शुक्रवार, 23 मार्च 2012

उत्तराखंड की जनता दिग्भ्रमित क्यों है?

राजनीति/ गोविंद सिंह

यों तो उत्तराखंड का जनादेश, जब से राज्य बना है,  तब से ही लगातार भ्रमित करने वाला रहा है, लेकिन इस बार उसने इस शांत राज्य को गंभीर राजनीतिक अस्थिरता के दलदल में झोंक दिया है. खतरा यह है कि कहीं मध्यावधि चुनाव की नौबत न आ जाए. नब्बे के दशक में जिस तरह से उत्तर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता रही, उसकी याद से ही सिहरन-सी होने लगती है.
आश्चर्य की बात यह है कि जब देश की संसद के लिए चुनाव होता है, तब उत्तराखंड की जनता बहुत ही समझदारी से वोट डालती है, कभी किसी तरह का भ्रम नहीं रहता. लेकिन विधान सभा के लिए अपना प्रतिनिधि चुनने में वह बेबाकपन नहीं दिखा पाती. अक्सर दो-चार सीटें कम रह ही जाती हैं. वर्ष २००२ में कांग्रेस तीन निर्दलीय विधायकों की मदद से सरकार बना पाई थी तो २००७ में भाजपा को तीन निर्दलीय और तीन उक्रांद विधायकों की मदद लेनी पडी थी. इस बार जब ३० जनवरी को उत्तराखंड से भारी संख्या में मतदान की खबरें आ रही थीं, तब एक बारगी ऐसा लगने लगा था कि शायद जनता आर-पार का फैसला दे देगी, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं. नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात. और फिर उसी तरह निर्दलीय विधायकों की खरीद-फरोख्त और ब्लैकमेलिंग. भलेही निर्दलीय विधायक बिना शर्त समर्थन दे रहे हों, लेकिन इस से माहौल तो दूषित होता ही है. जैसे प्रदेश चौराहे पर आकर खड़ा हो गया है. यह सिलसिला यहीं थमेगा नहीं. जब सरकार बनाने में ही इतना समय लग गया तो भविष्य कैसा होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है. इसलिए यह सवाल बना ही हुआ है कि आखिर उत्तराखंड की जनता क्यों किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं देती? क्यों वह ‘तुम भी सही, तुम भी सही’ के अंदाज में अस्पष्ट जनादेश देती है? अंततः उसका अनिर्णय अपने और प्रदेश के लिए घातक साबित होता है!
इसका सीधा-सा मतलब यह निकलता है कि उत्तराखंड का मतदाता राजनीतिक समझ के लिहाज से अभी परिपक्व नहीं हुआ है. वह समझ नहीं पा रहा कि किसे सत्ता सौंपी जाए. राज्य बनने के बाद विधानसभा क्षेत्र बहुत छोटे-छोटे हो गए हैं. जबकि समाज आपस में बहुत गुंथा हुआ है. आपस में रिश्तेदारियां हैं. एक ही गाँव, एक ही बिरादरी में लोग चुनाव के कारण बंट रहे हैं. राजनीतिक विचारधाराएं गौण हो जाती हैं. लोग राजनीतिक प्राथमिकताओं और निजी पसंदगियों के बीच फर्क नहीं कर पाते. ऐसे में किसको जिताएं, किसको हराएं, भ्रमित हो जाना स्वाभाविक है. एक उम्मीदवार यदि एक गाँव के लिए उपयुक्त है तो दूसरे गाँव के लिए अनुपयुक्त. क्योंकि वह भी उसी गाँव में विकास योजनाएं ले जाता है, जहां उसकी रिश्तेदारी होती है. इसीलिए जहां लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड की जनता का फैसला बहुत स्पष्ट हुआ करता है, वहीं विधान सभा चुनाव में वह लड़खड़ा जाता है.
यद्यपि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की राजनीति के बीच तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन यह मानना होगा कि उत्तर प्रदेश को इस मुकाम तक पहुँचने में लगभग दो दशक लग गए. वहाँ भी वर्ष १९९० से लेकर २००७ तक लगातार खंडित जनादेश ही आता रहा. जिस से प्रदेश को लगातार राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजरना पड़ा. जब मतदाता को लगा कि इस तरह का लंगड़ा जनादेश अंततः प्रदेश के ही नहीं, अपने पैरों में भी कुल्हाड़ी मारने जैसा है, तब उसने दो बाहुबलियों में से एक को गद्दी सौंपना बेहतर समझा. इस तरह उत्तर प्रदेश का मतदाता लगातार परिपक्व हो रहा है और प्रदेश हित में फैसले कर रहा है. हालांकि अभी वह पूरी तरह से परिपक्व नहीं हुआ है, इसलिए एक तरफ वह एक ही दल को पूर्ण बहुमत भी दिला देता है तो दूसरी तरफ मुख्तार अंसारी जैसे लोगों को भी विधान सभा में भेज देता है. आशा करनी चाहिए कि आने वाले वर्षों में वह नीर-क्षीर विवेकी बन पाएगा. 
उत्तराखंड की दूसरी समस्या यह है कि पिछले १२ वर्षों में यहाँ की प्रादेशिक राजनीति का बहुत ज्यादा पतन हुआ है. लोगों ने देखा कि किस तरह उनका पड़ोसी इस राजनीति की सीढ़ी पर चढ कर पांच साल में ही मालामाल हो गया. इसलिए इन १२ वर्षों में जनता का अतिराजनीतिकरण भी हुआ है. यह बात पहले कही गयी बात की अंतर्विरोधी लग सकती है, इसलिए कृपया राजनीतिकरण को राजनीतिक परिपक्वता न समझा जाए. राज्य बन गया पर अभी तक लोगों की राजनीतिक दीक्षा नहीं हुई. जबकि राजनीति के राजमार्ग पर चल कर तथाकथित तरक्की की आकांक्षा असमय ही उनके भीतर जाग गयी. लोग किसी राजनीतिक विचारधारा या सामूहिक हित के लिए वोट नहीं डाल रहे, बल्कि अपने निहित स्वार्थ के लिए वोट डालते हैं. यह राजनीतिक अपरिपक्वता उन्हें अंततः किसी निर्णय तक नहीं पहुँचने देती. हालांकि दीर्घावधि में यह उसके लिए लोमड़ी के खट्टे अंगूरों की तरह साबित होती है. पर यह सत्य अभी उनकी समझ में नहीं आ रहा.
यही आकांक्षा विधायकों के स्तर पर मंत्री और मुख्यमंत्री बनने की होड़ के रूप में भी देखने को मिलती है. आखिर क्यों इतने लोगों के भीतर मुख्यमंत्री बनने की आकांक्षा जागी? आपके भीतर सरपंच बनने की भी काबलियत नहीं है, लेकिन आप विधायक बन गए. और आप इतनी जल्दी मुख्यमंत्री की दौड में भी शामिल हो गए! आपने तनिक भी सोचा कि मुख्यमंत्री का क्या मतलब होता है? आखिर क्यों यहाँ हर व्यक्ति मंत्री और मुख्यमंत्री बनना चाहता है? इसलिए कि ऐसा होने पर वह बिना काम किये ही रातोरात मालामाल हो जाता है. यही पिछले १२ वर्षों में हुआ है. जबकि होना यह चाहिए था कि मंत्री-विधायक प्रदेश के हित में रात-दिन परिश्रम करते. समाज के समक्ष ईमानदारी की मिसाल कायम करते. जाहिर है कि अगली बार वही व्यक्ति चुनाव जीतता जो परिश्रम की उससे भी लंबी रेखा खींचने में सक्षम हो. तब राजनीति सचमुच काँटों का ताज समझी जाती. ऐसी राजनीति में ईमानदार लोग आते और जनहित में काम होता. जाहिर है तब इतने लोग मंत्री पद की दौड में शामिल भी नहीं होते. आशा है कि उत्तराखंड की जनता इस विभ्रम से बाहर निकलेगी और इस चुनाव से सबक सीख कर भविष्य में स्पष्ट फैसला करेगी.  ( दैनिक जागरण, २२ मार्च से साभार)
http://epaper.jagran.com/epaperimages/22032012/21nnt-pg10-0.pdf
  

   


मंगलवार, 20 मार्च 2012

जब मंगलेश जी शास्त्रीय गायन करते हैं

हालांकि यहाँ आने के बाद मुझे कई आयोजनों से जुड़ने का अवसर मिल चुका है लेकिन इस बार का आयोजन कुछ खास था. यह मेरे अपने विभाग का था और विषय भी मीडिया के समक्ष चुनौतियां था. अपने प्रिय कवि मंगलेश डबराल को बुलाने का अवसर मिल गया. मंगलेश जी ने कहा वीरेन डंगवाल को भी बुलवा लो, ताकि मन लगा रहेगा. मैं एक बार नैनीताल में इन दो कवियों की जुगलबंदी देख चुका था, उसकी यादें अब भी तरोताजा थीं, इसलिए मैंने तुरंत वीरेन जी को भी ऐप्रोच कर लिया. उन्होंने भी हामी भर दी. मुझे लगा कि एक बार फिर उस जुगलबंदी का आनंद मिलेगा. लेकिन लास्ट में वीरेन जी नहीं आ पाए. लेकिन दो और परम मित्रों को भी बुलाया गया था. सुभाष धूलिया और प्रभात डबराल. मुझे पता है कि ये दोनों मसूरी में साथ ही पढते थे, तब से इनकी छनती है. आपस में लड़ते भी हैं, लेकिन एक दूसरे के बिना रह भी नहीं सकते. फिर साथ में देवेन मेवाड़ी भी आये, जिनका साथ मुझे बहुत प्रिय है. मैं उनके सतत जिज्ञासु स्वभाव का कायल हूँ. त्रिनेत्र जी, जो अब हल्द्वानी को अपना स्थायी निवास बना चुके हैं और अक्सर १५-२० दिन में यहाँ आ जाते हैं, उन्होंने भी मित्र मंडली को जीवंत बनाने में योगदान किया. मेरे लिए ये सब अग्रज हैं. अपने अग्रजों का मैं तहे दिल से आदर करता हूँ.
गोष्ठी तो जो हुई, सो हुई. भाषण भी हुए. मीडिया के चारित्रिक पतन और तरक्की पर विमर्ष भी बहुत हुआ. लेकिन मुझे सबसे अधिक आनंद आया दूसरी शाम मंगलेश जी को राग सुनाते देखते हुए. यह बता दूँ कि मुझे रागों के बारे में क ख ग भी नहीं पता. मंगलेश जी ने हलके से रसरंजन और भोजन के बाद अचानक कुर्सी पर बैठते हुए घोषणा की कि चलो अब मैं आपको एक राग सुनाता हूँ. मुझे इसकी कोई उम्मीद नहीं थी. नैनीताल की तरह न गिर्दा थे, न राजीव लोचन साह और न ही वीरेन जी. फिर भी मंगलेश जी ने जब राग सुनाने की घोषणा की तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. क्योंकि नैनीताल का वह मंजर मेरी आँखों में रह रह कर लौट आ रहा था.
