गुरुवार, 18 मई 2017

वीरेनदा: एक सौ फीसदी इंसान

संस्मरण/ गोविन्द सिंह
28 सितम्बर, 2015 को हिन्दी के अत्यंत सर्जनशील कवि और पत्रकार वीरेन डंगवाल का निधन हुआ. उसके कुछ ही दिन बाद ‘आधारशिला’ के लिए यह संस्मरण-लेख लिखा गया था जो कि अब जाकर छप पाया है. यहाँ इसे पुनर्प्रकाशित किया जा रहा है, 'आधारशिला' से साभार:  


एक कवि के रूप में वीरेन डंगवाल को चाहने वालों की जितनी बड़ी फ़ौज होगी, उससे कहीं बड़ी फ़ौज उन्हें एक सम्पादक-पत्रकार के रूप में चाहने वालों की है. वह भी तब जबकि उन्होंने कोई बहुत ज्यादा पत्रकारीय लेखन नहीं किया, लम्बे समय तक नियमित सम्पादक नहीं रहे. उन्होंने अपने शुरुआती दिनों में कुछ अरसा नियमित पत्रकारिता की थी. उसके बाद वे बरेली में प्राध्यापक बन गए. लेकिन पत्रकारिता से उनका रिश्ता बना रहा, अमर उजाला में बतौर सलाहकार सम्पादक के. कुछ समय वे अपनी नियमित नौकरी से छुट्टी लेकर अमर उजाला के कानपुर संस्करण के सम्पादक बनकर भी गए लेकिन जल्द ही लौट आये. बरेली संस्करण में उनका नाम बतौर सम्पादक जाता था. लेकिन वहाँ वे शाम को कुछ घंटे ही जाते थे. सम्पादक की तरह नियमित बैठने की बाध्यता नहीं थी. जैसे-जैसे अमर उजाला कॉर्पोरेट घराने में तब्दील होने लगा, उनका यह दायित्व भी कम होने लगा. हालांकि अमर उजाला के स्वामियों के लिए वे सदैव एक सलाहकार बने रहे.
इसके बावजूद हिन्दी पत्रकारिता में उनका एक बड़ा कुनबा है. ऐसे अनेक युवा पत्रकार मिल जायेंगे, जो कहेंगे कि हम वीरेन दा के बनाए हुए हैं या उनकी धारा के पत्रकार हैं, हमें तो वीरेन दा ही इस पेशे में लाये. वर्ष 2005 में अमर उजाला ज्वाइन करने से पहले मुझे वीरेन दा की इस हैसियत का पता नहीं था. हालांकि उनसे मेरी पहली मुलाक़ात 1990 में हो चुकी थी. पर तब मैं उन्हें हिन्दी के एक अत्यंत सृजनशील कवि के रूप में ही जानता था. हालांकि मैं यह भी जानता था कि वीरेन दा अमर उजाला समूह के सलाहकार हैं. पर मुझे यह नहीं पता था कि हिन्दी के युवा पत्रकारों का एक बड़ा समूह उन्हें अपना सरपरस्त मानता है. एक पार्ट टाइम पत्रकार के लिए यह बहुत बड़ी बात थी. सोचिए यह कैसे हुआ होगा.
वे वामपंथी धारा के पत्रकार थे. लेकिन पत्रकारिता में कदम रखने वाले किसी भी युवक के लिए, चाहे वह किसी भी विचारधारा का हो, वे समान रूप से गाइड ही थे. खबरों में वे निष्पक्षता के पक्षधर थे. उनके रहते कभी यह नहीं लगा कि अमर उजाला जनवादी अखबार हो. लेकिन अमर उजाला को जड़ों से जोड़ने और उसकी एक निष्पक्ष छवि बनाने में उनकी बड़ी