गुरुवार, 23 अगस्त 2012

साहित्य की चोरी, चोरी न भवति!

बौद्धिक जगत/ गोविंद सिंह 
भलेही फरीद ज़कारिया को टाइम पत्रिका ने फिर से स्तंभकार की नौकरी पर रख लिया हो, लेकिन इस घटना ने एक बार फिर साहित्यिक चोरी की हमारी राष्ट्रीय बीमारी की तरफ ध्यान आकर्षित किया है. इसमें कोई दो राय नहीं कि फरीद ज़कारिया देश के अत्यंत प्रतिभाशाली और विचारवान लेखक-पत्रकार हैं. अमेरिका जाकर जिस बुलंदी पर वह पहुंचे, वहाँ तक कोई भारतीय पत्रकार नहीं पहुँच पाया. इसीलिए वे जो भी लिखते हैं, उसके शब्द-शब्द पर नज़र रहती है. उनके लिखे से प्रामाणिकता और मौलिकता की अपेक्षा रहती है. लेकिन फरीद ज़कारिया इस कसौटी पर दो बार विफल हो चुके हैं. एक बार २००७ में, जब उन पर यह आरोप लगा था कि उन्होंने अपनी किताब में २००५ में छपी एक अमेरिकी लेखक की किताब से अंश लेकर छाप दिया था और दूसरी बार अब जब उन्होंने बिना श्रेय दिए अपने कालम में न्यूयाँर्कर पत्रिका में छपे लेख के अंश ले लिए थे. उन्होंने इसे भूल बताकर माफी भी माँगी. खैर पत्रिका की जांच में इसे उतनी बड़ी गलती नहीं माना गया कि उन्हें एक महीने तक निलंबित किया जाता. लिहाजा निलंबन एक हफ्ते में ही वापस हो गया.
लेकिन सवाल यह है कि क्यों इस तरह की साहित्यिक-वैचारिक चोरी में भारतीय ही सबसे ज्यादा फंसते हैं? इसलिए कि चोरी हमारा राष्ट्र धर्म बन गया है. फरीद जकारिया तो अमेरिका में थे, इसलिए पकडे गए लेकिन भारत में तो हर रोज सैकड़ों पन्ने चोरी होते हैं. कोइ चर्चा तक नहीं करता. यहाँ पत्र-पत्रिकाओं में तो चोरी होती ही है, साहित्य, शिक्षा और  विज्ञान के क्षेत्र में भी बेतहाशा चोरी होती है. यहाँ उन्हें ससम्मान ‘टीपू सुलतान’ का दर्जा प्राप्त है, जो एक-दो पैरा नहीं, पूरे के पूरे अध्याय, पूरी की पूरी थीसिस उड़ा देते हैं, फिर भी उनके चेहरे पर शिकन तक नहीं आती. दिल्ली-मेरठ में आपको ऐसी गालियाँ मिल जायेंगी जहां आपको बनी-बनायी थीसिस मिल जाती हैं, शोध पत्र मिल जाते हैं. ऐसे गुरुजन उपलब्ध रहते हैं, जो २० हज़ार से ५० हजार तक में शिष्य की थीसिस लिख देते हैं. और ऐसे परीक्षक मिल जाते हैं, जो रिश्वत लेकर डिग्री अवार्ड कर देते हैं.
बहुत पुरानी बात नहीं है जब प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार सी एन आर राव पर यह आरोप लगा था कि उनके सह-लेखन में प्रकाशित शोध पत्र में चोरी की सामग्री चस्पां है. २००७ में सीएसआईआर के महानिदेशक माशेलकर ने स्वीकार किया कि उनके नाम से छपे शोध पत्र में उनके सहयोगी शोधार्थियों ने चोरी के आंकड़े दिए थे, जिनकी जांच वे समयाभाव में नहीं कर पाए थे. ये तो हाल के तथ्य हैं. चंडीगढ़ के विश्वजीत गुप्ता, कुमाऊं के बीएस राजपूत, पुणे के गोपाल कुंडू, वेंकटेश्वर के पी चिरंजीवी जैसे वैज्ञानिकों-विचारकों को नहीं भूले होंगे, जिन्होंने न सिर्फ वैज्ञानिक शोध में चोरी के तथ्य पेश किये बल्कि पोल न खुलने तक उसकी वाह-वाही भी लूटी. वैज्ञानिक चोरी के मामले तो फिर भी प्रकाश में आ जाते हैं, साहित्य और अन्य समाज विज्ञानों से सम्बंधित चोरियां अब हमारी शिक्षा का अभिन्न हिस्सा हैं.
