सोमवार, 30 अप्रैल 2012

शराब छुड़ाती वन डे शादियां

समाज/ गोविंद सिंह
जिस तरह पहाड़ से निकलने वाली नदी मार्ग में आने वाले पठारों और चट्टानों से बचते-बचाते अपना रास्ता बना ही लेती है, उसी तरह से संस्कृतियाँ भी अपनी राह के अवरोधों को हटाते हुए आगे बढ़ती हैं. उत्तराखंडी समाज में होने वाली शादियों को देख कर खुशनुमा एहसास होता है. इन दिनों यहाँ शादियों का मौसम है और ज्यादातर शादियाँ दोपहर में हो रही हैं. कुछ शहरी संभ्रांत परिवारों में जरूर रात की शादियाँ हो रही हैं, लेकिन छोटे कस्बों, गांवों और निम्न मध्य और निम्न वर्ग में शादियाँ दिन में हो रही हैं. यह पिछले १५ वर्ष का चलन है. पहले यहाँ भी रात की ही शादियां हुआ करती थीं. लेकिन जब रात की शादी बोझ लगने लगी तो बगावत के रूप में दिन की शादी शुरू हुई.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहाड़ी समाज में पिछले तीस-चालीस सालों में शाराबखोरी का चलन भी बेतहाशा बढ़ा है. और शराबियों के कारण विवाह जैसे पावन अवसर पर रंग में भंग पड़ जाया करता था. अनेक मौके ऐसे देखे गए, जब दूल्हा स्वयं केष्टो मुखर्जी वाले अंदाज में लडखडाते हुए शादी के पंडाल में पहुंचता और लड़की वालों से जूझता. लडखडाते बारातियों का स्वागत भी अक्सर लात-घूंसों से होता. शराबबंदी के लिए अनेक बार आन्दोलन भी हुए. समाज सुधारक लोग भी बीच-बीच में आवाज उठाते रहे लेकिन शराबखोरी का चलन बढ़ता ही चला गया. इससे पहाड़ों की अर्थ-व्यवस्था को तो नुक्सान हुआ ही, समाज भी बुरी तरह से चरमरा गया. जिसके बारे में कवि “अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है” कह कर आह भरते थे, वह नारकीय होता चला गया.
इसी कीचड में से एक विचार-कमल खिला. क्यों न शादी का विधान रात की बजाय दिन में कर दिया जाए. क्या जरूरत है, रात के तीन बजे ही लग्न का मुहूर्त निकाला जाये? कुमाउनी और गढ़वाली शादी के आधे से अधिक विधान पंजाबी रूप धारण कर चुके हैं, तब रात की शादी से भी क्यों न मुक्ति पायी जाए? जरूर इसके पीछे कुछ अक्लमंद पंडितों की बुद्धि रही होगी. हालांकि यदि यजमान तैयार न होते तो पंडित ही क्या कर लेते? यह भी संभव है कि सिखों की देखा-देखी इस रिवाज ने जन्म लिया हो. दिन की शादी से कई फायदे हुए. एक, शराब का चलन कम हुआ, लगभग ८० प्रतिशत शराबखोरी (शादी के दौरान) बंद हो गयी. दूसरा, लाइटिंग में जो अतिरिक्त खर्चा होता था, वह बच गया. बहुत सी सहूलियतें हुईं. बरात भलेही अगली गली से आ रही हो, लेकिन वह पहुँचती थी, ११ बजे ही. इसलिए लोग बिना खाना खाए ही निकल जाते थे. अब ऐसा नहीं होता. रात में चोरियां हुआ करती थीं, उन पर रोक लगी. रात भर जागने की जो सजा भुगतनी पड़ती थी, उससे भी निजात मिली. पिछले दिनों मुझे ऐसी कई शादियों में शरीक होने का मौक़ा मिला. दिन की भी और रात की भी. दिन की शादियाँ आम तौर पर निम्न मध्य वर्ग या किसानों की थीं. वे काफी सादगीपूर्ण थीं, उनमें खर्चा कम हुआ था. अतिरिक्त तड़क-भड़क नहीं के बराबर थी. इक्का-दुक्का ही लोग शराब पिए हुए थे. जबकि रात को होने वाली शादियाँ बड़े बेंकिट हालों में हुई थीं, वे अमीर लोगों की थीं. तड़क-भड़क भी ज्यादा थी. बाराती ज्यादातर पिए हुए थे. नाचते हुए भी लड़खड़ा रहे थे. इस तरह तुलना करने पर लगा कि दिन की शादी एक तरह से तड़क-भड़क वाली शादी से बगावत की तरह से है. समाज के लिए वह कहीं बेहतर है और उस से कुरीतिओं को बढ़ावा नहीं मिलता. हालांकि शहरी उच्च वर्ग में यह प्रथा आनी अभी बाक़ी है. उन्हें भी इसे अपनाकर सादगी की मिसाल पेश करनी चाहिए. 
निश्चय ही शादी दो युवाओं और दो परिवारों का मिलन है. समाज उसमें शरीक होकर एक तरह से इस मिलन को मान्यता देता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप किसी सामाजिक रिवाज के चलते इतने दब जाएँ कि उठ ही ना सकें. हमारे यहाँ विवाह व्यवस्था नें काफी हद तक समाज को बचा रखा है, लेकिन उसने अनेक कुरीतियों को भी जन्म दिया है. दहेज, तड़क-भड़क, शोबाज़ी, शराबखोरी, अतिशय खर्च, चमक-दमक इसीके हिस्से हैं. पहाड़ी समाज ने काफी हद तक अपने-आप को बदला है. दिन की शादी को बढ़ावा देकर शराबखोरी पर रोक लगी है, लेकिन अभी यह पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. लोग दिन में विवाह-स्थल पर तो शराब पिए हुए नहीं दिखाई पड़ते, लेकिन घर लौट कर रात को खूब शराब चलती है. स्त्रियों को भी इसमें शामिल कर लिया जाता है. कोइ मारता है, या पैदा होता है, लोगों को हर बार शराब चाहिए. शराब के कारण पहाड़ का जीवन तबाह हो रहा है. काश कोई अक्लमंद दिन की शादी की तरह और अवसरों से भी शराब से मुक्ति दिलाए!
(अमर उजाला, ३० अप्रैल, २०१२ से साभार)


 



 

गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

मीडिया और साहित्य का रिश्ता

पत्रकारिता/ गोविंद सिंह

साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक अटूट रिश्ता रहा है. एक ज़माना वह था जब इन दोनों को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाता था. ज्यादातर पत्रकार साहित्यकार थे और ज्यादातर साहित्यकार पत्रकार. पत्रकारिता में प्रवेश की पहली शर्त ही यह हुआ करती थी कि उसकी देहरी में कदम रखने वाले व्यक्ति का रुझान साहित्य की ओर हो. लेकिन पिछले दो दशकों से इस रिश्ते में एक दरार आ गयी है. और यह दरार लगातार चौड़ी हो रही है. इसलिए आज की पत्रकारिता पर यह आरोप लग रहा है कि वह साहित्य की उपेक्षा कर रही है. जब उसे साहित्य की जरूरत होती है, उसका खूब इस्तेमाल करती है, लेकिन जब उसका काम निकल जाता है, तब साहित्य की ओर मुड कर भी नहीं देखती. पत्रकारिता पर यह भी आरोप है कि उसका स्वरूप पहले की तरह स्पष्ट नहीं रह गया है. उसके मकसद को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं. उसमें अनेक स्तरों पर विखराव दिख रहा है तो कई स्तरों पर अराजकता भी लक्षित हो रही है. सवाल उत्पन्न होता है कि ये आरोप कहाँ तक सही हैं और यदि पत्रकारिता के पास उनका  कोई जवाब है, तो वह क्या है?
इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि हाल के वर्षों में मीडिया का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है. इसमें कोदो राय नहीं कि राष्ट्रीय एजेंडा  निर्धारित करने में आज मीडिया की भूमिका कहीं बढ़ गयी है. आज वह केवल एक मिशन नहीं रह गया है. वह एक बड़े प्रोफेशन, बल्कि उद्योग में तब्दील हो चुका है. फिलहाल वह १०.३ अरब डॉलर का उद्योग है तो २०१५ में वह 25 अरब डालर  यानी सवा लाख करोड़ से अधिक का हो जाएगा. हाल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 600 से अधिक टीवी चैनल, 10 करोड़ पे-चैनल देखने वाले परिवार, 70,000 अखबार हैं। यहां हर साल ।,000 से अधिक फिल्में बनती हैं। जाहिर है इतने बड़े क्षेत्र को संभालना इतना आसान नहीं रह गया है. दुर्भाग्य यह है कि इसके लिए देश के पास कोई सुविचारित नीति भी नहीं है. इसलिए उसका एकरूप होना या किसी साफ़-सुथरी तस्वीर का न बन पाना अस्वाभाविक नहीं है. लेकिन इस मसले को पूरी तरह से समझने के लिए एक नज़र भारतीय मीडिया की पृष्ठभूमि पर डालनी चाहिए.
आजादी से पहले हिन्दी पत्रकारिता के तीन चेहरे थे. पहला चेहरा था- आजादी की लड़ाई को समर्पित पत्रकारिता, दूसरा चेहरा था साहित्यिक उत्थान को समर्पित पत्रकारिता का और तीसरा चेहरा समाज सुधार करने वाली पत्रकारिता का था. कहना न होगा कि इन तीनों को एक महाभाव जोड़ता था और वह महाभाव आजादी प्राप्त करने का विराट लक्ष था. इसलिए साहित्यिक पत्रकारिता भी यदि राजनीतिक विचारों से ओत-प्रोत थी तो राजनीतिक पत्रकारिता में भी साहित्य की अन्तः सलिला बहा करती थी. तीनों धाराओं का संगम हमें भारतेंदु हरिश्चंद्र संपादित कवि वचन सुधा में देखने को मिलता है. १८६८ में जब यह पत्रिका निकली थी, तब इसका कलेवर सिर्फ साहित्यिक था. बल्कि यह पत्रिका काव्य और काव्य-चर्चा को समर्पित थी. लेकिन धीरे-धीरे इसमें राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक विचार भी छपने लगे. इस पत्रिका ने हिंदी प्रदेश को निद्रा से जगाने का काम किया था. एक समय ऐसा आया जब अँगरेज़ सरकार के प्रति इसका स्वर इतना तल्ख़ हो गया कि इसे मिलने वाली तमाम सरकारी सहायता बंद हो गयी. बालकृष्ण भट्ट, जिन्हें हम हिन्दी के शुरुआती निबंधकार के रूप में जानते हैं, उनके संपादन में निकलने वाले पत्र हिन्दी प्रदीप में कविता छपी, यह बम क्या चीज है? और इसी वजह से पत्र को अकाल मृत्यु का भाजन बनना पड़ता है. उचित वक्ता, भारत मित्र, हिंदी बंगवासी, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सरस्वती, हिंदू पञ्च, चाँद, शक्ति, कर्मवीर, प्रताप, माधुरी, मतवाला, सैनिक, हंस, वीणा, सुधा, आज आदि  को भी इसी नज़र से देखा जा सकता है.
