गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

गंगा: हमारी सभ्यता की जननी

धर्म-संस्कृति/ गोविन्द सिंह
सात-आठ साल पहले की बात है. एक कालेज में पत्रकारिता पढ़ाने हरिद्वार गया हुआ था. हालांकि इससे पहले भी दो-एक बार हरिद्वार जाना हुआ था लेकिन इस बार कुछ फुर्सत में था. मित्र जीतेन्द्र डबराल ने कहा, शाम हो रही है, चलिए गंगा आरती देख आयें. हम जब हरकी पैड़ी पहुंचे, शाम ढल चुकी थी और हल्का अन्धेरा पसरने लगा था. चारों तरफ लोगों का हुजूम उमड़ा पड़ा था. वे सब नहाए हुए-से लग रहे थे. साधू गण, पण्डे-पुजारी अपने-अपने मंदिरों के द्वार पर खड़े हाथ में मशालें, बड़े-बड़े दीये लिए हुए गंगा मैया की आरती गा रहे थे, मैया का आह्वान कर रहे थे. सब-कुछ एकदम अलौकिक था. मैं अवाक-सा, मंत्रमुग्ध-सा देख रहा था. फिर लोग छोटे-छोटे पूड़ों में रखे दीपक गंगा जी को अर्पित करने लगे. गंगा की धारा सचमुच तट पर स्थित मंदिरों की मशालों के प्रतिबिम्बों और दीपों की जगमग-जगमग से दमक उठी. मैं उन अनगिनत दीपों को बहते हुए तब तक देखता रहता, जब तक कि वे आँखों से ओझल नहीं हो गए! भावनाओं का एक अदम्य ज्वार उमड़ रहा था. हजारों साल की परम्परा जैसे अपने उद्दाम वेग के साथ उमड़ रही थी. मुझे लगा कि धर्म और आस्था ही है जो इस देश को बचा कर रख सकती है. खुद गंगा को लेकर भी मन में अनेक सवाल उठ रहे थे कि आखिर क्या है इस नदी में, जो पूरा देश आज भी इसे उतनी ही आस्था से पूजता है, जितना हजारों साल पहले. हमारी स्मृति जहां तक जाती है, गंगा वहाँ तक हमें पूजनीय दिखाई पड़ती है. क्यों वह हमारे संस्कारों में गहरे रची-बसी है. तमाम आधुनिकता, तमाम प्रगतिशीलता, तमाम तार्किकता के बावजूद उसके प्रति आस्था का सैलाब उमड़ता ही जाता है. वह केवल हाइड्रोजन और ऑक्सीजन का घोल नहीं, वह हमारे लिए मां है, देवी है, जीवन दायिनी है, पाप-नाशिनी है और है मोक्ष-दायिनी. आखिर कैसे उसे यह दर्जा मिल गया?
भलेही वह धरती पर भगीरथ के प्रयत्न से साठ हजार सगर पुत्रों की तारणहार बनकर उतरी हो, लेकिन यहीं की होकर रह गयी. चाहती तो वह अपना काम समाप्त कर लौट सकती थी या सरस्वती की तरह अपना कोई और रूप धर लेती, आखिर इस धरती से उसे क्या मोह था कि वह लाखों-करोड़ों लोगों को जीवन देने यहाँ रुक गयी? क्या धरती से उसे भी मोह हो गया? क्या उसके स्वभाव में ही पालनहार का गुण समाहित है? क्या इसीलिए वह आज तक मानव जाति को पाल-पोस रही है? 
भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि धाराओं में मैं गंगा हूँ। महाभारत में गंगा का महात्म्य अनेक स्थलों पर उपस्थित है. वन पर्व में गंगा की प्रशस्ति में कई श्लोक दिये हैं, जिनमें कहा गया है: " यदि कोई सैकड़ों पापकर्म करके गंगाजल का अवसिंचन करता है तो गंगाजल उन दुष्कृत्यों को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार से अग्नि ईंधन को जला देती है।...नाम लेने पर गंगा पापी को पवित्र कर देती है। इसे देखने से सौभाग्य प्राप्त होता है। जब इसमें स्नान किया जाता है या इसका जल ग्रहण किया जाता है तो सात पीढ़ियों तक कुल पवित्र हो जाता है। जब तक किसी मनुष्य की अस्थि गंगा जल को स्पर्श करती रहती है, तब तक वह स्वर्गलोक में प्रसन्न रहता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है. वह देश जहाँ गंगा बहती है और वह तपोवन जहाँ पर गंगा पाई जाती है, उसे सिद्धिक्षेत्र कहना चाहिए, क्योंकि वह गंगातीर को छूता रहता है।"
अनुशासन पर्व कहता है कि वे जनपद एवं देश, वे पर्वत और आश्रम, जिनसे होकर गंगा बहती है, महान हैं। जीवन के प्रथम भाग में जो पापकर्म करते हैं, यदि गंगा की ओर जाते हैं तो परम पद को प्राप्त करते हैं। जो लोग गंगा में स्नान करते हैं उनका फल बढ़ता जाता है।
यह सब यों ही नहीं कहा गया. गंगा के उपकार इतने ज्यादा हैं कि शास्त्रों को ये बातें अपने भीतर दर्ज कर लेनी पड़ीं. भारत के ११ राज्यों की ५० से ज्यादा आबादी की सेवा-टहल करती है गंगा. गंगोत्री से लेकर डायमंड हार्बर तक लगभग २५०० किलोमीटर लम्बी यात्रा में वह लोगों का जीवन संवारती है.
लेकिन हम भारत के लोग इतने कृतघ्न हैं कि उसके तमाम उपकारों को भूलकर उसे ख़त्म करने पर तुले हैं. रोज उसमें ३३ हजार ६४० लीटर गंदा पानी डालते हैं. पहले कहा जाता था कि हरिद्वार-ऋषिकेश के बाद गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है, वह पीने लायक नहीं रहा. तब कहा जता था कि पहाड़ों में गंगा जल में जीवाणुओं को मारने की ताकत मौजूद रहती है, जो मैदान में आते-आते ख़त्म होती जाती है. लेकिन अब पहाड़ों में भी प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि देव प्रयाग और रूद्र प्रयाग जैसे इलाकों में ही गंगा जल प्रदूषित होने लगा है. कानपुर-इलाहाबाद पहुँचते-पहुँचते उसमें भयंकर जीवाणु पैदा हो जाते हैं, जो मनुष्य के लिए जानलेवा होते हैं. जबकि गंगाजल को पंचामृत का एक अमृत माना जाता रहा है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् के नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश, बिहार, और बंगाल के तटवर्ती इलाकों में रहने वाले लोग देश के किसी भी अन्य इलाके की तुलना में ज्यादा कैंसर-आशंकित हैं. लखनऊ के भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान का अध्ययन कहता है कि कानपुर में बिठूर से शुक्लागंज तक गंगा के पानी में डायरिया, खूनी पेचिश और टायफाइड जैसी बीमारियाँ पैदा करने वाले जीवाणु मौजूद हैं. गंगा एक्शन प्रोग्राम जैसे कार्यक्रमों के बावजूद गंगा की हालत दिन पर दिन खराब ही होती जा रही है. ऊपर से राजनीतिक दल जब चुनाव में वोट पाने के लिए गंगा यात्रा जैसे ढोंग करते हैं तो दुःख होता है. दरअसल हमारी राजनीति बुरी तरह से विकृत हो चुकी है. वह जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करती है. वोट पाने के लिए गंगा ही क्यों, वह किसी को भी भुना सकती है. गंगा का यह हाल न सिर्फ सेहत और प्रदूषण के लिए खतरनाक है, बल्कि भारत की हजारों वर्षों से जीवित सभ्यता और संस्कृति के लिए भी ख़तरा है. (नैवेद्य, देहरादून, मार्च, २०१४ से) 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें