शुक्रवार, 18 मई 2012

एक भारत-भक्त अँगरेज़ के जाने पर

श्रद्धांजलि/ गोविंद सिंह
दिल्ली से मित्र राजीव कटारा का फोन आया, ‘लांस डेन नहीं रहे. कल ही मुंबई में उनका देहांत हो गया. हिंदू में खबर छपी है, शायद आपने न पढ़ी हो, इसलिए फोन किया.’ वाकई दुःख हुआ. जाने-अनजाने इस बूढे अँगरेज़ से मेरा एक अजीब-सा अपनापा हो गया था. कोई दस साल पहले उनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी. हम एक ही सोसाइटी में रहते थे. लेकिन जुडाव का कारण यह नहीं था. उनके प्रति आकर्षित होने का कारण उनकी कद-काठी और गांधीवादी जीवन शैली थी. आते-जाते उन्हें देखता तो मन होता कि कैसे इस व्यक्ति से बातचीत का सिलसिला बढ़ाया जाए. एक बार साहस करके बात कर ही ली. पता चला कि ८० साल का यह बूढा अँगरेज़ दूसरे महायुद्ध में भाग ले चुका है. बर्मा में. मेरे पिता जी भी उस दौरान वहीं थे. मेरे पिता जी उनसे कुछ बड़े ही थे. लेकिन महायुद्ध के बाद लांस डेन भारत आ गए और इंग्लैण्ड नहीं गए. फोटोग्राफी, कलात्मक वस्तुओं की खोज, पुरानी चीजों को इकट्ठा करने में लग गए. जिन दिनों मेरी मुलाक़ात हुई, वे कामसूत्र पर काम कर रहे थे. उसके बाद उनसे मेरी मित्रता ही हो गयी. मेरे सबसे ज्यादा उम्र के दोस्त, मेरे पिताजी की उम्र के. वे अक्सर फोन करते. कभी बिजली न आने की शिकायत, कभी पानी की, कभी केबल वाले की. उन्हें लगता कि सोसाइटी की कार्यकारिणी में होने की वजह से मैं शायद हर समस्या का हल खोज सकता हूँ. एक बार उन्होंने अजीब सी शिकायत की, यह शिकायत थी- कबूतरों के बारे में, कि क्यों वे खिड़की में बीट करके चली जाती हैं? बोले, गुप्त काल में भी नगरीय लोग इनसे परेशान थे. ( वे तब गुप्त काल पर फ्रांस में लगने वाली एक प्रदर्शिनी पर काम कर रहे थे). उनके पास भारत के पुराने सिक्के, कलात्मक वस्तुएं, किताबें, मूर्तियां और भी कई चीजें थीं. कला के ऐसे संग्रहकर्ता अब कहाँ मिलेंगे? २०१० में जब मैं कादम्बिनी में था, हमने भारत में रह रहे विदेशियों के बारे में अगस्त अंक निकालने का मन बनाया तो इसके पीछे वही मुख्य प्रेरणा थे. मैंने उनसे बातचीत की और उन्हीं की तरफ से एक आलेख बनाया. यहाँ उसे ज्यों का त्यों रखना उचित होगा:

मंदिर में घुसने के लिए बना हिंदू- लांस डेन

मेरे पिता जी ब्रिटिश आर्मी के शेरवुड फोरेस्टर रेजिमेंट में वरिष्ठ अधिकारी थे। लेकिन मेरा जन्म इंग्लैंड के नॉटिंघम में हुआ। बहुत खूबसूरत जगह थी वह। बड़े ही मनोहारी कैसल थे वहां। लेकिन छह वर्ष का रहा हूंगा कि हमारा परिवार भारत आ गया। हम पिताजी के साथ दक्षिण भारत में रहे थे। हालांकि पिताजी का काम गुप्त संदेशों के विश्लेषण से जुड़ा था लेकिन वे तरह-तरह के लोगों से मिलते रहते थे। उनके मित्रों में बड़ी संख्या भारतीयों की थी। और भारतीयों के साथ उनके रिश्ते बहुत ही अच्छे थे। उनके साथ काम करने वाले एक सज्जन थे- एसडी श्रीनिवास राजगोपालाचारी। पिताजी ने उन्हें मेरा गॉडफादर जैसा बना दिया था। मैं भी उन्हें अपने पिता की ही तरह मानता था। वे मुझे हर जन्मदिन पर सोने का एक सिक्का दिया करते थे, जिन्हें आज तक मैंने संभाल कर रखा है।