मंगलेश जी बोले, अब मैं आपको राग मध्माद सारंग यानी मध्यमादि सुनाता हूँ, जिसे वीणा सहस्रबुद्धे  ने गाया है: वे आ... आ... करने लगे. फिर कहते गला साथ नहीं दे रहा. त्रिनेत्र जी और देवेन जी भी राग सुनाने के लिए आग्रह करने लगे. मंगलेश जी आगे की बंदिश गाने लगे... रंग दे रंग दे रे रंगरेजवा... मेरी सुरख़ चुनरिया जैसे मोरे पिया की पगरिया...!! उन्होंने दूसरा राग गया पंडित भीमसेन जोशी का राग शुद्ध कल्याण: एरी माई पिया...
देवेन जी और त्रिनेत्र जी भी साथ में वैसा ही कुछ कुछ आलाप ले रहे थे लेकिन मैं मंगलेश जी को मोहित होकर देख रहा था. उनका अंग-अंग जैसे राग अलाप रहा था. उनका पेट, छाती, हाथ और पैर सब जैसे गा रहे थे. मुझे मल्लिकार्जुन मन्सूर याद आ रहे थे. दूरदर्शन पर एक बार मैंने उन्हें सुना तो देखते ही रह गया. ऐसा ही एक बार वडाली बंधुओं को सुनते हुए लगा. जिनके  रागों की बजाय भाव-भंगिमाओं को देखते रहने का मन करता था.
पिछली बार यानी कोई १० साल पहले जब नैनीताल में एक तरफ गिर्दा, राजीव लोचन जी और शेखर दा अपनी पहाड़ी चान्चारियों-भग्नौलों की धुनों में मस्त थे, तब भी मंगलेश जी अपने ही राग में मस्त थे. बगल में बैठे हुए वीरेन जी तमाम गालियों के साथ उनकी दाद दे रहे थी. और उन्हें गाने से रोकने की भरसक कोशिश कर रहे थे. लेकिन मंगलेश जी तमाम भव बाधाओं की परवाह न करते हुए अपने राग में चूर थे. वह दृश्य भी अपने आप में अद्भुत था. हमारे समय के दो बड़े कवियों की ऐसी मुठभेड़ मैंने कभी न देखी थी. ऐसी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था.
लेकिन इस बार मंगलेश जी को बिना बाधाओं के बहुत करीब से राग सुनाते हुए देखना एक अलग ही आनंद दे गया. बीच-बीच में वह कहते कि मैं जानता हूँ कि मेरा गायन बहुत भ्रष्ट है. मैं शास्त्रीय गायन नहीं जानता. यह तो ऐसे ही मस्ती है. उधर त्रिनेत्र जी भी कहते कि मंगलेश न जाने कब शास्त्रीय राग के बीच गढवाली लोक गीत की धुन घुसा देगा, पता नहीं चलता. लेकिन मेरे जैसे अज्ञानी के लिए तो यह अनुभव ही पर्याप्त था कि कैसे एक कवि का अंग-अंग गा रहा है. मैं यह भी सोचता रहा कि मंगलेश जी यदि कवि न होते तो क्या एक महान शास्त्रीय गायक न होते?        