इन दिनों अपने देश में साहित्यिक चोरी का व्यापार इतना फल-फूल रहा है कि दुनिया का शायद ही कोई देश हमारा मुकाबला कर पाए. कपिल सिब्बल ने क्या कह दिया कि हम पीएच डी में चीन से पीछे हैं, तो धडाधड पी एच डी अवार्ड होने लगी. जो डिग्री हमने लगभग मुफ्त में प्राप्त की अब निजी विश्वविद्यालय उसके लाखों रुपये पीट रहे हैं. शोध पत्रिकाओं का बाजार सज गया है. शोध पत्र लेखकों की दुकानें सज गयी हैं. और खरीदार मुंहमांगी कीमत लिए खड़े हैं. इस देश के चौर्य-अनुसंधान का इश्वर ही मालिक है. ( हिंदुस्तान, २१ अगस्त को प्रकाशित. साभार) 

बुधवार, 15 अगस्त 2012

तबाही लाने वाला यह कैसा ‘विकास’?

आपदा/ गोविंद सिंह
अब तो हर बरसात उत्तराखंड के लिए तबाही लेकर आने लगी है. बरसात का मतलब ही होता है बड़े पैमाने पर भू-स्खलन, आसमान फटना, बाढ़, तबाही और जान-माल की भारी हानि. पहले भी कुछ हद तक ऐसा होता था लेकिन तब पहाड़ों में गतिविधियां सीमित थीं, प्रकृति का व्यवहार भी आज की तरह अप्रत्याशित नहीं था, इसलिए नुकसान अपेक्षाकृत कम होता था. चूंकि अब स्थितियां बदल चुकी हैं, प्रकृति के प्रति हमारा व्यवहार और बदले में प्रकृति की चाल भी बिगड़ चुकी है, इसलिए अब नुकसान ही नुकसान है. विनाश ही विनाश. इस बार भी ऐसा ही हुआ. यों तो उत्तराखंड के लगभग हर इलाके में बरसात का कहर बरपा है, लेकिन इस बार उत्तरकाशी इस प्राकृतिक प्रकोप का निशाना बनी है.
चार अगस्त की सुबह असी गंगा क्षेत्र के आसमान में ऐसा बादल फटा कि देखते ही देखते गाँव के गाँव बह गए. असी गंगा परियोजना में लगे मजदूरों का कोई अता-पता नहीं. सरकारी आंकड़े तो तीन दर्जन लोगों की मौत की ही पुष्टि कर रहे हैं, लेकिन वास्तविक आंकड़े कहीं ज्यादा बताए जाते हैं. कुल ५०० करोड रुपये की हानि बतायी जा रही है. उससे भी दुखद यह है कि विनाश के बाद पुनर्वास और राहत की गति कहीं धीमी है. राहत को लेकर हमारे व्यवस्था में एक अजीब सी संवेदनहीनता दिखाई पड़ती है. ऊपर से आपदा राहत को लेकर एक नयी राजनीति शुरू हो गयी है. जाहिर है इस धनराशि पर अनेक लोगों की नजरें लगी हुई हैं. पिछले कुछ वर्षों से हम यही देख रहे हैं. १८ अगस्त १९९८ को पिथौरागढ़ के मालपा में आये भीषण भू-स्खलन में ६० कैलाश यात्रियों सहित १८० लोग ज़िंदा दफ़न हो गए थे. नौ अगस्त २००९ को पिथौरागढ़ के ही नाचनी इलाके में बादल फटने से तीन गाँव साफ़ हो गए थे और पूरे इलाके में भयंकर तबाही मची थी. १८ अगस्त, २०१० को बागेश्वर जिले के कपकोट इलाके में बादल फटने से ६० लोग मारे गए और एक स्कूल बच्चों सहित जमींदोज हो गया था. उसी वर्ष १८ सितम्बर को अल्मोड़ा जिले के कोसी नदी क्षेत्र में भयंकर बाढ़ ने पूरे इलाके में जबरदस्त तबाही मचाई थी. ये कुछ ऐसी घटनाएं हैं, जो बताती हैं कि साल-दर साल लगातार ऐसी घटनाएं घट रही हैं, फिर भी हम नहीं चेत रहे हैं. हर बार राहत और पुनर्वास में लूट-खसोट की एक जैसी खबरें सुनायी पड़ती हैं.   