भूमिका थी. जब हिन्दी अखबारों से साहित्य गायब हो रहा था, तब उन्होंने आखर नाम से साहित्य का पेज निकाल कर अमर उजाला में साहित्य को जीवित रखा. वे हर नए व्यक्ति के साथ बेहद गर्मजोशी के साथ मिलते. जिसमें थोड़ी भी पत्रकारीय संभावना होती, उसे आगे बढाने की जिम्मेदारी लेते. मालिकों से उसकी सिफारिश करते और जहां भी गुंजाइश हो, उसे काम पर लगवा देते. यही नहीं, वे उसके काम पर नजर रखते और विचलन से बचाते. अमर उजाला से बाहर काम कर रहे पत्रकारों पर भी उनकी पैनी नजर रहती और जब भी मिलते, अपनी टिप्पणियों से उन्हें दिशा देने का काम करते. इसलिए बरेली, आगरा, मेरठ, कानपुर और उत्तराखंड में काम कर रहे पत्रकारों पर उनकी गहरी छाप पड़ी. आज ये पत्रकार देश के तमाम शहरों में पत्रकारिता के जरिये नाम कमा रहे हैं.
जब मैंने अमर उजाला ज्वाइन किया तब श्री शशि शेखर प्रधान सम्पादक बन चुके थे. अमर उजाला क्षेत्रीय से राष्ट्रीय बनने की दिशा में आगे बढ़ रहा था. मालिकान उसे एक पेशेवर अखबार बनाना चाहते थे. अखबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लग चुका था. अखबार की पुरानी धारा के लोग उसकी इस प्रगति से इत्तेफाक नहीं रखते थे. उत्तराखंड में मैं जहां भी जाता, अखबार से जुड़े पुराने लोग नए निजाम की शिकायत करते. मुझे लगा कि वीरेनदा भी खुद को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. एक बार उन्होंने मालिकों से इस्तीफे की पेशकश भी की. लेकिन वह नहीं मानी गयी. एक बार वे नोइडा में अमर उजाला के नए दफ्तर में मालिकान से मिलने पहुंचे. वे अन्दर से भरे हुए थे. अतुल जी और राजुल जी से मिलकर आये. मन का सारा गुबार उंडेल दिया. जितनी खरी-खोटी सुना सकते थे, सुना आये. नीचे हमारे पास आकर बोले, आज मैंने जो कहना था, कह दिया. ऐसा कहते हुए वे लगभग काँप रहे थे. पहली बार मैंने वीरेनदा जैसे मस्तमौला व्यक्ति को इस कदर गंभीर देखा. लेकिन अखबार जिस दिशा में कदम बढ़ा चुका था, वहाँ से लौटना मुश्किल था. तभी बरेली में एक ऐसे प्रभारी सम्पादक की नियुक्ति हुई, जो उनकी बात नहीं मान रहा था. एक घटना पर उन्होंने इस्तीफा दे दिया. और यह इस्तीफा स्वीकार कर लिया गया. यह वर्ष २००८-09 की बात होगी. उसके बाद बरेली संस्करण में सम्पादक की जगह मेरा नाम छपने लगा. दूसरे दिन वीरेनदा का फोन आया, उन्होंने मुझे मुबारबाद दी. और नियमित रूप से बरेली आकर काम करने का आग्रह किया. लेकिन मुझे वहाँ जाने की आवश्यकता नहीं पड़ी. लगभग डेढ़ साल मेरा नाम सम्पादक के रूप में छपा, मैं कभी वहाँ नहीं गया.

