रविवार, 5 मई 2013

अपने भीतर झांके प्रेस


प्रेस स्वाधीनता दिवस/ गोविंद सिंह
ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ रहे हैं, सभ्य हो रहे हैं, प्रेस पर जकडबंदी बढ़ती जा रही है. यह जकडबंदी किसी एक कोने से नहीं बल्कि समाज के चारों कोनों से हो रही है. कहते सब हैं कि प्रेस आज़ाद होनी चाहिए, लेकिन जब बात अपने पर आती है तो कोई उसे आजादी नहीं देना चाहता. क्या राजनीति, क्या उद्योग-व्यापार जगत, क्या सरकार, क्या समाज, हर कोई उसे अपनी जेब में रखना चाहता है. पिछले साल यानी वर्ष २०१२ में ही कुल ७० पत्रकार दुनिया भर में मारे गए. जबकि वर्ष १९९२ से अब तक ९८२ पत्रकार मारे गए हैं. १९६ देशों के मीडिया सर्वे में कहा गया है कि दुनिया में ३५ फीसदी देश ही ऐसे हैं जहां प्रेस आज़ाद है. ३३ प्रतिशत देशों में कामचलाऊ आजादी है जबकि ३२ प्रतिशत देशों में कोई  आजादी नहीं है. हमारे देश की हालत भी बद से बदतर होती जा रही है. रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स नामक संस्था द्वारा कराये गए १७९ देशों के सर्वे में हम १४०वें पायदान पर हैं. जबकि दो साल पहले हम १२२ वें स्थान पर थे. यानी हमारे यहाँ प्रेस की आजादी लगातार क्षीण हो रही है. लेकिन यह केवल हमारे देश की बात नहीं है, दुनिया के लगभग हर देश में प्रेस पर संकट है. हाँ, यह जरूर है कि संकट के रूप अलग-अलग हैं. कहीं सरकारें ही उसे दबाने पर आमादा हैं तो कहीं आतंकवादग्रस्त इलाकों में उन पर आतंकियों का दबाव है, कहीं फ़ौज उनके पीछे है तो कहीं पुलिस या अन्य सुरक्षा बल. ये वे आंकड़े हैं, जो प्रकट हैं अर्थात दिखाई देते हैं. यानी हिंसा-प्रतिहिंसाग्रस्त इलाकों के. अपने भीतर के दबाव के आंकड़े नहीं मिल सकते.
जिन देशों में तानाशाही व्यवस्थाएं हैं, वहाँ तो प्रेस की आजादी की बात करना ही निरर्थक है, लेकिन जिन देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं हैं, वहाँ भी स्थितियां बदतर ही हो रही हैं. यूरोप के कुछ छोटे-छोटे देशों को छोड़ दें, तो बाक़ी सभी देशों का हाल खराब ही है. यूरोपीय देशों की हालत भी भलेही ऊपर से अच्छी दिखती हो, लेकिन सचाई यही है कि वहाँ प्रेस पर अलग किस्म के दबाव हैं. अर्थात तानाशाही वाले देशों या संकटग्रस्त देशों में दमन साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है तो पूंजीवादी और लोकतांत्रिक देशों में उसकी छाया ही दिखाई पड़ती है. यूरोप-अमेरिका जैसे देशों की प्रेस आर्थिक मंदी जैसे संकटों से जूझ रही है. उसे अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए अपने एजेंडे को ही बदलना पड़ रहा है. अपने बुनियादी उसूलों से ही समझौता करना पड़ रहा है. वहाँ अखबारों को अपने नागरिकों की समस्याओं की बजाय उनकी बातों को तवज्जो देनी पड़ रही है, जो इस अकाल वेला में विज्ञापन देकर उनका पेट भर सकें.
भारत जैसे देशों में समस्या एकदम अलग है. हमारे यहाँ अभी संक्रमण का ही दौर चल रहा है. आर्थिक सुधारों के बाद मीडिया का क्षेत्र अप्रत्याशित गति से बढ़ा है. अर्नेस्ट एंड यंग इंडिया की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में मीडिया की खपत लगातार बढ़ रही है. घरेलू मीडिया व मनोरंजन उद्योग वर्ष 2015 तक 25 अरब डालर से अधिक का हो जाएगा जो 2010 में 16.3 अरब डालर था। सचमुच आज वह एक बड़े उद्योग का रूप धारण कर चुका है. जिस रफ़्तार से वह बढ़ रहा है, उस अनुपात में वह पेशेवर यानी संस्कारित नहीं हो पाया है. एक तरफ मिशनरी होने का पुरानी पीढ़ी का बोझ है तो दूसरी तरफ व्यावसायिक बनकर धन भी कमाना है. यहाँ पत्र-स्वामियों या मीडिया घरानों की बड़ी संख्या पहली या दूसरी पीढ़ी की है. नयी पीढ़ी के लिए मिशनरी मूल्यों का कोई अर्थ नहीं रह गया है. इसी तरह हमारी राजनीति भी अभी परिपक्व नहीं हो पायी है. हालांकि राजनेताओं की पिछली पीढ़ी पत्रकारिता के साथ कंधे से कंधा मिला कर आज़ादी का आन्दोलन लड़ रही थी, फिर भी अब के राजनेताओं में पत्रकारिता के उच्च मूल्यों के प्रति कोई सम्मान नहीं दिखाई देता. दरअसल राजनीति के चरित्र में ही बड़े पैमाने पर ह्रास हुआ है तो क्या किया जा सकता है. हमने अपनी अर्थव्यवस्था को ग्लोबल तो कर दिया है, लेकिन हमारे संस्कार अभी पुरातन ही हैं. हमारे यहाँ जो पूंजीवाद आया है, वह जनकल्याणकारी पूंजीवाद नहीं है. उसे क्रोनी कैपिटलिज्म यानी लंगोटिया पूंजीवाद कहा जा रहा है. अर्थात जो जनहित के लिए नहीं राजनेताओं- अफसरों के लंगोटिया दोस्तों को फायदा पहुंचाने के लिए होता है. आर्थिक उदारीकरण का लाभ बहुत कम लोगों तक पहुंचा है. ऐसे में प्रेस के मूल्य भी तेजी से बदल रहे हैं और उसके प्रति समाज की धारणा भी बदल रही है. 