सवाल यह है कि ऐसा क्यों हो रहा है? हालांकि पूरी हिमालय पट्टी की कमोबेश यही कहानी है, लेकिन उत्तराखंड को इसका प्रकोप कुछ ज्यादा की झेलना पड़ रहा  है. यह एक जगजाहिर तथ्य है कि हिमालय दुनिया में सबसे कम उम्र की पर्वत श्रृंखला है, आज भी हर वर्ष पांच मिलीमीटर की गति से इसकी ऊंचाई बढ़ रही है. यही नहीं इसके नींचे धरती की प्लेटें भी सबसे ज्यादा सक्रिय हैं. भू-गर्भीय हलचल के लिहाज से भी यह सबसे सक्रिय पर्वतमाला है. इसलिए यहाँ कुछ भी अप्रत्याशित नहीं है. यह उसी तरह से नाजुक पर्वत श्रेणी है, जैसे वनस्पतियों में छुई-मुई. नाजुक पर्वत मला होने के नाते उसके प्रति हमारा व्यवहार भी उतना ही संवेदनशील होना चाहिए था, लेकिन हो इसके उलट रहा है. हमारी विकास नीतियां हिमालय के अनुरूप हैं ही नहीं. वे सब एक तरह से आ बैल, मुझे मार की तर्ज पर बनी हैं.
हाल के वर्षों में उत्तराखंड में सड़कों का जबरदस्त जाल बिछाया गया है. लेकिन उसके पीछे कोई योजना नहीं होती. जमीन जैसी है, सड़क कहाँ से होकर ले जाई जाए, इसको लेकर अब कोइ चिंतन नहीं होता. कभी किसी भूगर्भशास्त्री से सलाह नहीं ली जाती. यह शिकायत मेरी नहीं, मशहूर भूगर्भशास्त्री खड्ग सिंह वल्दिया की है. सडकें कच्ची जमीन या भू-स्खलन से गिरे मलबे के ऊपर बन रही हैं, जो आयी बरसात में गिर जाती हैं. सड़कों के किनारे बेतहाशा निर्माण कार्य हो रहे हैं. कई बार ऐसे गधेरों पर भी मकान बन जाते हैं, जहां से बरसाती पानी बहा करता था. यह पानी आगे चल कर भू-स्खलन का सबब बनता है. नई सड़कों पर पानी की निकासी का भी पर्याप्त ध्यान नहीं रखा जाता. इंजिनीयर भी अब पानी की निकासी के लिए  अनिवार्यतः जगह नहीं छोड़ते. वे आसानी से ठेकेदारों और नेताओं के दबाव में आ जाते हैं. लोगों ने पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए नदियों के कूल-किनारों तक को नहीं छोड़ा. वहाँ भी होटल बना लिए हैं. दो वर्ष पहले कोसी में आयी बाढ़ ऐसे बने होटलों को भी अपने साथ बहा ले गयी थी. इस बार भी श्रीनगर में नदी का पानी एकदम सड़क में आ गया. और उत्तरकाशी जिले में भी नदियों के किनारे बने घर पूरी तरह से चपेट में आ गए हैं. नदियों पर बिजली परियोजनाएं, बड़े-बड़े बाँध सचमुच हमारे लिए खतरे की घंटी की तरह हैं. कोइ नहीं जानता कि कल क्या होने वाला है? इस बार की त्रासदी के लिए भी परियोजनाओं को दोषी ठहराया जा रहा है, क्योंकि असी गंगा पर तीन परियोजनाएं बन रही थीं. बादल फटने के अलावा इन बांधों का पानी भी बाढ़ में आ गया था. लेकिन हमारे योजनाकार और सरकारें अभी चेती नहीं हैं.  
इससे भी खतरनाक बात यह है कि हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी को हमारा विकास-माडल बुरी तरह से नुकसान पहुंचा रहा है. पहाड़ों में ट्राफिक और भारी  वाहनों का ट्राफिक इतना बढ़ गया है कि प्रकृति को ख़तरा पैदा हो गया है. जलवायु परिवर्तन के कारण यह नाजुक पारिस्थितिकी सबसे ज्यादा प्रभावित हो रही है. जलवायु विज्ञानी चेता रहे हैं कि आने वाले वर्षों में पहाड़ों में बारिश की प्रकृति बदलने वाली है. वह अलग-अलग हलकों में अलग-अलग मात्र में होगी. समां बारिश के दिन अब लड़ गए. यह भी संभव है, जैसा कि हो भी रहा है, किसी इलाके में भारी बारिश हो और बगल में सूखा पड़ा हो. बादल फटने की घटनाएं इसी का नतीजा हैं. इस बार भी ऐसा ही कहा जा रहा था. उत्तरकाशी की त्रासदी से पहले पहाड़ों में कहीं कहीं तो एकदम सूखे जैसी स्थिति रही है. पर्यावरण का विनाश इसका दूसरा पक्ष है. हमारे जंगल बर्बाद हो रहे हैं. उनका स्वरुप बिगड़ रहा है. पारंपरिक वनस्पतियां खत्म हो रही हैं, नयी और व्यापारिक मुनाफे वाले पेड़ बढ़ रहे हैं. चीड़ ऐसा ही पेड़ है. जंगल की आग के कारण ऐसे पेड़ नहीं बचे जो भू-स्खलन की मार को रोक सकें. इसलिए थोड़ी भी हरकत होते ही सडकों पर बड़े-बड़े पत्थर लुढक आते हैं. कभी-कभी वाहनों के ऊपर भी गिर पड़ते हैं. हमारे तंत्र कहीं कोई तालमेल नजर नहीं आता. हम समस्या को जड़ों में नहीं, फूलों-पत्तियों में तलाशते हैं. इससे हमारा पर्यावरण खतरे है.
