रविवार, 27 अप्रैल 2014

सच्चे लोकतंत्र के लिए अनिवार्य मतदान

राजनीति/ गोविन्द सिंह
हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी क्या है? इस सवाल का तत्काल उत्तर यही हो सकता है कि हमारी चुनाव प्रणाली ठीक नहीं है. वह योग्य लोगों को चुन कर संसद या विधान सभाओं में नहीं भेज पाती. और यदि चुनाव प्रणाली की सबसे बड़ी खामी तलाशें तो पता चलता है कि मतदान में जनता की अल्प भागीदारी ही वह खामी है, जिसकी वजह से हम विश्वसनीय लोकतंत्र नहीं बना पा रहे. मतदान की गड़बड़ी के ही कारण बहुत कम लोगों के समर्थन से आप चुन कर संसद-विधान सभा पहुँच जाते हैं. मसलन किसी चुनाव क्षेत्र में दस लाख मतदाता हैं. उनमें से लगभग ५० प्रतिशत यानी पांच लाख लोग ही मतदान करते हैं. ये ५० प्रतिशत वोट तमाम उम्मीदवारों में बंट जाते हैं. ये उम्मीदवार दो-चार या दस कितने ही भी हो सकते हैं. जीतने वाला उम्मीदवार डाले गए वोटों के ज्यादा से ज्यादा  ४० प्रतिशत वोट हासिल कर पाता है. अर्थात मुश्किल से दो लाख मतदाता किसी प्रत्याशी को जिता सकते हैं. यदि किसी क्षेत्र में दो लाख मतदाता किसी एक जाति या धर्म के हुए और वोटों का ध्रुवीकरण हो गया तो उस जाति या धर्म का उम्मीदवार चुनाव जीत सकता है. यानी कुल मतदाताओं के २० प्रतिशत मतदाता किसी चुनाव को जीतने के लिए काफी होते हैं. क्या किसी भी नजरिये से इसे बहुमत कहा जा सकता है? शायद नहीं. यह लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के विरुद्ध है. क्या यह जन प्रतिनिधित्व के मानकों पर खरा उतरता है? शायद नहीं. तो इसका क्या समाधान है?
दुनिया में जहां भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है, ये सवाल उठते रहे हैं. इसलिए २२ देशों में मतदान को अनिवार्य करने के लिए क़ानून बन चुका है. दस देशों में इसे अनिवार्यतः लागू भी किया जा चुका है. हमारे देश में भी गुजरात विधान सभा इसे पारित कर चुकी है. अर्थात देर-सबेर यह लागू हो ही जाएगा. इसलिए जब यह मुद्दा राष्ट्रीय पटल पर उछला तो ज्यादातर विपक्षी दलों ने चुप्पी साध ली. शायद इसलिए कि इसका श्रेय नरेन्द्र मोदी को मिल सकता है. लेकिन इसी बीच निर्वाचन आयोग का बयान आया है कि यह अव्यावहारिक होगा. आयोग की यह टिप्पणी हजम नहीं हो रही, क्योंकि जो आयोग मतदान का प्रतिशत बढाने के लिए जागरूकता पर सेमीनार करवाता रहता है, आखिर वह क्यों इसकी मुखालफत कर रहा है. गौरतलब यह भी है कि आयोग तो सिर्फ लागू करने वाली संस्था है. इस तरह से पञ्च फैसला देने का उसके पास कोई अधिकार नहीं है.