सोमवार, 19 मार्च 2012

हरे-भरे खेतों के बीच वसंत की आहट

ललित निबंध/ गोविंद सिंह

धनिया के फूल
कभी आप गेहूं के हरे-भरे खेतों के बीच से होते हुए गुजरे हैं? जब गेहूं के पौंधे एक-डेढ़ फुट के हो जाते हैं, तब गहरे हरे रंग के खेतों के बीच से सुबह-सवेरे निकलिए, आपको हज़ारों-हज़ार मोती टिमटिमाते हुए दिखेंगे. पिछले डेढ़-दो महीनों से मैं अपने आस-पास के खेतों में गेहूं के पौंधों को पल-पल बढ़ते हुए देख रहा हूँ. जब वे नन्हे कोंपल थे, तब उन पर बरबस स्नेह उमड़ आता था. जमीन की सतह को फोड़ कर ऊपर उठने की जद्दोजहद से भरे हुए. जब वे आधे फुट के हो गए, तब उनकी रौनक अलग थी. जैसे बच्चा शैशव की दीवार को पार कर चलने-फिरने लगा हो, तेज दौड़ने की चाह में बार बार गिर पड़ता हो. जब वे डेढ़ फुट के हो गए, तो उनका सौंदर्य अनुपमेय हो गया. गहरे हरे रंग के घने खेत में तब्दील हो गए. पूरी तरह से आच्छादित. और कुछ भी नहीं. जब मंद-मंद बयार चलती, तो सारे पौंधे एक साथ हिलते दिखाई देते जैसे कि छब्बीस जनवरी की परेड लेफ्ट-राईट करती हुई चल रही हो. सुबह जब उनके ऊपर विखरी ओस की बूंदों पर सूर्य की पहली किरण पड़ती है, तब इनकी छटा देखते ही बनती है. मन करता है, बस, इन्हें ही देखते रहो.
गेहूं के खेत में निकलने लगीं बालियाँ
इन्हें देखते हुए मैं अक्सर अपने बचपन के गाँव में लौट जाता हूँ. नाक और कान छिदवाई हुई मेरे साथ की छोटी-छोटी लड़कियां सुबह-सवेरे ओस की इन बूंदों को बटोर कर नाक और कान के छिदे हुए घावों पर डाल रही होतीं. इन मोतियों को बटोरने को लेकर उनके मन में अद्भुत उत्साह होता था. सुबकते हुए घावों में मोतियों की ठंडक का एहसास पाने का उत्साह. साथ ही हरे-हरे पौंधों को छूने का एहसास. 
इधर कुछ दिनों से गेहूं में बालियाँ निकलने लगी हैं. कई-कई खेत तो बालियों से लबालब भर गए हैं. जैसे किशोर युवाओं के शरीर में बेतरतीब ढंग से परिवर्तन आने लगते हैं, लड़कों के चेहरे पर दाढी-मूंछ उग आती है, लड़कियों के शरीर में भी परिवर्तन दीखते हैं, उसी तरह गेहूं के खेत भी इन दिनों अपना रंग बदल रहे हैं. गहरा हरा रंग अब तनिक गायब हो गया है. अब उनकी खूबसूरती भी अंगड़ाई ले रही है. कहीं-कहीं बालियाँ पूरी आ चुकी हैं तो कहीं एकाध कलगी ही दिख रही है. बीच बीच में एकाध पैच ऐसा भी दिख जाता है, जो अभी अपने बचपन में ही हो. किशोर बालकों की छितराई हुई दाढी-मूछों की तरह.
प्यूली के फूलों से महकने लगे वन