ज्यादातर राजनेता भी प्रेस को अपनी जेब में रखना चाहते हैं. सरकारें चाहती हैं कि प्रेस उसके प्रति दोस्ताना व्यवहार रखे. चूंकि अपने यहाँ अभी भी छोटे अखबार सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर हैं, खासकर उन राज्यों में, जो औद्योगिक रूप से पिछड़े हुए हैं, वहाँ निजी क्षेत्र के विज्ञापन नहीं मिल पाते. इसलिए अखबारों को पूरी तरह से सरकारी विज्ञापनों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. जाहिर है ऐसे राज्यों में अखबार खुल कर सरकारों की समीक्षा नहीं कर पाते. बिहार का उदाहरण सबके सामने हैं. प्रेस परिषद की टीम ने स्पष्ट कहा है कि वहाँ अघोषित सेंसरशिप लगी हुई है. छोटी जगहों पर तो समस्या और भी जटिल है. वहाँ नेता, अफसर और अपराधी सीधे-सीधे पत्रकार के सामने होते हैं. इसलिए परिस्थिति बेहद कठिन होती है. जिसके खिलाफ आप लिख रहे हैं, वह लिखने से पहले ही आपके हर शब्द पर नजर गडाए हुए है. आपको हर तरह के प्रलोभन दिए जाते हैं. प्रलोभन से नहीं माने तो दमन से मनाया जाता है. पत्रकार के पास क्या सुरक्षा है?
यह तो रहा बाहरी दबाव. असली दबाव हमारे अपने भीतर का है. आनन्-फानन में उद्योग बन जाने के कारण प्रेस के भीतर भी अनेक विकृतियाँ आ गयी हैं. हम कहते हैं कि पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन बन गयी है, यानी उसका पतन हो गया है. सवाल यह है आज कितने पत्रकार हैं जो मिशनरी बनने को तैयार हैं? १९०९ में इलाहाबाद से छपने वाले अखबार ‘स्वराज्य’ द्वारा संपादक पद के लिए निकाला गया विज्ञापन देखने लायक है: ‘एक जौ की रोटी, और एक प्याला पानी, यह शरहे-तनख्वाह (वेतन) है जिस पर स्वराज्य, इलाहाबाद के वास्ते एडिटर मतलूब है. यह वह अखबार है, जिसके दो एडिटर बगावत आमेज मजामीन (विद्रोहात्मक लेखों) की मुहब्बत में गिरफ्तार हो चुके हैं. अब तीसरा एडिटर मुहैया करने के लिए जो इश्तिहार दिया जाता है, उसमें जो शरहे तनख्वाह जाहिर की गयी है, ऐसा एडिटर दरकार है, जो अपने ऐशो-आराम पर जेलखाने में रह कर जौ की रोटी और एक प्याला पानी को तरजीह दे.’ अर्थात ऐसी स्थिति के लिए आज कोई  भी पत्रकार तैयार नहीं होता. इसलिए आज के युग में सिर्फ मिशन के नारे से काम नहीं चलेगा. अब सवाल यह है कि कम से कम पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों से क्या आज के पत्रकार या पत्र-स्वामी वाकिफ हैं?    
आज़ादी से पहले प्रेस का आकार छोटा था, उसने उद्योग का रूप धारण नहीं किया था. वही लोग इस पेशे में आते थे, जो सचमुच पत्रकारीय मूल्यों के प्रति वफादार थे. आज ऐसा नहीं है. हर तरह के लोग इस में घुस गए हैं. ऐसे मीडिया-स्वामी भी मैदान में आ गए हैं, जिनका पत्रकारिता के प्रति कोई सरोकार नहीं है. पिछले साल हमने देखा कि एक बहुचर्चित घराने के शीर्ष संपादकों को जेल जाना पड़ा. यदि वे सचमुच पत्रकारीय मूल्यों की रक्षा के लिए जेल गए होते तो सारा मीडिया और समाज उनके पीछे खड़ा हो जाता. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसी तरह ऐसे ब्लैकमेलर, लौबीइंग करने वाले पत्रकारों की फ़ौज खड़ी हो गयी है, जो प्रेस के बारे में बनी पुरानी धारणा को खंडित कर रहे हैं. नीरा रादिया का उदाहरण सबके सामने है. जो शीर्ष स्तर पर पत्रकारों को मैनेज कर रहीं थीं. प्रेस ज़रा भी आँखें दिखाने लगी कि क्या राजनीति, क्या सरकार, क्या ब्यूरोक्रेसी या उद्योग जगत, हर कहीं प्रेस को मैनेज करने की बात होती है. जिसकी कोई औकात नहीं, वह भी प्रेस को मैनेज करता-फिरता है. इंटरनेट नया माध्यम है. उसके माध्यम से होने वाली पत्रकारिता को लेकर क़ानून अभी लचीले हैं. जिसका फायदा उठाकर लोग पत्रकारीय नैतिकता की धज्जियां उड़ा रहे हैं. ऐसी स्थिति में यदि सरकार इनके खिलाफ कदम उठाने की बात करती है तो क्या बुरा है? यानी खतरा हमारे भीतर है. हमारी पत्रकारिता एक तरह से खुद पर हमले का न्योता दे रही है. कल तक जो जनता पत्रकारिता के पक्ष में खड़ी नजर आती थी, वही आज क्यों उसकी बुराई करने लगी है? पत्रकारिता से आजिज आकर ही लोग फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया की तरफ भाग रहे हैं. इसलिए पत्रकार साथियों को चाहिए कि वे सोचें कि कि कल तक जो जनता उसके पीछे खड़ी रहती थी, आज क्यों वही उसके पीछे पड़ गयी है? हमें सचमुच अपनी आजादी की रक्षा खुद करनी होगी. ( हिन्दुस्तान दैनिक में तीन मई, २०१३  को प्रकाशित लेख का परिवर्धित रूप.)         

