गुरुवार, 18 मई 2017

वीरेनदा: एक सौ फीसदी इंसान

संस्मरण/ गोविन्द सिंह
28 सितम्बर, 2015 को हिन्दी के अत्यंत सर्जनशील कवि और पत्रकार वीरेन डंगवाल का निधन हुआ. उसके कुछ ही दिन बाद ‘आधारशिला’ के लिए यह संस्मरण-लेख लिखा गया था जो कि अब जाकर छप पाया है. यहाँ इसे पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है, 'आधारशिला' से साभार:  


एक कवि के रूप में वीरेन डंगवाल को चाहने वालों की जितनी बड़ी फ़ौज होगी, उससे कहीं बड़ी फ़ौज उन्हें एक सम्पादक-पत्रकार के रूप में चाहने वालों की है. वह भी तब जबकि उन्होंने कोई बहुत ज्यादा पत्रकारीय लेखन नहीं किया, लम्बे समय तक नियमित सम्पादक नहीं रहे. उन्होंने अपने शुरुआती दिनों में कुछ अरसा नियमित पत्रकारिता की थी. उसके बाद वे बरेली में प्राध्यापक बन गए. लेकिन पत्रकारिता से उनका रिश्ता बना रहा, अमर उजाला में बतौर सलाहकार सम्पादक के. कुछ समय वे अपनी नियमित नौकरी से छुट्टी लेकर अमर उजाला के कानपुर संस्करण के सम्पादक बनकर भी गए लेकिन जल्द ही लौट आये. बरेली संस्करण में उनका नाम बतौर सम्पादक जाता था. लेकिन वहाँ वे शाम को कुछ घंटे ही जाते थे. सम्पादक की तरह नियमित बैठने की बाध्यता नहीं थी. जैसे-जैसे अमर उजाला कॉर्पोरेट घराने में तब्दील होने लगा, उनका यह दायित्व भी कम होने लगा. हालांकि अमर उजाला के स्वामियों के लिए वे सदैव एक सलाहकार बने रहे.
इसके बावजूद हिन्दी पत्रकारिता में उनका एक बड़ा कुनबा है. ऐसे अनेक युवा पत्रकार मिल जायेंगे, जो कहेंगे कि हम वीरेन दा के बनाए हुए हैं या उनकी धारा के पत्रकार हैं, हमें तो वीरेन दा ही इस पेशे में लाये. वर्ष 2005 में अमर उजाला ज्वाइन करने से पहले मुझे वीरेन दा की इस हैसियत का पता नहीं था. हालांकि उनसे मेरी पहली मुलाक़ात 1990 में हो चुकी थी. पर तब मैं उन्हें हिन्दी के एक अत्यंत सृजनशील कवि के रूप में ही जानता था. हालांकि मैं यह भी जानता था कि वीरेन दा अमर उजाला समूह के सलाहकार हैं. पर मुझे यह नहीं पता था कि हिन्दी के युवा पत्रकारों का एक बड़ा समूह उन्हें अपना सरपरस्त मानता है. एक पार्ट टाइम पत्रकार के लिए यह बहुत बड़ी बात थी. सोचिए यह कैसे हुआ होगा.
वे वामपंथी धारा के पत्रकार थे. लेकिन पत्रकारिता में कदम रखने वाले किसी भी युवक के लिए, चाहे वह किसी भी विचारधारा का हो, वे समान रूप से गाइड ही थे. खबरों में वे निष्पक्षता के पक्षधर थे. उनके रहते कभी यह नहीं लगा कि अमर उजाला जनवादी अखबार हो. लेकिन अमर उजाला को जड़ों से जोड़ने और उसकी एक निष्पक्ष छवि बनाने में उनकी बड़ी भूमिका थी. जब हिन्दी अखबारों से साहित्य गायब हो रहा था, तब उन्होंने आखर नाम से साहित्य का पेज निकाल कर अमर उजाला में साहित्य को जीवित रखा. वे हर नए व्यक्ति के साथ बेहद गर्मजोशी के साथ मिलते. जिसमें थोड़ी भी पत्रकारीय संभावना होती, उसे आगे बढाने की जिम्मेदारी लेते. मालिकों से उसकी सिफारिश करते और जहां भी गुंजाइश हो, उसे काम पर लगवा देते. यही नहीं, वे उसके काम पर नजर रखते और विचलन से बचाते. अमर उजाला से बाहर काम कर रहे पत्रकारों पर भी उनकी पैनी नजर रहती और जब भी मिलते, अपनी टिप्पणियों से उन्हें दिशा देने का काम करते. इसलिए बरेली, आगरा, मेरठ, कानपुर और उत्तराखंड में काम कर रहे पत्रकारों पर उनकी गहरी छाप पड़ी. आज ये पत्रकार देश के तमाम शहरों में पत्रकारिता के जरिये नाम कमा रहे हैं.
जब मैंने अमर उजाला ज्वाइन किया तब श्री शशि शेखर प्रधान सम्पादक बन चुके थे. अमर उजाला क्षेत्रीय से राष्ट्रीय बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा था. मालिकान उसे एक पेशेवर अखबार बनाना चाहते थे. अखबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लग चुका था. अखबार की पुरानी धारा के लोग उसकी इस प्रगति से इत्तेफाक नहीं रखते थे. उत्तराखंड में मैं जहां भी जाता, अखबार से जुड़े पुराने लोग नए निजाम की शिकायत करते. मुझे लगा कि वीरेनदा भी खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. एक बार उन्होंने मालिकों से इस्तीफे की पेशकश भी की. लेकिन वह नहीं मानी गयी. एक बार वे नोइडा में अमर उजाला के नए दफ्तर में मालिकान से मिलने पहुंचे. वे अन्दर से भरे हुए थे. अतुल जी और राजुल जी से मिलकर आये. मन का सारा गुबार उंडेल दिया. जितनी खरी-खोटी सुना सकते थे, सुना आये. नीचे हमारे पास आकर बोले, आज मैंने जो कहना था, कह दिया. ऐसा कहते हुए वे लगभग काँप रहे थे. पहली बार मैंने वीरेनदा जैसे मस्तमौला व्यक्ति को इस कदर गंभीर देखा. लेकिन अखबार जिस दिशा में कदम बढ़ा चुका था, वहाँ से लौटना मुश्किल था. तभी बरेली में एक ऐसे प्रभारी सम्पादक की नियुक्ति हुई, जो उनकी बात नहीं मान रहा था. एक घटना पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया. और यह इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया. यह वर्ष २००८-09 की बात होगी. उसके बाद बरेली संस्करण में सम्पादक की जगह मेरा नाम छपने लगा. दूसरे दिन वीरेनदा का फोन आया, उन्होंने मुझे मुबारबाद दी. और नियमित रूप से बरेली आकर काम करने का आग्रह किया. लेकिन मुझे वहाँ जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी. लगभग डेढ़ साल मेरा नाम सम्पादक के रूप में छपा, मैं कभी वहाँ नहीं गया.

वर्ष २००९ के उत्तरार्ध में जब प्रधान सम्पादक शशि शेखर अमर उजाला छोड़ कर हिन्दुस्तान चले गए, तो वीरेन दा एक बार फिर अमर उजाला के सलाहकार बन गए. 2010 में मैंने भी अमर उजाला छोड़ दिया. उन्होंने मुझे रोकने की बहुत कोशिश की. हिन्दुस्तान जाने के बाद भी वे मुझे वापस लाना चाहते थे. अतुल जी के निधन के बाद राजुल जी ने उन्हें अमर उजाला बोर्ड में निदेशक बना दिया. इस तरह अमर उजाला की नयी यात्रा की रूपरेखा बनाने में लग गए. इसी बीच उनकी सेहत गडबडाने लगी. पहले कैंसर और बाद में दिल की बीमारी ने उन्हें बुरी तरह तोड़ दिया. बीमारी के ही दिनों में एक बार बरेली जाकर उन्हें देखने का मौक़ा मिला. हमें देखकर उनके चेहरे पर वैसी ही खुशी देखी, जैसी एक बच्चे में होती है. निष्कलुष और पारदर्शी खिलखिलाहट. ऐसे  100 फीसदी इंसान कम ही होते हैं, पत्रकारिता में तो दुर्लभ हैं.   