वर्ष २००९ के उत्तरार्ध में जब प्रधान सम्पादक शशि शेखर अमर उजाला छोड़ कर हिन्दुस्तान चले गए, तो वीरेन दा एक बार फिर अमर उजाला के सलाहकार बन गए. 2010 में मैंने भी अमर उजाला छोड़ दिया. उन्होंने मुझे रोकने की बहुत कोशिश की. हिन्दुस्तान जाने के बाद भी वे मुझे वापस लाना चाहते थे. अतुल जी के निधन के बाद राजुल जी ने उन्हें अमर उजाला बोर्ड में निदेशक बना दिया. इस तरह अमर उजाला की नयी यात्रा की रूपरेखा बनाने में लग गए. इसी बीच उनकी सेहत गडबडाने लगी. पहले कैंसर और बाद में दिल की बीमारी ने उन्हें बुरी तरह तोड़ दिया. बीमारी के ही दिनों में एक बार बरेली जाकर उन्हें देखने का मौक़ा मिला. हमें देखकर उनके चेहरे पर वैसी ही खुशी देखी, जैसी एक बच्चे में होती है. निष्कलुष और पारदर्शी खिलखिलाहट. ऐसे  100 फीसदी इंसान कम ही होते हैं, पत्रकारिता में तो दुर्लभ हैं.   