मेरी मां अत्यंत घुमककड़ स्वभाव की थीं। वह कहीं भी जाने के लिए हमेशा तैयार रहती थीं। मैंने बचपन में दक्षिण भारत के लगभग सारे मंदिर देख लिए थे। मेरी मां मुझे अकसर प्राचीन मंदिरों, भवनों, संग्रहालयों और सांस्कृतिक स्थलों में ले जातीं और खुद भी आनंदित होतीं। इस तरह मुझे बचपन से ही भारत की संस्कृति को बारीकी के साथ देखने-समझने का मौका मिला। 1938 में जब दूसरा महायुद्ध हुआ, तो मैं महज 15 साल का था लेकिन हमारे भीतर भी अपने देश को बचाने की भावनाएं हिलोरें लेने लगीं। खैर 1940 में मुझे ब्रिटिश आर्मी में वार कमीशन मिल गया। मैं सिग्नल कोर में था। युद्ध से संबंधित संदेशों को पहुंचाने की जिम्मेदारी थी। मुझे बर्मा में रखा गया। कुछ समय मांडले और कुछ समय इंफाल में रहा। बर्मा के बौद्ध-स्थलों के दर्शन किए और उत्तर-पूर्वी भारत की लोक संस्कृति को भी करीब से देखा। 1947 तक मैं फौज में रहा। लेकिन मैं मन से कभी फौजी नहीं बन पाया। 15 अगस्त को मैं रंगून में ही था। वहीं हमने नेहरू का भाषण रेडियो पर सुना।

भारत की आजादी के बाद मेरे सामने यह सवाल आ खड़ा हुआ कि अब मैं क्या करूं? मेरे एक सीनियर पाकिस्तान में रक्षा स्टाफ कॉलेज के इंचार्ज बने तो उन्होंने मुझे वहां आने का न्योता दिया। मैं वहां गया भी। लेकिन अनिर्णय बना रहा। उसके बाद मैं इंग्लैंड गया। अपने जन्मस्थान नॉटिंघम शायर। लेकिन मेरे घुमक्कड़ मन को रह-रह कर भारत की याद आती रही। मेरी दो बहनें मुंबई में ही अस्पताल में डॉक्टर थीं। मुझे लगा कि मैं भारत के लिए ही बना हूं। यह विशाल देश मुझे बरबस अपनी ओर खींचता। मैं कोई ऐसा काम चाहता था, जिसमें मुझे देश घूमने का मौका मिले। तभी पता चला कि बंबई की एक दवा कंपनी को मुझ जैसे घुमक्कड़ की जरूरत है, जो दवाओं की मार्केटिंग कर सके। और इस तरह मैं भारत का ही होकर रह गया।

लेकिन दो-तीन वर्षों में ही मुझे लगा कि मैं इसके लिए भी नहीं बना हूं। जब भी मुझे समय मिलता, मैं धर्मस्थलों, मंदिरों, प्रागैतिहासिक स्थलों और कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों को देखने लगा। मेरे एक चाचा ने मुझे एक अच्छा कैमरा दिया। इस तरह मैं भारतीय कलानिधि की फोटोग्राफी करने लगा। मैंने कला को संचार के माध्यम के तौर पर देखना-समझना शुरू किया। तभी मेरी दिलचस्पी को देखते हुए डॉली साहिया नाम की एक पारसी लड़की ने मशहूर लेखक और कला मर्मज्ञ मुल्कराज आनंद से मेरी मुलाकात करवाई। वे मार्ग पत्रिका के संपादक थे। और मुझ से भारतीय कला पर लेख लिखवाते और फोटो खिंचवाते। एक बार उन्होंने मुझे केरल के हिंदू मंदिरों के मंदिर वास्तु पर लिखने को कहा। वहां गया तो पता चला कि मंदिर जाने के लिए हिंदू होना जरूरी है और केवल धोती पहन कर ही वहां जाया जा सकता है। बड़ी मुश्किल थी। लेकिन मंदिर में जाना भी जरूरी था। बिना देखे लिखते कैसे? इसलिए तय किया कि आर्य समाजी पद्धति से हिंदू धर्म ग्रहण किया जाए। और मैं आर्य समाजी हिंदू बन गया। धोती पहनने का अभ्यास किया। इस तरह मंदिर पर लेख लिखा। मुल्कराज आनंद वर्णन सुनकर प्रभावित हुए। वे भी मेरे साथ मंदिर देखने गए। मैं धोती में था, तो मुझे पुजारियों ने बेधड़क अंदर जाने दिया, लेकिन सूट-बूट वाले मुल्कराज आनंद को बाहर ही रोक दिया।