एक दिन सुबह टहलते हुए मुझे धनिया का बड़ा-सा खेत दिखाई पड़ा, जो पूरी तरह से खिला हुआ था. धनिया की कुछ क्यारियां तो बचपन में देखी थीं, लेकिन इस तरह पूरे शबाब में कभी न देखा था. सरसों के चटख पीले फूलों की बहुत चर्चा होती है, लेकिन सच पूछिए तो मैं धनिया के फूलों भरे खेत को देखता ही रह गया. हलके गुलाबी और सफ़ेद रंग के फूल अद्भुत दृश्य उत्पन्न करते हैं. और उनकी हलकी हलकी खुशबू भी अलग ही समां बांधती है.
प्रकृति की ये सारी छटाएं वसंत के आगमन की सूचना दे रही हैं. वसंत दस्तक दे चुका है, हलकी-हलकी बयार चल रही है. लेकिन अभी मादकता आनी बाक़ी है. अगले महीने जब गेहूं की इन बालियों में दाने भर जायेंगे, वे ठोस आकार ले चुके होंगे और बाल, जो अभी मुलायम हैं, वे काँटों की तरह नुकीले हो जाएँगे, हवा में एक भुरभुरी सी गंध पसरने लगेगी, रंग भी हरे के बजाय पीताभ हो जाएगा, तब गेहूं के खेतों में मादकता बरसेगी. रंगीलो बैसाख, काट भागुली ग्यूं!! कुमाऊंनी लोकगीत की यह पंक्ति जैसे बैसाख की मस्ती को बयान करने को काफी है.
चारों तरफ एक अजीब सी गंध पसरने लगी है. गेहूं के खेतों के किनारे-किनारे सरसों के पीले फूल खिल रहे हैं.  अमराइयों में बौर फूट चुकी हैं. आम की ही तरह लीची में भी बौर आ चुकी हैं. हालांकि आम की बौर की तुलना में लीची की बौर जैसे दबे-छिपे ही आ रही है. वह अपने आने का एहसास नहीं करवाती. सेमल के पेड़ अपने को अनावृत कर चुके हैं. उनमें नन्हीं-नन्हीं लाल कलियाँ दिखने लगी हैं. पखवाड़े भर में ये पूरे के पूरे लाल हो चुके होंगे. नयी दिल्ली की अभिजात बस्तियों में तो जैसे सेमल राज करता है. सड़कें लाल-लाल फूलों से भर जाती हैं. यहाँ उसके ज्यादा पेड़ नहीं हैं. लेकिन पृष्ठभूमि में खड़े पहाड़ी जंगल में तो अलग अलग रंग के पेड़ों की पट्टियां सी बन गयी हैं. नींचे साल और शीशम के पेड़ों की पट्टी है, तो कुछ ज्यादा ऊंचाई पर चीड़ के पेड़ों की लाइन शुरू हो जाती है. सबकी अपनी-अपनी जमात है. जैसे अपने तिरंगे में अलग-अलग रंग की पट्टियाँ होती हैं, उसी तरह जंगल में भी फूलों की पट्टियाँ बन गयी हैं. सबसे नीचे पीली पट्टी है तो उसके ऊपर ताम्रवर्णी पट्टी है, कहीं कहीं कुछ लाल और धूसर पट्टी भी दिखाई देती है. कुछ ही दिनों में कुछ और ऊंचाई वाले पहाड़ों में बुरांस के लाल फूलों से पूरा का पूरा जंगल आच्छादित हो जाएगा. और तब सारे रंग फीके पड़ जायेंगे. दूर से यह जंगल नहीं, कोई बड़ी सी रंग-विरंगी धारीदार चादर नजर आती है. प्रकृति ने सचमुच वसंत की दस्तक दे दी है, मगर हमारे भीतर का वसंत अभी निद्रा की ही अवस्था में है. महानगरीय भागमभाग में हम प्रकृति की इस लय को पहचानना ही भूल गए हैं. पता नहीं हम कब अपने असली स्वभाव में लौटंगे! ( पाक्षिक पब्लिक एजेंडा से साभार)    