बुधवार, 17 मई 2017

देविका का तट और पुरमंडल के शिवलिंग

तीर्थ/ गोविन्द सिंह
उमा-महेश का प्राचीन शिव मंदिर 
आज कुछ जल्दी घर आ गया. शाम को रोज की तरह टहलने का मन हुआ. श्रीमती बोलीं, क्यों न आज गाड़ी में कुछ आगे तक चलें, बाद में बाजार भी हो आयेंगे. कई दिनों से हम शाम को टहलते हुए एक नए रास्ते पर चलने की सोच रहे थे, जो अपेक्षाकृत सुनसान था. मुझे पता चला कि यह रास्ता पुरमंडल को जाता है. 
शिवलिंग ही शिवलिंग 
कुछ दिनों पहले अपने छात्रो से पुरमंडल के बारे में कुछ अच्छा-सा सुना था. उन्होंने बताया कि वहां श्मसान भी है. वे इसे प्रमंडल कह रहे थे. मुझे लगा कि यह कोई 5-6 किलोमीटर दूर होगा, इसलिए गाड़ी से टहल आया जा सकता है. हम निकल पड़े. 4-5 किलोमीटर के बाद ही जंगल का इलाका शुरू हो गया. दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था. चार-पांच किलोमीटर की दूरी पर इक्का-दुक्का घर दिख जाते. चलते-चलते कोई 20 किलोमीटर आ गए. कई बार लगा कि शायद हम किसी गलत रास्ते पर जा रहे हैं. लेकिन सात बजते-बजते हम वहाँ पहुँच गए. अद्भुत जगह लगी.
काशी-विश्वनाथ मंदिर 
देविका नदी के दोनों किनारों पर बसा यह तीर्थ कोई 2500 साल पुराना बताया जाता है. देविका नदी के नाम पर रेत की सड़क दिखी. लोग इसे सड़क की ही तरह इस्तेमाल भी कर रहे थे. हमने भी प्राचीन शिवमंदिर के सामने रेत की नदी के ऊपर गाड़ी खड़ी कर दी. मंदिर परिसर में अनेक प्राचीन खंडहर मौजूद हैं. मुख्य मंदिर के गर्भगृह के बीचोबीच एक कुंड है, जिसके भीतर नाग-प्रतिमा का फन दिखाई दे रहा था. पुजारी मिंटू शर्मा ने बताया कि उमा-महेश की प्रतिमा जल में डूबी हुई है. उन्होंने यह भी बताया कि चाहे इसमें कितना ही जल चढ़ा दो, इसका स्तर इतना ही रहता है. साथ में काशी-विश्वनाथ मंदिर भी है, जिसमें वाराणसी की तर्ज पर मूंछों वाले शिव बिराजमान हैं. 
जगह-जगह शिवलिंगों के गलियारे हैं. 11-11 शिवलिंगों के समूह हैं, जो अद्भुत छटा बिखेरते हैं. शर्मा जी ने बताया कि यहाँ कुल 1337 शिवलिंग हैं. वैसे पूरे पुरमंडल क्षेत्र में 1421 हैं. मुख्य मंदिर के पीछे की तरफ एक गीदड़ी प्रतिमा भी दिखाई पड़ी. गीदड़ी अर्थात मादा गीदड़. जिसे मारने की वजह से यहाँ के राजा को गीदड़ी का श्राप लगा और बदले में श्राप से उबरने के लिए उन्हें ये मंदिर बनवाना पडा. हजारों साल पहले. आज इस गीदड़ी की भी पूजा होती है. एक गीदड़ी को भी देवी का दर्जा इसी देश में मिल सकता है!
गीदड़ी देवी की प्रतिमा 
मंदिर से नींचे नदी तट पर उतरे तो चायवाले से कुछ और जानकारी ली. एक रिटायर्ड सरकारी अधिकारी जवाहर लाल बडू मिले, जिनके पिताजी 97 साल की उम्र में वहीं पर बिना चश्मे अखबार पढ़ रहे थे. उन्होंने बताया कि देविका नदी पार्वती की बड़ी बहन है, जिसे हम गुप्त गंगा भी कहते हैं. बरसात के मौसम को छोड़ दिया जाए तो बाकी समय यह धरती के अन्दर चली जाती है. आप देखिए, दो-तीन इंच नींचे ही नदी मिल जायेगी. चाय आने से पहले श्रीमती जी ने यह प्रयोग भी कर डाला. अंगुली से ही दो इंच नीचे खोदा तो उन्हें नदी मिल गई. वो बड़ी प्रसन्न हुईं. उन्होंने जल छिड़क कर मुझे और स्वयं को धन्य किया. सामने ही एक लाश जल रही थी. बडू जी ने बताया कि लाश के अंतिम अवशेषों को यहीं रेत में दबा दिया जाएगा. कल तक वे गायब हो जायेंगे. यहाँ पर अंतिम क्रिया का महत्व हरिद्वार से भी ज्यादा है. यहाँ अंतिम क्रिया के बाद हरिद्वार ले जाने की जरूरत नहीं पड़ती.  

