सोमवार, 20 मई 2013

हिन्दी को चाहिए उसका हक


भाषा समस्या/ गोविंद सिंह
यह महज एक संयोग ही है कि एक तरफ सुप्रीम कोर्ट ने राजभाषा हिन्दी को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जबकि दूसरी तरफ न्यायपालिका और प्रशासन में भारतीय भाषाओं को लागू करने की मांग को लेकर राजधानी दिल्ली में दो बड़े धरने चल रहे हैं और देश के कोने-कोने से इस तरह की आवाजें उठ रही हैं. कांग्रेस मुख्यालय के बाहर पिछले पांच महीनों से श्याम रूद्र पाठक सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता खत्म करने को लेकर धरने पर बैठे हैं तो भारतीय भाषा आंदोलन के तहत पुष्पेन्द्र सिंह चौहान और अन्य लोग जंतर-मंतर पर सुप्रीम कोर्ट और यूपीएससी में भारतीय भाषाओं को लागू करने की मांग को लेकर धरना दिए हुए हैं. ये दोनों ही लोग भारतीय भाषाओं को उनका जायज हक दिलाने के लिए अतीत में भी निर्णायक लड़ाई लड़ चुके हैं. लेकिन इस बार की लड़ाई सचमुच कठिन है, क्योंकि अदालतों में भारतीय भाषाओं को लागू करने को लेकर हमारा संविधान भी चुप है. जाहिर है इसके लिए हमारी संसद को भी आगे आना होगा, तभी पूर्ण स्वराज्य का सपना साकार हो पायेगा.
खैर, अत्यंत सकारात्मक सूचना यह है कि इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे मामले को संज्ञान में लिया और हिन्दी के पक्ष में फैसला दिया, जिसका बड़े पैमाने पर सरकारी दफ्तरों में हनन होता रहा है. मामला यह है कि भारतीय नौसेना के एक कर्मचारी मिथिलेश कुमार सिंह के खिलाफ कोई विभागीय कार्रवाई चल रही थी. सिंह ने मांग की कि उन्हें कार्रवाई से सम्बंधित कागजात हिन्दी में दिए जाएँ. लेकिन कार्यालय ने ऐसा नहीं किया. सिंह ने भी आगे की कार्रवाई में सहयोग नहीं दिया. यह कोई नई बात नहीं है. अमूमन हर विभाग के हर दफ्तर में ऐसा होता रहा है. कार्रवाई अंग्रेज़ी में ही होती है. हिंदीभाषी इलाकों में भी. कर्मचारी भी प्रताडित होने के भय से उसे हिन्दी में करवाने की मांग नहीं करते. और न सरकारी दफ्तर और न ही अदालतें इस मामले में राजभाषा का साथ देती हैं. जैसा कि इस मामले में भी हुआ. मिथिलेश कुमार सिंह केन्द्रीय कर्मचारियों के प्रशासनिक अधिकरण (कैट) के पास भी गए और मुम्बई हाई कोर्ट भी. लेकिन दोनों ही जगहों से उन्हें दुत्कार ही मिली. यह इसलिए नहीं हुआ कि क़ानून उनके पक्ष में नहीं था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहले हमारी अदालतों ने राजभाषा से सम्बंधित कानूनों पर कभी गौर ही नहीं फरमाया. वे नया कुछ करने से बचती हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एचएल दत्तू और जेएस केहर ने पहली बार राजभाषा से सम्बंधित कानूनों को खंगाला और उन्हें व्यावहारिक क़ानून के दायरे में रख कर समझा. अभी तक हम इन कानूनों को नख-दन्त-विहीन क़ानून मानते आये हैं. क्योंकि संविधान में पर्याप्त स्थान पाने और राजभाषा अधिनियम, नियम, संकल्प और तरह-तरह के आदेशों के बावजूद आज भी लोग इन्हें सिर्फ सूक्ति वाक्यों की तरह ही लेते हैं, कोई इन्हें व्यवहार में लाने लायक नहीं समझता.