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

उत्तराखंड में नेतृत्व का संकट

गोविंद सिंह

उत्तराखंड में राजनीतिक नेतृत्व को लेकर जिस तरह का बवाल मचा हुआ है, वह इस प्रदेश के लिए ही नहीं, पूरे देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है. हर व्यक्ति यही सवाल कर रहा है कि उत्तराखंड की जिस धरा ने उत्तर प्रदेश को तीन-तीन मुख्यमंत्री दिए, आज वह धरा नेताविहीन क्यों नज़र आ रही है? कांग्रेस को अपना नेता चुनने में एक हफ्ता लग गया. जो नेता चुना भी तो उसके खिलाफ बगावत पहले शुरू हो गयी. भाजपा भी सदन में अपना नेता नहीं चुन पा रही है. सारा राजनीतिक परिदृश्य अत्यंत निराशाजनक है. जहां देश में उत्तराखंड की फजीहत हो रही है, वहीं उत्तराखंड की जनता सकते की स्थिति में है.
उत्तराखंड की जनता को राजनीतिक तौर पर जागरूक समझा जाता रहा है. लेकिन नए राज्य का दुर्भाग्य यह रहा कि उसे कोई दृष्टिसम्पन्न नेता नहीं मिल पाया. हमें बार बार यह याद दिलाया जाता है कि यदि उत्तराखंड को भी यशवंत सिंह परमार जैसा कुशल और दूरदृष्टिपूर्ण नेता मिल जाता तो प्रदेश का यह हश्र न होता. यह नहीं भूलना चाहिए कि राजनीति ही समाज के मूल्यों का निर्माण करती है. आज यदि प्रदेश की जनता गलत निर्णय ले रही है, वह हताश नज़र आ रही है, तो उसके लिए भी राजनीति ही जिम्मेदार है. दरअसल इसके लिए प्रदेश की तुलना में केंद्र की राजनीति ज्यादा जिम्मेदार है. उसने जान बूझकर यह कोशिश की कि राज्य में कोई कद्दावर नेता पैदा ही न हो. पता नहीं राजनीति के किस सिद्धांत के तहत उन्होंने राज्य बनाने के पहले ही दिन से स्थानीय नेताओं पर अविश्वास किया. पहले मुख्यमंत्री के तौर पर नित्यानंद स्वामी को शपथ दिलाई गयी. साल भर के अंदर ही उन्होंने यह हालत कर दी कि भाजपा को उन्हें बदलना पड़ा. आखिरी तीन महीने भगत सिंह कोशियारी को सत्ता सौंपी गयी. तब तक चिड़िया खेत को चट कर चुकी थी.
उसके बाद हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव जीती. लेकिन सत्ता की बात आयी तो नारायण दत्त तिवारी को गद्दी पर बिठा दिया गया. हरीश रावत ठगे से रह गए. खैर तिवारी के रूप में राज्य को एक बड़ा नेता मिलने की खुशी भी थी. लेकिन तिवारी जी की विकास की परिकल्पना उत्तर प्रदेश वाली ही थी. वे उत्तराखंड के हिमायती ही नहीं थे तो विकास की अवधारणा भी कहाँ से आती? उन्होंने राज्य का विकास तो किया लेकिन वह तराई तक ही सीमित रह गया. पहाड़ों को लेकर उनके पास जैसे कोई दृष्टि ही नहीं थी. फिर भाजपा की बारी आयी. उसने भी पांच साल प्रदेश में भाजपा संगठन को खडा करने वाले भगत सिंह कोशियारी को धता बताते हुए भुवन चंद्र खंडूरी को गद्दी पर बिठा दिया. लिहाजा जब तक वह सत्ता में रहे लगातार बगावत होती रही. अपने दो साल के कार्यकाल में वे कोइ खास काम नहीं कर पाए. शायद राष्ट्रीय दलों ने अपने स्थानीय पकड़ वाले नेताओं पर भरोसा किया होता तो यह नौबत ना आती.
सच बात यह भी है कि उत्तराखंड का एकछत्र नेता बन पाना आसान भी नहीं है. उसके लिए स्थानीय पकड़ के साथ ही राष्ट्रीय दृष्टि की अपेक्षा रहती है. गोविंद बल्लभ पन्त के अलावा वह स्थान किसी को नहीं मिल पाया. वह भी इसलिए कि स्थानीय जनान्दोलोनों से उभर कर वह शीर्ष तक पहुंचे थे. उसके बाद हेमवती नंदन बहुगुणा बड़े नेता हुए, लेकिन वह भी पूरे पहाड़ के नेता नहीं बन पाए. इसीलिए उन्हें अपना चुनाव क्षेत्र इलाहाबाद को बनाना पड़ा. तिवारी जी ने खुद को कभी तराई से ऊपर का नेता नहीं समझा. मुरली मनोहर जोशी जैसे कद्दावर नेता को एक हार के बाद ही अल्मोडा को टा-टा कह देना पड़ा. अब वे भी कभी इलाहाबाद तो कभी बनारस को अपना चुनाव क्षेत्र बनाते हैं. वास्तव में पहाड़ की समस्याएं भी पहाड़ सरीखी हैं. जो नेता उन्हें समझ पायेगा, वही यहाँ के लोगों के दिलों में राज करेगा. यहाँ के नेता को कृपया मैदानी चश्मे से मत देखिए. 
अमर उजाला, १६ मार्च, २०१२ से साभार