6 टिप्‍पणियां:

  1. स्‍वार्थ ने सबको अंधा कर दिया है ..
    अपनी आजादी को बचाए रखना ही चाहिए !!

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  2. जब अखबार या चैनल 'उत्‍पाद' बन जाएंगे तो मूल्‍यों का क्षरण स्‍वाभाविक है। सही बात है कि असली खतरा भीतरी है। हम खुद को कमजोर करते जा रहे हैं, लिहाजा बाहरी दबाव बढ़ता जा रहा है। पैसे की जरूरत सबको है। संस्‍थान को भी और उसमें काम करने वाले लोगों की भी, लेकिन एक लक्ष्‍मणरेखा तो खींचनी ही पड़ेगी, वरना रावण अपने षडयंत्र में सफल हो जाएगा। बहुत हद तक सफल होता दिख भी रहा है।

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  3. बहुत गंभीर और सार्थक विश्लेषण है. निश्चय ही सोचने-समझने वाले लोग इस लेख से उद्वेलित होंगे. लेखक की यह बात सही है कि असली खतरा हमारे ही अन्दर है. प्रेस जिस तरह समाज के बीच ग्लैमर और ताकत का सबसे बड़ा प्रतीक (आभासी ही सही) बन गया है, उसे देखते हुए इस लेख में उठाये गए सवालों का जवाब इतना आसान नहीं है. फिर भी इसी तरह के गंभीर विश्लेषणों से रास्ता निकलेगा. यही विचार और शब्द की ताकत है.

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  4. Tarun Vijay
    press mein jo log oonche swar mein MP aur MLAs se vigyapan maangte hain aur na milne par jhoothee khabarein chhaptein hain? Unka kya karein?

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  5. दिनेश चंद्र सेमवाल5 मई 2013 को 10:06 pm बजे

    बिना आजादी के रिमोट पर चलने वाला लोकतंत्र का यह पहिया ढकचक-ढकचक हिल रहा है। तभी तो लोकतंत्र रूपी गाड़ी मंेे भ्रष्टाचार के जलजले लगातार बने हुए हैं। अगर प्रेस स्वस्थ होती तो किस सिर फिरे की औकात थी प्रजातंत्र से दुराचार करने के बावजूद टिके रहने की। जनता उसे रसातल में गाढ़ देती।

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  6. Dear sir,
    after long time saw your article. this one is really so important notice and analysis of today's media's direction and its nature.

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