रविवार, 15 सितंबर 2013

नाकेबंदी के बावजूद सरहद पार हिन्दी



हिन्दी दिवस/ गोविंद सिंह                
हिन्दी दिवस पर हम हर साल अपने देश में राजभाषा की स्थिति पर आंसू बहाते हैं, लेकिन उसका कभी कोई सकारात्मक असर आज तक नहीं दिखाई दिया है. यदि हिन्दी आगे बढ़ रही है तो वह अपने बाज़ार की वजह से बढ़ रही है. अपने सहज–स्वाभाविक रूप में संपर्क भाषा होने की वजह से बढ़ रही है. और बाज़ार का असर देश की सरहदों के पार भी दिखाई देता है. हमारा मीडिया हिन्दी को न सिर्फ देश के कोने-कोने तक पहुंचाने में कामयाब हुआ है, बल्कि पड़ोसी मुल्कों में भी उसने हिन्दी को पहुंचाया है. क्या नेपाल, क्या पाकिस्तान और क्या बांग्लादेश, वहाँ के लोगों के मन से अब हिन्दी के प्रति द्वेष गायब हो रहा है और वे हिन्दी को अपनाने को आतुर दिखाई पड़ते हैं. यह हिन्दी के लिए गौरव की बात है लेकिन यहीं से चिंता की भी शुरुआत होती है. क्योंकि यदि वहाँ की जनता हिन्दी को अपनाना चाहती है तो वहाँ की सरकारें हिन्दी की इस बढ़त से घबराई हुई हैं. वे उसे रोकने के लिए तमाम हथकंडे अपना रही हैं. वाह बात अलग है कि तमाम नाकेबंदी के बावजूद वे उसे नहीं रोक पा रही हैं.

पिछले दिनों पाकिस्तान और बांग्लादेश से दो बड़ी दिलचस्प खबरें आईं.
पहले पाकिस्तान की घटना पर गौर फरमाएं. इंटरनेट अखबार एक्सप्रेस ट्रिब्यून की एक खबर- ‘क्या हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा बन चुकी है?’ के मुताबिक़ दक्षिणी वजीरिस्तान के कैडेट कॉलेज के लिए बच्चों की भर्ती हो रही थी. एक फ़ौजी अफसर हर बच्चे से उर्दू में सवाल पूछ रहा था, तुम फ़ौज में क्यों भर्ती होना चाहते हो? एक कबायली बच्चा बोला, ‘सर, मैं अपने देश की रक्षा करना चाहता हूँ.’ उसका यह जवाब सुनकर अफसर सन्न रह गया. उसे यह समझ में नहीं आया कि एक पश्तो भाषी कबायली बच्चा आखिर कैसे इतनी शुद्ध हिन्दी, वह भी एकदम सहज अंदाज में, बोल गया? वास्तव में यह हिन्दी मीडिया का कमाल था. हिन्दी फिल्मों का कमाल था, हिन्दी क्रिकेट कमेंटरी का कमाल था, कौन बनेगा करोड़पति जैसे कार्यक्रमों का कमाल था. मुझे इस बात का एहसास 1999 के दिसंबर में हुआ, जब मैं ज़ी न्यूज में था और उसका न्यूजरूम संभाल रहा था. हमारे विमान का अपहरण करके कांधार हवाई अड्डे पर उतारा गया था. हमें किसी तरह से हवाई अड्डे से संपर्क साधना था. पेशावर से बीबीसी के संवाददाता रहीमुल्ला यूसुफ्जई ही एकमात्र सोर्स थे जो अब तक सूचनाएं दे रहे थे. वही सबको खबरें दे रहे थे. जो कुछ तालिबान वाले उन्हें कहते, वही बता देते. हमने किसी तरह कांधार हवाई अड्डे के एटीसी से संपर्क साधा. खैबर नाम था उसका. वह टूटी-फूटी हिन्दी जानता था. हमने अपने एंकर आकाश सोनी को स्टूडियो में फोन दिया.  