ललित निबंध/ गोविंद सिंह
धनिया के फूल |
कभी आप गेहूं के हरे-भरे खेतों के बीच से होते हुए गुजरे हैं? जब गेहूं
के पौंधे एक-डेढ़ फुट के हो जाते हैं, तब गहरे हरे रंग के खेतों के बीच से
सुबह-सवेरे निकलिए, आपको हज़ारों-हज़ार मोती टिमटिमाते हुए दिखेंगे. पिछले डेढ़-दो
महीनों से मैं अपने आस-पास के खेतों में गेहूं के पौंधों को पल-पल बढ़ते हुए देख
रहा हूँ. जब वे नन्हे कोंपल थे, तब उन पर बरबस स्नेह उमड़ आता था. जमीन की सतह को
फोड़ कर ऊपर उठने की जद्दोजहद से भरे हुए. जब वे आधे फुट के हो गए, तब उनकी रौनक
अलग थी. जैसे बच्चा शैशव की दीवार को पार कर चलने-फिरने लगा हो, तेज दौड़ने की चाह
में बार बार गिर पड़ता हो. जब वे डेढ़ फुट के हो गए, तो उनका सौंदर्य अनुपमेय हो गया.
गहरे हरे रंग के घने खेत में तब्दील हो गए. पूरी तरह से आच्छादित. और कुछ भी नहीं.
जब मंद-मंद बयार चलती, तो सारे पौंधे एक साथ हिलते दिखाई देते जैसे कि छब्बीस
जनवरी की परेड लेफ्ट-राईट करती हुई चल रही हो. सुबह जब उनके ऊपर विखरी ओस की
बूंदों पर सूर्य की पहली किरण पड़ती है, तब इनकी छटा देखते ही बनती है. मन करता है,
बस, इन्हें ही देखते रहो.
गेहूं के खेत में निकलने लगीं बालियाँ |
इन्हें देखते हुए मैं अक्सर अपने बचपन के गाँव में लौट जाता हूँ. नाक और
कान छिदवाई हुई मेरे साथ की छोटी-छोटी लड़कियां सुबह-सवेरे ओस की इन बूंदों को बटोर
कर नाक और कान के छिदे हुए घावों पर डाल रही होतीं. इन मोतियों को बटोरने को लेकर
उनके मन में अद्भुत उत्साह होता था. सुबकते हुए घावों में मोतियों की ठंडक का
एहसास पाने का उत्साह. साथ ही हरे-हरे पौंधों को छूने का एहसास.
इधर कुछ दिनों से गेहूं में बालियाँ निकलने लगी हैं. कई-कई खेत तो
बालियों से लबालब भर गए हैं. जैसे किशोर युवाओं के शरीर में बेतरतीब ढंग से
परिवर्तन आने लगते हैं, लड़कों के चेहरे पर दाढी-मूंछ उग आती है, लड़कियों के शरीर
में भी परिवर्तन दीखते हैं, उसी तरह गेहूं के खेत भी इन दिनों अपना रंग बदल रहे
हैं. गहरा हरा रंग अब तनिक गायब हो गया है. अब उनकी खूबसूरती भी अंगड़ाई ले रही है.
कहीं-कहीं बालियाँ पूरी आ चुकी हैं तो कहीं एकाध कलगी ही दिख रही है. बीच बीच में
एकाध पैच ऐसा भी दिख जाता है, जो अभी अपने बचपन में ही हो. किशोर बालकों की छितराई
हुई दाढी-मूछों की तरह.
प्यूली के फूलों से महकने लगे वन |
एक दिन सुबह टहलते हुए मुझे धनिया का बड़ा-सा खेत दिखाई पड़ा, जो पूरी तरह
से खिला हुआ था. धनिया की कुछ क्यारियां तो बचपन में देखी थीं, लेकिन इस तरह पूरे
शबाब में कभी न देखा था. सरसों के चटख पीले फूलों की बहुत चर्चा होती है, लेकिन सच
पूछिए तो मैं धनिया के फूलों भरे खेत को देखता ही रह गया. हलके गुलाबी और सफ़ेद रंग
के फूल अद्भुत दृश्य उत्पन्न करते हैं. और उनकी हलकी हलकी खुशबू भी अलग ही समां
बांधती है.
प्रकृति की ये सारी छटाएं वसंत के आगमन की सूचना दे रही हैं. वसंत दस्तक
दे चुका है, हलकी-हलकी बयार चल रही है. लेकिन अभी मादकता आनी बाक़ी है. अगले महीने
जब गेहूं की इन बालियों में दाने भर जायेंगे, वे ठोस आकार ले चुके होंगे और बाल,
जो अभी मुलायम हैं, वे काँटों की तरह नुकीले हो जाएँगे, हवा में एक भुरभुरी सी गंध
पसरने लगेगी, रंग भी हरे के बजाय पीताभ हो जाएगा, तब गेहूं के खेतों में मादकता
बरसेगी. रंगीलो बैसाख, काट भागुली ग्यूं!! कुमाऊंनी लोकगीत की यह पंक्ति
जैसे बैसाख की मस्ती को बयान करने को काफी है.
चारों तरफ एक अजीब सी गंध पसरने लगी है. गेहूं के खेतों के किनारे-किनारे
सरसों के पीले फूल खिल रहे हैं. अमराइयों
में बौर फूट चुकी हैं. आम की ही तरह लीची में भी बौर आ चुकी हैं. हालांकि आम की
बौर की तुलना में लीची की बौर जैसे दबे-छिपे ही आ रही है. वह अपने आने का एहसास
नहीं करवाती. सेमल के पेड़ अपने को अनावृत कर चुके हैं. उनमें नन्हीं-नन्हीं लाल कलियाँ
दिखने लगी हैं. पखवाड़े भर में ये पूरे के पूरे लाल हो चुके होंगे. नयी दिल्ली की
अभिजात बस्तियों में तो जैसे सेमल राज करता है. सड़कें लाल-लाल फूलों से भर जाती
हैं. यहाँ उसके ज्यादा पेड़ नहीं हैं. लेकिन पृष्ठभूमि में खड़े पहाड़ी जंगल में तो
अलग अलग रंग के पेड़ों की पट्टियां सी बन गयी हैं. नींचे साल और शीशम के पेड़ों की पट्टी
है, तो कुछ ज्यादा ऊंचाई पर चीड़ के पेड़ों की लाइन शुरू हो जाती है. सबकी अपनी-अपनी
जमात है. जैसे अपने तिरंगे में अलग-अलग रंग की पट्टियाँ होती हैं, उसी तरह जंगल
में भी फूलों की पट्टियाँ बन गयी हैं. सबसे नीचे पीली पट्टी है तो उसके ऊपर
ताम्रवर्णी पट्टी है, कहीं कहीं कुछ लाल और धूसर पट्टी भी दिखाई देती है. कुछ ही
दिनों में कुछ और ऊंचाई वाले पहाड़ों में बुरांस के लाल फूलों से पूरा का पूरा जंगल
आच्छादित हो जाएगा. और तब सारे रंग फीके पड़ जायेंगे. दूर से यह जंगल नहीं, कोई बड़ी
सी रंग-विरंगी धारीदार चादर नजर आती है. प्रकृति ने सचमुच वसंत की दस्तक दे दी है,
मगर हमारे भीतर का वसंत अभी निद्रा की ही अवस्था में है. महानगरीय भागमभाग में हम
प्रकृति की इस लय को पहचानना ही भूल गए हैं. पता नहीं हम कब अपने असली स्वभाव में
लौटंगे! ( पाक्षिक पब्लिक एजेंडा से साभार)
ऋतुराज 'बसंत' के इन यौवन भंगिमाओं का आभास करने के अनेक मौके मुझे भी मिले हैं .... आहा..... .
जवाब देंहटाएंमनभावन आलेख ...बधाई.
ऐसा लगा जैसे कुछ देर के लिए मैं खेतों के बीच ही पहुंच गया। भरी दोपहर में कंप्यूटर के सामने ही तरोताजा महसूस करने लगा। शुक्रिया सर जी,,,,
जवाब देंहटाएंsach asli basant to gaon mein hi dekhne ko milta hai..
जवाब देंहटाएंbahut sundar prastuti..