बेशक मतदान को अनिवार्य करने से पहले इसके तमाम पहलुओं पर विचार-विमर्श होना चाहिए. लेकिन अब समय आ गया है कि लोकतंत्र में अधिकाधिक लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कोई न कोई कदम उठाना ही चाहिए. केवल १५-२० फीसदी वोटों से चुनाव जीतने मात्र से ही कोई बहुसंख्य लोगों का प्रतिनिधि नहीं हो सकता. यह लोकतंत्र के नाम पर रस्म अदायगी है. जब हमारे संविधान निर्माताओं ने वयस्क मताधिकार का प्रावधान रखा था, तब इसे अनिवार्य न करने के पीछे एकमात्र कारण यह था कि भारत में शिक्षा का प्रसार नहीं था, लोग लोकतंत्र के बारे में उस तरह से जागरूक नहीं थे, जैसे आज हैं. आज भी कई लोग यही कह रहे हैं कि भारत जैसे गरीब और विविधतापूर्ण देश में इसे जबरन लागू करना व्यावाहारिक नहीं है. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि मतदान को नजरअंदाज करने वाले ज्यादातर वे ही लोग हैं, जो लोकतंत्र का फल चख कर ही अमीर हुए हैं. अमीर और मध्य वर्ग के लोग ही ज्यादातर वोट डालने मतदान केंद्र नहीं पहुँचते या वे इसे गंभीरता से नहीं लेते. आश्चर्य की बात यह है कि जो लोग वोट नहीं डालते, वे ही बात-बात पर लोकतंत्र को कोसते हैं. अनिवार्य मतदान का विरोध करने के पीछे यह डर भी है कि अभी तक वे थोड़े से वोटो के बल पर चुनाव जीत लेते थे, इसके लागू होने पर मेहनत ज्यादा करनी पड़ेगी. फिर वोट बैंक की राजनीति भी इससे ध्वस्त हो जायेगी. ऐसा नहीं हो सकता कि आप मतदाताओं के एक वर्ग को पटा लें और उसी के बल पर बहुमत पर राज करें. तब वही जन प्रतिनिधि चुना जाएगा, जो सभी वर्गों और तबकों का समर्थन हासिल कर पायेगा. अमेरिका जैसे देश में भी अब यह मांग उठ रही है कि क्यों न मतदान को अनिवार्य कर दिया जाए. आस्ट्रेलिया के अनुभव से प्रेरित होकर तमाम पश्चिमी देश इस तरफ झुक रहे हैं. दरअसल मताधिकार का मतलब यह नहीं है कि आप अपने अधिकार को किसी और के हाथ गिरवी रख दें. अनिवार्य मतदान का अर्थ यह भी है कि  आप अपने अधिकार को खुद इस्तेमाल करें और अपने मुस्तकबिल को खुद अपने हाथ से लिखें. (दैनिक जागरण, २७ अप्रैल, २०१४ से साभार)         

