बुधवार, 17 फ़रवरी 2016

उत्तराखंड में स्थानीय पत्रकारिता की संभावनाएं

मीडिया/ गोविन्द सिंह
पत्रकारिता निरंतर अपना चोला बदल रही है. उसके अनेक रूप चलन में हैं. ऊपर से शुरू करें तो अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता, राष्ट्रीय पत्रकारिता, प्रादेशिक पत्रकारिता, क्षेत्रीय पत्रकारिता, जनपदीय पत्रकारिता, स्थानीय पत्रकारिता, अति स्थानीय पत्रकारिता, सामुदायिक पत्रकारिता और नागरिक पत्रकारिता. सोशल मीडिया उसका एक और रूप है, जो पत्रकारिता है भी और नहीं भी. लेकिन पत्रकारिता की जब हम बात करते हैं तो उसके साथ कुछ मानदंड स्वतः जुड़ जाते हैं. बिना आचार संहिता या पत्रकारीय नैतिकता या पत्रकारीय मूल्यों के उसकी कल्पना नहीं की जा सकती है. पत्रकारिता में समाज-हित का भाव अन्तर्निहित रहता है. बिना व्यापक हित के उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. अतः पत्रकारिता के जिन रूपों का ऊपर जिक्र किया गया है, उन सबमें एक समानता यह है कि सबका लक्ष समाझ-हित होना चाहिए.
भारत के राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों में हमारी पत्रकारिता एकदम मिशनरी हो गयी थी. उसका ध्येय पैसा कमाना बिलकुल नहीं था. उसका एक ही ध्येय था- देश की आजादी. जो भी अखबार निकल रहे थे, अंग्रेजों के पिट्ठुओं को छोड़ दें तो, वे सब आज़ादी के विराट लक्ष के लिए ही निकल रहे थे. एक तरफ गांधी जी का ‘हरिजन’ और ‘नवजीवन’ जैसे अखबार थे तो दूसरी तरफ तिलक का ‘केसरी’ अखबार भी था. गणेश शंकर विद्यार्थी का ‘प्रताप’ था तो माखनलाल चतुर्वेदी का ‘कर्मवीर’ भी था. बड़े राष्ट्रीय दैनिकों में अमृत बाज़ार पत्रिका, लीडर और ट्रिब्यून जैसे अखबार भी थे, जो राष्ट्रवादी भावनाओं से ओत-प्रोत थे. हालांकि अंग्रेज़ी के ज्यादातर बड़े अखबार अंग्रेजों के पिट्ठू थे. यदि छोटे शहरों से निकलने वाले पत्रों को टटोलें तो भी संख्या कम नहीं थी. अल्मोड़ा से निकलने वाले ‘शक्ति’, कोटद्वार से निकलने वाले ‘कर्मभूमि,’ देहरादून से निकलने वाले ‘गढ़वाली’ जैसे पत्र सामने आते हैं, जिनके भीतर राष्ट्रीय भावनाएं कूट-कूट कर भरी रहती थीं. छोटे-छोटे शहरों से निकलने वाले साप्ताहिक भी अंग्रेज़ी सत्ता से टक्कर लेते थे. राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी प्रतिष्ठा थी.
आज पत्रकारिता पेशा बन गई है. हालांकि उसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन पेशा जब पेशेवर मूल्यों को ताक पर रख कर विशुद्ध मुनाफे तक सीमित हो जाता है तो वह अपनी अर्थवत्ता खो देता है. यद्यपि पेशेवर मूल्यों के साथ मुनाफा कमाते हुए भी अच्छी पत्रकारिता की जा सकती है, बशर्ते कि समाज-हित के भाव को हमेशा ध्यान में रखा जाए.
अब स्थानीय पत्रकारिता की बात करें. स्थानीय अखबार आज भी कम नहीं हैं. लेकिन आजादी से पहले के स्थानीय पत्रों और आज के स्थानीय पत्रों के फर्क को आप स्वयं ही समझ सकते हैं. आज भी हर कसबे से अखबार निकल रहे हैं. लेकिन कितने अखबारों को शहर से बाहर के लोग जानते हैं?  वर्ष १८७१ में प्रकाशित ‘अल्मोड़ा अखबार’ को हम आज भी उसकी सत्यनिष्ठ पत्रकारिता के लिए याद करते हैं लेकिन क्या आज कोई लघु पत्र-पत्रिका है, जिसे हम उसकी सच्ची पत्रकारिता के लिए याद रखें. ऐसे पत्र अँगुलियों में गिने जा सकते हैं. आज छोटे शहरों और कस्बों से अन्धान्धुन्ध अखबार और पत्रिकाएं निकल रही हैं. आपको यह जानकार हैरानी होगी कि अकेले उत्तराखंड में ही ३००० से ज्यादा पत्र-पत्रिकाएँ पंजीकृत हैं. कितने ही अखबार डीएवीपी से बाकायदा विज्ञापन भी लेते हैं. राज्य सरकार के विज्ञापन भी उन्हें मिलते हैं. लेकिन उनमें से कितने अखबार अपने नाम को सार्थक कर रहे हैं, यह आप अच्छी तरह जानते हैं. ज्यादातर अखबार ब्लैकमेलिंग के नापाक धंधे में लगे रहते हैं, जिससे स्थानीय पत्रकारिता निरंतर बदनाम हो रही है. 
