सोमवार, 25 जून 2012

ऊफ! ये सड़क किनारे के ढाबे

सफर/ गोविंद सिंह
रेल से रिजर्वेशन न मिलने पर अक्सर बस में सफर करने का ‘सुअवसर’ मिलता रहता है. दिल्ली से हल्द्वानी और हल्द्वानी से दिल्ली. हालांकि दिल्ली से चंडीगढ़, जयपुर और  देहरादून के बीच भी अनेकानेक बस यात्राएं की हैं, लेकिन इधर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की बसों से यात्रा करना बड़ा ही कष्टदेह होता जा रहा है. बसों की हालत खराब, उनमें शायद ही कभी सफाई होती हो. ड्राइवर-कंडक्टर का व्यवहार बड़ा ही रूखा. रात में कहीं भी वे बस को रोक दे सकते हैं. कहीं भी खराबी आने की घोषणा कर सकते हैं. कहीं भी टायर पंचर हो सकता है और आप सड़क में खड़े रहने पर मजबूर हो सकते हैं. सबसे खराब है रात को खाने के लिए कहीं भी, कैसे ही गंदे ढाबे के सामने गाड़ी रोक देना. ऐसे में आप कहीं और जा भी नहीं सकते.
आजकल सड़क किनारे तीन तरह के ढाबे यानी खाने की जगहें हैं. एक बहुत हाई स्टैण्डर्ड के मोटल. वहाँ आम तौर पर लंबे सफर पर जाने वाली कारें या वोल्वो जैसी एसी बसें रुकती हैं. इन जगहों पर अच्छा खाना मिलता है. लेकिन वे इतने महंगे हैं कि खाने के बाद कपडे उतरवा लेते हैं. दूसरे, इकट्ठे चार-छः ढाबों का समूह होता है. वे आम तौर पर साधारण ढाबे होते हैं. न अच्छे, न बुरे. भोजन की क्वालिटी की तुलना में उनके रेट ज्यादा ही होते हैं, फिर भी आप उन्हें झेल सकते हैं. गजरौला, मुरथल आदि के ढाबों को आप इस श्रेणी में रख सकते हैं. तीसरे, ऐसे ढाबे हैं, जो कहीं सुनसान जगह पर अकेले होते हैं, वहाँ खाना बेहद खराब मिलता है और रेट अनाप-शनाप होता है. दुर्भाग्य से साधारण किराया वाली बसें ऐसी ही जगहों पर खाने के लिए रुकती हैं. उन्हें तो खाना मुफ्त मिलता है. लेकिन बाक़ी यात्रियों को मजबूर होकर इन जगहों पर खाना पड़ता है. वे खाना खाते हुए भी ड्राइवर-कंडक्टर को कोसते हैं और पैसे चुकाते वक्त भी. लेकिन वे कुछ बोल भी नहीं सकते. यहाँ ड्राइवर-कंडक्टर की फुल दादागीरी चलती है. मुझे अक्सर ऐसी जगहों पर खाना खा कर दस्त लग जाते हैं या एसिडिटी हो जाती है. ऐसा ही औरों के साथ भी होता होगा.
मुझे आज तक यह बात समझ नहीं आयी कि ड्राइवर-कंडक्टर के लिए सरकार यह अनिवार्य क्यों नहीं कर देती कि वे अधिकृत ढाबों पर ही गाड़ी रोकें. लोगों के भोजन के साथ खिलवाड़ करना जघन्य अपराध है, फिर क्यों ऐसे ड्राइवर-कंडक्टर को सस्पेंड नहीं किया जाता. सड़क किनारे उग आये इन ढाबों की भी सही जांच शायद ही कभी होती हो. इनमें जो मक्खन मिलता है, वह कितना सही है, जो पनीर होता है, वह कहाँ तक सिंथेटिक है और कहाँ तक असली. तेल, मसाले और खाद्यान्न की भी जांच  नियमित तौर पर होती रहनी चाहिए. विदेशों, खास कर पश्चिमी देशों में अक्सर लोग बाहर और स्ट्रीट फ़ूड ही खाते हैं. लेकिन वे तो बीमार नहीं होते. क्योंकि वहाँ क्वालिटी कंट्रोल रखा जाता है. सरकार के जांच कर्मी ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं. लेकिन अपने यहाँ रिश्वत के आगे सब झुक जाते हैं, फिर चाहे कोई हमारे पेट पर ही क्यों न डाका दाल रहा हो! 