     

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

पश्चिमी मीडिया का नस्लभेद

मीडिया/ गोविन्द सिंह
टीआरपी और आईआरएस विवादों से एक बार फिर यह साबित हो गया है कि हमारा मीडिया पूरी तरह से पश्चिम का पिछलग्गू है. उसकी अपनी कोई सोच इतने वर्षों में नहीं बन पाई है. यहाँ तक कि हमारे मीडिया पर परोक्ष नियंत्रण भी उन्हीं का है. जब हमारे मीडिया के समस्त मानदंड वही तय करता है तो नियंत्रण भी उसी का हुआ. उसे किधर जाना है, किधर नहीं जाना है, यह भी पश्चिम ही तय कर रहा है. यानी भारत के सवा लाख करोड़ रुपये के मीडिया बाजार के नियंत्रण का सवाल है, जिसकी तरफ मीडिया प्रेक्षकों का ध्यान गया है. हालांकि इसमें केवल पश्चिमी मीडिया का ही दोष नहीं है, हमारे मीडिया महारथी भी बराबर के जिम्मेदार हैं. कई बार ऐसा लगता है कि उनके पास कोई विचार ही नहीं है. वे सिर्फ नक़ल के लिए बने हैं. अमेरिका से कोई विचार आता है तो वे उसे इस तरह से लेते हैं, जैसे गीता के वचन हों. मिसाल के लिए उन्होंने कहा कि खरीदार १८-३३ वर्ष का युवा है, इसलिए उसे सामने रख कर ही विज्ञापन की रणनीति बनाओ. पूरे देश के अखबारों में युवा दिखने की होड़-सी लग गयी. वह बात अलग है कि अब अमेरिका में ही इस विचार के विपरीत विचार आ गए हैं. उन्होंने कहा कि सम्पादक से ज्यादा ब्रांड मैनेजर जरूरी होता है, तो देश भर में सम्पादक नामक संस्था को ख़त्म करने की होड़ लग गयी. इस तरह से हमारे सम्पादकीय आदर्श धराशायी कर दिए गए.    
लेकिन इससे भी बड़ा सवाल यह है कि एक तरफ पश्चिम की नजर भारत के मीडिया बाजार पर है, वह इसे अपने फरेबी मानदंडों के जरिये नियंत्रित करना चाहता है लेकिन दूसरी तरफ वह भारत को कभी गंभीरता से नहीं लेता. बल्कि यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि पश्चिम का मीडिया भारत को अपनी नस्लवादी सोच से ही देखता है. न सिर्फ अमेरिका, यूरोप के देश भी उसी निगाह से देखते हैं. हाँ, अब वे भारत को एक बाज़ार की तरह जरूर देखते हैं. भारत में पत्ता भी हिलता है तो वे हंगामा खडा कर देते हैं, जबकि खुद भीतर तक नस्लवादी सोच से सराबोर हैं.
पिछले साल भारत ने अपना मंगलयान अंतरिक्ष में भेजा. यह भारत की बड़ी सफलता थी. इस पर हमारी लागत आयी सात करोड़ ४० लाख डॉलर. नासा वाले जब ऐसा ही यान अंतरिक्ष में भेजते हैं तो इसका दस गुना खर्च आता है. लेकिन यूरोप-अमेरिका के मीडिया ने भारत की जमकर आलोचना की. सीएनएन ने लिखा कि भारत ने भयावह गरीबी के बीच मंगलयान भेजा. गार्जियन ने लिखा कि ब्रिटेन भारत को गरीबी के नाम पर हर साल ३० करोड़ डॉलर अनुदान देता है और भारत इस तरह से मंगल यान में रूपया बहा रहा है. अपने आप को पत्रकारिता का आदर्श कहने वाला इकोनोमिस्ट कहता है, गरीब देश आखिर कैसे अंतरिक्ष कार्यक्रम चला सकते हैं? गरीबी तो बहाना है, असल मुद्दा यह है कि वे चाहते ही नहीं कि गरीब देश या उनकी बिरादरी से इतर देश ये काम न करें.
अब बलात्कार की घटनाओं की रिपोर्टिंग ही देखिए. यह सब मानते हैं कि बलात्कार की घटनाएं मानवता के माथे पर कलंक हैं. लेकिन गत वर्ष दिल्ली में जब बलात्कार-विरोधी आन्दोलन चला था तब पश्चिमी अखबारों को जैसे भारत को गालियाँ देने का मौक़ा ही मिल गया. क्या अमेरिका, क्या यूरोप, तमाम देशों के अखबारों ने भारतीय समाज को जमकर कोसा. उन्होंने कहा कि भारत अभी असभ्य है, जंगली है. वहाँ स्त्रियों को कबीलाई युग की तरह से केवल उपभोग की वस्तु समझा जाता है. लेकिन आधुनिक युग की ही सचाई यह है कि भारत से चार गुना अधिक बलात्कार हर साल अमेरिका में होते हैं. भारत में प्रति वर्ष यदि २४ हजार बलात्कार होते हैं तो अमेरिका में ९० हजार से भी अधिक. फ्रांस, जर्मनी जैसे देशों में भी भारत से कहीं ज्यादा बलात्कार होते हैं. हम यह नहीं कहते कि भारत में कम होते हैं तो हम कोइ बहुत तरक्कीपसंद हैं. हमें आपत्ति इस बात पर है कि वे भारत को कोसने के लिए अपने रिकार्डों को भूल जाते हैं.
अब जलवायु परिवर्तन पर हो रही राजनीति को ही लीजिए. ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी अमीर देश रहे हैं. उनकी जीवन शैली ही धरती के लिए खतरा है. क्योटो प्रोटोकॉल ने इस बात को माना भी है. लेकिन अब जब भी किसी सहमति की बात होती है, या भारत अपनी कोई बात रखता है तो कह दिया जाता है कि ये ही खेल खराब कर रहे हैं. पश्चिमी मीडिया इस मामले में पूरी तरह से पक्षपाती रुख अख्तियार करता है.