अँधेरा घिरने लगा था. हम लौट आये. अचानक ही, बिना किसी योजना के हम ऐसी अद्भुत जगह देखकर सुखद आश्चर्य से भर गए थे.  

शनिवार, 4 जून 2016

पत्रकारिता: आइना दिखाती एक पड़ताल

समाचार4मीडिया ब्यूरो ।।
30 मई को हर साल हिंदी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन 1826 को पंडित युगल किशोर शुक्ल ने पहला हिंदी अखबार उदंड मार्तण्डका प्रकाशन किया था। पत्रकारिता उस स्वर्णिम दौर के इतिहास को अपने गर्भ में छुपाए हुए आधुनिक पत्रकारिता के काले धब्बों को छुपाने की कोशिश कर रही है जब इसका अस्तित्व मिशन के रूप समाज की सोई हुई चेतना को जगाने में व्यस्त था। वह ऐसा दौर था जब भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने का बीड़ा पत्रकारिता ने अपने कमजोर कंधों पर उठाया था। देश की आजादी से लेकर, साधारण आदमी के अधि‍कारों की लड़ाई तक, हिंदी भाषा की कलम से इंसाफ की लड़ाई लड़ी गई है। वक्त बदलता रहा और पत्रकारिता के मायने और उद्देश्य भी बदलते रहे, लेकिन हिंदी भाषा से जुड़ी पत्रकारिता में लोगों की दिलचस्पी कम नहीं हुई, क्योंकि इसकी एक खासियत यह भी रही है कि इस क्षेत्र में हिंदी के बड़े लेखक, कवि और विचारक भी आए। हिंदी के बड़े लेखकों ने संपादक के रूप में अखबारों की भाषा का मानकीकरण किया और उसे सरल-सहज रूप देते हुए कभी उसकी जड़ों से कटने नहीं दिया। लेकिन आज बाजारवाद इस कदर हावी हो गया है कि कुछ लोग भाषा के साथ ही नहीं बल्कि पत्रकारिता के साथ ही खिलवाड़ पर उतर आए हैं।
हिंदी न्यूज चैनल जी न्यूजने अपने कार्यक्रम डीएनएमें हिंदी पत्रकारिता को शर्मसार करने वाले कुछ ऐसे पत्रकारों से रूबरू कराया, जो पत्रकारिता के सहारे अपना गोरखधंधा चला रहे हैं।
पत्रकारिता के सिद्धांत कहते हैं कि सच सुनो, सच देखो, और फिर निडर होकर सही रिपोर्ट दुनिया के सामने रखो लेकिन इन दिनों पत्रकारिता में मिलावट का स्तर इतना बढ़ चुका है कि इस पवित्र नाम का इस्तेमाल करके लोग अपनी जेब भर रहे हैं।
पत्रकारिता में अज्ञान और स्वार्थ की मिलावट करने वाले लोगों की लाइन बहुत लंबी है, ऐसे लोग पत्रकारिता को एक अवैध कारोबार बना देना चाहते हैं, लेकिन जी न्यूज ने अपने कार्यक्रम में ऐसी ही ताकतों के खिलाफ आवाज उठाई। 30 मई को दिखाए इस कार्यक्रम में ग्राउंड रिपोर्टिंग कर ये जानने की कोशिश की गई कि अपनी कलम के जरिए दंभ भरने वाले ये पत्रकार क्या सच में पत्रकारिता का सही मतलब भी जानते हैं। ग्राउंड रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार राहुल सिन्हा ने कई ऐसे पत्रकारों से बातचीत की, जो छोटे शहरों में पत्रकारिता के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं।
पत्रकार राहुल सिन्हा ने अपनी ग्राउंड रिपोर्टिंग की शुरुआत दिल्ली से सटे बुलंदशहर से की जहां पहले तो वे कारतूसअखबार के संपादक अशोक शर्मा से मिले। अशोक शर्मा ने देश के पत्रकारों को जो संदेश दिया वो हैरान करने वाला था। उन्होंने कहा कि इस पेशे में ईमानदारी से रोटी भी नहीं मिलती। इसलिए भ्रष्ट भी बनना पड़ता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि आटे में नमक डालकर खाया जाए तो कोई नुकसान नहीं है, लेकिन जब नमक में आटा डालकर खाया जाए तो हड्डियां गल जाएंगी। लेकिन जब उनसे पत्रकारिता के विषय पर कुछ लाइनें लिखने को कहा गया तो उन्होंने अपनी सच्चाई का खुलासा कर दिया कि वे नहीं लिख सकते क्योंकि वे सिर्फ हाईस्कूल पास हैं।
वहीं इसके बाद रिपोर्टर ने एक और संपादक, प्रकाशक, मुद्रक अविनाश कुमार सक्सेना से मुलाकात की जो कई सालों से सत्ता भोगअखबार निकाल रहे हैं। उनसे जब जी न्यूज के रिपोर्टर ने सवाल किया कि क्या उन्हें मीडिया शब्द का मतलब भी पता है, तो उन्होंने कहा कि वे नहीं जानते हैं। उनसे जब उन्हीं अखबार की एक राजनीतिक खबर को लेकर सवाल किया गया तो उन्होंने बताया कि इसका कंटेंट उन्होंने इंटरनेट के जरिए उठाया है। उनसे जब पत्रकारिता दिवस पर लिखने को कहा गया तो उन्होंने कहा कि उन्हें लिखना नहीं आता।
इसके बाद रिपोर्टर ने ऐसे कई अन्य अखबारों के संपादकों का डीएनए टेस्ट किया जो पिछले कई सालों से यह काला कारोबार कर रहे हैं। आप राहुल सिन्हा की ये पूरी रिपोर्ट नीचे वीडियो के जरिए देख सकते हैं
यहां देखिए ये पूरी रिपोर्ट


