पर लेकर आया है, लेकिन पड़ोसियों से पता चला कि ये औरतें उसी गाँव की हैं, जिस गाँव वाले का खेत है. स्त्रियां सहकार के आधार पर कटाई पर आयी हैं और बदले में मवेशियों के लिए पत्ते और घास ले जायेंगी. यहाँ के गांवों में अभी यह चलन बरकरार है, यह जानकार बहुत अच्छा लगा.  

मंगलवार, 3 जनवरी 2012

जय हो, नया साल शुभ हो

हिंदू समाज की पाचन शक्ति की दाद देनी पड़ेगी। दुनिया का कोई भी चलन यहां पहुंच कर अपने मूल स्‍वभाव को बदलने पर विवश हो जाता है। अब नए साल को ही लीजिए, क्‍या गांव क्‍या शहर, जम कर मनाया जा रहा है नया साल। बच्‍चे-बूढ़े जवान सब कह रहे हैं- हैप्‍पी न्‍यू ईयर। एक जमाना था, जब लोग कहते थे कि हिंदुओं का नया साल चैत में शुरू होता है, यह नया साल तो अंग्रेजों का है, इससे हमारा क्‍या। कोई बीस साल पहले की बात है, मैंने एक सज्‍जन को नए साल पर हैप्‍पी न्‍यू ईयर कहा तो उन्‍होंने तपाक से कहा कि यह तो हमारा नया साल नहीं है, हमें तो चैत के महीने में हैप्‍पी न्‍यू ईयर कहना। एक जमाना वह भी था, जब चैत्र के पहले दिन संवत्‍सर पाठ करने के लिए पंडित जी गांव-गांव आया करते थे और नए साल का गाल बता कर जाते थे.
लेकिन अब भाई लोगों ने अंग्रेजी न्यू ईअर का ही हिंदूकरण कर दिया है। इस बार पहली तारीख को दिल्ली से हल्द्वानी आते हुए इस बात की पुष्टि हुई! चूंकि रविवार का दिन था, इसलिए लोग नए साल के पहले दिन लोग मंदिरों की तरफ उमड़ पड़े थे. दिल्ली मन भैरों मंदिर, झंडेवाला मंदिर, हरे कृष्ण मंदिर, हनुमान मंदिर और जगह जगह छोटे-मोटे मंदिरों में जबरदस्त भीड़ थी. रेलवे स्टेशन के लिए ऑटो लिया तो जगह जगह ट्रैफिक जाम का सामना करना पड़ा. पता चला कि लोग आज नए साल पर मंदिरों की ओर  उमड़ पड़े हैं. यानी अब अंग्रेजों के नए साल को हमने हिंदू धर्म में लपेट लिया है.
दिल्ली से हल्द्वानी पहुंचा तो दूसरे दिन यानी नए साल के पहले कार्य दिवस पर ऑफिस में सुन्दर कांड का पाठ कराया गया. करीब डेढ़ घंटे तक चली इस पूजा-अर्चना के बाद प्रसाद बांटा गया और लड्डुओं का भोग लगा. धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, का जयघोष हुआ. सुना कि और दफ्तरों में भी कुछ कुछ ऐसे ही आयोजन हुए. यानी अब घर-दफ्तर सब जगह नए वर्ष ने धार्मिक आयोजन का रूप ले लिया है. यही हिंदू धर्मं की खासियत है.         

रविवार, 1 जनवरी 2012

नया साल मुबारक

हैप्‍पी न्‍यू ईयर। एक उद़योग बन गया है आज यह शब्‍द। पूरे यूरोप–अमेरिका में भी इतने मैसेज नहीं भेजे जाते होंगे जितने भारत में भेजे जाते हैं। पता नहीं इसमें हैप्‍पी न्‍यू ईयर के पीछे का भाव कितना होता होगा। बहुत से लोग इसे भी दिवाली के गिफ़ट की तरह एक अवसर मानते हैं, किसी बड़े ओहदेदार से नजदीकी बढ़ाने का। 

पिछले साल तक एसएमएसों का जवाब देते-देते मेरी भी अंगुलियां थक जाया करती थीं। तीन-चार दिन तक जितनों के जवाब दे दिए, दे दिए, बाकी को कुछ दिनों बाद मिटा देना पड़ता था। इस चक्‍कर में कई जेनुइन एसएमएस भी मिट जाते थे। इस बार कुछ कम आए। लोगों को लग गया, अब यह किसी काम का नहीं रहा। वैसे जितने आए, वे वही थे, जो सचमुच मुझे चाहते रहे हैं। फिर भी कई दोस्‍तों के एसएमएस नहीं लौटा पाया, जिसका मलाल रहेगा। उनसे माफी चाहता हूं।

मुझे उन लोगों से वाकई रश्‍क होता है, जो हर एसएमएस का तत्‍काल तीन अक्षर में लघुतम जवाब दे देते हैं। ऐसे लोगों की मैं दाद देता हूं। वे लोग दुनियादार होते हैं। और सफल भी। लेकिन ज्‍यादा सफल वे लोग होते हैं, जो इस आपाधापी के बावजूद प्‍यार के दो बोल लिख देते हैं। लेकिन कुल मिलाकर यह है एक यांत्रिक प्रक्रिया ही। आपने एक दिन में 500 लोगों को एसएमएस लिख दिए, कौन सी बड़ी बात है। भाव तो उसमें होता नहीं। एक मजबूरी ही होती है।

हालांकि मैंने ऐसे लोग भी देखे हैं, जो किसी बड़े आदमी के ऐसे तीन अक्षरी भावहीन एसएमएस को भी संभाल कर रखते हैं और अक्‍सर दोस्‍तों को दिखाते नहीं थकते। एक दोस्‍त अमिताभ बच्‍चन का एक ही एसएमएस बार बार दिखाते रहते हैं। तो एक दोस्‍त देवानंद का। क्‍या किया जाए। जो चीज एक आदमी के लिए मजबूरी है, वह दूसरे के लिए उपलब्धि भी बन जाती है। फिर भी मुझे ऐसे लोग बुरे नहीं लगते जो ऐसे एसएमएसों का जवाब नहीं देते। लेकिन मैं उस नई चीज का इंतजार कर रहा हूं, जो एसएमएस का भी तोड़ निकाल कर उसे अप्रासंगिक करार देगी। जैसे एसएमएस ने ईमेल को और ईमेल ने ग्रीटिंग कार्ड को अप्रासंगिक बना दिया है। लेकिन नया साल भी है बड़ी गजब चीज।    ---- जारी