असल बात यह है कि पश्चिमी देश भारत को अब भी ईएल बाशम का भारत ही समझते हैं. वे भारत की तरक्की को फूटी आँख नहीं देख सकते. वे भारत को या तो भिखमंगों का देश समझते हैं या फिर संपेरों-बाजीगरों का रहस्यमय देश ही मानते हैं. इसलिए कुम्भ मेला हो या ऐसा कोई धार्मिक आयोजन, पश्चिमी मीडिया उन्हें उसी नजर से देखता है. उनका अपना मीडिया नग्न तस्वीरें दिखाने का आदी है, बे-वाच जैसे कार्यक्रम के बिना उनका खाना हजम नहीं होता है. इसलिए कुम्भ या गंगा सागर जैसे मेलों में उनके कैमरे नग्नता की ही टोह में रहते हैं. वे भारत की विचित्रता को हमारे जंगलीपने के रूप में प्रस्तुत करते हैं. इसलिए भारतीय मीडिया को चाहिए कि वे अपने मूल्य गढ़ें, पश्चिम की गुलामी बंद करें.(लाइव इंडिया, फरवरी, २०१४ से)

गंगा: हमारी सभ्यता की जननी

धर्म-संस्कृति/ गोविन्द सिंह
सात-आठ साल पहले की बात है. एक कालेज में पत्रकारिता पढ़ाने हरिद्वार गया हुआ था. हालांकि इससे पहले भी दो-एक बार हरिद्वार जाना हुआ था लेकिन इस बार कुछ फुर्सत में था. मित्र जीतेन्द्र डबराल ने कहा, शाम हो रही है, चलिए गंगा आरती देख आयें. हम जब हरकी पैड़ी पहुंचे, शाम ढल चुकी थी और हल्का अन्धेरा पसरने लगा था. चारों तरफ लोगों का हुजूम उमड़ा पड़ा था. वे सब नहाए हुए-से लग रहे थे. साधू गण, पण्डे-पुजारी अपने-अपने मंदिरों के द्वार पर खड़े हाथ में मशालें, बड़े-बड़े दीये लिए हुए गंगा मैया की आरती गा रहे थे, मैया का आह्वान कर रहे थे. सब-कुछ एकदम अलौकिक था. मैं अवाक-सा, मंत्रमुग्ध-सा देख रहा था. फिर लोग छोटे-छोटे पूड़ों में रखे दीपक गंगा जी को अर्पित करने लगे. गंगा की धारा सचमुच तट पर स्थित मंदिरों की मशालों के प्रतिबिम्बों और दीपों की जगमग-जगमग से दमक उठी. मैं उन अनगिनत दीपों को बहते हुए तब तक देखता रहता, जब तक कि वे आँखों से ओझल नहीं हो गए! भावनाओं का एक अदम्य ज्वार उमड़ रहा था. हजारों साल की परम्परा जैसे अपने उद्दाम वेग के साथ उमड़ रही थी. मुझे लगा कि धर्म और आस्था ही है जो इस देश को बचा कर रख सकती है. खुद गंगा को लेकर भी मन में अनेक सवाल उठ रहे थे कि आखिर क्या है इस नदी में, जो पूरा देश आज भी इसे उतनी ही आस्था से पूजता है, जितना हजारों साल पहले. हमारी स्मृति जहां तक जाती है, गंगा वहाँ तक हमें पूजनीय दिखाई पड़ती है. क्यों वह हमारे संस्कारों में गहरे रची-बसी है. तमाम आधुनिकता, तमाम प्रगतिशीलता, तमाम तार्किकता के बावजूद उसके प्रति आस्था का सैलाब उमड़ता ही जाता है. वह केवल हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का घोल नहीं, वह हमारे लिए मां है, देवी है, जीवन दायिनी है, पाप-नाशिनी है और है मोक्ष-दायिनी. आखिर कैसे उसे यह दर्जा मिल गया?
भलेही वह धरती पर भगीरथ के प्रयत्न से साठ हजार सगर पुत्रों की तारणहार बनकर उतरी हो, लेकिन यहीं की होकर रह गयी. चाहती तो वह अपना काम समाप्त कर लौट सकती थी या सरस्वती की तरह अपना कोई और रूप धर लेती, आखिर इस धरती से उसे क्या मोह था कि वह लाखों-करोड़ों लोगों को जीवन देने यहाँ रुक गयी? क्या धरती से उसे भी मोह हो गया? क्या उसके स्वभाव में ही पालनहार का गुण समाहित है? क्या इसीलिए वह आज तक मानव जाति को पाल-पोस रही है? 
भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि धाराओं में मैं गंगा हूँ। महाभारत में गंगा का महात्म्य अनेक स्थलों पर उपस्थित है. वन पर्व में गंगा की प्रशस्ति में कई श्लोक दिये हैं, जिनमें कहा गया है: " यदि कोई सैकड़ों पापकर्म करके गंगाजल का अवसिंचन करता है तो गंगाजल उन दुष्कृत्यों को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार से अग्नि ईंधन को जला देती है।...नाम लेने पर गंगा पापी को पवित्र कर देती है। इसे देखने से सौभाग्य प्राप्त होता है। जब इसमें स्नान किया जाता है या इसका जल ग्रहण किया जाता है तो सात पीढ़ियों तक कुल पवित्र हो जाता है। जब तक किसी मनुष्य की अस्थि गंगा जल को स्पर्श करती रहती है, तब तक वह स्वर्गलोक में प्रसन्न रहता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है. वह देश जहाँ गंगा बहती है और वह तपोवन जहाँ पर गंगा पाई जाती है, उसे सिद्धिक्षेत्र कहना चाहिए, क्योंकि वह गंगातीर को छूता रहता है।"
अनुशासन पर्व कहता है कि वे जनपद एवं देश, वे पर्वत और आश्रम, जिनसे होकर गंगा बहती है, महान हैं। जीवन के प्रथम भाग में जो पापकर्म करते हैं, यदि गंगा की ओर जाते हैं तो परम पद को प्राप्त करते हैं। जो लोग गंगा में स्नान करते हैं उनका फल बढ़ता जाता है।
यह सब यों ही नहीं कहा गया. गंगा के उपकार इतने ज्यादा हैं कि शास्त्रों को ये बातें अपने भीतर दर्ज कर लेनी पड़ीं. भारत के ११ राज्यों की ५० से ज्यादा आबादी की सेवा-टहल करती है गंगा. गंगोत्री से लेकर डायमंड हार्बर तक लगभग २५०० किलोमीटर लम्बी यात्रा में वह लोगों का जीवन संवारती है.
लेकिन हम भारत के लोग इतने कृतघ्न हैं कि उसके तमाम उपकारों को भूलकर उसे ख़त्म करने पर तुले हैं. रोज उसमें ३३ हजार ६४० लीटर गंदा पानी डालते हैं. पहले कहा जाता था कि हरिद्वार-ऋषिकेश के बाद गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है, वह पीने लायक नहीं रहा. तब कहा जता था कि पहाड़ों में गंगा जल में जीवाणुओं को मारने की ताकत मौजूद रहती है, जो मैदान में आते-आते ख़त्म होती जाती है. लेकिन अब पहाड़ों में भी प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि देव प्रयाग और रूद्र प्रयाग जैसे इलाकों में ही गंगा जल प्रदूषित होने लगा है. कानपुर-इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते उसमें भयंकर जीवाणु पैदा हो जाते हैं, जो मनुष्य के लिए जानलेवा होते हैं. जबकि गंगाजल को पंचामृत का एक अमृत माना जाता रहा है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् के नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश, बिहार, और बंगाल के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले लोग देश के किसी भी अन्य इलाके की तुलना में ज्यादा कैंसर-आशंकित हैं. लखनऊ के भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान का अध्ययन कहता है कि कानपुर में बिठूर से शुक्लागंज तक गंगा के पानी में डायरिया, खूनी पेचिश और टायफाइड जैसी बीमारियाँ पैदा करने वाले जीवाणु मौजूद हैं. गंगा एक्शन प्रोग्राम जैसे कार्यक्रमों के बावजूद गंगा की हालत दिन पर दिन खराब ही होती जा रही है. ऊपर से राजनीतिक दल जब चुनाव में वोट पाने के लिए गंगा यात्रा जैसे ढोंग करते हैं तो दुःख होता है. दरअसल हमारी राजनीति बुरी तरह से विकृत हो चुकी है. वह जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करती है. वोट पाने के लिए गंगा ही क्यों, वह किसी को भी भुना सकती है. गंगा का यह हाल न सिर्फ सेहत और प्रदूषण के लिए खतरनाक है, बल्कि भारत की हजारों वर्षों से जीवित सभ्यता और संस्कृति के लिए भी ख़तरा है. (नैवेद्य, देहरादून, मार्च, २०१४ से) 

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

हम कैसा उत्तराखंड चाहते हैं?