जो राजनीतिक पत्र थे, वे भी साहित्य से एकदम असम्प्रिक्त नहीं थे. चाहे तिलक का केसरी हो या गांधी का हरिजन, वे साहित्य से दूर नहीं थे. जब गांधी जी ने हरिजन को हिंदी में निकाला तो उसके संपादन का दायित्व वियोगी हरि जैसे बड़े साहित्यकार को सौंप दिया. साहित्य, समाज और राजनीति का बेहतरीन उदाहरण निस्संदेह महाबीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती ही थी, जिसने हिंदी भाषा और साहित्य और पत्रकारिता का एक युग निर्मित किया. सरस्वती सिर्फ एक साहित्यिक पत्रिका ही नहीं थी, समय की जरूरत के अनुरूप हर तरह की सामग्री उसमें छपा करती थी. दुनिया भर का श्रेष्ठ साहित्य उसमें छपता था. द्विवेदी जी स्वयं अनेक नामों से तरह-तरह के विषयों पर लिखा करते थे. ज्ञान की कोइ ऐसी चीज नहीं थी, जो सरस्वती में न छपी हो. इस से बड़ी बात और क्या हो सकती है कि एक संपादक के नाम पर हिंदी साहित्य के एक युग का नामकरण हुआ. अपनी पत्रिका के जरिये उन्होंने हिन्दी के साहित्यकार तैयार किये. लोगों को सही भाषा लिखना सिखाया. और हिन्दी भाषा के मानकीकरण के लिए ठोस प्रयास किये.
आजादी से पहले तो हिन्दी पत्रकारिता में साहित्य का दबदबा था ही, आजादी के बाद भी यह रिश्ता कायम रहा. आजादी के बाद जहां हिन्दी की दैनिक पत्रकारिता कोई खास झंडे नहीं गाड पायी थी, वहीं साप्ताहिक या मासिक पत्रकारिता ने हिन्दी का झंडा बुलंद रखा. विशाल भारत, ज्ञानोदय, धर्मयुग, नवनीत, कल्पना, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बिनी, नंदन, पराग, रविवार और दिनमान जैसी पत्रिकाओं ने आजादी से पहले की हिन्दी पत्रकारिता की साहित्यिक परम्परा को जीवित रखा. इन पत्रिकाओं ने साहित्य को जीवित ही नहीं रखा बल्कि राष्ट्रीय एजेंडा में भी रखा. ये पत्रिकाएं अच्छे साहित्य की बदौलत ही चल भी पाईं. हेम चंद्र जोशी, इला चंद्र जोशी, बद्री विशाल पित्ती, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, बाल कृष्ण राव, रामानंद दोषी, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, नारायण दत्त, चंद्रगुप्त विद्यालंकार जैसे साहित्यकारों ने आज़ादी के बाद की हिन्दी पत्रकारिता को अपनी साहित्यिक सूझ-बूझ के साथ संवारा. यह क्रम अस्सी के दशक तक लगभग बना रहा. साहित्यिक दृष्टि से इस प्रवृत्ति के फायदे हुए तो इसके विस्तार में रुकावटें भी कम नहीं आयीं. क्योंकि अस्सी के दशक में जिस तरह से भारतीय अर्थव्यवस्था ने नई उड़ान भरनी शुरू की, राजनीति और समाज के स्तर पर बदलाव आने शुरू हुए, उसका सीधा असर हिन्दी की पाठकीयता पर पड़ा. जैसे-जैसे हिन्दी क्षेत्र में साक्षरता और शिक्षा का प्रसार होने लगा, अखबारों और पत्रिकाओं का प्रसार भी बढ़ने लगा. हिन्दी के नए पाठक जुड़ने लगे. जाहिर है ये पाठक अपनी अभिरुचि और अध्ययन के लिहाज से पहले के पाठकों की तुलना में अलग थे.
इसलिए पत्र-पत्रिकाओं से यह अपेक्षा होने लगी कि वे नयी तरह की सामग्री अपने पाठकों को दें. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं पाया. साहित्य के लिहाज से हिन्दी की श्रेष्ठ पत्रिकाओं का स्तर निस्संदेह बहुत ऊंचा था, लेकिन उनका प्रसार धीरे-धीरे घटने लगा. नब्बे के दशक तक आते-आते हिन्दी कि लगभग तमाम बड़ी पत्रिकाएं बंद होने की दिशा में बढने लगीं. धर्मयुग, दिनमान और सारिका जैसी टाइम्स समूह की पत्रिकाएं तो बंद हुई ही, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, रविवार, अवकाश जैसी पत्रिकाएं भी बंद हो गयीं. नब्बे के दौर में शुरू हुए संडे मेल, संडे ओब्जर्वर, चौथी दुनिया, दिनमान टाइम्स जैसे ब्रोडशीट साप्ताहिक भी जल्दी ही अपना बिस्तर समेट कर बैठ गए.