सरकारी कामकाज में हिन्दी को लागू करने को लेकर कोई भी  गंभीर नहीं है. हिन्दी दिवस पर हर साल एक रस्म अदायगी होती है. हिन्दी में काम करने के नाम पर कर्मचारियों को पुरस्कार बांटे जाते हैं. हर दफ्तर, शहर, विभाग, मुख्यालय, मंत्रालय और संसद, हर जगह हिन्दी कार्यान्वयन समितियां बनी हुई हैं. लोग भाषण देकर चले जाते हैं. लेकिन हिन्दी में काम नहीं होता. काम के लिए हिन्दी कक्ष बना दिए गए हैं. यह प्रक्रिया १९७६ में राजभाषा नियम बनने के बाद शुरू हुई, लेकिन इससे भी कोई गुणात्मक सुधार नहीं आ पाया. हिन्दी अनुवादकों और अफसरों की भर्ती तो हो गयी लेकिन हिन्दी में मौलिक लेखन नहीं बढ़ पाया. लिहाजा हिन्दी अनुवाद की भाषा यानी दोयम दर्जे की भाषा बनकर रह गयी. १९९१ में नयी अर्थव्यवस्था आने के बाद हिन्दीकरण की इस प्रक्रिया को भी धक्का लगा, जब हिन्दी से जुड़े स्टाफ को सरकारी दामाद समझा जाने लगा और हिन्दी अफसरों पर इस बात के लिए दबाव डाला जाने लगा कि वे हिन्दी का काम छोड़ कर किसी और विभाग का काम सीख लें. इस तरह हिन्दी कक्ष का काम सिर्फ आंकड़े पूरे करना भर रह गया है.
जहां तक हिन्दी को राजभाषा के रूप में सख्ती से लागू करने का सवाल है, उसकी प्रगति एक कदम आगे, दो कदम पीछे वाली रही है. संविधान के अनुच्छेद ३४३ में स्पष्ट व्यवस्था होने के बावजूद व्यावहारिक स्तर पर हिन्दी आज तक अंग्रेज़ी की सौतेली बहन ही बनी हुई है. १९६३ में राजभाषा अधिनियम बना लेकिन साथ ही दक्षिण भारत में हिन्दी विरोधी दंगे करवा दिए गए. जिससे १९६७ में इसमें कुछ संशोधन करने पड़े. संशोधन के बाद हिन्दी की स्थिति और भी कमजोर हो गयी. कहा गया कि अंग्रेजी का प्रयोग तब तक जारी रहेगा, जब तक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी राज्यों के विधान मण्डलों द्वारा, जिन्होंने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया है, संकल्प पारित नहीं कर दिए जाते और जब तक पूर्वोक्त संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात्‌ ऐसी समाप्ति के लिए संसद के हर एक सदन द्वारा संकल्प पारित नहीं कर दिया जाता। अर्थात पहले सभी राज्य हाँ करें, फिर संसद के दोनों सदन हाँ कहें, तब जाकर हिन्दी पूर्ण राजभाषा हो पायेगी. यह असंभव लगता है. कोई भी अहिंदी भाषी राज्य क्यों ऐसा करेगा? इंदिरा गांधी इस बात को समझ गयीं. इसीलिए आपातकाल के दौरान उन्होंने कुछ हिन्दी प्रेमियों के आग्रह पर राजभाषा नियम बनाए. चूंकि तब आपातकाल था, इसलिए यह नियम बन गया, वरना यह भी संभव नहीं था. बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने जिस नियम को आधार बनाकर नौसेना के मिथिलेश कुमार सिंह को न्याय दिलाया है, वह यही नियम है, जिसमें १९६७ के अधिनियम के तहत राजभाषा के रूप में हिन्दी को लागू करने में कुछ सख्ती बरतने की बात है.    
कहने का आशय यह है कि हमारे पास नियम है, क़ानून है, लेकिन कभी किसी ने उन्हें क़ानून की नजर से नहीं देखा. हर महीने-तीन महीने में हिन्दी कार्यान्वयन की रिपोर्ट राजभाषा विभाग को भेजी जाती है. जिनमें दवा किया जाता है कि शत प्रति शत नहीं तो ९० प्रतिशत काम हिन्दी में हो रहा है. सबको पता होता है कि ये आंकड़े झूठे हैं, लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता. सरकारी अफसर इसे एक बला की तरह से लेते हैं. यहाँ तक कि संसदीय समिति भी दौरे तो बहुत करती है, लेकिन सांसदों की दिलचस्पी भी हिन्दी को लागू करवाने में कम, ‘उपहार बटोरने में ज्यादा होती है’. इसलिए हिन्दी को लागू करने का अनुष्ठान महज एक प्रहसन बनकर रह गया था. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप हिन्दी को लागू करने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है. अदालत का थोड़ा सा भी भय ब्यूरोक्रेसी को हो तो वाह राजभाषा कानूनों की अवहेलना नहीं करेगी.   (अमर उजाला, २० मई, २०१३ को प्रकाशित. साभार) 

गुरुवार, 9 मई 2013

कहानी दार्जीलिंग यात्रा की


  1.  मेरे साले जगत मेहता ने फेसबुक के अपने और मेरे पेज पर दो पुराने फोटो चस्पां कर दिए, जिनमें मैं, मेरी पत्नी द्रौपदी और बेटा पुरु हैं. ये फोटो १९८८ में दार्जीलिंग के हैं. बहुत सारे मित्रों ने कहा यह बहुत अच्छा फोटो है. भाई अतीत हमेशा ही अच्छा लगता है, चाहे वह कितना ही बुरा क्यों न रहा हो. खैर फोटोओं को देख कर मेरे दिमाग की रील घूमने लगी और मुझे लगा कि उस यात्रा की कहानी लिखी जाए. तो पेश है पूरी कहानी: 
    अभी ठीक से याद नहीं आ रहा कि वह दिसंबर १९८७ था या दिसंबर १९८८. शायद ८८ ही रहा होगा. हम कलकत्ते में थे. जून १९८६ में नवभारत टाइम्स, मुंबई की नौकरी छोड़ कर मैं हिन्दी अफसर बनकर आईडीबीआई के पूर्वी क्षेत्रीय कार्यालय कलकत्ता चला गया था. बड़ी ठाट की नौकरी थी. बांसद्रोणी में सुन्दर मकान मिला हुआ था. हम दो और हमारा एक, साथ में मेरी ईजा. मुम्बई की भागम भाग की अखबारी नौकरी के बाद जैसे अचानक आराम की ऐय्याशी भरी नौकरी मिल गयी थी. फ्रीलांसिंग भी जारी थी. धर्मयुग, नभाटा, दिनमान, चौथी दुनिया और परिवर्तन जैसी पत्रिकाओं में लिखता और खुद को धन्य समझता.
    सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था. तभी जिंदगी में एक तूफ़ान सा आया. एक दिन अचानक मेरी पत्नी ने बोलना बंद कर दिया. उसका मुंह ही नहीं खुल रहा था. बाईं तरफ का गाल फूल गया था. रोने लगी. मेरी समझ में कुछ नहीं आया. डॉ मजूमदार के पास ले गया. वह बोले कि कुछ भी हो सकता है. दांत में कुछ इन्फेक्शन भी हो सकता है और मम्स भी हो सकते हैं. फिर बोले मम्स एक ही तरफ नहीं हो सकते. उन्होंने कुछ एंटीबायोटिक दी, बोले कल तक कुछ सूजन घट जायेगी, तब बात करेंगे. दूसरे दिन गए. तो बोले कुछ ख़तरा लगता है. फिर बोले डरिए नहीं, हमसे बड़े डॉ. हैं चक्रबर्ती, उनके पास जाइए. हम और डर गए. चक्रबर्ती के पास गए. उसने ढेर सारी दवाइयां लिख दी. और बोले ऑपरेशन होगा. बाएं जबड़े में सिस्ट है. मैंने पूछा, वह क्या होता है, डॉ. बोला, समझो कैंसर की तरह है. बीच-बीच में ढाढस भी देता. कोई बात नहीं, हम हैं तो. ऑपरेशन जल्दी करना होगा. चार हज़ार लगेगा. ( तब चार हज़ार बहुत होते थे.) मैं मन ही मन बहुत घबरा गया. शादी हुए अभी दो-तीन वर्ष ही हुए थे. बहुत बुरे-बुरे ख़याल आने लगे. लेकिन मैंने हिम्मत की, ऑपरेशन के लिए तैयार हो गया. दूसरे दिन एडमिट होना था.
    मैं कभी कभी बिरला फाउन्डेशन जाया करता था. यह मेरे शेक्सपीयर सरणी वाले दफ्तर के नजदीक ही था. वहाँ से कुछ अनुवाद आदि का काम मिलता था. वहाँ एन्साक्लोपीडिया के संपादक पृथ्वीनाथ शास्त्री थे. बड़े विवादास्पद व्यक्ति थे लेकिन मुझे बहुत चाहते थे. उन्होंने मेरे चेहरे पर परेशानी के संकेत पढ़े. बोले क्या बात है? मैंने बता दिया. बोले, चिंता मत करो, यह मामूली बात है. हाँ, एक और डॉ हैं अपने मित्र, उनकी भी राय ले लो. वह मेडिकल कालेज में डेंटल विभाग के हेड हैं. कलकत्ता के सारे दांतों के डॉ. उनके चेले हैं. वह सही राय देंगे. उन्होंने कहा, मैं टाइम लेता हूँ, तुम अभी घर जा कर पत्नी को ले आओ और रिपोर्ट्स भी. उन्होंने फोन लगाया. डॉक्टर घर जा चुके थे. लेकिन उन्होंने घर पर ही बुलाया. बहुत दूर रहते थे. शायद साल्ट लेक की तरफ. शाम को उनके घर पहुंचे. अपनी भोलू (सिल्वर प्लस नामक मोपेड, जिसका नाम हमने भोलू रखा हुआ था.) पर सवार होकर. डॉ बहुत भले आदमी थे. उन्होंने मुंह देखा. कागज़ देखे. बोले, जो बीमारी पकड़ी है, वह सही है. स्कीम भी सही है. हाँ, पैसे कुछ ज्यादा बोले हैं. फिर बोले, वैसे चक्रबर्ती भी मेरा ही विद्यार्थी है, लेकिन मैं तुम्हें अपने सबसे अच्छे विद्यार्थी के पास भेजता हूँ. वह कलकत्ता का सबसे अच्छा डॉ. है. अरविन्द दत्त. उसके पास चले जाओ. यह पर्ची दे देना. इन्तजार कर लेना, लेकिन आज दिखा कर ही जाना. हम भोलू पर सवार हुए. साल्ट लेक से भवानीपुर के लिए चल दिए. रात आठ बजे डॉ के पास पहुंचे. पर्ची भिजवाई. सन्देश मिला कि बैठ जाइए. दस बजे तक नंबर नहीं आया. द्रौपदी को तो नींद ही आ गयी थी. जब सब लोग चले गए, डॉ. ने बुलाया. जबड़ा देखा. कागज़ देखे. बोला, ऑपरेशन परसों करेंगे. सैमरिटन क्लिनिक में.
    ऐसा गंभीर डॉ. पहले कभी नहीं देखा था. हर शब्द तौल कर बोलता था. पर्ची पर शब्द नहीं, जैसे फूल लिख रहा हो. क्या कमाल की रायटिंग थी! ऑपेरशन के दिन हम सुबह ही पहुँच गए. मैं अकेला ही था. बेटे को पड़ोसियों के पास छोड़ आया था. द्रौपदी बहुत घबरा गयी थी. हरे वस्त्रों में लपेट कर ऑपरेशन थिएटर ले जाने लगे तो वह रोने लगी. घबराया तो मैं भी था, पर दिल थाम कर बैठा था. इतने में डॉ. आया. उसने धीरे से द्रौपदी से माथे पर हाथ फेरा तो उसका भय छूमंतर हो गया. डेढ़ घंटे ऑपरेशन चला. एक अन्य बैंक में हिन्दी अफसर विजय कुमार शर्मा मुझे ढाढस देने क्लिनिक पहुंचे. तब लगा परदेश में रहने का क्या मतलब होता है. मैंने दिल्ली अपनी ससुराल फोन लगाया. द्रौपदी की मदद के लिए वहाँ से मेरी साली शांति चली आयी, राजधानी में बैठकर. मेरी ससुराल वालों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे हमेशा मदद के लिए आ खड़े होते हैं. सेवा का भाव उनमें कूट-कूट कर भरा है. सबसे बड़ी बेटी होने के नाते द्रौपदी से वे बेतहाशा प्यार करते हैं. तब पहली बार मुझे लगा कि नौकरी घर के आस-पास ही होनी चाहिए. 

    शान्ति आयी तो थी अपनी दीदी की मदद और दुर्गा पूजा देखने के लिए लेकिन हावडा स्टेशन पर उतरते ही उसे इतनी गरमी लगी कि घर पहुँचते-पहुँचते वह खुद ही बीमार पड़ गयी. डॉ. के पास ले गया. दवा भी बेअसर रही. एक हफ्ता पड़ी रही. सेवा करने आयी थी, सेवा ले रही थी. तब तक पूजा भी खत्म हो गयी. अंतिम दिनों कुछ पंडाल ही दिखा पाया.
    दो हफ्ते बड़े तनाव में गुजरे. नवंबर का महीना जा रहा था. हमें लगा कि चलो कहीं घूम आया जाए. मन बदल जाएगा. तभी मैंने दार्जीलिंग का प्लान बनाया. यह सुनकर दोनों बहनें बहुत खुश हुईं. ईजा शायद उन दिनों पहाड़ गयी हुई थीं. मैंने एलटीसी लिया और दार्जिलिंग की तैयारी शुरू हुई. रेल से सिलीगुड़ी पहुंचे. फिर टॉय ट्रेन से दार्जीलिंग जाना चाहते थे, लेकिन उन दिनों गोरखालैंड आंदोलन के कारण ट्रेन बंद थी, लिहाजा बस से ही यह पहाड़ी यात्रा करनी पड़ी. दार्जीलिंग यात्रा और वह भी बिना टॉय ट्रेन के. मजा नहीं आया. मैं अपने कॉलेज के दिनों में ही इस ट्रेन की सैर कर चुका था. उसकी मनोरम यादें शेष थीं. खैर हम दार्जीलिंग पहुंचे. कोई होटल आदि बुक नहीं किया था. एक आदमी का पता था. लेकिन वह घर पर नहीं मिला. खुद ही होटल आदि के बारे में पूछा तो अनाप-शनाप किराया माँगने लगे. इतने तो अपनी जेब में थे भी नहीं. तभी अखबारों की एक दूकान दिखी. सोचा अपनी लाइन का आदमी है, शायद कुछ मदद करेगा. कुछ जान-पहचान लगाई. अपने लेखक होने की बात बताई. दुकानदार सयाना था. नाम था पदम दत्त शर्मा. बोले किस नाम से लिखते हैं. बोला, गोविंद खोलिया. (तब मैं सरकारी नौकरी में होने के कारण इसी नाम से लिखता था). वह बोले कि क्या कभी धर्मयुग में भी लिखा. मैंने कहा, हाँ. वह सज्जन तहखाने में गए और तीन-चार पत्रिकाएं ले आये. वे सब नेपाली में थीं. बोले, आपके लेख हमने अनुवाद करवाके रिप्रिंट किए हैं और जनता में बांटे हैं. ये सारी पत्रिकाएं भूमिगत हैं. आप तो हमारे समर्थक हैं. आपने हमारी बात को राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाया है, इसलिए हम आपके आभारी हैं. अब बताइए, हम आपकी क्या मदद करे?
    मैं गदगद था. एक लेखक को और क्या चाहिए? पत्रकारिता का क्या असर होता है, यह मैंने उसी दिन जाना. मैंने कहा, मुझे कुछ नहीं चाहिए. आप ज़रा मुझे एक कमरा दिला दीजिए. मैं बच्चों सहित दार्जीलिंग घूमने आया हूँ. बाक़ी बातें बाद में होंगी. उन्होंने एक लड़का भेजा. एक माध्यम दर्जे के होटल में एक बड़ा सा कमरा दिला दिया, बहुत ही सस्ते किराए में. शायद एक-तिहाई में. और हमने चार-पांच दिन बड़े आनंद से दार्जीलिंग भ्रमण किया. दोनों बहनों ने गोर्खाली लड़कियों की पोशाक पहन कर चाय की पत्तियां तोड़ते हुए फोटो खिंचवाईं. हमने टायगर हिल में सूर्योदय देखा. बेता पुरु तब दो-ढाई साल का था. ठण्ड से उसके होठ लाल हो गए. वह रोने लगा. लेकिन जैसे ही बाल सूर्य कंचनजंघा के ऊपर प्रकट हुआ, सारी ठण्ड दूर हो गयी. पुरु भी रोते-रोते अंगुली से कहने लगा, देखो- सूरज! एक दिन लोगों ने मुझे सुभाष घीसिंग से भी मिलवाया. तब उत्तरी बंगाल में उनकी तूती बोलती थी. उनके एक इशारे पर तूफ़ान मच जाता था. हम लोग घीसिंग के गाँव मिरिक भी गए. डीयर पार्क, एच एम आई, और भी कई जगहें देखीं. दार्जीलिंग की वह छाप मानस पटल से कभी नहीं मिटती. – गोविंद सिंह

रविवार, 5 मई 2013

अपने भीतर झांके प्रेस


प्रेस स्वाधीनता दिवस/ गोविंद सिंह
ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ रहे हैं, सभ्य हो रहे हैं, प्रेस पर जकडबंदी बढ़ती जा रही है. यह जकडबंदी किसी एक कोने से नहीं बल्कि समाज के चारों कोनों से हो रही है. कहते सब हैं कि प्रेस आज़ाद होनी चाहिए, लेकिन जब बात अपने पर आती है तो कोई उसे आजादी नहीं देना चाहता. क्या राजनीति, क्या उद्योग-व्यापार जगत, क्या सरकार, क्या समाज, हर कोई उसे अपनी जेब में रखना चाहता है. पिछले साल यानी वर्ष २०१२ में ही कुल ७० पत्रकार दुनिया भर में मारे गए. जबकि वर्ष १९९२ से अब तक ९८२ पत्रकार मारे गए हैं. १९६ देशों के मीडिया सर्वे में कहा गया है कि दुनिया में ३५ फीसदी देश ही ऐसे हैं जहां प्रेस आज़ाद है. ३३ प्रतिशत देशों में कामचलाऊ आजादी है जबकि ३२ प्रतिशत देशों में कोई  आजादी नहीं है. हमारे देश की हालत भी बद से बदतर होती जा रही है. रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स नामक संस्था द्वारा कराये गए १७९ देशों के सर्वे में हम १४०वें पायदान पर हैं. जबकि दो साल पहले हम १२२ वें स्थान पर थे. यानी हमारे यहाँ प्रेस की आजादी लगातार क्षीण हो रही है. लेकिन यह केवल हमारे देश की बात नहीं है, दुनिया के लगभग हर देश में प्रेस पर संकट है. हाँ, यह जरूर है कि संकट के रूप अलग-अलग हैं. कहीं सरकारें ही उसे दबाने पर आमादा हैं तो कहीं आतंकवादग्रस्त इलाकों में उन पर आतंकियों का दबाव है, कहीं फ़ौज उनके पीछे है तो कहीं पुलिस या अन्य सुरक्षा बल. ये वे आंकड़े हैं, जो प्रकट हैं अर्थात दिखाई देते हैं. यानी हिंसा-प्रतिहिंसाग्रस्त इलाकों के. अपने भीतर के दबाव के आंकड़े नहीं मिल सकते.
जिन देशों में तानाशाही व्यवस्थाएं हैं, वहाँ तो प्रेस की आजादी की बात करना ही निरर्थक है, लेकिन जिन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं हैं, वहाँ भी स्थितियां बदतर ही हो रही हैं. यूरोप के कुछ छोटे-छोटे देशों को छोड़ दें, तो बाक़ी सभी देशों का हाल खराब ही है. यूरोपीय देशों की हालत भी भलेही ऊपर से अच्छी दिखती हो, लेकिन सचाई यही है कि वहाँ प्रेस पर अलग किस्म के दबाव हैं. अर्थात तानाशाही वाले देशों या संकटग्रस्त देशों में दमन साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है तो पूंजीवादी और लोकतांत्रिक देशों में उसकी छाया ही दिखाई पड़ती है. यूरोप-अमेरिका जैसे देशों की प्रेस आर्थिक मंदी जैसे संकटों से जूझ रही है. उसे अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए अपने एजेंडे को ही बदलना पड़ रहा है. अपने बुनियादी उसूलों से ही समझौता करना पड़ रहा है. वहाँ अखबारों को अपने नागरिकों की समस्याओं की बजाय उनकी बातों को तवज्जो देनी पड़ रही है, जो इस अकाल वेला में विज्ञापन देकर उनका पेट भर सकें.