राजनीति/ गोविन्द सिंह
लोक सभा चुनाव को अब महज ४० दिन बाक़ी हैं, लेकिन देश के इस अंचल में अभी भी कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं उभर रही है. वजह हम यानी मतदाता नहीं, राजनीतिक दल हैं, जो अब भी कन्फ्यूजन की स्थिति में हैं. भाजपा ने तो फिर भी समय रहते अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर डी, लेकिन कांग्रेस अब भी यह फैसला नहीं कर पायी कि किसे टिकट देना है? बहरहाल, सवाल यह है कि क्या हम स्वयं तैयार हैं? क्या हम फैसला कर चुके हैं कि हमें कैसा व्यक्ति चुनना है? कहीं हम भी भ्रमित नहीं हैं? इस भ्रमजाल से निकलने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि पहले हम यह सोचें कि हमें कैसा प्रदेश बनाना है?
उत्तराखंड का मतदाता अक्सर देश की मुख्यधारा के साथ रहता है. क्योंकि वह खुद को दिल्ली के ज्यादा करीब समझता है. उसे अपने प्रदेश से ज्यादा देश की चिंता रहती है. उत्तर प्रदेश भी कभी यही व्यवहार करता था. यही वजह रही कि छः प्रधान मंत्री देते हुए भी उत्तर प्रदेश तरक्की की दौड़ में पीछे रह गया. इसलिए उत्तराखंड के मतदाताओं को भी अब गंभीरता से यह सोचना होगा कि उन्हें कैसा प्रदेश चाहिए. प्रदेश को बने १३ साल हो गए हैं, लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि हम बहुत अच्छा राज्य बना रहे हैं. या उत्तर प्रदेश से अलग होकर हमने कोई बहुत महान काम कर दिया है. इसकी एकमात्र वजह यह है कि हमारे रहनुमाओं ने जो वायदे किये थे, उन्हें ईमानदारी से नहीं निभाया. वायदे करना बहुत आसान होता है, उन्हें निभाना उतना ही मुश्किल. तथाकथित विकास हो रहा है, लेकिन लगता नहीं कि उसके पीछे कोई सोच है. हमारे प्रदेश से लोकसभा और राज्यसभा में कुल आठ सांसद हैं. उन्हें विकास के नाम पर खर्च करने को जो रकम मिली, उसमें से करोड़ों रुपये लैप्स हो गए. आपको हैरानी होगी कि कुल ३१ करोड़ रुपये केंद्र को वापस चले गए. और कोई एक नहीं, हर सांसद इस इम्तिहान में असफल रहा है.
सोचिए कि हमारे प्रदेश के लिए जो नीतियाँ हमारी संसद बनाती है, क्या जनता की आकांक्षाओं से उनका कोई  मेल है? हमारे यहाँ पलायन भयानक रूप धारण कर रहा है. प्रदेश के भीतर ही विषमता की जबरदस्त खाई पैदा हो गयी है. पहाड़ बनाम मैदान का झगडा बढ़ता ही जा रहा है. पहाड़ों की तुलना में मैदानी जिलों की प्रति व्यक्ति आय कहीं ज्यादा है. पहाड़ों में कोई नहीं रहना चाहता. गाँव के गाँव उजड़ रहे हैं. मेहनत और ईमानदारी के संस्कार, जिनके लिए पहाड़ जाने जाते थे, अब हमारे प्रदेश से गायब हो गए हैं. हर आदमी नौकरी चाहता है, लेकिन काम बाहर से आये लोग कर रहे हैं. हमारे नेता स्वयं यह मानते हैं कि बिना रिश्वत यहाँ कोई काम नहीं होता. जिस आबो-हवा के लिए लोग यहाँ आते थे, अब गर्मियों में आप उसे ढूँढते रह जायेंगे. हमारा पर्यावरण बुरी तरह से प्रभावित हुआ है. नतीजतन केदारनाथ जैसी आपदाएं घट रही हैं. लेकिन फिर भी हम जाग नहीं रहे हैं. यही समय है, जब हम अपने लिए सही सोच वाले व्यक्ति को अपने भविष्य की कुंजी सौंप सकते हैं. (अमर उजाला, नैनीताल संस्करण, २ अप्रैल, २०१४ से साभार)