गुरुवार, 7 जून 2012

जलते पहाड़ और उदासीन व्यवस्था

पर्यावरण/ गोविंद सिंह
इस बार की पहाड़-यात्रा के दौरान कुछ अच्छा-सा नहीं लगा. हल्द्वानी से रानीखेत होते हुए कौसानी और वहाँ से बागेश्वर, गंगोलीहाट, थल, डीडीहाट होते हुए पिथौरागढ़ और फिर वापस हल्द्वानी! एक भी इलाका ऐसा नहीं दिखा, जहां आग न लगी हो. पानी की भारी किल्लत और जबरदस्त गर्मी. दिन में जंगली रास्तों में तो धुएं का सामना करना पड़ा ही, सुबह-शाम को भी शुद्ध ताजा हवा की जगह धुआं और बदबूदार हवा ही नसीब हुई. पता चला कि इसी बीच सोनिया गांधी कौसानी पहुँची, उन्हें सूर्योदय नहीं दिखा. दिखता भी कहाँ से. पर्वत श्रृंखलाएं धुंध से आच्छादित जो हैं. कौसानी में हमने देखा कि पर्यटक सुबह चार बजे से ही सूर्योदय देखने के लिए पंचचूली पर्वतमाला की तरफ टकटकी लगाए हुए थे, लेकिन उनके हिस्से धुआं ही धुआं आया. यही हाल चौकोड़ी का था. और तो और, जिस हिमालय को देखने लोग दूर-दूर से आते हैं, उसके दर्शन से भी वे वंचित ही रहे. सचमुच बहुत दुख हुआ. दुःख यह देख कर भी हुआ कि जंगल की आग उत्तराखंड के लिए कोई मुद्दा नहीं है. कहीं किसी राजनेता का बयान या चिंता नहीं सुनाई पड़ी. सरकारी अफसर शहरों के आस-पास तो सक्रिय दिखाई देते हैं, लेकिन दूर-दराज के अंचलों में उनका नामो-निशाँ तक नहीं दिखाई पड़ता.
इस साल गर्मी शुरू होते ही पहाड़ों में आग लगनी शुरू हो गयी थी. चूंकि बारिश बहुत कम हुई, इसलिए गर्मी के चढ़ते ही आग की घटनाएं बढ़ने लगीं. इस समय लगभग पूरे उत्तराखंड में आग लगी हुई है. गढवाल क्षेत्र में टोंस घाटी, अपर यमुना घाटी, बड़कोट, उत्तरकाशी, चकराता, देहरादून, मसूरी, टिहरी, केदारमठ, रुद्रप्रयाग, नंदादेवी, बदरीनाथ मार्ग, नरेन्द्र नगर, राजाजी नेशनल पार्क, हरिद्वार, लेंसडोंन, कोर्बेट रिजर्व, पौड़ी, अल्मोड़ा, बागेश्वर, विनसर, पिथौरागढ़, चम्पावत, नैनीताल आदि शायद ही कोई इलाका हो जो दावानल के प्रकोप से बचा हो. यदि जल्दी बारिश नहीं हुई तो यह और फैलेगी. उत्तराखंड में कुल ३४,६५,००० हेक्टेअर यानी कुल क्षेत्रफल के ६१ प्रतिशत इलाके में वन हैं. यदि सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें तो इस साल १५०० हेक्टेअर जंगल जल चुके हैं.  ७० से अधिक वनों में आग की १४०० घटनाएं घट चुकी हैं.  पौड़ी और बागेश्वर जिले में एक-एक मौत और कई लोग घायल हो चुके हैं. जबकि पिछले साल सिर्फ २३२ हेक्टेअर वन भूमि में ही आग लगी थी. हालांकि जितने व्यापक पैमाने पर आग लगी हुई है, उसे देखते हुए सरकार के इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं होता. वर्ष २००३ और २००४ में ४७००, ४८०० हेक्टेअर जंगल आग से स्वाहा हुए थे, इस बार भी दावानल का वैसा ही रूप दिखाई पड़ रहा है. पिछले आठ-दस साल से तो हम ही इस मौसम में अपने गाँव जाते रहे हैं. लेकिन इतना धुआं कभी नहीं दिखा.
ऐसा नहीं है कि आग पहले नहीं लगती थी. आग पहले भी लगती थी, लेकिन तब लोग और शासन इतने उदासीन नहीं दिखाई पड़ते थे. फिर वह इस कदर भाबर से बद्रीनाथ-केदारनाथ तक नहीं फैला करती थी. पहले आग लगती थी तो लोग उसे बुझाने को निकल पड़ते थे. लेकिन अब वे उसके प्रति या तो उदासीन हो गए हैं या वे भी आग लगाने वालों के गिरोह में शामिल हो गए हैं. इसकी सबसे बड़ी  वजह  यह है कि वन कानूनों के चलते गाँव वासियों को अब वनों से एकदम बेदखल कर दिया है. पहले वे अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए वनों पर निर्भर रहा करते थे और बदले में वनों की रखवाली भी करते थे. अब वनों पर उनका अधिकार नहीं रहा तो वे भी वनों के प्रति उदासीन हो गए हैं. सरकारी अफसर कह रहे हैं कि ९० प्रतिशत घटनाओं में खेती वाली आग ही जंगलों में पहुँच कर विकराल रूप धारण कर लेती है. लेकिन वे यह नहीं बताते कि ऐसा क्यों हो रहा है. यह सच है कि ग्रामीण रबी की फसल के बाद अपने खेतों में आग लगाते रहे हैं, ताकि धरती की उर्बरा शक्ति बेहतर हो सके. साथ ही वे अपनी बंजर जमीन में भी आग लगाते थे ताकि चारे के लिए घास पैदा हो सके. लेकिन पहले यह आग जंगल तक नहीं पहुँचती थी क्योंकि चीड़ के पेड़ गाँव की परिधि में नहीं थे. हाल के वर्षों में चीड़ ने जबरदस्त घुसपैठ की है. वह १००० फुट तक नीचे उतर साल वनों में घुस आया है. तो ७००० फुट ऊपर तक भी पहुँच गया है, जहां बांज-बुरांस और देवदार के जंगल थे. जहां चीड़ पहुंचा है, वहाँ आग पहुँची है. आज चार लाख हेक्टेअर क्षेत्र में चीड़ पसर चुका है. इतने ही क्षेत्र को वह दूषित कर चुका है. हर साल २१ लाख टन पिरुल यानी चीड़ की ज्वलनशील पत्तियां झड जाती हैं, जिसको ठिकाने लगाने की कोई व्यवस्था नहीं है. कौसानी में लक्ष्मी आश्रम की अध्यक्ष राधा बहन बोलीं, अब तो सरकार को गंभीरता से हिमालय की वन नीति पर पुनर्विचार करना ही चाहिए. चीड़ को जब तक खत्म नहीं करेंगे, तब तक वनों को नहीं बचाया जा सकता है. क्योंकि चीड़ की प्रज्ज्वलनशील पत्तियां अर्थात पिरूल ही आग का असली कारण हैं. चीड़ के सूखे फल दूर-दूर तक गिरकर जंगल में आग फैलाने का काम करते हैं. फिर चीड़ किसी और वनस्पति को अपने आस-पास नहीं पनपने देता. जंगल की सारी नमी को सोख लेता है. ऐसा खुश्क जंगल आग पकड़ने के लिए उर्वर होता है. इसलिए जंगल की आग का ७५ फीसदी कारण चीड़ का वृक्ष है. हम तो गाँव-गाँव में यही कह आये कि चीड़ उखाडोगे तो पुण्य मिलेगा.
जंगल की आग के विकराल होने के पीछे एक कारण यह भी है कि हाल के वर्षों में उसे सुलगाने और फैलाने वालों का एक गिरोह भी बन गया है. उसमें सरकारी मुलाजिम भी हैं और ग्रामवासी भी हैं. इनके लिए आग एक जरूरत बन गयी है. हर साल उसका एक बजट बनता है. यह गिरोह इस बजट को ठिकाने लगाने की फिराक में रहता है. आग रोकने के लिए उपकरण लिए जाते हैं, लोगों को अस्थायी नौकरी पर रखा जाता है. यह सब कागज़ पर पूरा हो जाता है. और आग सारी खानापूरी कर लेती है. सरकार कह रही है कि उसने पर्याप्त उपकरण खरीदे हैं, आग बुझाने  के लिए समुदाय आधारित प्रणाली विकसित कर ली है, आग के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाये हैं. मास्टर कंट्रोल रूम बनाए, तरह-तरह के उपकरण खरीदे गए, आग संभावित क्षेत्रों का जीआईएस मानचित्र तैयार किया गया. लेकिन यह सब कागजों में ही हुआ होगा, क्योंकि आग लगने पर न इन उपकरणों का इस्तेमाल किसी ने देखा और न ही आग बुझाने को कोई आगे ही आया!
दरअसल न सरकार और न ही जनता यह जानती है कि वे आग के प्रति इस बेरुखी से मानव जाति का कितना नुकसान कर रहे हैं! पहाड़ों में इस बार हमें न कफुवा पक्षी का गान सुनाई दिया और न ही काफल पाको का गीत. न्योली यानी पहाड़ी कोयल भी अब अपने विरह गीत सुनाने को कोई और ठिकाना तलाश रही है. कितनी वनस्पतियां, कितनी औषधीय प्रजातियां ख़ाक हो जाती हैं, कितने वनचर, नभचर अकाल मौत के शिकार हो जाते हैं, इसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता. पहाड़ के जलस्रोत सूख रहे हैं. तापमान लगातार बढ़ रहा है. भूजल-स्तर लगातार गिर रहा है. भू-स्खलन भी इसीलिए बढ़ रहे हैं और चारे की समस्या बढ़ रही है. बीमारियाँ फ़ैल रही हैं. लेकिन हमारे नीति-नियंता अपनी राजनीति में व्यस्त हैं. शहरों में पर्यावरण दिवस मनाने से क्या होगा जब जंगल ही रेगिस्तान में बदल रहे हों! (अमर उजाला, ७ जून, २०१२ से साभार) 