भारत जैसे देशों में समस्या एकदम अलग है. हमारे यहाँ अभी संक्रमण का ही दौर चल रहा है. आर्थिक सुधारों के बाद मीडिया का क्षेत्र अप्रत्याशित गति से बढ़ा है. अर्नेस्ट एंड यंग इंडिया की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में मीडिया की खपत लगातार बढ़ रही है. घरेलू मीडिया व मनोरंजन उद्योग वर्ष 2015 तक 25 अरब डालर से अधिक का हो जाएगा जो 2010 में 16.3 अरब डालर था। सचमुच आज वह एक बड़े उद्योग का रूप धारण कर चुका है. जिस रफ़्तार से वह बढ़ रहा है, उस अनुपात में वह पेशेवर यानी संस्कारित नहीं हो पाया है. एक तरफ मिशनरी होने का पुरानी पीढ़ी का बोझ है तो दूसरी तरफ व्यावसायिक बनकर धन भी कमाना है. यहाँ पत्र-स्वामियों या मीडिया घरानों की बड़ी संख्या पहली या दूसरी पीढ़ी की है. नयी पीढ़ी के लिए मिशनरी मूल्यों का कोई अर्थ नहीं रह गया है. इसी तरह हमारी राजनीति भी अभी परिपक्व नहीं हो पायी है. हालांकि राजनेताओं की पिछली पीढ़ी पत्रकारिता के साथ कंधे से कंधा मिला कर आज़ादी का आन्दोलन लड़ रही थी, फिर भी अब के राजनेताओं में पत्रकारिता के उच्च मूल्यों के प्रति कोई सम्मान नहीं दिखाई देता. दरअसल राजनीति के चरित्र में ही बड़े पैमाने पर ह्रास हुआ है तो क्या किया जा सकता है. हमने अपनी अर्थव्यवस्था को ग्लोबल तो कर दिया है, लेकिन हमारे संस्कार अभी पुरातन ही हैं. हमारे यहाँ जो पूंजीवाद आया है, वह जनकल्याणकारी पूंजीवाद नहीं है. उसे क्रोनी कैपिटलिज्म यानी लंगोटिया पूंजीवाद कहा जा रहा है. अर्थात जो जनहित के लिए नहीं राजनेताओं- अफसरों के लंगोटिया दोस्तों को फायदा पहुंचाने के लिए होता है. आर्थिक उदारीकरण का लाभ बहुत कम लोगों तक पहुंचा है. ऐसे में प्रेस के मूल्य भी तेजी से बदल रहे हैं और उसके प्रति समाज की धारणा भी बदल रही है. 
ज्यादातर राजनेता भी प्रेस को अपनी जेब में रखना चाहते हैं. सरकारें चाहती हैं कि प्रेस उसके प्रति दोस्ताना व्यवहार रखे. चूंकि अपने यहाँ अभी भी छोटे अखबार सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर हैं, खासकर उन राज्यों में, जो औद्योगिक रूप से पिछड़े हुए हैं, वहाँ निजी क्षेत्र के विज्ञापन नहीं मिल पाते. इसलिए अखबारों को पूरी तरह से सरकारी विज्ञापनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. जाहिर है ऐसे राज्यों में अखबार खुल कर सरकारों की समीक्षा नहीं कर पाते. बिहार का उदाहरण सबके सामने हैं. प्रेस परिषद की टीम ने स्पष्ट कहा है कि वहाँ अघोषित सेंसरशिप लगी हुई है. छोटी जगहों पर तो समस्या और भी जटिल है. वहाँ नेता, अफसर और अपराधी सीधे-सीधे पत्रकार के सामने होते हैं. इसलिए परिस्थिति बेहद कठिन होती है. जिसके खिलाफ आप लिख रहे हैं, वह लिखने से पहले ही आपके हर शब्द पर नजर गडाए हुए है. आपको हर तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं. प्रलोभन से नहीं माने तो दमन से मनाया जाता है. पत्रकार के पास क्या सुरक्षा है?