इसी बीच १९९१ में शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने साहित्य और मीडिया के रिश्तों को बुरी तरह से प्रभावित कर दिया. देश में सेटेलाईट के जरिये विदेशी धरती पर तैयार हुए टेलीविजन कार्यक्रम दिखाए जाने लगे. विदेशी चैनल भारत में प्रसारित होने लगे. अचानक न्यू मीडिया का उफान आया. जो विषय सामग्री अखबारों में सप्ताह भर के बाद छप कर आती थी, वह टीवी पर तत्काल दिखाई देने लगी. इसलिए साप्ताहिक परिशिष्टों में छपने वाली सामग्री दैनिक के पन्नों पर छपने लगी. देखते ही देखते साप्ताहिक पत्रिकाएं दम तोड़ने लगीं. उनके सामने यह संकट पैदा हो गया कि वे क्या छापें? दैनिक पन्नों में छपने वाली सामग्री भी उस स्तर की नहीं थी, जो स्तर साप्ताहिकों का होता था. इसलिए समस्या काफी गहरी हो गयी.
सबसे बड़ी समस्या हिन्दी साहित्य की उन विधाओं के साथ हुई, जो स्तरीय पत्रिकाओं में छापा करती थीं. रिपोर्ताज, संस्मरण, रेखाचित्र, ललित निबंध, यात्रा वृत्तान्त, भेंटवार्ता, समीक्षा जैसी अनेक विधाएं, जो साप्ताहिक पत्रिकाओं की शान हुआ करती थीं, धीरे-धीरे दम तोड़ने लगीं. जब छपनी ही बंद हो गयीं, तो लिखी भी नहीं जाने लगीं. यानी आर्थिक सुधारों के बाद पत्रकारिता का जो नया रूप आया, उसने पत्रकारिता का विस्तार तो बहुत किया, लेकिन स्तर में गिरावट आ गयी. इस तरह पत्रिकाओं के बंद होने से हिन्दी साहित्य को प्रत्यक्ष नुक्सान उठाना पड़ा.
हाँ, कुछ लघु पत्रिकाओं ने साहित्य की मशाल जरूर जलाए राखी, लेकिन चूंकि उनका प्रसार बहुत कम होता है, इसलिए उसे हम हिन्दी समाज की मुख्य धारा पत्रकारिता की प्रवृत्ति के रूप में नहीं देख सकते. इंडिया टुडे, आउटलुक साप्ताहिक, आजकल, समयांतर, प्रथम प्रवक्ता, पब्लिक एजेंडा जैसी कुछ पत्रिकाएं अपने कलेवर और विषयवस्तु में कुछ भिन्न होते हुए भी कुछ हद तक साहित्य की परम्परा को बचाए हुए हैं, लेकिन मुख्यधारा की हवा एकदम विपरीत है.
यह हमारे वक्त की एक कडुवी हकीकत है कि आज का मीडिया साहित्य को भी एक उपभोग सामग्री की तरह देखता है. ऐसा नहीं है कि उसने साहित्य को पूरी तरह से नज़रअंदाज कर दिया है. सचाई यह है कि वह साहित्य को भी उसी नज़रुये से देखता है, जैसे किसी और उपभोग-सामग्री को. महत्वपूर्ण यह नहीं है कि कोई सामग्री कितनी उम्दा या श्रेष्ठ है, महत्वपूर्ण यह है कि उसे कैसे भुनाया जा सकता है. मसलन, कविवर हरिवंश राय बच्चन के बारे में उनकी मृत्यु के बाद प्रसारित कार्यक्रमों को ही ले लीजिए. ज़रा सोचिए कि यदि वह अमिताभ बच्चन के पिता न होते तो क्या उनके बारे में उतने ही बढ़-चढ कर कार्यक्रम दिखाए जाते? उसी के आसपास अन्य कवि-साहित्यकार भी दिवंगत हुए होंगे, लेकिन उनके बारे में मीडिया ने नोटिस तक नहीं लिया. हमारा यह आशय नहीं है कि बच्चन जी बड़े कवि नहीं थे. उन्हें जो प्रचार मिला, वह तो मिलना ही चाहिए, लेकिन और लोगों कि उपेक्षा नहीं होनी चाहिए. मीडिया, खासकर टीवी यह देखता है कि जिस लेखक को दिखाया जा रहा है, उसकी मार्केट वैल्यू क्या है, तभी वह खबर का विषय बनता है. वह यह नहीं जांचता कि उस लेखक के साहित्य में कोई दम है या नहीं. टीवी के साथ ही अब पत्र-पत्रिकाओं में भी साहित्य की कवरेज के यही मानदंड बन गए हैं. बाजार जिसे उछाल दे, वही साहित्य, बाक़ी ईश्वर के भरोसे. यह स्थिति ठीक नहीं है. लेकिन दुर्भाग्य से आज यही हो रहा है. पता नहीं भविष्य में कोई नया मानक उभरता है या नहीं, जिस से साहित्य को उचित न्याय मिल सके. 
(साहित्यिक शोध पत्रिका 'परमिता' के अप्रैल-जून, २०१२ में प्रकाशित)

