समाज/ गोविंद सिंह
गैरसेण में पशु बलि को लेके गाँव वासियों और प्रशाशन के बीच काफी हंगामा
हो गया. कुछ लोग घायल भी हो गए. उधर गंगोलीहाट के कालिका मंदिर में भैंसे की बलि पुलिस
के हस्तक्षेप से रोकी गयी. इससे पहले स्याल्दे– देघाट के काली मंदिर में भी बलि
रोकी गयी थी. पौड़ी गढवाल के बूंखाल स्थित कालिका मंदिर में भी पिछले दिनों भैंसा
बलि को रोका गया. वहाँ बड़े पैमाने पर पशु बलि दी जाती है. उत्तराखंड के लगभग हर
जिले में ऐसे मंदिर हैं, जहां पशु बलि दी जाती है. वह भी भैंसे की. पिछले साल
नवंबर में उत्तराखंड के उच्च न्यायालय ने गढवाल के बूंखाल उत्सव में पशु बलि पर
रोक लगा दी थी. तब से हर मंदिर में पशु बलि पर रोक की मांग हो रही है. लेकिन इसके
बावजूद लोग हर बार भैंसे को लेकर मंदिर पहुँचते हैं और पुलिस उन्हें रोकती है. कभी-कभार
लोग पुलिस से भिड़ते भी हैं. लेकिन बीच-बचाव के बाद मामला शांत हो जाता है. लोग
जानते हैं कि बलि कानूनन अनुचित है, मंदिर के पुजारी भी इस बात से अच्छी तरह से
वाकिफ होते हैं, लेकिन फिर भी लोग भैंसा लिए चले आते हैं. जैसे कि वे देवता को यह
बताना चाहते हों कि हम तो आ गए थे, यह सरकार है, जो हमें रोक रही है! यह बात समझ
में नहीं आती कि तमाम शिक्षा के बावजूद आज भी उत्तराखंड में बलि-प्रथा मौजूद है.
जिस तरह से सती प्रथा के निषेध के दो सौ साल बाद भी सती होने की छिटपुट घटनाएं
बीच-बीच में सुनने को मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह से बलि प्रथा भी रुक नहीं पा रही.
पशु बलि को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर कोई ठोस कानून नहीं है. अलबत्ता, छः
राज्यों ने पशु बलि पर रोक लगा राखी है.
जानवरों से प्रेम करने वाले कुछ संगठन कानून को लेकर प्रयासरत हैं लेकिन अभी तक
कोई खास सफलता नहीं मिल पाई है. कारण धार्मिक है. धार्मिक मामले में कोई हाथ नहीं
डालना चाहता है. फिर मामला सिर्फ हिन्दू धर्म का ही नहीं है. इसकी जड़ें बहुत गहरी
हैं. हजारों वर्षों से बलि प्रथा चल रही है. खास कर उन क्षेत्रों में इसका रिवाज
ज्यादा है, जहां शक्ति की उपासना होती है. इसलिए दक्षिण भारत, पूर्वी भारत, असम,
नेपाल, राजस्थान और उत्तराखंड में बलि प्रथा ज्यादा है. लोग इसके खिलाफ सुनने को
ही तैयार नहीं होते. लेकिन उत्तराखंड की नयी पीढ़ी इस मसले पर काफी ऊहापोह की
स्थिति में है. पिछले दिनों ‘मेरा पहाड़ फोरम’ नामक इंटरनेट समूह ने इस पर एक बहस चलाई. कई लोगों ने बड़ी तल्ख़
टिप्पणियाँ कीं. अनेक लोगों का मानना था कि यह धार्मिक मामला है, इसलिए इसे नहीं
उछालना चाहिए. एक सज्जन सूबेदार मेजर डीएस नयाल ने लिखा कि भैंसे को तडपते देख कर
मेरा दिल इतना दहल उठा कि मैंने ठान लिया कि मैं इसके खिलाफ अपने गाँव वालों को
तैयार करके रहूँगा. उन्होंने अपने गाँव में इसे लेकर बहस करवाई और अंततः गाँव के
लोग पशु बलि के खिलाफ तैयार हो गए. अब वहाँ भैंसे की बलि नहीं दी जाती. इसी तरह
मुंबई से डांडी-कांठी नामक संगठन की ओर से बूंखाल में पशु बलि के खिलाफ जन जागरण
किया गया. कहने का तात्पर्य यह है कि सरकार और राजनीति जहां फेल हो जाती हैं, वहाँ
से जागरूक जनता का काम शुरू होता है. और उत्तराखंड की नयी पीढ़ी यह काम कर रही है.
