उच्च शिक्षा/
गोविंद सिंह
यह विचार केवल ब्रिटेन के कुछ अध्यापकों के मन में आया हो, ऐसा नहीं है. जिस तरह से दुनिया भर में शिक्षा खरीद-फरोख्त की वस्तु बन गयी है, उसने यह चिंता पैदा कर दी है कि आने वाली पीढ़ियों का क्या होगा? क्या शिक्षा सचमुच गरीब की पहुँच से दूर छिटक जायेगी?भारत ही नहीं, यूरोप-अमेरिका में भी यह आम धारणा है कि उच्च शिक्षा महंगी हो रही है. शिक्षा ऋण बेतहाशा बढ़ रहा है. उसकी वसूली दिन-प्रति-दिन मुश्किल होती जा रही है. इस तरह मुक्त मंडी की अवधारणा भी धराशायी हो रही है. सपना यह था कि मुक्त मंडी यानी बाजारवाद में सब कुछ बाजार की शक्तियां नियंत्रित करेंगी. जिसके पास प्रतिभा होगी, वह आगे बढ़ेगा और प्रतिभाहीन व्यक्ति पिछडता जाएगा, भलेही वह कितना ही अमीर क्यों न हो. लेकिन हो इसके उलट रहा है. जिसके पास धन है, पूंजी है, वह पढ़ रहा है और आगे बढ़ रहा है. बाक़ी लोग वंचित रह जा रहे हैं, भलेही वे कितने ही प्रतिभावान क्यों न हों. इस व्यवस्था में भी प्रतिभाएं उसी तरह से वंचना की शिकार हैं, जैसे कि इससे पहले की व्यवस्था में. उसमें फिर भी धन का ऐसा नंगा नाच नहीं था. यह शिक्षा नए सिरे से संपन्न और विपन्न वर्ग पैदा कर रही है.
पिछले साल अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि ‘मेरा सपना है कि हर नागरिक को विश्व स्तरीय शिक्षा उपलब्ध हो. यदि यह एक काम भी हम कर पाए तो बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.’ ऐसे ही मकसद से वर्ष २००९ में अमेरिका के कैलिफोर्निया में पीपुल्स यूनिवर्सिटी नाम से एक मुफ्त ऑनलाइन यूनिवर्सिटी शुरू की गयी. इसमें छात्रों से कोई ट्यूशन फीस नहीं ली जाती सिर्फ पाठ्य सामग्री की लागत भर ली जाती है. यहाँ पाठ्य सामग्री का स्तर तो ऊंचा है, लेकिन क्लास रूम जैसा अनुभव नहीं. यहाँ भी प्राध्यापक लोग स्वयंसेवक ही हैं, यानी जो लोग बिना मेहनताने की उम्मीद के पढ़ाना चाहते हैं, वे ही यहाँ सेवा दे रहे हैं. अच्छी बात यह है कि उन्हें ऐसे अध्यापक मिल भी रहे हैं.
असल में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो घोर पूंजीवाद के इस युग में भी मुफ्त सेवा देने को तत्पर हैं. गूगल वाले, विकिपीडिया वाले, शब्दकोष वाले, कविता कोष वाले भी अंततः स्वयंसेवा भाव से काम करवा ही रहे हैं. ऐसे लोगों की सचमुच कमी नहीं है, जो परोपकार के भाव से अपना ज्ञान और अनुभव बांटना चाहते हैं. इसलिए यदि आप किसी नेक काम के लिए पवित्र भाव से आगे बढ़ते हैं तो लोग आपकी मदद के लिए स्वतः आगे आ जाते हैं. आखिर पंडित मदन मोहन मालवीय ने चंदे से एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय खडा किया ही. आजादी से पहले गुरुकुल कांगडी बना, डी ए वी आंदोलन खडा हुआ. दुर्भाग्य से आजादी के बाद उच्च शिक्षा को घोर उपेक्षा का शिकार होना पड़ा. स्कूली शिक्षा में तो कुछ प्रयोग हुए भी, कालेज और विश्वविद्यालय स्तर पर कोई खास काम नहीं हुआ. क्योंकि हमने यह समझ लिया कि सरकार ही हमारी भाग्यविधाता है. और हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे.
और जब मुक्तमंडी के वशीभूत होकर उच्च शिक्षा को खोलना पड़ा तो बिना किसी सोच-समझ और दृष्टि के खोल दिया गया. लिहाजा कुकुरमुत्ते की तरह निजी विश्वविद्यालय खुलने लगे. ऐसे अनेक व्यापारी विश्वविद्यालय खोल बैठे, जिन्हें अपनी काली कमाई को सफ़ेद करना था. पिछली सदी के अंतिम वर्षों में छत्तीसगढ़ में निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ इसका अद्भुत नमूना है. वह तो भला हो प्रो. यशपाल का जो उन फर्जी विश्वविद्यालयों के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में गए और बड़ी मुश्किल से उन पर रोक लग पायी. खैर उसके बाद थोड़ा नियमन हुआ. लेकिन जब ज्ञान आयोग ने कहा कि देश को १५०० विश्वविद्यालयों की जरूरत है तो एक बार फिर निजी विश्वविद्यालयों और संस्थानों की बाढ़ आने लगी. और आज उच्च शिक्षा एक भारी उद्योग बन गया है. अब भी देश में ४५० ही विश्वविद्यालय हैं. चीन या अन्य विकसित देशों की तुलना में यह संख्या कहीं कम है. इसलिए उच्च शिक्षा का विस्तार जरूर हो लेकिन सोच-समझ कर.