    

  

      



 

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

क्रिकेट के मुक्त गगन का नया सितारा है उन्मुक्त

शाबाश/ गोविंद सिंह

उन्मुक्त चंद उत्तराखंड की भूमि से उपजा एक नया सितारा है, जिसकी तरफ सबकी निगाहें लगी हुई हैं. वह भविष्य का महेंद्र सिंह धौनी है, सचिन तेंडुलकर है. उत्तराखंड के लिए भविष्य की आशा है. जब 15 अप्रैल को उसने अपनी कप्तानी और नाबाद 112 रनों से आस्ट्रेलिया को हराते हुए अंडर 19 की सीरीज पर कब्जा जमाया तो सारे देश की नजर उसकी तरफ गयी. उत्तराखंड के अखबारों के लिए यह एक बड़ी घटना थी. मेरे जैसे क्रिकेट-अनभिज्ञ व्यक्ति के लिए भी यह आतंरिक खुशी से भरी घटना थी. शायद पहाड़ के हर उस होनहार के लिए यह एक प्रेरक घटना थी, जिसके भीतर अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद कुछ कर गुजरने की आग सुलग रही है.
उन्मुक्त पर लिखने से पहले उसके पिता और चाचा का उल्लेख जरूरी है, क्योंकि उसके चाचा सुन्दर चंद ठाकुर के जरिये ही मेरा संपर्क इस परिवार से हुआ. ये दोनों भाई पिथौरागढ़ डिग्री कॉलेज की उपज हैं और वहाँ की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के सक्रिय साथी. बड़े भाई भरत ठाकुर अध्यापक बन कर दिल्ली आ गए और छोटे भाई सुन्दर शार्ट सर्विस कमीशन लेकर फ़ौज में चले गए. पांच साल में ही सुन्दर भी फ़ौज में अपनी अवधि पूरी कर के दिल्ली आ गए. शायद यह 1996-97 के आस-पास का समय रहा होगा, जब सुन्दर जी हमारे साथ नवभारत टाइम्स में काम करने आये. वह अत्यंत उत्साही, मित्र और रचनात्मक ऊर्जा से सराबोर साथी रहे हैं. उसी बीच एक-दूसरे के घर आना-जाना शुरू हुआ. तब उनकी शादी नहीं हुई थी. भाभी और भैया भरत ठाकुर के साथ ही रहा करते थे. उन्मुक्त यानी लवी तब 4-5 साल का रहा होगा. कुछ ही दिनों बाद पता चला कि भाई साहब यानी भरत जी लवी को क्रिकेट खिलाने के लिए स्टेडियमों के चक्कर लगाते हैं. मुझे मन ही मन यह अटपटा लगता था कि क्यों अभी से इतने छोटे बच्चे को खेल के अनुशासन में झोंक रहे हैं. लेकिन दोनों भाइयों को जैसे पहले से ही यह पता था कि लवी को क्रिकेटर ही बनना है. बीच-बीच में सुन्दर जी बताया करते कि लवी एक दिन अच्छा क्रिकेटर बनेगा. वे लवी को लेकर बहुत उत्साह में रहते. सुन्दर जी के विपरीत भरत जी अत्यंत सौम्य और गंभीर व्यक्ति हैं. उनके लिए बड़ी से बड़ी खुशी भी जैसे बहुत मामूली बात होती है. बेटे को लेकर उनकी साधना का कोई सानी नहीं. वे एक श्रेष्ठ शिक्षक, बेहतरीन गृहस्थ और जिम्मेदार पिता हैं. अपनी तमाम आर्थिक दिक्कतों के बावजूद वे लवी के प्रशिक्षण को लेकर हमेशा उद्यत रहे. सुन्दर जी से पता चलता कि प्रशिक्षण के लिए उन्हें अनेक बार कर्ज भी लेना पड़ा. लेकिन उन्होंने कभी हिम्मत नहीं हारी. उनके चेहरे पर हमेशा एक मंद-स्मित मुस्कान तैरती रहती. मुझे कई बार अपने बेटे-बेटी की पढाई के सिलसिले में उनके पास जाने का मौक़ा मिला. वे चुटकियों में सार बता देते और बच्चे समस्या समझ जाते. जब उन्हें श्रेष्ठ शिक्षक का पुरस्कार मिला तो हम सब मित्रों को बड़ी खुशी हुई. लेकिन उनके लिए जैसे इसका कोई महत्व ही नहीं था. दूसरी तरफ सुन्दर जी ने अपनी पत्रकारीय तरक्की के बाद लवी के लिए हर संभव समर्थन जुटाने का काम किया. हमें लगता है कि किसी भी बच्चे की तरक्की के लिए सही समय पर सही ब्रेक मिलना बहुत जरूरी होता है. और इस लिहाज से सुन्दर जी का योगदान सदैव याद किया जाएगा. यहाँ भाभी राजेश्वरी का नाम लिए बिना कथा अधूरी रहेगी, जिनके भीतर कूट-कूट कर स्वाभिमान भरा हुआ है. वे चुपचाप परिवार की तरक्की के लिए समर्पित रही हैं.
लवी जैसे बच्चे अपने उत्तराखंड में इफरात में हो सकते हैं, जिनके भीतर कुछ कर गुजरने की तमन्ना भरी हुई है. इस प्रदेश को लवी जैसे ही बच्चों की जरूरत है जो हमारे बच्चों के रोल मॉडल बन सकें. जो अभावों के बावजूद आगे बढ़ने को कटिबद्ध हों. जिनके पास पहले से ही सारे साधन और सिफारिशें मौजूद हों, वे आगे बढ़ते हैं, तो कोई खास खुशी नहीं होती. लेकिन जब कोई  बच्चा अभावों के बीहड़ों को चीरता हुआ आगे बढ़ता है, तो सचमुच सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है. मुझे उन्मुक्त की तरक्की पर उस दिन सबसे ज्यादा खुशी हुई जिस दिन पता चला कि वह सबसे कम उम्र का खिलाड़ी है, जिसे आईपीएल दिल्ली की टीम के लिए चुना गया. और इस बार उसकी कप्तानी में अंतर्राष्ट्रीय सीरीज जीतने पर वह खुशी कई गुना बढ़ गयी. आने वाले दिनों में वह हम सबके सीने और चौड़े करेगा, यही उम्मीद है. इस हीरे को गढ़ने वाले इन ठाकुर वन्धुओं को हार्दिक बधाई.       