प्रो. वल्दिया जैसे भूगर्भशास्त्रियों को इस बात का भी दर्द है कि सरकार में कभी कोई उनसे पूछता तक नहीं. यदि किसी परियोजना को शुरू करने के लिए पर्यावरणीय सलाह लेने की वैधानिक जरूरत होती है, तभी भाड़े के वैज्ञानिकों से यह क्लीयरेंस ले ली जाती है. तबाही को कैसे रोका जाए, इसका ज्ञान है, लेकिन कोई  उसका उपयोग नहीं करता. इस ज्ञान का क्या लाभ जो राज्य के काम ना आये? ऐसा लगता है कि पूरा तंत्र ही जैसे किसी कठपुतली की तरह चल रहा है. कोइ बाहरी शक्ति है जो उसे चला रही है. पहाड़ी नदियों के तेज बहाव को देखते हुए कोइ भी कहेगा कि यहाँ बड़े बाँध नहीं बनाए जाने चाहिए. लेकिन हम हैं कि बनाए जा रहे हैं क्योंकि हमें विकास चाहिए. ऐसा विकास जो तबाही लेकर आये! ( दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण में १४ अगस्त को प्रकाशित. साभार.)

शनिवार, 4 अगस्त 2012

क्षेत्रीय सेनाएं क्यों पैदा हो रही हैं?

राजनीति/ गोविंद सिंह
आखिर उत्तर प्रदेश में भी एक सेना पैदा हो गयी. लखनऊ के आम्बेडकर स्थल पर लगी मायावती की आदमकद मूर्ति को तोड़ने के लिए उत्तर प्रदेश नव निर्माण सेना ने जिम्मेदारी ली है. घटना के लिए जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है, उनका सम्बन्ध शिव सेना और मुलायम सिंह यादव, दोनों से बताया जाता है. सवाल यह नहीं है कि वे लोग कौन थे और मूर्ति तोड़ने का उनका फौरी मकसद क्या था? सवाल यह है कि महाराष्ट्र नव निर्माण सेना की तर्ज पर आखिर क्यों इस संवेदनशील प्रदेश में  उत्तर प्रदेश नव निर्माण सेना का जन्म हुआ? हाल के वर्षों में जिस तरह से हमारे विभिन्न प्रदेशों में तरह-तरह की सेनाओं का जन्म हुआ, वह चिंता पैदा करता है, साथ ही हमें यह सोचने को भी विवश करता है कि यह सब क्या हो रहा है? क्यों हर राज्य में सेनाएं पैदा हो रही हैं? शिव सेना, महाराष्ट्र नव निर्माण सेना, रणवीर सेना, राम सेना, हिंदू राष्ट्र सेना, भारतीय हिंदू सेना, भूमि सेना, रिपब्लिकन सेना, कुएर सेना, लोरिक सेना, सनलाईट सेना, गंगा सेना, ब्रह्मर्षि सेना और गोलू सेना. इनके अलावा फ़ोर्स, वाहिनी, मोर्चा, मंच, टाइगर जैसे डरावने नाम अलग हैं. पृथकतावादी और आतंकवादी संगठनों की बात हम यहाँ नहीं कर रहे.
सेना शब्द बन्दूक या हथियार का द्योतक है. यानी जब समस्या सुलझाने के तमाम रास्ते बंद हो जाते हैं, तब लगता है अब गोली ही अंतिम रास्ता है. गांधी जी भी देश की रक्षा के लिए सेना को जरूरी मानते थे. यानी जहां संवाद समाप्त हो जाता है, जहां हर तरफ से निराशा ही निराशा है, जहां दमन की पराकाष्ठा हो चुकी है, जहां दूसरा पक्ष किसी भी तरह से मानने को राजी नहीं है, जहां साम, दाम दंड भेद सब नुस्खे भोथरे साबित हो चुके हों, वहाँ सेना की जरूरत पड़ती है.