मैंने आनंद के साथ कामसूत्र पर काम किया। चूंकि मेरे पास बेहिसाब चित्र थे, जगह-जगह से इकट्ठा किए हुए कामसूत्र के संस्करण थे, घुमक्कड़ी का अनुभव था, और मुल्कराज आनंद के पास खूबसूरत भाषा और गहरी कलादृष्टि थी। इस तरह 1984 में कामसूत्र की पहली आधुनिक व्याख्या लिखी गई। बाद में मैंने कामसूत्र पर स्वतंत्र रूप से भी टीका लिखी, जिसके लिए मुझे पाली और प्राकृत के विद्वानों के साथ भी बैठना पड़ा। इन भाषाओं को समझना पड़ा। ताकि उसकी मौलिकता को बरकरार रखा जा सके। कामसूत्र सचमुच एक अद्भुत ग्रंथ है, जिसे मैं सेक्स का नहीं, मानव व्यवहार की महान कृति कहता हूं। यौन संबंध मनुष्य को ईश्वर प्रदत्त वरदान है। स्त्री-पुरुष के लिए एक-दूसरे को समझने का इससे बेहतर कोई जरिया नहीं। दुनिया में इस विषय पर इससे बेहतर कोई रचना नहीं है। भारतीय सभ्यता की महानता देखिए कि यह सब भी ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी में हो गया था। भारत सचमुच एक अद्भुत देश है। यहां समस्याएं भी कम नहीं हैं, फिर भी देश चलता रहता है। 
कामसूत्र के अलावा मैंने गुप्त काल पर भी काफी काम किया है। मेरी छह प्रमुख किताबें हैं और इस समय भी मेरे हाथ में पांच प्रोजेक्ट हैं। यही नहीं, मेरे पास हजारों दुर्लभ सिक्के, कलाकृतियां, मूर्तियां और एंटीक हैं, जिन्हें जल्द ही एक ट्रस्ट बनाकर सौंपने की तैयारी है। देखता हूं क्या-क्या कर पाता हूं।