बुधवार, 6 जून 2012

मुनाफाखोर विश्वविद्यालयों के दौर में मुफ्त शिक्षा की बात


उच्च शिक्षा/ गोविंद सिंह

पिछले दिनों ब्रिटेन से एक खुशनुमां खबर आई. वहाँ के कुछ प्राध्यापकों ने यह फैसला किया कि वे मिलजुल कर एक ऐसा विश्वविद्यालय खोलेंगे, जहां मुफ्त में शिक्षा दी जायेगी. ये लोग भी हमारी-आपकी तरह महंगी होती उच्च शिक्षा से दुखी थे, लिहाजा ४० अध्यापकों ने यह फैसला किया कि वे मुफ्त विश्वविद्यालय खोलेंगे और उसमें वालंटीअर बन कर बिना मेहनताने के पढाएंगे. अभी इस विश्वविद्यालय के छात्रों को डिग्री नहीं मिलेगी लेकिन उन्हें स्नातक, परास्नातक और डाक्टरेट स्तर की एकदम वैसी ही शिक्षा दी जायेगी, जैसी कि ब्रिटेन के आला दर्जे के संस्थानों में दी जाती है. उनकी इस मुहिम से जुड़ने वालों की संख्या दिनोदिन बढ़ रही है.

यह विचार केवल ब्रिटेन के कुछ अध्यापकों के मन में आया हो, ऐसा नहीं है. जिस तरह से दुनिया भर में शिक्षा खरीद-फरोख्त की वस्तु बन गयी है, उसने यह चिंता पैदा कर दी है कि आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा? क्या शिक्षा सचमुच गरीब की पहुँच से दूर छिटक जायेगी?भारत ही नहीं, यूरोप-अमेरिका में भी यह आम धारणा है कि उच्च शिक्षा महंगी हो रही है. शिक्षा ऋण बेतहाशा बढ़ रहा है. उसकी वसूली दिन-प्रति-दिन मुश्किल होती जा रही है. इस तरह मुक्त मंडी की अवधारणा भी धराशायी हो रही है. सपना यह था कि मुक्त मंडी यानी बाजारवाद में सब कुछ बाजार की शक्तियां नियंत्रित करेंगी. जिसके पास प्रतिभा होगी, वह आगे बढ़ेगा और प्रतिभाहीन व्यक्ति पिछडता जाएगा, भलेही वह कितना ही अमीर क्यों न हो. लेकिन हो इसके उलट रहा है. जिसके पास धन है, पूंजी है, वह पढ़ रहा है और आगे बढ़ रहा है. बाक़ी लोग वंचित रह जा रहे हैं, भलेही वे कितने ही प्रतिभावान क्यों न हों. इस व्यवस्था में भी प्रतिभाएं उसी तरह से वंचना की शिकार हैं, जैसे कि इससे पहले की व्यवस्था में. उसमें फिर भी धन का ऐसा नंगा नाच नहीं था. यह शिक्षा नए सिरे से संपन्न और विपन्न वर्ग पैदा कर रही है.
पिछले साल अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि मेरा सपना है कि हर नागरिक को विश्व स्तरीय शिक्षा उपलब्ध हो. यदि यह एक काम भी हम कर पाए तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.ऐसे ही मकसद से वर्ष २००९ में अमेरिका के कैलिफोर्निया में पीपुल्स यूनिवर्सिटी नाम से एक मुफ्त ऑनलाइन यूनिवर्सिटी शुरू की गयी. इसमें छात्रों से कोई ट्यूशन फीस नहीं ली जाती सिर्फ पाठ्य सामग्री की लागत भर ली जाती है. यहाँ पाठ्य सामग्री का स्तर तो ऊंचा है, लेकिन क्लास रूम जैसा अनुभव नहीं. यहाँ भी प्राध्यापक लोग स्वयंसेवक ही हैं, यानी जो लोग बिना मेहनताने की उम्मीद के पढ़ाना चाहते हैं, वे ही यहाँ सेवा दे रहे हैं. अच्छी बात यह है कि उन्हें ऐसे अध्यापक मिल भी रहे हैं.
असल में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो घोर पूंजीवाद के इस युग में भी मुफ्त सेवा देने को तत्पर हैं. गूगल वाले, विकिपीडिया वाले, शब्दकोष वाले, कविता कोष वाले भी अंततः स्वयंसेवा भाव से काम करवा ही रहे हैं. ऐसे लोगों की सचमुच कमी नहीं है, जो परोपकार के भाव से अपना ज्ञान और अनुभव बांटना चाहते हैं. इसलिए यदि आप किसी नेक काम के लिए पवित्र भाव से आगे बढ़ते हैं तो लोग आपकी मदद के लिए स्वतः आगे आ जाते हैं. आखिर पंडित मदन मोहन मालवीय ने चंदे से एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय खडा किया ही. आजादी से पहले गुरुकुल कांगडी बना, डी ए वी आंदोलन खडा हुआ. दुर्भाग्य से आजादी के बाद उच्च शिक्षा को घोर उपेक्षा का शिकार होना पड़ा. स्कूली शिक्षा में तो कुछ प्रयोग हुए भी, कालेज और विश्वविद्यालय स्तर पर कोई खास काम नहीं हुआ. क्योंकि हमने यह समझ लिया कि सरकार ही हमारी भाग्यविधाता है. और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे.