मंगलवार, 24 मई 2016

आत्मसम्मान बनाम मानहानि

मीडिया कानून/ गोविन्द सिंह
देश की सर्वोच्च अदालत ने आपराधिक मानहानि क़ानून को बरकरार रख कर जहां एक तरफ बड़बोले नेताओं को किसी के भी खिलाफ निराधार आरोप लगाने से हतोत्साहित किया है, वहीं अभिव्यक्ति की आजादी के पैरोकारों को भी निराश किया है. हालांकि दोनों के सन्दर्भ और मकसद अलग-अलग हैं फिर भी आज के अराजक होते राजनीतिक माहौल को देखते हुए यह फैसला उचित ही जान पड़ता है.
हाल के वर्षों में यह देखने में आया है कि अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने और अपने प्रतिद्वंद्वियों से निबटने के लिए नेता गण कुछ भी अनर्गल आरोप लगा देते हैं. इससे न सिर्फ अगले का राजनीतिक करियर चौपट हो सकता है अपितु जीवन भी खतरे में पद सकता है. यह प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है. संयोग से हमारे समय के तीन सर्वाधिक मुखर राजनेता अरविन्द केजरीवाल, सुब्रह्मण्य स्वामी और राहुल गांधी ने सर्वोच्च अदालत के समक्ष ये गुहार लगाई थी कि ‘मानहानि सिद्ध होने पर उन्हें सिर्फ जुर्माना किया जाए। सजा न दी जाए। मानहानि को अपराध न माना जाए’। यह बताने की जरूरत नहीं कि इन तीनों ही नेताओं के खिलाफ दिल्ली की निचली अदालतों में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बारे में अनाप-शनाप आरोप लगाने के लिए मुकदमे चल रहे हैं. चूंकि आरोप लगाते समय इन्होंने सोचा नहीं कि जो आरोप वे लगा रहे हैं, वह प्रमाणित किया भी जा सकता है या नहीं, इसलिए अब जब अदालत में आरोप सिद्ध करने में इन्हें नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगा रहे हैं कि उनकी सजा कम की जाए.
दरअसल अपने देश में, खासकर चुनाव के वक़्त राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ कुछ भी आरोप लगाने की नेताओं को आदत-सी पड़ गयी है. पहले कुछ बडबोले और मसखरे किस्म के नेता ही इस तरह के आरोप लगाया करते थे, लिहाजा कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता था. लेकिन गंभीर और संजीदा किस्म के या बड़े कद के नेता भी अब ऐसा करने लगे हैं. यह प्रवृत्ति राजनीति से होकर समाज के निचले गलियारों तक पहुँचने लगी है. इस तरह यह एक गंभीर बीमारी का रूप धारण कर रही है. यह उसी तरह से है, जैसे महाभारत युद्ध के दौरान अगर कोई मामूली सैनिक ‘अश्वत्थामा हतः...’ कहता तो शायद गुरु द्रोणाचार्य नहीं मानते, लेकिन जब दबे स्वर में ही सही, युधिष्ठिर ने यह बात कही तो द्रोण ने मान लिया कि उनका पुत्र मारा गया है. नतीजा उनकी अपनी मौत. जब जिम्मेदार नेता अपने विरोधियों के खिलाफ झूठे, निराधार और दुर्भावनापूर्ण आरोप लगाते हैं तो जनता सहज ही उन पर विश्वास कर लेती है, प्रचार माध्यम भी बिना आरोपों की तस्दीक किये प्रकाशित-प्रसारित कर देते हैं. इस आलोक में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय स्वागतयोग्य है. कम से कम इससे बडबोले नेताओं की जबान पर तो लगाम लगेगी.
दूसरा पक्ष अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर लोगों का है, जो चाहते हैं कि अभिव्यक्ति पर किसी तरह की लगाम न लगे. यह विश्वव्यापी अभियान का हिस्सा है. दुनिया भर में मानहानि को क़ानून के दायरे से बाहर करने की मुहिम चली हुई है. इन्टरनेट पर अपने मन की भड़ास निकालने वाले लोग इसकी अगुवाई कर रहे हैं. गत वर्ष भारत में सूचना प्रौद्योगिकी की धारा 66-ए को समाप्त करवाकर इन्होंने एक बड़ी लड़ाई जीती है. मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी चाहता है कि मानहानि क़ानून समाप्त हो या कम से कम इसकी धार कुछ कुंद की जाए. क्योंकि नेताओं, नौकरशाहों और सरकारों के खिलाफ बोलने वालों पर ही नहीं, बोले हुए को छापने वाले मीडिया पर भी खतरा मंडराता रहता है. हालांकि मानहानि का सम्बन्ध हर किसी से है, लेकिन निशाना तो अंततः प्रेस को ही बनाया जाता है. वर्ष 1987-88 में जब देश में बोफोर्स दलाली काण्ड की आग लगी हुई थी, राजीव गांधी से इंडियन एक्सप्रेस में रोज दस सवाल पूछे जा रहे थे, तब राजीव गांधी की सरकार मानहानि विधेयक-1988 लेकर आयी थी, जिसके खिलाफ देश भर का मीडिया लामबंद हो गया था. वह विधेयक सचमुच प्रेस के प्रति अत्यंत क्रूर था. सरकार के घोर समर्थक मीडिया घराने भी इस विधेयक के विरोध में आ खड़े हुए. तब एक स्वर से तमाम विपक्षी दलों और मीडिया ने कहा था कि जब हमारे पास भारतीय दंड संहिता में पहले ही मानहानि क़ानून मौजूद है तो संविधान संशोधन की क्या जरूरत है? अंततः राजीव गांधी को वह विधेयक वापस लेना पड़ा. इससे पहले 1982 में बिहार प्रेस बिल में भी कुछ ऐसे ही प्रावधान थे, जब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र ने प्रेस पर नकेल लगाने की कोशिश की थी. उसका भी देश भर में विरोध हुआ था. और तब जाकर वह बिल भी वापस लिया गया था. यानी जब-जब प्रेस को निशाना बनाकर उस पर नकेल कसने की कोशिश की गयी, तब-तब देश की जनता ने, समूचे प्रेस ने उसका मुंहतोड़ जवाब दिया था.
भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 को अमूमन उतना क्रूर नहीं माना जाता. धारा 499 में मानहानि का अर्थ स्पष्ट किया गया है तो धारा 500 में मानहानि करने पर दंड का प्रावधान है. 499 के मुताबिक़ दुर्भावना के साथ बोले गए या लिखे गए शब्दों या चित्रों या संकेतों द्वारा लांछन लगाकर किसी व्यक्ति की इज्जत या ख्याति पर हमला किया जाता है और उससे उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर बुरा असर पड़ता है, तब मानहानि होती है, जो विधिक तौर पर दंडनीय अपराध है. लेकिन जब यही आरोप लोक हित को ध्यान में रख कर या सद्भावना के साथ लगाया जाता है, तो वह मानहानि के दायरे में नहीं आता. यदि किसी व्यक्ति का अपराध साबित हो जाता है, उसे दो वर्ष की सजा का प्रावधान है.