यह तो रहा बाहरी दबाव. असली दबाव हमारे अपने भीतर का है. आनन्-फानन में उद्योग बन जाने के कारण प्रेस के भीतर भी अनेक विकृतियाँ आ गयी हैं. हम कहते हैं कि पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन बन गयी है, यानी उसका पतन हो गया है. सवाल यह है आज कितने पत्रकार हैं जो मिशनरी बनने को तैयार हैं? १९०९ में इलाहाबाद से छपने वाले अखबार ‘स्वराज्य’ द्वारा संपादक पद के लिए निकाला गया विज्ञापन देखने लायक है: ‘एक जौ की रोटी, और एक प्याला पानी, यह शरहे-तनख्वाह (वेतन) है जिस पर स्वराज्य, इलाहाबाद के वास्ते एडिटर मतलूब है. यह वह अखबार है, जिसके दो एडिटर बगावत आमेज मजामीन (विद्रोहात्मक लेखों) की मुहब्बत में गिरफ्तार हो चुके हैं. अब तीसरा एडिटर मुहैया करने के लिए जो इश्तिहार दिया जाता है, उसमें जो शरहे तनख्वाह जाहिर की गयी है, ऐसा एडिटर दरकार है, जो अपने ऐशो-आराम पर जेलखाने में रह कर जौ की रोटी और एक प्याला पानी को तरजीह दे.’ अर्थात ऐसी स्थिति के लिए आज कोई  भी पत्रकार तैयार नहीं होता. इसलिए आज के युग में सिर्फ मिशन के नारे से काम नहीं चलेगा. अब सवाल यह है कि कम से कम पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों से क्या आज के पत्रकार या पत्र-स्वामी वाकिफ हैं?    
आज़ादी से पहले प्रेस का आकार छोटा था, उसने उद्योग का रूप धारण नहीं किया था. वही लोग इस पेशे में आते थे, जो सचमुच पत्रकारीय मूल्यों के प्रति वफादार थे. आज ऐसा नहीं है. हर तरह के लोग इस में घुस गए हैं. ऐसे मीडिया-स्वामी भी मैदान में आ गए हैं, जिनका पत्रकारिता के प्रति कोई सरोकार नहीं है. पिछले साल हमने देखा कि एक बहुचर्चित घराने के शीर्ष संपादकों को जेल जाना पड़ा. यदि वे सचमुच पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा के लिए जेल गए होते तो सारा मीडिया और समाज उनके पीछे खड़ा हो जाता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसी तरह ऐसे ब्लैकमेलर, लौबीइंग करने वाले पत्रकारों की फ़ौज खड़ी हो गयी है, जो प्रेस के बारे में बनी पुरानी धारणा को खंडित कर रहे हैं. नीरा रादिया का उदाहरण सबके सामने है. जो शीर्ष स्तर पर पत्रकारों को मैनेज कर रहीं थीं. प्रेस ज़रा भी आँखें दिखाने लगी कि क्या राजनीति, क्या सरकार, क्या ब्यूरोक्रेसी या उद्योग जगत, हर कहीं प्रेस को मैनेज करने की बात होती है. जिसकी कोई औकात नहीं, वह भी प्रेस को मैनेज करता-फिरता है. इंटरनेट नया माध्यम है. उसके माध्यम से होने वाली पत्रकारिता को लेकर क़ानून अभी लचीले हैं. जिसका फायदा उठाकर लोग पत्रकारीय नैतिकता की धज्जियां उड़ा रहे हैं. ऐसी स्थिति में यदि सरकार इनके खिलाफ कदम उठाने की बात करती है तो क्या बुरा है? यानी खतरा हमारे भीतर है. हमारी पत्रकारिता एक तरह से खुद पर हमले का न्योता दे रही है. कल तक जो जनता पत्रकारिता के पक्ष में खड़ी नजर आती थी, वही आज क्यों उसकी बुराई करने लगी है? पत्रकारिता से आजिज आकर ही लोग फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया की तरफ भाग रहे हैं. इसलिए पत्रकार साथियों को चाहिए कि वे सोचें कि कि कल तक जो जनता उसके पीछे खड़ी रहती थी, आज क्यों वही उसके पीछे पड़ गयी है? हमें सचमुच अपनी आजादी की रक्षा खुद करनी होगी. ( हिन्दुस्तान दैनिक में तीन मई, २०१३  को प्रकाशित लेख का परिवर्धित रूप.)