और जब मुक्तमंडी के वशीभूत होकर उच्च शिक्षा को खोलना पड़ा तो बिना किसी सोच-समझ और दृष्टि के खोल दिया गया. लिहाजा कुकुरमुत्ते की तरह निजी विश्वविद्यालय खुलने लगे. ऐसे अनेक व्यापारी विश्वविद्यालय खोल बैठे, जिन्हें अपनी काली कमाई को सफ़ेद करना था. पिछली सदी के अंतिम वर्षों में छत्तीसगढ़ में निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ इसका अद्भुत नमूना है. वह तो भला हो प्रो. यशपाल का जो उन फर्जी विश्वविद्यालयों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में गए और बड़ी मुश्किल से उन पर रोक लग पायी. खैर उसके बाद थोड़ा नियमन हुआ. लेकिन जब ज्ञान आयोग ने कहा कि देश को १५०० विश्वविद्यालयों की जरूरत है तो एक बार फिर निजी विश्वविद्यालयों और संस्थानों की बाढ़ आने लगी. और आज उच्च शिक्षा एक भारी उद्योग बन गया है. अब भी देश में ४५० ही विश्वविद्यालय हैं. चीन या अन्य विकसित देशों की तुलना में यह संख्या कहीं कम है. इसलिए उच्च शिक्षा का विस्तार जरूर हो लेकिन सोच-समझ कर.
निजी विश्वविद्यालयों का खुलना गलत नहीं है, लेकिन उनका नियमन जरूर होना चाहिए. सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि ज्यादातर निजी विश्वविद्यालयों का ध्येय मुनाफ़ा कमाना है. वे ऐसी ही जगह विश्वविद्यालय खोलना चाहते हैं, जहां के लोगों के पास खर्च करने को पर्याप्त पैसा हो. वे गरीब-गुरबा लोगों, गाँव-देहातों या दूर-दराज के लोगों के लिए विश्वविद्यालय नहीं बनाना चाहते. जो लोग पहले से ही धनी हैं, वे उन्हीं के बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. इसलिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी खाई पैदा हो गयी है. मसलन दिल्ली या उसके आसपास यह एक बड़े उद्योग के रूप में विकसित हो गया है. इसी तरह उत्तराखंड में देहरादून और हरिद्वार के आसपास ही ज्यादातर विश्वविद्यालय और निजी संस्थान हैं. बाक़ी इलाके उच्च शिक्षा संस्थानों से वंचित ही हैं. यह पूंजीवाद का क्रूरतम चेहरा है. वरना पूंजीवाद में जनहित एक बड़ा लक्ष होता है. पूंजी की भी अपनी एक सामाजिक जिम्मेदारी होती है. जबकि निजी विश्वविद्यालयों के रूप में उग आयीं ज्यादातर दुकानें आम जनता को लूटने के अड्डे बन रही हैं. इसलिए सरकारों की भूमिका कहीं बढ़ गयी है. शिक्षा को महज मुनाफे का धंधा समझने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है. अभी तो शिक्षा को सिर्फ निजी क्षेत्र के लिए ही खोला गया है. विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए दरवाजे खुलने अभी बाक़ी हैं. यदि देशी विश्वविद्यालयों को संभालना ही इतना मुश्किल पड़ रहा है तो विदेशी विश्वविद्यालयों को संभालना तो और भी मुश्किल हो जाएगा. इसलिए महंगी होती उच्च शिक्षा पर कैसे लगाम लगाई जाए, इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है. (हिंदुस्तान, ६ जून, २०१२ से साभार)