निजी विश्वविद्यालयों का खुलना गलत नहीं है, लेकिन उनका नियमन जरूर होना चाहिए. सरकार को यह बात समझ लेनी चाहिए कि ज्यादातर निजी विश्वविद्यालयों का ध्येय मुनाफ़ा कमाना है. वे ऐसी ही जगह विश्वविद्यालय खोलना चाहते हैं, जहां के लोगों के पास खर्च करने को पर्याप्त पैसा हो. वे गरीब-गुरबा लोगों, गाँव-देहातों या दूर-दराज के लोगों के लिए विश्वविद्यालय नहीं बनाना चाहते. जो लोग पहले से ही धनी हैं, वे उन्हीं के बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. इसलिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक बड़ी खाई पैदा हो गयी है. मसलन दिल्ली या उसके आसपास यह एक बड़े उद्योग के रूप में विकसित हो गया है. इसी तरह उत्तराखंड में देहरादून और हरिद्वार के आसपास ही ज्यादातर विश्वविद्यालय और निजी संस्थान हैं. बाक़ी इलाके उच्च शिक्षा संस्थानों से वंचित ही हैं. यह पूंजीवाद का क्रूरतम चेहरा है. वरना पूंजीवाद में जनहित एक बड़ा लक्ष होता है. पूंजी की भी अपनी एक सामाजिक जिम्मेदारी होती है. जबकि निजी विश्वविद्यालयों के रूप में उग आयीं ज्यादातर दुकानें आम जनता को लूटने के अड्डे बन रही हैं. इसलिए सरकारों की भूमिका कहीं बढ़ गयी है. शिक्षा को महज मुनाफे का धंधा समझने की प्रवृत्ति ठीक नहीं है. अभी तो शिक्षा को सिर्फ निजी क्षेत्र के लिए ही खोला गया है. विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए दरवाजे खुलने अभी बाक़ी हैं. यदि देशी विश्वविद्यालयों को संभालना ही इतना मुश्किल पड़ रहा है तो विदेशी विश्वविद्यालयों को संभालना तो और भी मुश्किल हो जाएगा. इसलिए महंगी होती उच्च शिक्षा पर कैसे लगाम लगाई जाए, इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है. (हिंदुस्तान, ६ जून, २०१२ से साभार)
Very good article.Great govindji.
जवाब देंहटाएंवास्तव में सर लगता है, शिक्षा जिसे सामाजिक परिवर्तन का माध्यम समझाजाता था आज वो इस उद्योग्वादी युग मैं अपनी वास्तविक पहचान खो रही है बस आकलन करना है इसके लिए जिम्मेदार कौन है ?
जवाब देंहटाएंआज की शिक्षा व्यवस्था का यह एक दहला देने वाला पक्ष है, मगर गोविन्द सिंह जी ने उसे सामाजिक सरोकारों और आम जन के कल्याण के साथ जोड़ते हुए जो सुझाव दिए हैं, फिलहाल उसके अलावा हमारे पास कोई और रास्ता नहीं है. खास बात यह है कि इस पीड़ा को उन्होंने अपनी जड़ों से जोड़ा है और इस बहाने अपने नए राज्य की खो चुकी समृद्ध शिक्षा चेतना के वैकल्पिक मॉडल के रूप में भी प्रस्तुत किया है. बिना देर किये हमें अपनी आगामी पीढ़ियों के लिए इस पर गहराई से विचार करते हुए अपना वैकल्पिक मॉडल तैयार कर लेना चाहिए.
जवाब देंहटाएंशिक्षा का वर्तमान स्वरुप, अमीरों को विद्यावान, गरीबों को साक्षर बनाने के नाम पर केवल नाम लिखने का ज्ञान देने के उद्देश्य से तैयार किया गया है. गाँव को शिक्षा और ज्ञान से कटा जा रहा है. उन्हें डर है की गाँव के लोग जागरूक हो गये तो उनकी दुकान नहीं चलेगी. मिड डे मील उसी उद्देश्य की पूर्ति कर रहा है. लेख बढिया है. बधाई.
जवाब देंहटाएंसुभाष चन्द्र कुशवाहा
सुभाष शर्मा:
जवाब देंहटाएं"सर नमस्कार आपने ने सही लिखा है आज शिक्षा दी नहीं जा रही बल्कि बेची जा रही है जिसकी जेब में दाम हैं वह ही उसे खरीद पा रहा हैI.पैसे के बल पर डॉक्टर और इंजीनियर तैयार हो रहे हैं फिर उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है? नार्दन इंडिया में कुकरमुत्तो की तरह जगह जगह खुले तकनिकी और व्यवसायिक कालिजो को उद्योग की तरह चलाया जा रहा है I शिक्षा के दान को तो महा दान कहा जाता था लेकिन अब यह व्यापार बन गया इसके लिए केवल इनके संचालक ही दोषी नहीं बल्कि इन पर नजर रखने वाली सरकारी मशीनरी दोषी है जोकि मलाई चाट रही है.I"
कीर्ति राज रुमाल:
जवाब देंहटाएं"apka editorial clasical tha"
शशि शेखर मिश्र:
जवाब देंहटाएंगुरुदेव को नमस्कार.... शिक्षा और ज्ञान का बाजारीकरण तो पुंजीवादी सोच की उपज है...देश के मुट्ठीभर पुंजीपति फसल काट रहे हैं अपना भंडार भर रहे हैं...गुरुजी ..देश का क्या होगा????????????
राजीव रंजन श्रीवास्तव:
जवाब देंहटाएंहिन्दुस्तान में सपांदकीय पृष्ठ पर ये लेख पढ़ा था मैंने। सब जगह लोग व्यापारीकरण से क्षुब्ध हैं। शिक्षा क्षेत्र में इस समानता को नहीं पाटा गया तो समाज और देश में इसके भयावह दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे।