हालांकि यहाँ आने
के बाद मुझे कई आयोजनों से जुड़ने का अवसर मिल चुका है लेकिन इस बार का आयोजन कुछ
खास था. यह मेरे अपने विभाग का था और विषय भी मीडिया के समक्ष चुनौतियां था. अपने
प्रिय कवि मंगलेश डबराल को बुलाने का अवसर मिल गया. मंगलेश जी ने कहा वीरेन डंगवाल
को भी बुलवा लो, ताकि मन लगा रहेगा. मैं एक बार नैनीताल में इन दो कवियों की
जुगलबंदी देख चुका था, उसकी यादें अब भी तरोताजा थीं, इसलिए मैंने तुरंत वीरेन जी
को भी ऐप्रोच कर लिया. उन्होंने भी हामी भर दी. मुझे लगा कि एक बार फिर उस जुगलबंदी
का आनंद मिलेगा. लेकिन लास्ट में वीरेन जी नहीं आ पाए. लेकिन दो और परम मित्रों को
भी बुलाया गया था. सुभाष धूलिया और प्रभात डबराल. मुझे पता है कि ये दोनों मसूरी
में साथ ही पढते थे, तब से इनकी छनती है. आपस में लड़ते भी हैं, लेकिन एक दूसरे के
बिना रह भी नहीं सकते. फिर साथ में देवेन मेवाड़ी भी आये, जिनका साथ मुझे बहुत
प्रिय है. मैं उनके सतत जिज्ञासु स्वभाव का कायल हूँ. त्रिनेत्र जी, जो अब
हल्द्वानी को अपना स्थायी निवास बना चुके हैं और अक्सर १५-२० दिन में यहाँ आ जाते
हैं, उन्होंने भी मित्र मंडली को जीवंत बनाने में योगदान किया. मेरे लिए ये सब
अग्रज हैं. अपने अग्रजों का मैं तहे दिल से आदर करता हूँ.
गोष्ठी तो जो हुई,
सो हुई. भाषण भी हुए. मीडिया के चारित्रिक पतन और तरक्की पर विमर्ष भी बहुत हुआ.
लेकिन मुझे सबसे अधिक आनंद आया दूसरी शाम मंगलेश जी को राग सुनाते देखते हुए. यह
बता दूँ कि मुझे रागों के बारे में क ख ग भी नहीं पता. मंगलेश जी ने हलके से
रसरंजन और भोजन के बाद अचानक कुर्सी पर बैठते हुए घोषणा की कि चलो अब मैं आपको एक
राग सुनाता हूँ. मुझे इसकी कोई उम्मीद नहीं थी. नैनीताल की तरह न गिर्दा थे, न
राजीव लोचन साह और न ही वीरेन जी. फिर भी मंगलेश जी ने जब राग सुनाने की घोषणा की
तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. क्योंकि नैनीताल का वह मंजर मेरी आँखों में रह रह
कर लौट आ रहा था.
मंगलेश जी बोले, अब
मैं आपको राग मध्माद सारंग यानी मध्यमादि सुनाता हूँ, जिसे वीणा सहस्रबुद्धे ने गाया है: वे आ... आ... करने लगे. फिर कहते
गला साथ नहीं दे रहा. त्रिनेत्र जी और देवेन जी भी राग सुनाने के लिए आग्रह करने
लगे. मंगलेश जी आगे की बंदिश गाने लगे... रंग दे रंग दे रे रंगरेजवा... मेरी सुरख़
चुनरिया जैसे मोरे पिया की पगरिया...!! उन्होंने दूसरा राग गया पंडित भीमसेन जोशी
का राग शुद्ध कल्याण: एरी माई पिया...
देवेन जी और
त्रिनेत्र जी भी साथ में वैसा ही कुछ कुछ आलाप ले रहे थे लेकिन मैं मंगलेश जी को
मोहित होकर देख रहा था. उनका अंग-अंग जैसे राग अलाप रहा था. उनका पेट, छाती, हाथ
और पैर सब जैसे गा रहे थे. मुझे मल्लिकार्जुन मन्सूर याद आ रहे थे. दूरदर्शन पर एक
बार मैंने उन्हें सुना तो देखते ही रह गया. ऐसा ही एक बार वडाली बंधुओं को सुनते
हुए लगा. जिनके रागों की बजाय
भाव-भंगिमाओं को देखते रहने का मन करता था.
पिछली बार यानी कोई
१० साल पहले जब नैनीताल में एक तरफ गिर्दा, राजीव लोचन जी और शेखर दा अपनी पहाड़ी चान्चारियों-भग्नौलों
की धुनों में मस्त थे, तब भी मंगलेश जी अपने ही राग में मस्त थे. बगल में बैठे हुए
वीरेन जी तमाम गालियों के साथ उनकी दाद दे रहे थी. और उन्हें गाने से रोकने की
भरसक कोशिश कर रहे थे. लेकिन मंगलेश जी तमाम भव बाधाओं की परवाह न करते हुए अपने
राग में चूर थे. वह दृश्य भी अपने आप में अद्भुत था. हमारे समय के दो बड़े कवियों
की ऐसी मुठभेड़ मैंने कभी न देखी थी. ऐसी कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था.
लेकिन इस बार
मंगलेश जी को बिना बाधाओं के बहुत करीब से राग सुनाते हुए देखना एक अलग ही आनंद दे
गया. बीच-बीच में वह कहते कि मैं जानता हूँ कि मेरा गायन बहुत भ्रष्ट है. मैं
शास्त्रीय गायन नहीं जानता. यह तो ऐसे ही मस्ती है. उधर त्रिनेत्र जी भी कहते कि
मंगलेश न जाने कब शास्त्रीय राग के बीच गढवाली लोक गीत की धुन घुसा देगा, पता नहीं
चलता. लेकिन मेरे जैसे अज्ञानी के लिए तो यह अनुभव ही पर्याप्त था कि कैसे एक कवि
का अंग-अंग गा रहा है. मैं यह भी सोचता रहा कि मंगलेश जी यदि कवि न होते तो क्या
एक महान शास्त्रीय गायक न होते?
उस शाम का अत्यंत जीवंत वर्णन किया है आपने। अब भी मंगलेश जी का वह गायन कानों में गूंजता है....‘रंग दे, रंग दे रे रंगरेजवा...’। हां, उनके शरीर की एक-एक कोशिका गा रही थी और हमारे शरीर की एक-एक कोशिका उनके मदमाद सारंग राग को सुन कर झूम रही थी। तभी, मैं रह नहीं पाया और आलाप भरा। आरोह-अवरोह सुन कर मंगलेश जी बोले राग यमन! अब मुझे क्या पता? मैं तो दुष्यंत की गजल ‘कहां तो तै था चरागां हरेक घर के लिए’ की उड़ान भरना चाहता था, पर फिर मंगलेश जी के गायन में डूब गया।...मुझे भी उनकी कुछ महफिलों की सुर-बरखा में भीगने का सौभाग्य मिला है।
जवाब देंहटाएंहल्द्वानी की वह एक यादगार शाम थी...
गोविन्द जी,
जवाब देंहटाएंमैं इस दुर्लभ अवसर से वंचित रह गया, यह अफसोस सदैव बना रहेगा.
उस रात को जब आपका फोन आया कि 'मंगलेश जी आपसे बात करना चाहते हैं' और मंगलेश जी ने कहा, 'एकाएक कहाँ गायब हो गए बटरोहीजी, हम लोग आपको मिस कर रहे हैं', तो मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ. मगर वह गलती इसलिए नहीं थी कि अगर मैं उनका सत्संग करता तो अगले कई दिनों तक चारपाई में होता. मगर उनके सत्संग की पुराणी यादें तो अभी भी है. उस एक शाम के लिए क्या कुछ दिन कुर्बान नहीं किये जा सकते थे ?
जवाब देंहटाएंआपको धन्यवाद कि आपने उन पलों की इतनी खूबसूरती के साथ याद दिलाई.
शिव प्रसाद जोशी लिखते हैं:
जवाब देंहटाएंत्रिनेत्रजी, सुभाषजी, वीरेनजी, प्रभातजी, मंगलेशजी. मुझे भी इन महानुभावों को नज़दीक से देखने जानने का सौभाग्य मिला है. बहुत निराले लोग हैं और विशिष्ट. और अपने ढंग के तूफ़ानी. आप कितने प्रसन्नचित्त रहे होंगे गोविंदजी, आपकी पोस्ट से समझ आता है!!
आपकी कोशिश से ये लोग एक जगह इकट्ठा हुए, देहरादून में इसकी ख़बर ही नहीं लगी.
भाई साहब मैं अब आपके द्वारा लिखे गये शब्दों को पढ़ रहा हूँ तो मुझे यह अनुभूति हो रही है, कि मैं भी वहीं उपस्थित हूँ और मंगलेश जी का गायन अभी भी चल रहा है। लेकिन क्या बताऊं भौतिक रूप से उपस्थित होने के सुख से मैं वंचित रह गया
जवाब देंहटाएंवेद विलास उनियाल लिखते हैं:
जवाब देंहटाएं"मंगलेशजी शास्त्रीय गायन की समझ रखते हैं यह बात पता थी। वो गाते भी हैं, यह मालूम नहीं था। कुछ ऐसा ही मिजाज राजीव नयंन बहुगुणाजी के साथ भी है। हारमोनियम लेकर सुर ताल मिलाते हैं। अफसोस पत्रकारिता की नई पीढी़ मिनिस्टर और डीएम से मिलकर ही अपने को धन्य समझती है। गीत संगीत, साहित्य, कला और लोकजीवन से बहुत दूर होती चली जा रही है।"
अजय ढौंडियाल:
जवाब देंहटाएं"वाह सर..क्या बात है....इस मंडली में हमको भी जरूर होना चाहिए था....कुछ झोड़े, चांचरी, भगनौल हम भी सुनाते...."
सर, आपको हमेशा संपादकीय विषयों पर पढ़ा और अक्सर आपसे बात भी इसी तरह के कामकाजू किस्म के विषयों पर हुई। पहली बार आपका इस तरह का लेखन पढ़ा। आनंद आ गया। इस तरह का लेखन अपने आपमें हमारे समय के सांस्कृतिक दस्तावेज होते हैं। मंगलेश और वीरेन दा का साथ वैसे भी संगीतमय होता है। तिसपर मंगलेश दा का गायन, सोने पर सुहागा। एक बात जो मुझे इन दोनों के सानिंध्य में हमेशा महसूस हुई वह यह है दोनों गजब के डेमोके्रट हैं। यह जहां भी होते हैं तो पूरे माहौल को नए-पुराने सभी के लिए सहज और सरल बना देते हैं। ये लोग अपनी उपस्थिति मात्र से बेवजह के मनोवैज्ञानिक भेद मिटा देते हैं । वाकई यह हमारे वक्तों के बड़े व्यक्तित्व हैं जो सहजता से संजीदगी सिखा देते हैं।
जवाब देंहटाएंसंजीव, यह बात आपने सही लिखी कि ये दोनों लेखक डेमोक्रेट हैं. ऊंचाई प्राप्त कर लेना एक बात है लेकिन डेमोक्रेट होना वाकई मुश्किल है. बहुत कम लोग होते हैं जो दूसरों की उपस्थिति को सहन कर पाते हैं.
जवाब देंहटाएंआपके लेख से एक बात जो मेरी समझ में आ रही है , वह इस बात को साबित करती है कि साहित्य और संगीत एक दूसरे के पूरक हैं... और जब मक्सद आनन्द लेने का हो तो बात कुछ और ही होती है ... उस आनन्द के एक एक पल को जीने वालों को ढेरों बधाईयां ... भुवन चन्द्र तिवारी
जवाब देंहटाएंमेरा उपस्थित रहना तो सम्भव नहीं था, लेकिन आपने बहुत सुन्दर बिम्ब प्रस्तुत किया है। लगा कि वहॉं मौजूद थी।
जवाब देंहटाएंडा. साहब नमस्ते।
जवाब देंहटाएंबहुत पहले करीब 1987-88 में मंगलेश जी हमारे ऑफिस अमेरिकन सेंटर दो-चार बार आए थे। उस समय मधु बी. जोशी जी हिंदी संपादक थीं और उन्होंने आयोवा राइटर्स प्रोग्राम में उन्हें आईवी नामित किया था। मुझे याद है मंगलेश जी रुक-रुककर बोला करते थे। मैं मधु जी के असिस्टेंट के रूप में कार्यरत था। मुझे यह भी ध्यान है मंगलेश जी ने मेरे बारे में पूछा था। बाद में उनकी रचनाएं जनसत्ता में पढ़ने को मिल जाती थीं। मंगलेश जी की गायन की प्रतिभा का भान नहीं था। आपके इस ब्लॉग माध्यम से यह जानकारी भी मिली बड़े सौभाग्य की बात है। मैं आपके लेख रुचि के साथ पढ़ता रहता हंू। ब्लॉग में भी और प्रिंट अखबारों में भी।
महिपाल
गोविन्द सर,
जवाब देंहटाएंये जानकारी ही आनंद भर रही है...वो शाम किस कदर ज़िंदा हो गई होगी इसका अंदाज़ा मिल रहा है....
गोविंद सर आपने दो तीन वर्ष पुरानी एक शाम की याद दिला दी। प्रणय कृष्ण( प्रणय दा) को देवीशंकर अवस्थी सम्मान मिला था। उसी की खुशी में लोग इकठ्ठा हुए। रसरंजन थो़ड़ा ज्यादा हो गया था। विष्णु खरे जी ने गाना शुरु किया। गुलो में रंग भरे... फिर मंगलेश जी ने। इसी बीच जाने क्या हो हुआ शायद किसी ने कोई चुटकी ली और विष्णु जी नाराज हो गए। गाना गालियों में तब्दील हुआ. हर तरफ हंसी. मंगलेश जी जब संयत हुए, तो कहने लगे कि गाना तो आप लोग रोज ही सुन लेते होंगे. आज जो सुना वह कभी-कभी ही सुनने को मिलता है.
जवाब देंहटाएंनीरज सिंह