सोनी बड़ी शुद्ध हिन्दी में सवाल पूछता और खैबर अपनी पठानी हिन्दी में उत्तर देता. यानी वहाँ तक हिन्दी की पहुँच थी. असल में पिछले 15-20 वर्षों में हुआ यह कि हमारा टेलीविजन पश्चिमी पाकिस्तान का एकमात्र मनोरंजन-माध्यम बन कर उभरा है. फ्री टू एयर चैनलों में दिखाए जाने वाले कार्टून वहाँ के बच्चों में जबरदस्त लोकप्रिय हैं. इस तरह गैर उर्दू भाषी पाकिस्तानी इलाकों में हिन्दी घर-घर में पैठ बना रही है. हालांकि वे समझते यही हैं कि शायद वही उर्दू है. दरअसल पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू जरूर है, लेकिन पश्तो या बलोची या सेरायकी भाषी इलाकों में उर्दू के प्रचार-प्रसार की कोई खास कोशिश नहीं हुई. हुई भी तो वैसे ही जैसे भारत में राजभाषा हिन्दी के प्रचार की. आधे-अधूरे मन से. इसलिए उर्दू जैसी लगने वाली हिन्दी जरूर भारतीय चैनलों के जरिये पाकिस्तान के इन इलाकों में पहुंची. चूंकि यह किसी दबाव में नहीं हुआ, लिहाजा लोगों ने इसे दिल खोल कर अपनाया है. आज युवाओं में उर्दू की बजाय हिन्दी कहीं ज्यादा लोकप्रिय हो रही है. इसलिए अब पाकिस्तान के नवशिक्षित युवा हिन्दी और उर्दू को मिलाकर ‘हमारी बोली’ नाम की नयी भाषा गढ़ने की वकालत करने लगे हैं, जिसकी लिपि रोमन होगी. हालांकि इसका भी बहुत विरोध हो रहा है. पर उनका मानना है कि इससे दोनों भाषाएँ नजदीक आयेंगी.
इस बात को लेकर पाकिस्तान की सरकार, आईएसआई और कट्टरपंथी ताकतें खासी परेशान हैं. पश्चिमी पाकिस्तान में हिन्दी की बढ़त का बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है. नींचे दिए गए लिंक से साबित होता है कि किस स्तर की बहस इस मसले पर चल रही है. शायद आपको यह ज्ञात होगा कि आज़ादी से पहले जो लाहौर हिन्दी का गढ़ था, आज वहाँ हिन्दी पढ़ना जुर्म जैसा है. वहाँ के एकमात्र राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में हिन्दी में डिप्लोमा स्तर की पढ़ाई होती है, उसमें भी आम आदमी दाखिला नहीं ले सकता, केवल आईएसआई या अन्य खुफिया एजेंसियों के मुलाजिम ही यह पढ़ाई करते हैं. यदि भूले-भटके किसी ने ले भी लिया तो उसे मार-पीट कर भगा दिया जाता है. इसे आप क्या कहेंगे कि इतनी नाकेबंदी के बावजूद आज पाकिस्तानी युवाओं के बीच हिन्दी अपने पाँव जमा रही है. हालांकि अभी वाह बोलचाल के स्तर पर ही है. कौन जानता है, एक दिन वाह पढ़ने-लिखने के स्तर पर भी हो.
पाकिस्तान की तुलना में बांग्लादेश में हिन्दी का बहुत कम प्रचार-प्रसार रहा है. लेकिन हाल के वर्षों में वहाँ भी नयी पीढ़ी में हिन्दी अपनी पैठ बना रही है. हिन्दी के कार्टून चैनल वहाँ भी घर-घर में देखे जा रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि ये चैनल या तो पश्चिमी या जापानी कार्टूनों की नक़ल होते हैं या हिन्दी में डब किये होते हैं, इसलिए इनमें भारतीय आत्मा गायब होती है. लेकिन कार्टून चैनल वालों के लिए बिना ज्यादा खर्च किये पूरे उप-महाद्वीप में यदि किसी एक भाषा के जरिये आप बच्चों के मनों पर राज कर सकते हैं तो वह हिन्दी ही है. बांग्लादेश में जिस तरह से डोरेमोन नाम का कार्टून बच्चों को दीवाना बना रहा था, उसे देखते हुए वहाँ की सरकार को डोरेमोन पर प्रतिबन्ध की घोषणा करनी पड़ी. डोरेमोन पर यह बंदिश उसके अपसंस्कृति फैलाने के कारण होती तो बात अलग थी, खास बात यह है कि उन्होंने ‘हिन्दी में डब किये हुए’ डोरेमोन पर प्रतिबन्ध लगाया, अंग्रेज़ी वाली पर नहीं. क्योंकि हिन्दी से उन्हें ख़तरा था कि कहीं हिन्दी उनके घरों तक न घुसने लगे. इधर बांग्लादेश में हिन्दी मीडिया खासकर हिन्दी टीवी सीरियलों का भी विरोध हो रहा है.
हालांकि हमारे तीसरे पड़ोसी देश नेपाल की स्थिति एकदम भिन्न है, वहाँ हिन्दी की जड़ें काफी गहरी हैं, फिर नेपाली भी हिन्दी की एक उपभाषा के रूप में ही देखी जाती है, लेकिन वहाँ भी हिन्दी विरोध जब-तब सियासी मुद्दा बन जता है. वहाँ के उप राष्ट्रपति परमानंद झा ने तीन साल पहले ठान लिया कि वे हिन्दी में ही शपथ लेंगे. इस बात पर बड़ा हंगामा हुआ. दो दिन तक गतिरोध बना रहा. आखिर उन्होंने हिन्दी में शपथ ली. लेकिन छः महीने बाद वे अदालत से हार गए. और हिन्दी विरोधी जीत गए. ऐसे ही ऋतिक रोशन के नाम पर हिन्दी फिल्मों का वहाँ जबरदस्त विरोध हुआ. कब वहाँ हिन्दी विरोध का तवा गरम हो जायेगा, कहा नहीं जा सकता.
यानी हमारे इन तीन पड़ोसी देशों में हिन्दी को उसी तरह से देखा जा रहा है, जैसे कभी तमिलनाडु में देखा गया था. हिन्दी अपनी सहज प्रवृत्ति के साथ इस उपमहाद्वीप की संपर्क भाषा के रूप में आगे बढ़ रही है, लेकिन हमारे ये पड़ोसी, खासकर वहाँ के सियासतदान उसमें साम्राज्यवाद की बू सूंघ रहे हैं. वे हमारे उस पड़ोसी से कुछ नहीं सीख रहे, जो हमारी उत्तरी सीमा पर हमें जब-तब धमकाता रहता है, लेकिन अपने देशवासियों को हिन्दी सीखने को प्रेरित कर रहा है. जी हाँ, चीन में आजकल हिन्दी जोर-शोर से पढ़ी और पढ़ाई जा रही है. वहाँ के विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है. उद्योग-व्यापार में हिन्दी जानने वालों की जरूरत बढ़ रही है. यह सब इसलिए नहीं हो रहा है कि वे हिन्दी से आतंकित हैं, इसलिए कि हिन्दी की ताकत का पल्लू थाम कर वे भारतीय बाज़ार पर कब्जा जमा सकें. प्रिय पाठको, ये दोनों ही स्थितियां ठीक नहीं हैं. हिन्दी तो अपने ही सामर्थ्य से बढ़ रही है, लेकिन हमारे पड़ोसी उसका दोहन कर रहे हैं या उसे रोक रहे हैं. लेकिन हम क्या कर रहे हैं? क्या हमारा विदेश मंत्रालय इस बारे में कुछ सोच रहा है? क्या उसके पास  कोई रणनीति है? हिन्दी के नाम पर सम्मलेन करवा देने या कुछ लोगों को विदेश यात्राएं करवा देने से कुछ नहीं होगा. हमें इस सम्बन्ध में ठोस रणनीति बनानी होगी. (अमर उजाला, १४ सितम्बर को प्रकाशित आलेख का संशोधित रूप. सधन्यवाद     
http://blogs.tribune.com.pk/story/13807/has-hindi-become-our-national-language/