सोमवार, 9 अप्रैल 2012

ढहती हुई संस्कृति की एक झलक: कुमाऊं की रामलीला

संस्कृति/ गोविंदसिंह

कुमाऊं की रामलीलाबहुत चर्चित रही है. देश को अनेक रंगकर्मी इस रामलीला ने दिए. बी एल शाह, बी एम्शाह, मोहन उप्रेती जैसे कलाकारों ने रामलीला की तालीमों में अपनी आरंभिक दीक्षा लीथी. दिल्ली में थे तो बार-बार रामलीला की याद आती थी. चंडीगढ़, मुंबई और दिल्ली मेंभी कुमाऊं और गढ़वाल की रामलीलाएं देखीं लेकिन वह मज़ा नहीं आता था. हल्द्वानी आयातो मन में बड़ी उमंग थी इन रामलीलाओं को देखने की. यहाँ बहुत सी जगहों पर रामलीलाओंके बैनर दिखे. हल्द्वानी को एक असांस्कृतिक शहर मना जाता है. लेकिन लगभग हरमोहल्ले में सामुदायिक रामलीला मंच बने हुए हैं. जहां नवरातों में रामलीलाएं होतीहैं. यानी ऊपर से असांस्कृतिक लगने वाले इस शहर के भीतर भी जन संस्कृति की एकअजस्र धारा बह रही है. लेकिन उन दिनों कुछ ऐसी व्यस्तताएं रहीं कि नवरातों मेंरामलीला नहीं देख पाया. मन में कसक बनी रही.
लेकिन पिछले दिनों चैतीनवरात्रों से पहले अपने इलाके की एक दूकान पर जब रामलीला का एक नोटिस देखा तो बहुतखुशी हुई. आप कहेंगे कि इस मौसम में रामलीला ! लेकिन कुमाऊं में चैती नवरातों मेंभी रामलीलाएं होती हैं. मेरे गाँव में भी इसी मौसम में लीला होती थी. दूर-दूर केगावों से पैदल चल कर लीला देखने आने वाले दर्शकों के लिए भी यह मौसम सुविधाजनकहोता है. हम लोग पांच किलोमीटर पहाड़ी चढाई चल कर रामलीला देखने निकलते थे. आठ बजेलीला शुरू होती थी और ग्यारह बजे तक खत्म हो जाती थी. हम लोग हाथ में मशालें लिएहुए रात एक-दो बजे तक घर पहुँच पाते थे. मन में चाह होते हुए भी मैं कोई पार्टनहीं खेल पाता था, क्योंकि हमारा गाँव काफी दूर था. लेकिन मेरी क्लास का राजू सीताबना था. और एक क्लास सीनिअर कुंदन ने राम का पार्ट खेला था. हमारे हेड मास्साब ने दशरथऔर राम सिंह सेक्रेट्री ने रावन का. ये छवियाँ कभी नहीं मिटतीं.
पंचवटी में शूर्पणखा के आने की तैयारी
इसलिए इस बार चैतीनवरात्र में ब्लाक इलाके में रामलीला का मैं दिल से इन्तज़ार कर रहा था. दिल्ली सेअपनी पत्नी को भी रामलीला देखने को बुलाया लिया था. एक दिन हम लोग निर्धारित समयसे काफी पहले रामलीला स्थल पर पहुँच गए. शुरू में हमें लगा कि शायद लोग नहींआयेंगे लेकिन धीरे-धीरे भीड़ जुटने लगी. जिस हल्द्वानी में लोग नौ बजे तक सोने लगतेहैं, उसी शहर के एक कोने में लोग दस बजे लीला देखने चले आ रहे थे. अनुशासित होकरअपने स्थान पर बैठ रहे थे. पंडाल काफी अच्छा था. मंच में भी कोई कमी नहीं थी. लोगस्वेच्छा से पंडाल के एक कोने में बैठे आयोजकों के पास जाकर चन्दा देने लगे. मैंनेदेखा कि देखते ही देखते दानदाताओं की लाइन लग गयी. मेरी पत्नी भी सौ रुपये दे आयी.कोई पचास दे रहा है, कोई सौ और कोई दो सौ. यानी ये ऐसे लोग थे जो मुफ्त में लीलानहीं देखना चाहते. आयोजकों की हर तरह से मदद करना चाहते हैं. हम लोग दिल्ली में इसफिराक में रहते थे कि किसी तरह मुफ्त का पास मिल जाए और हम नाटक देख आयें. लेकिनये ऐसे प्रेक्षक हैं, जो पैसे देकर नाटक देखना चाहते हैं. जबकि इनकी माली हालत कोईबहुत अच्छी नहीं है.
अब असली बात पर आतेहैं. जिस लीला का हम घंटे भर से इंतज़ार कर रहे थे, वह शुरू हुई. पहले ‘श्री रामचंद्र कृपालु भगवन’ हुआ. फिर कोई और मंगलाचरण. और फिर लीला. लेकिन जल्दी ही मालूमहुआ कि आयोजकों में दर्शकों के प्रति तनिक भी सम्मान नहीं है. दो मिनट का सीन, और फिरपटाक्षेप. फिर पीछे से कड़-कड़ कड़-कड़. कोई सूत्रधार नहीं. कोई अनाउंसर नहीं. बीच मेंकोई हास्य का सीन भी नहीं. विभिन्न दृश्यों के बीच कोई तालमेल नहीं. इससे लाख गुनाअच्छी रामलीला ४० साल पहले मेरे गाँव में होती थी. कोई साधन नहीं थे, बिजली नहींथी, लालटेन जला कर मंच पर उजाला किया जाता था. किरदार अपना पार्ट याद करके रखतेथे. हर दृश्य की अपनी धुन होती थी. हर चीज एकदम व्यवस्थित होती थी. उद्घोषक सज्जनकी वाचन शैली को तो मैं कभी नहीं भुला सकता.
घंटा भर ‘लीला’देखने के बाद लगा कि इसका हाल भी दिल्ली की नौसिखिया रामलीला जैसा ही है. लेकिन यहाँतो इसका इतना समृद्ध समाज है! फिर ऐसा क्यों? लगा कि हमारी संस्कृति को जैसे घुनलग गया है. लोग तो ऐसे आयोजनों में जाना चाहते हैं, लेकिन आयोजन करने वाले ही जैसेसब कुछ भूल गए हैं. रामलीला का आयोजन ही नहीं भूले, अपना कर्त्तव्य भी भूल बैठेहैं. यह भी लगा कि लोग सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये धनोपार्जन तो करना चाहतेहैं, लेकिन बदले में देना कुछ नहीं चाहते. हम इस रामलीला के आयोजकों को कोसना नहींचाहते पर इतने सारे दर्शकों का सम्मान तो उन्हें करना ही चाहिए. आपकी इस काहिली कानतीजा यह निकलेगा कि एक दिन आप पंडाल सजा के बैठे रहेंगे और कोई घर से नहींनिकलेगा और कोई मल्टीनेशनल आपके ही बगल में भारी टिकट लेकर रामलीला दिखायेगा. तबआप अपसंस्कृति का रोना रोयेंगे.    