अरविन्द केजरीवाल का कहना था कि लार्ड मैकाले के इस औपनिवेशिक क़ानून को ख़त्म कर देना चाहिए. यह बात सही है कि ये क़ानून अंग्रेज़ी हुकूमत की रक्षा के लिए बनाए गए थे. तब इन कानूनों का जमकर इस्तेमाल भी होता था. आजादी के बाद भी आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने इसे ढाल की तरह इस्तेमाल किया था. व्यक्तियों के खिलाफ भी और प्रेस के खिलाफ भी. दूर क्यों जाएँ, स्वयं अरविन्द केजरीवाल ने सत्ता में आते ही मीडिया को इन कानूनों की घुडकी दिखाई थी. वह बात अलग है कि जल्दी ही वे संभल गए और आदेश वापस लिया. यानी सत्ता में बैठा व्यक्ति किसी क़ानून का कैसा इस्तेमाल करेगा, कहना मुश्किल है. लेकिन जैसा कि सर्वोच्च अदालत का कहना है, केवल इस आशंका पर किसी को भी किसी के आत्मसम्मान पर हमला करने का अधिकार नहीं मिल जाता. यह ठीक है कि यह औपनिवेशिक युग का क़ानून है. लेकिन संविधान के अनुच्छेद 21 के मुताबिक़ आत्म-प्रतिष्ठा भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार है. व्यक्ति के आत्मसम्मान को बचाए रखना भी अभिव्यक्ति की आज़ादी के समान ही महत्वपूर्ण है. इसलिए बेलगाम होते लोगों को नियंत्रण में रखने के लिए कुछ न कुछ प्रावधान तो होना ही चाहिए. (अमर उजाला, 24 मई, २०१६ को प्रकाशित लेख का विस्तृत रूप)