बुधवार, 17 मई 2017

देविका का तट और पुरमंडल के शिवलिंग

तीर्थ/ गोविन्द सिंह
उमा-महेश का प्राचीन शिव मंदिर 
आज कुछ जल्दी घर आ गया. शाम को रोज की तरह टहलने का मन हुआ. श्रीमती बोलीं, क्यों न आज गाड़ी में कुछ आगे तक चलें, बाद में बाजार भी हो आयेंगे. कई दिनों से हम शाम को टहलते हुए एक नए रास्ते पर चलने की सोच रहे थे, जो अपेक्षाकृत सुनसान था. मुझे पता चला कि यह रास्ता पुरमंडल को जाता है. 
शिवलिंग ही शिवलिंग 
कुछ दिनों पहले अपने छात्रो से पुरमंडल के बारे में कुछ अच्छा-सा सुना था. उन्होंने बताया कि वहां श्मसान भी है. वे इसे प्रमंडल कह रहे थे. मुझे लगा कि यह कोई 5-6 किलोमीटर दूर होगा, इसलिए गाड़ी से टहल आया जा सकता है. हम निकल पड़े. 4-5 किलोमीटर के बाद ही जंगल का इलाका शुरू हो गया. दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था. चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर इक्का-दुक्का घर दिख जाते. चलते-चलते कोई 20 किलोमीटर आ गए. कई बार लगा कि शायद हम किसी गलत रास्ते पर जा रहे हैं. लेकिन सात बजते-बजते हम वहाँ पहुँच गए. अद्भुत जगह लगी.
काशी-विश्वनाथ मंदिर 
देविका नदी के दोनों किनारों पर बसा यह तीर्थ कोई 2500 साल पुराना बताया जाता है. देविका नदी के नाम पर रेत की सड़क दिखी. लोग इसे सड़क की ही तरह इस्तेमाल भी कर रहे थे. हमने भी प्राचीन शिवमंदिर के सामने रेत की नदी के ऊपर गाड़ी खड़ी कर दी. मंदिर परिसर में अनेक प्राचीन खंडहर मौजूद हैं. मुख्य मंदिर के गर्भगृह के बीचोबीच एक कुंड है, जिसके भीतर नाग-प्रतिमा का फन दिखाई दे रहा था. पुजारी मिंटू शर्मा ने बताया कि उमा-महेश की प्रतिमा जल में डूबी हुई है. उन्होंने यह भी बताया कि चाहे इसमें कितना ही जल चढ़ा दो, इसका स्तर इतना ही रहता है. साथ में काशी-विश्वनाथ मंदिर भी है, जिसमें वाराणसी की तर्ज पर मूंछों वाले शिव बिराजमान हैं. 
जगह-जगह शिवलिंगों के गलियारे हैं. 11-11 शिवलिंगों के समूह हैं, जो अद्भुत छटा बिखेरते हैं. शर्मा जी ने बताया कि यहाँ कुल 1337 शिवलिंग हैं. वैसे पूरे पुरमंडल क्षेत्र में 1421 हैं. मुख्य मंदिर के पीछे की तरफ एक गीदड़ी प्रतिमा भी दिखाई पड़ी. गीदड़ी अर्थात मादा गीदड़. जिसे मारने की वजह से यहाँ के राजा को गीदड़ी का श्राप लगा और बदले में श्राप से उबरने के लिए उन्हें ये मंदिर बनवाना पडा. हजारों साल पहले. आज इस गीदड़ी की भी पूजा होती है. एक गीदड़ी को भी देवी का दर्जा इसी देश में मिल सकता है!
गीदड़ी देवी की प्रतिमा 
मंदिर से नींचे नदी तट पर उतरे तो चायवाले से कुछ और जानकारी ली. एक रिटायर्ड सरकारी अधिकारी जवाहर लाल बडू मिले, जिनके पिताजी 97 साल की उम्र में वहीं पर बिना चश्मे अखबार पढ़ रहे थे. उन्होंने बताया कि देविका नदी पार्वती की बड़ी बहन है, जिसे हम गुप्त गंगा भी कहते हैं. बरसात के मौसम को छोड़ दिया जाए तो बाकी समय यह धरती के अन्दर चली जाती है. आप देखिए, दो-तीन इंच नींचे ही नदी मिल जायेगी. चाय आने से पहले श्रीमती जी ने यह प्रयोग भी कर डाला. अंगुली से ही दो इंच नीचे खोदा तो उन्हें नदी मिल गई. वो बड़ी प्रसन्न हुईं. उन्होंने जल छिड़क कर मुझे और स्वयं को धन्य किया. सामने ही एक लाश जल रही थी. बडू जी ने बताया कि लाश के अंतिम अवशेषों को यहीं रेत में दबा दिया जाएगा. कल तक वे गायब हो जायेंगे. यहाँ पर अंतिम क्रिया का महत्व हरिद्वार से भी ज्यादा है. यहाँ अंतिम क्रिया के बाद हरिद्वार ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती.  

अँधेरा घिरने लगा था. हम लौट आये. अचानक ही, बिना किसी योजना के हम ऐसी अद्भुत जगह देखकर सुखद आश्चर्य से भर गए थे.