रविवार, 1 अप्रैल 2012

उत्तराखंड में पशु बलि कब रुकेगी?

समाज/ गोविंद सिंह

गैरसेण में पशु बलि को लेके गाँव वासियों और प्रशाशन के बीच काफी हंगामा हो गया. कुछ लोग घायल भी हो गए. उधर गंगोलीहाट के कालिका मंदिर में भैंसे की बलि पुलिस के हस्तक्षेप से रोकी गयी. इससे पहले स्याल्दे– देघाट के काली मंदिर में भी बलि रोकी गयी थी. पौड़ी गढवाल के बूंखाल स्थित कालिका मंदिर में भी पिछले दिनों भैंसा बलि को रोका गया. वहाँ बड़े पैमाने पर पशु बलि दी जाती है. उत्तराखंड के लगभग हर जिले में ऐसे मंदिर हैं, जहां पशु बलि दी जाती है. वह भी भैंसे की. पिछले साल नवंबर में उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने गढवाल के बूंखाल उत्सव में पशु बलि पर रोक लगा दी थी. तब से हर मंदिर में पशु बलि पर रोक की मांग हो रही है. लेकिन इसके बावजूद लोग हर बार भैंसे को लेकर मंदिर पहुँचते हैं और पुलिस उन्हें रोकती है. कभी-कभार लोग पुलिस से भिड़ते भी हैं. लेकिन बीच-बचाव के बाद मामला शांत हो जाता है. लोग जानते हैं कि बलि कानूनन अनुचित है, मंदिर के पुजारी भी इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ होते हैं, लेकिन फिर भी लोग भैंसा लिए चले आते हैं. जैसे कि वे देवता को यह बताना चाहते हों कि हम तो आ गए थे, यह सरकार है, जो हमें रोक रही है! यह बात समझ में नहीं आती कि तमाम शिक्षा के बावजूद आज भी उत्तराखंड में बलि-प्रथा मौजूद है. जिस तरह से सती प्रथा के निषेध के दो सौ साल बाद भी सती होने की छिटपुट घटनाएं बीच-बीच में सुनने को मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह से बलि प्रथा भी रुक नहीं पा रही.
पशु बलि को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कोई ठोस कानून नहीं है. अलबत्ता, छः राज्यों ने पशु बलि पर रोक लगा  राखी है. जानवरों से प्रेम करने वाले कुछ संगठन कानून को लेकर प्रयासरत हैं लेकिन अभी तक कोई खास सफलता नहीं मिल पाई है. कारण धार्मिक है. धार्मिक मामले में कोई हाथ नहीं डालना चाहता है. फिर मामला सिर्फ हिन्दू धर्म का ही नहीं है. इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं. हजारों वर्षों से बलि प्रथा चल रही है. खास कर उन क्षेत्रों में इसका रिवाज ज्यादा है, जहां शक्ति की उपासना होती है. इसलिए दक्षिण भारत, पूर्वी भारत, असम, नेपाल, राजस्थान और उत्तराखंड में बलि प्रथा ज्यादा है. लोग इसके खिलाफ सुनने को ही तैयार नहीं होते. लेकिन उत्तराखंड की नयी पीढ़ी इस मसले पर काफी ऊहापोह की स्थिति में है. पिछले दिनों ‘मेरा पहाड़ फोरम’ नामक इंटरनेट समूह ने  इस पर एक बहस चलाई. कई लोगों ने बड़ी तल्ख़ टिप्पणियाँ कीं. अनेक लोगों का मानना था कि यह धार्मिक मामला है, इसलिए इसे नहीं उछालना चाहिए. एक सज्जन सूबेदार मेजर डीएस