भैंसे की बलि खत्म भी हो जाती है तो बकरे और मुर्गे की बलि को खत्म होने
में अभी लंबा समय लगेगा. बड़े मंदिरों में दी जाने वाली सामूहिक बलि पर कानूनन रोक
संभव है लेकिन गाँव-गाँव में जो मंदिर हैं, वहाँ छिटपुट बलि चलती रहती है. दरअसल आज
भी पहाड़ी समाज अनेक तरह की रूढियों में जकडा हुआ है. वहाँ की ग्रामीण
न्याय-व्यवस्था आज भी लोक देवताओं के हवाले है. किसी का बच्चा बीमार हो गया तो
देवता, किसी की गाय मर गयी तो देवता, किसी के यहाँ चोरी हो गयी तो देवता का प्रकोप
निकल आता है. छोटे-छोटे आपसी झगडों में लोग देवता के पास (घात) शिकायत लेकर पहुँच
जाते हैं. और फिर देवता भी बारी-बारी से दंड वसूलता है. इस मामले में पहाड़ का
ग्राम समाज आज भी ५० साल पुरानी मान्यताओं पर चल रहा है. ज्योतिषियों, पुछ्यारियों,
पुजारियों, घटेलियों और जगरियों की बन आती है. जिन्हें ज्योतिष का अ ब स नहीं आता,
वे भी परेशान आदमी को आता देख महापंडित की एक्टिंग करते हैं. देवता के सामने गरीब
आदमी जैसे पिसता ही चला जाता है. ग्रामीण समाज में जो दबंग हैं, वे अपनी मनमर्जी
चलाते रहते हैं, उन्हें देवता की परवाह नहीं होती. जो अमीर हैं, वे अपना इलाज
शहरों में जाकर करवा आते हैं, जो सक्षम हैं, वे कोर्ट-कचहरी जाने में भी नहीं
हिचकते. जबकि गरीब को कभी मुर्गा तो कभी बकरा, दंडस्वरुप मंदिर में चढाना पड़ता है.
आपको यह जान कर हैरानी होगी कि गाँव में तीन से छः महीने का बकरा ढूँढना मुश्किल
हो जाता है, उसकी मुंहमांगी कीमत मिलती है. हम इस बात पर बहुत खुश होते हैं कि
पहाड़ी समाज में अपराध नहीं है, वहाँ पुलिस की जरूरत नहीं पड़ती. लेकिन सच बात यह है
कि देवता के नाम पर एक दूसरी तरह का डंडा आम आदमी के सर पर पड़ता रहता है. गरीब लोग
देवता का पूजन अपने मन की शान्ति के लिए नहीं, प्रकोप के भय से करते हैं. हम यह
नहीं कहते कि देव भय का कोई फायदा नहीं
होता, वे भी हैं, लेकिन देव पूजन मन की शान्ति के लिए होना चाहिए ना कि भय से. एक
ज़माना था, जब समाज को इसकी जरूरत थी. अब जमाना आगे बढ़ गया है. इसलिए समाज को खुद
ही आगे बढ़कर इसे रोकना होगा. ( अमर उजाला, १ अप्रैल, २०१२ से साभार)
अवश्य ही 'बलि प्रथा' समाप्त होनी चाहिए. सामयिक, जानकारी युक्त, विचारणीय आलेख .. आभार.
जवाब देंहटाएंदीपक दुआ:
जवाब देंहटाएं"बहुत बढ़िया लेख सर... संस्कृति आज हर जगह ढह रही है... रामलीलाओं के शहर दिल्ली में इनका व्यवसायीकरण तो हो ही गया है... यह असर बाकी जगह भी देर-सवेर आना ही है..."
शानदार लेख. लम्बे समय बाद किसी ने इस विषय पर लिखने की हिम्मत दिखाई है. इस विषय पर लिखने का मतलब है अपनी बलि के लिए तैयार रहना...वाकई बलि प्रथा के खिलाफ एक सतत अभियान की जरुरत है. इस कुप्रथा को दूर करने के लिए एक और चिपको आन्दोलन की दरकार है.
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