शनिवार, 2 जून 2012

लोकतंत्र में यह कैसी दास प्रथा!


 नागरिक जीवन / गोविंद सिंह

हमें बचपन से पढाया जाता है कि आजादी के बाद भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई. यहाँ हर नागरिक समान है, सबको समान अवसर और सुविधाएँ प्राप्त हैं. हमारा संविधान बाकायदा इस बात की गारंटी देता है. लेकिन हकीकत कुछ और ही है. सच यह है कि हम एक नयी तरह के उपनिवेशवाद में जीने को अभिशप्त हैं. हमारे यहाँ नयी तरह का आतंरिक उपनिवेशवाद चल रहा है. दिल्ली से राज्यों की राजधानी, राज्यों की राजधानियों से विभिन्न अंचलों के प्रमुख शहरों और फिर वहाँ से जिला मुख्यालयों, मुख्यालयों से तहसील मुख्यालयों और फिर वहाँ से भी छोटे-छोटे कस्बों और गांवों पर शाशन की सीढ़ी बनी हुई है. यानी हर कोई किसी न किसी का उपनिवेश है. ऊपर को बढ़ने वाली हर सीढ़ी पर जीवन की स्थितियां बेहतर हो जाती हैं. इसलिए निचले पायदान पर खडा व्यक्ति अपने आपको हीन से हीनतर  समझता है.
आजकल यहाँ यानी हल्द्वानी में बिजली, पानी और गैस की जबरदस्त किल्लत देख कर बड़ी शिद्दत के साथ यह एहसास होता है. मैं जिस इलाके में रहता हूँ, उस इलाके में पिछले एक महीने से पानी की सप्लाई नहीं हो रही. यों पहले भी ऐसा होता रहा है. अक्सर कह दिया जता है कि मोटर फुक गयी है. वह १५-२० दिन में ठीक होकर आयेगी तब कुछ होगा. इस बार मोटर को फुके एक महीना हो गया है, लेकिन वह ठीक नहीं हो पा रही. जो रसूखदार लोग हैं, उनके यहाँ जल संस्थान का टैंकर पहुँच जाता है, बाक़ी लोग निजी टैंकर वालों से पानी खरीदने को विवश हैं. कोई सुनवाई नहीं है. हर अधिकारी अगले की जिम्मेदारी बताकर पल्ला झाड लेता है. यही स्थिति बिजली की है. पिछले वर्षों में हमने सुना था कि नेता लोग इसे ऊर्जा प्रदेश बना रहे हैं. कहा गया था कि इस प्रदेश के पास न सिर्फ अपने उपभोग के लिए प्रचुर मात्रा में बिजली है, बल्कि हम अन्य प्रदेशों को भी बिजली बेच सकेंगे.
लेकिन हकीकत यह है कि हमें दिन में अनेक बार बिजली कटौती का दंश झेलना पड़ता है. बिजली एक घंटे के लिए आती है, और दो घंटे के लिए चली जाती है. यहाँ भी इन्वर्टर का व्यापार धडल्ले से चल रहा है. जिसके पास सामर्थ्य है, वह इन्वर्टर लगाता है, जनरेटर लगाता है, फिर एसी और उम्दा श्रेणी का कूलर लगाता है, जिसके पास नहीं है, वह ताकता रहता है.
गैस की किल्लत तो यहाँ हमेशा ही बनी रहती है. नौ महीने पहले जब मैं यहाँ आया था, तभी मैंने गैस कनेक्शन के लिए अप्लाई कर दिया था, लेकिन अभी तक वह नहीं लगा. मैं भी देख रहा हूँ कि वह कौन सा नया रिकार्ड बनाती है! लेकिन दिलचस्प बात यह है कि यहाँ गैस के लिए हमेशा लाइन लगी रहती है. लोग अपना सिलेंडर लेकर किसी चौराहे पर लाइन लगाते हैं. गैस की गाड़ी आती है और आगे के निश्चित लोगों को देकर चली जाती है. जिनका नंबर नहीं आता, वे फिर किसी और दिन का इन्तज़ार करते रहते हैं. आज मेरे मकान मालिक का बेटा टूटू तडके साढ़े तीन बजे ही सिलेंडर लेकर चौराहे पर गया तो उसका ६६वाँ नंबर आया. यानी लोग रात दो बजे से ही लाइन पर लग गए थे. लगभग २०० लोग लाइन में थे. दोपहर तक भी गैस नहीं आयी तो लोगों को हंगामा खडा करना पड़ा. तब तीसरे दिन का आश्वासन देकर अधिकारी दफा हुए. यह एक दिन का मामला नहीं, हमेशा का है.
सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है? गैस एक उपभोक्ता जरूरत है. हम उसे खरीदते हैं. फिर इस तरह लाइन में लगने की जरूरत क्यों पड़नी चाहिए? दिल्ली में तो ऐसा नहीं होता. देहरादून में भी नहीं होता. अब तो खैर वहाँ हमारे पास पाइप्ड गैस है, उस से पहले जब भी जरूरत होती हम फोन कर देते और गैस वाला घर पर सिलेंडर छोड़ जाता. किल्लत होती तो समय ज्यादा लगता, वरना दो-चार दिन में मिल जाती. कभी मुश्किल नहीं हुई. फिर क्यों हल्द्वानी के लोगों को ऐसी सुविधा मयस्सर नहीं? यही नहीं, और पीछे जाएँ तो वहाँ के लोग बुनियादी जरूरत की चीजों के लिए त्राहि-त्राहि कर रहे हैं. यह एक अत्यंत खराब, उपनिवेशवादी प्रवृत्ति है. आप कहते हैं, लोग गांवों से पलायन कर रहे हैं. क्यों नहीं करेंगे वे पलायन! जब सुविधाएँ कुछ ही जगहों पर सिमटी हों तो लोग क्यों नहीं दौडेंगे उनकी तरफ? यह कैसा लोकतंत्र है कि कुछ लोग तो सुविधाओं का जरूरत से ज्यादा उपभोग करें और बाक़ी के लोग मुंह ताकते रहें? यानी कुछ शासक हैं, बाक़ी सारे दास!