नयाल ने लिखा कि भैंसे को तडपते देख कर मेरा दिल इतना दहल उठा कि मैंने ठान लिया कि मैं इसके खिलाफ अपने गाँव वालों को तैयार करके रहूँगा. उन्होंने अपने गाँव में इसे लेकर बहस करवाई और अंततः गाँव के लोग पशु बलि के खिलाफ तैयार हो गए. अब वहाँ भैंसे की बलि नहीं दी जाती. इसी तरह मुंबई से डांडी-कांठी नामक संगठन की ओर से बूंखाल में पशु बलि के खिलाफ जन जागरण किया गया. कहने का तात्पर्य यह है कि सरकार और राजनीति जहां फेल हो जाती हैं, वहाँ से जागरूक जनता का काम शुरू होता है. और उत्तराखंड की नयी पीढ़ी यह काम कर रही है.
भैंसे की बलि खत्म भी हो जाती है तो बकरे और मुर्गे की बलि को खत्म होने में अभी लंबा समय लगेगा. बड़े मंदिरों में दी जाने वाली सामूहिक बलि पर कानूनन रोक संभव है लेकिन गाँव-गाँव में जो मंदिर हैं, वहाँ छिटपुट बलि चलती रहती है. दरअसल आज भी पहाड़ी समाज अनेक तरह की रूढियों में जकडा हुआ है. वहाँ की ग्रामीण न्याय-व्यवस्था आज भी लोक देवताओं के हवाले है. किसी का बच्चा बीमार हो गया तो देवता, किसी की गाय मर गयी तो देवता, किसी के यहाँ चोरी हो गयी तो देवता का प्रकोप निकल आता है. छोटे-छोटे आपसी झगडों में लोग देवता के पास (घात) शिकायत लेकर पहुँच जाते हैं. और फिर देवता भी बारी-बारी से दंड वसूलता है. इस मामले में पहाड़ का ग्राम समाज आज भी ५० साल पुरानी मान्यताओं पर चल रहा है. ज्योतिषियों, पुछ्यारियों, पुजारियों, घटेलियों और जगरियों की बन आती है. जिन्हें ज्योतिष का अ ब स नहीं आता, वे भी परेशान आदमी को आता देख महापंडित की एक्टिंग करते हैं. देवता के सामने गरीब आदमी जैसे पिसता ही चला जाता है. ग्रामीण समाज में जो दबंग हैं, वे अपनी मनमर्जी चलाते रहते हैं, उन्हें देवता की परवाह नहीं होती. जो अमीर हैं, वे अपना इलाज शहरों में जाकर करवा आते हैं, जो सक्षम हैं, वे कोर्ट-कचहरी जाने में भी नहीं हिचकते. जबकि गरीब को कभी मुर्गा तो कभी बकरा, दंडस्वरुप मंदिर में चढाना पड़ता है. आपको यह जान कर हैरानी होगी कि गाँव में तीन से छः महीने का बकरा ढूँढना मुश्किल हो जाता है, उसकी मुंहमांगी कीमत मिलती है. हम इस बात पर बहुत खुश होते हैं कि पहाड़ी समाज में अपराध नहीं है, वहाँ पुलिस की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन सच बात यह है कि देवता के नाम पर एक दूसरी तरह का डंडा आम आदमी के सर पर पड़ता रहता है. गरीब लोग देवता का पूजन अपने मन की शान्ति के लिए नहीं, प्रकोप के भय से करते हैं. हम यह नहीं कहते कि देव भय का  कोई फायदा नहीं होता, वे भी हैं, लेकिन देव पूजन मन की शान्ति के लिए होना चाहिए ना कि भय से. एक ज़माना था, जब समाज को इसकी जरूरत थी. अब जमाना आगे बढ़ गया है. इसलिए समाज को खुद ही आगे बढ़कर इसे रोकना होगा. ( अमर उजाला, १ अप्रैल, २०१२ से साभार)