तो क्या ऊपर जो सेनाएं गिनाई गयी हैं, क्या उनका गठन ऐसी ही परिस्थितियों में हुआ है? ऊपर से देखने पर तो यही लगता है कि नहीं, ऐसी स्थितियां अभी नहीं आयी हैं, लेकिन अपने-अपने सन्दर्भों में देखें तो लगता है कि इनका उदय भी किसी न किसी रूप में एक अनिवार्यता थी. जब लोगों को लगता है कि वे हर तरफ से हताश हो चुके हैं, उनके जीवन में कहीं से आशा की किरण नहीं है, तब वे सेना के विकल्प को अपनाते हैं. यानी गैर-लोकतांत्रिक होकर क़ानून को हाथ में लेते हैं.
इसके मूल में कहीं न कहीं हमारी राजनीतिक विफलता है. हमारी राजनीतिक पार्टियां वास्तव में अपने पथ से भटक चुकी हैं. वे अपना काम यानी जनता की भलाई या सेवा नहीं कर रहे हैं. यदि कर भी रहे हैं तो अपने तात्कालिक स्वार्थ के बशीभूत हो कर. वे देश के भविष्य की बात तो दूर २० साल बाद तक की भी नहीं सोच रहे हैं. वे केवल आज की सोच रहे हैं. इसलिए उनके सारे काम निष्प्रयोजन-निष्फल सिद्ध हो रहे हैं. वे जनता को किसी तरह की राहत नहीं देते. वे पहले से ही कराह रही जनता की टीस को और बढ़ा रहे हैं. खास करके राज्यों की राजनीति तो अपनी पूरी नंगई के साथ उघड गयी है. दिल्ली में बैठ कर संभव है यह सब नहीं दिखाई देता हो, लेकिन स्थानीय स्तर पर हर तरफ अराजकता ही दिखाई देती है. इसलिए लोगों को हथियार में ही अंतिम समाधान दिखाई देता है. नक्सलवाद भी इसी मनोभूमि की उपज है. क्षेत्रीय मुद्दे इतनी शिद्दत के साथ उभर रहे हैं कि केन्द्रीय नेतृत्व उन्हें समझने और तदनुरूप योजनाएं बनाने में नाकाम है. दिल्ली में बैठकर उसे वे मसले दिखाई ही नहीं देते. हमारी राष्ट्रीय पार्टियां इसीलिए विफल हो रही हैं कि वे स्थानीय मुद्दों को पकड़ पाने में विफल रही हैं. यदि उनका कोई स्थानीय नेता उन्हें पकड़ने की कोशिश भी करता है तो वे उसे ठिकाने लगा देती हैं.
हमारा देश इतना विशाल और वहुविध है कि उसमें सर्वशक्तिमान केंद्र संभव ही नहीं है. उसका ढांचा संघीय ही हो सकता है. इसलिए हमारे संविधान निर्माताओं ने इसकी ठीक ही परिकल्पना की थी. जब तक नेहरू थे, तब तक यह संघवाद ठीक ठाक चलता रहा, लेकिन इंदिरा गांधी के आते ही यह टूट्ने लगा. आप क्षेत्रीय ताकतों को तो दबा लेंगे, पर क्षेत्रीय मुद्दों को नहीं दबा सकते. इसलिए धीरे-धीरे सभी राज्य राष्ट्रीय दलों के हाथ से खिसक रहे हैं. उत्तर प्रदेश पहले ही जा चुका है, बिहार भी दो दशक से क्षेत्रीय ताकतों के ही हाथ में है, महाराष्ट्र में सरकार चाहे जो भी हो, वहाँ राजनीति की मुख्य धारा क्षेत्रीय ही है. सिर्फ मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, हिमाचल और हरियाणा में आप कब तक अपना डंडा चलाते रहेंगे? जो हाल इन राज्यों का है, यदि वही रहा तो कोई आश्चर्य नहीं कि वहाँ भी क्षेत्रीय ताकतें उभर जाएँ. कहने का आशय यह है कि जब स्थानीय आकांक्षाओं  का गला घोंटा जाता है, तब क्षेत्रीय-जातिवादी सेनाएं जन्म लेती हैं. यदि समावेशी तरीके से सबकी आकांक्षाओं को ध्यान में रख कर योजनाएं बनायी जाएँ तो ये अपने आप लुप्त हो जायेंगी. ( अमर उजाला, ३० जुलाई, २०१२ से साभार)