शनिवार, 5 मई 2012

वनफूलों के बीच

प्रकृति/ गोविंद सिंह

मुक्तेश्वर के पास सोनापानी के लिए रवाना होने से पहले मन में कई विचार आ रहे थे. दो साल पहले जून की गर्मी में एक बार सोनापानी को मैं और मेरी बेटी बस छू भर आये थे. यह बड़ी मजेदार जगह है. एक जंगल के बीच फलों का बगीचा है. जिसे लोग सोनापानी एस्टेट के नाम से जानते हैं. किसी अँगरेज़ का लगाया हुआ. लेकिन आजकल यहाँ एक खूबसूरत रिसोर्ट है. एस्टेट में १२ छोटी -छोटी कोटेज हैं. पहाड़ी शैली की. शहर की आपाधापी से दूर दो-एक दिन के लिए यहाँ रहना किसी क्रिएटिव विचार से कम नहीं. इस बार दो दिन रहने का न्योता मिला तो मन में तसल्ली का भाव था. हल्द्वानी से भीमताल-भवाली होते हुए जैसे ही हम रामगढ़ की तरफ दाखिल हुए, नज़ारा देख कर मन आनंद से भर उठा. यहाँ प्रकृति इन दिनों पूरे शबाब पर है. पूरी की पूरी पहाडियां जैसे खिल उठी हैं. सबसे पहले हमारा स्वागत उस ध्वयाँ या धौल्या के फूलों ने किया, जिसके छोटे-छोटे फूलों के लाल गुच्छों से हम बचपन में खूब रस चूसा करते थे. इन दिनों यह खूब खिला हुआ है. सवेरे ११-१२ बजे तक इनके भीतर अत्यंत मधुर रस भरा होता है. उसके बाद धूप इस रस को सोख लेती है. बचपन में स्कूल जाते हुए, गैयाँ चराने वन जाते हुए हम किसी तरह धूप, मधुमक्खियों और भौंरों से पहले ध्वयाँ के रस को पी लेने की फिराक में रहते थे. यूं ध्वयाँ की झाडियाँ जानवरों के चारे और जलावन के काम भी खूब आती हैं. मगर हमारी नज़र तो इसके रस पर टिकी होती.
ध्वयाँ के साथ साथ किलमोड़े के पीले फूलों से हमारी मुलाक़ात होती है. इसकी झाडियों ने भी इन दिनों पीले वस्त्र धारण कर लिए हैं. इसके फूलो का स्वाद कुछ खट्टा होता है. इसके काले-काले फल स्वाद और गुणवान तो बहुत होते हैं, पर कभी-कभी उनमें कीड़े भी मिलते हैं. इसलिए स्वाद होते हुए भी हम उसकी तरफ देखना मुनासिब नहीं समझते थे. सोनापानी से लौटते वक्त कुमाउनी के प्रसिद्ध कवि जुगल किशोर पेटशाली किलमोड़े को लेकर एक कहानी सुनाते हैं. भादों के महीने में जब हिमालय पुत्री गौरा शादी के बाद पहली बार अपने मायके लौट रही थी तब वह वन में राह भटक गयी थी. उसने किलमोड़े के पेड़ से पूछा, भाई मैं अपने घर का रास्ता भूल गयी हूँ. क्या तू मेरी कुछ मदद करेगा? किलमोडे ने अपने कंटीले स्वभाव के अनुरूप झिडक कर कहा, मुझे क्या पता, तेरा घर कहाँ है? मुझे अपने ही काम से फुरसत नहीं, तेरी किसे पड़ी है? जा-जा मुझे तंग मत कर. उसका ऐसा व्यवहार देख गौरा बहुत दुखी हुई. जिन पेड़-पौंधों के साथ वह खेली-कूदी, आज वही ऐसा बर्ताव कर रहे हैं. उसने किलमोड़े को शाप दिया कि जा तेरे फलों में कीड़े पड़ें और तेरी छाँव में कोइ ना बैठ सके. तब से किलमोड़े की कंटीली झाडियों में कोइ नहीं बैठता और उसके फलों में भी अक्सर कीड़े पड़ जाते हैं. जबकि किलमोड़े में गुण ही गुण हैं. उसकी जड़ों का रस पीने से मधुमेह दूर भागता है, मोटापा पास नहीं फटकने पाता. लेकिन क्या करें, सब गुण होते हुए भी लोग उस से दूर ही छिटकते हैं.
कुछ आगे चले तो रामगढ़ की घाटियाँ आड़ू, पुलम, खुबानी, नाशपाती, सेब और मेल के फूलों से महक रही थीं. कहीं झक्क सफ़ेद फूल तो कहीं लाल-गुलाबी और कहीं बैंगनी रंग के फूल. थोड़े आगे निकले तो बुरांस वृक्ष अपनी छटा बिखेर रहे थे. फल्यांट, कटूंज, बांज, रयांज, उतीस, काफल, पयां, क्वेराल यानी कचनार, मालू, सानन और इसी तरह की पहाड़ी प्रजाति के पेड़ों में आ रहे नए पल्लव अलग ही सौंदर्य बिखेर रहे थे. इन सब की अपनी-अपनी कहानियाँ हैं. जंगली रास्तों पर कई पेड़ों को देख कर मैं दंग रह गया. टुनि के पेड़ में आये नए पत्ते ऐसे लाल-ताम्रवर्णी थे कि पूरे जंगल में इसका पेड़ एकदम अलग ही दिखाई पड़ता था. कहीं-कहीं लाल पेड़ में भूरे रंग की बेहद खूबसूरत गुच्छियाँ हैं तो कहीं एक भी पत्ता नहीं दिख रहा, सिर्फ गुच्छे ही गुच्छे. मैं इसको पहचान नहीं पाया. हालांकि मेरा बचपन भी पहाड़ी गाँव में ही बीता है, लेकिन अनेक पेड़ ऐसे थे, जिन्हें मैं नहीं पहचानता था. कई-कई पेड़ पूरे के पूरे किसी खास रंग में नहाये हुए से दीख रहे थे. साथ में बैठे वनस्पति विज्ञानी प्रो. कौल से पूछता हूँ, लेकिन वे भी निरुत्तर हैं. लेकिन लौटते वक्त मेरी जिज्ञासाओं का शमन पेटशाली जी ने किया. ‘ताम्बई रंग के जिस पेड़ में भूरे रंग की गुच्छियाँ हैं, वह टुनि का ही भाई शुनि है. फर्क सिर्फ इतना है कि इसमें फूल खिले हैं, दूसरे में नहीं. और वह जो पूरा का पूरा पीले कपडे पहने हुए है, वह अकेशिया है. हम लोग इसे अकेशी कहते हैं.’ मैंने अपने गाँव की तरफ ऐसा पेड़ नहीं देखा. आंवले जैसे छोटे-छोटे पत्ते और छोटे ही फूल. जब फूल खिले तो पत्ते पूरी तरह ढक गए. यह वसंत आने से पहले ही खिल उठता है. ऋतुराज के स्वागत में पूरी तरह से सजा-धजा हुआ..... नायिका की तरह.
रामगढ़ से नथुवाखान और नथुवाखान से सोनापानी तक की फल-पट्टी में गज़ब का ऋतुराज पसरा हुआ है. जंगली फूलों को छोड़ दें तो ज्यादातर का रंग सफ़ेद, गुलाबी और बैंगनी हैं. यहाँ सफ़ेद के भी अनेक रूप दिख जायेंगे. कलियों और फूलों की उम्र के आधार पर भी रंग तय होते हैं. रंग सफ़ेद ही होगा, लेकिन किसी पेड़ से हरित आभा निकल रही होती है तो किसी से गुलाबी और किसी से नीली. प्रकृति के इन रंगों को कोइ चित्रकार या रंग बनाने वाला नहीं पकड़ सकता. अब बांज को ही देखिए. यह सदाबहार वृक्ष कभी पूरा नग्न नहीं होता. शिखर से जीर्ण होना शुरू होता है. पहले शिखर के पत्ते झड़ते हैं, फिर बीच के और अंत में सबसे नींचे के. जब नींचे के झड रहे होते हैं तब तक शिखर में नए आ चुके होते हैं. इन दिनों शिखर पर नन्हीं-नन्हीं रजत-कोंपलें आ रही हैं. उनमें हलकी भुरभुरी भी होती है. उसके नीचे के पत्ते पीले पड़ चुके हैं. हफ्ते-दस दिन में गिर जायेंगे. और उसके नींचे के द्रुम दल अभी हरे भरे हैं. यानी एक ही पेड़ में जैसे अपने तिरंगे की तरह तीन रंग समाये हुए हैं. अद्भुत वृक्ष है यह बांज. पहाड़ की प्रकृति समझने वाले लोग इसे कल्पवृक्ष कहते हैं. जहां बांज होगा, वहाँ गरीबी हो ही नहीं सकती. क्योंकि इसकी जड़ों में संचित ठंडा पानी हमेशा आस-पास के गांवों को आबाद रखता है. इसकी  पत्तियों को खाने वाले जानवर ऐसा गाढ़ा दूध देते हैं कि पीते ही बनता है. इसके जर्जर पत्तों से बनने वाली खाद खेतों की उर्वरा शक्ति को लगातार पोसती रहती है.
लेकिन अब वर्चस्ववादी चीड़ इसके इलाके में भी घुसपैठ कर रहा है. वनों की समृद्धि में अपनी जिंदगी खपा देने वाले डॉ जे एस मेहता कहते हैं कि एक ज़माना था जब यह चीड़ ३००० फुट से अधिक ऊंचाई पर नहीं चढ पाता था और १००० फुट से नीचे उतरने की भी इसकी हिम्मत नहीं होती थी. नीचे साल का इलाका है, जबकि ऊपर बांज का. अब चीड़ ६००० फुट ऊपर और ५०० फुट तक नींचे पहुँच चुका है. यह जंगल का माफिया है. सबकी जमीन को लील लेना चाहता है.
लेकिन चीड़ ही क्यों, हम भी क्या कम दुश्मन हैं वनों की इस खूबसूरती के? पेड़ काटने वाले अपनी जगह हैं, हमारी व्यापारिक मनोवृत्ति भी वनों को लगातार बदरंग कर रही है. रामगढ़ क्षेत्र में दाखिल होने से पहले मैं मन ही मन यह सोच रहा था कि अब हमारा स्वागत फूलों से लदे बुरांस वृक्ष करेंगे. लेकिन वे अपेक्षा से कहीं कम नज़र आये. मन मसोस कर रह जाना पड़ा. मेरे मुंह से निकला, शायद इस बार बुरांस कुछ कम खिला है. मुंह में सुपारी दबाये पेटशाली जी ने हाथ से इशारा करके मुझे ऐसा कहने से रोक दिया. फिर पीक थूक कर बोले, जब से बुरांस का रस निकाला जाने लगा है, तब से लोग खिलने से पहले ही उन्हें तोड़ कर सारे के सारे वन-प्रांतर से थैलों में भर-भर कर ले जाते हैं. अब एक दिन आएगा, जब बुरांस खिलना ही बंद कर देगा. फूल नहीं बचेंगे तो बीज कहाँ से होंगे और बीज नहीं बचेंगे तो नए पेड़ कहाँ से जन्म लेंगे? शायद हम अपनी ही सभ्यता को लहू-लुहान कर के आगे बढ़ रहे हैं. (कादम्बिनी, मई, २०१२ में प्रकाशित, साभार)