आज उत्तराखंड में जो स्थानीय पत्रकारिता है, वह दरअसल राष्ट्रीय अखबारों की स्थानीय पत्रकारिता है. इन अखबारों की परिकल्पना राष्ट्रीय स्तर पर होती है भलेही वे कितने ही स्थानीय दिखें. इन पत्रों ने लगभग हर कसबे में अपने स्ट्रिंगर रख लिए हैं. वे वहाँ की खबरों को रोज अपने जिला कार्यालय में पहुंचाते हैं और वहाँ से खबरें अखबार के प्रकाशन केंद्र तक पहुँचती हैं. जो खबरें मतलब की होती हैं, उन्हें अखबार के पन्नों पर स्थान मिलता है. वरना रद्दी की टोकरी में चली जाती हैं. हर जिले के अलग-अलग संस्करण होने से अनेक बार अच्छी खबरें भी एक जिले की सीमा में ही रह जाती हैं. इस वजह से इनकी बड़ी आलोचना हो रही है. फिर इन अखबारों की अपनी सम्पादकीय नीति होती है. कोई अखबार किसी दल का समर्थक होता है तो कोई दूसरे दल का. किसी की नीति सकारात्मक खबरें छापने की होती है तो किसी की दिलचस्पी नकारात्मक खबरें छापने में. चूंकि ये अखबार बहु-संस्करण वाले होते हैं, इसलिए इनके मुख्यालय राजधानी दिल्ली में हैं. वहीं से उनकी नीति निर्धारित होती है. एक दिक्कत और है कि इन अखबारों के फीचर और सम्पादकीय पृष्ठ मुख्यालय में ही बनते हैं. समस्त संस्करणों में एक ही सम्पादकीय और फीचर छपते हैं. इस तरह छोटे शहरों की वैचारिक और सृजनात्मक प्रतिभा को उसमें स्थान नहीं मिल पाता. खबरें तो बहुत छपती हैं, लेकिन लेख और फीचर स्थानीय नहीं छपते. आज की तारीख में ज्यादातर अखबारों के फीचर विभाग अखबार के मार्केटिंग विभाग के साथ निकट तालमेल बनाकर छापे जाते हैं. इसलिए उनके विषय स्थानीय जरूरतों के साथ मेल नहीं खाते. पुराने जमाने में अखबार की खबरों के साथ-साथ लेख और फीचर भी स्थानीय ही छपते थे. स्थानीय रचनाकारों को भी जगह मिलती थी. लिहाजा स्थानीय विचार और सृजनात्मकता को उचित स्थान मिल जाता था. इसी से उनकी प्रतिष्ठा भी बनती थी. जबकि आज की स्थानीय पत्रकारिता वास्तव में मुनाफे के लिए है, न कि स्थानीयता को अभिव्यक्ति देने ले लिए.           
इसलिए आज सच्चे अर्थों में स्थानीय पत्रकारिता की जरूरत पहले की तुलना में कहीं अधिक है. दुनिया भर में स्थानीय पत्रकारिता चल रही है. पत्रकारिता के जिन रूपों की बात हमने आरम्भ में की है, वे बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. एक कसबे की समस्या को वहीं के लेखक-पत्रकार बेहतर समझ सकते हैं. उन समस्याओं को हल करने में स्थानीय प्रकाशकों की ही दिलचस्पी भी होती है. दूर बैठे पत्र-स्वामी को क्या मतलब कि खटीमा या कोटद्वार में क्या हो रहा है या क्या होना चाहिए. यह तो वही पत्र-स्वामी बेहतर जानता है, जो रोज-ब-रोज उन समस्याओं से जूझ रहा हो. दुनिया में आज स्थानीय पत्रों और वेबसाइटों का जोर है. वे बड़े-बड़े समाचार-पत्रों को मात दे रहे हैं. अब उन्हें विज्ञापन भी मिलने लगा है. उनकी अर्थव्यस्था भी बेहतर हो रही है. एक बात और. अक्सर दूर बैठे सम्पादक को स्थानीय समस्या का भान नहीं होता. वह समझ ही नहीं सकता कि एक छोटे शहर की क्या जरूरतें हैं. मिसाल के लिए किच्छा के एक गाँव में एक किसान की भैंस मर गयी. बड़े शहर में बैठा सम्पादक इस तरह की खबर देखते ही उपहास करने लगेगा, जबकि उस गाँव के किसान की अर्थव्यवस्था पूरी तरह से भैंस पर ही निर्भर है. इसलिए स्थानीय पत्रकारिता को गहराई के साथ समझने की जरूरत है.
हिन्दी पत्रकारिता धीरे-धीरे हिन्दी प्रदेश के अंदरूनी हलकों में घुसने लगी है. आज भी उसमें अनंत संभावनाएं हैं. जरूरत यह है कि उसे ईमानदारी के साथ किया जाए. स्थानीय समस्याओं को उठाया जाए, स्थानीय लेखक तैयार किये जाएँ, स्थानीय गतिविधियों को स्थान मिले, स्थानीय प्रतिभाओं को मंच मिले और इसके जरिये स्थानीय लोग अपने इलाके को ऊपर उठाने का संकल्प लें. किसी भी अखबार के बने रहने की यह जरूरी शर्त है. (‘खटीमा दीप’ पाक्षिक के प्रवेशांक में, एक जनवरी, २०१६ को प्रकाशित)