सफर/ गोविंद सिंह
रेल से रिजर्वेशन न
मिलने पर अक्सर बस में सफर करने का ‘सुअवसर’ मिलता रहता है. दिल्ली से हल्द्वानी
और हल्द्वानी से दिल्ली. हालांकि दिल्ली से चंडीगढ़, जयपुर और देहरादून के बीच भी अनेकानेक बस यात्राएं की
हैं, लेकिन इधर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की बसों से यात्रा करना बड़ा ही कष्टदेह
होता जा रहा है. बसों की हालत खराब, उनमें शायद ही कभी सफाई होती हो.
ड्राइवर-कंडक्टर का व्यवहार बड़ा ही रूखा. रात में कहीं भी वे बस को रोक दे सकते
हैं. कहीं भी खराबी आने की घोषणा कर सकते हैं. कहीं भी टायर पंचर हो सकता है और आप
सड़क में खड़े रहने पर मजबूर हो सकते हैं. सबसे खराब है रात को खाने के लिए कहीं भी,
कैसे ही गंदे ढाबे के सामने गाड़ी रोक देना. ऐसे में आप कहीं और जा भी नहीं सकते.
आजकल सड़क किनारे तीन
तरह के ढाबे यानी खाने की जगहें हैं. एक बहुत हाई स्टैण्डर्ड के मोटल. वहाँ आम तौर
पर लंबे सफर पर जाने वाली कारें या वोल्वो जैसी एसी बसें रुकती हैं. इन जगहों पर
अच्छा खाना मिलता है. लेकिन वे इतने महंगे हैं कि खाने के बाद कपडे उतरवा लेते
हैं. दूसरे, इकट्ठे चार-छः ढाबों का समूह होता है. वे आम तौर पर साधारण ढाबे होते
हैं. न अच्छे, न बुरे. भोजन की क्वालिटी की तुलना में उनके रेट ज्यादा ही होते
हैं, फिर भी आप उन्हें झेल सकते हैं. गजरौला, मुरथल आदि के ढाबों को आप इस श्रेणी
में रख सकते हैं. तीसरे, ऐसे ढाबे हैं, जो कहीं सुनसान जगह पर अकेले होते हैं,
वहाँ खाना बेहद खराब मिलता है और रेट अनाप-शनाप होता है. दुर्भाग्य से साधारण
किराया वाली बसें ऐसी ही जगहों पर खाने के लिए रुकती हैं. उन्हें तो खाना मुफ्त
मिलता है. लेकिन बाक़ी यात्रियों को मजबूर होकर इन जगहों पर खाना पड़ता है. वे खाना
खाते हुए भी ड्राइवर-कंडक्टर को कोसते हैं और पैसे चुकाते वक्त भी. लेकिन वे कुछ
बोल भी नहीं सकते. यहाँ ड्राइवर-कंडक्टर की फुल दादागीरी चलती है. मुझे अक्सर ऐसी
जगहों पर खाना खा कर दस्त लग जाते हैं या एसिडिटी हो जाती है. ऐसा ही औरों के साथ
भी होता होगा.
मुझे आज तक यह बात
समझ नहीं आयी कि ड्राइवर-कंडक्टर के लिए सरकार यह अनिवार्य क्यों नहीं कर देती कि
वे अधिकृत ढाबों पर ही गाड़ी रोकें. लोगों के भोजन के साथ खिलवाड़ करना जघन्य अपराध
है, फिर क्यों ऐसे ड्राइवर-कंडक्टर को सस्पेंड नहीं किया जाता. सड़क किनारे उग आये
इन ढाबों की भी सही जांच शायद ही कभी होती हो. इनमें जो मक्खन मिलता है, वह कितना
सही है, जो पनीर होता है, वह कहाँ तक सिंथेटिक है और कहाँ तक असली. तेल, मसाले और
खाद्यान्न की भी जांच नियमित तौर पर होती
रहनी चाहिए. विदेशों, खास कर पश्चिमी देशों में अक्सर लोग बाहर और स्ट्रीट फ़ूड ही
खाते हैं. लेकिन वे तो बीमार नहीं होते. क्योंकि वहाँ क्वालिटी कंट्रोल रखा जाता
है. सरकार के जांच कर्मी ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं. लेकिन अपने यहाँ
रिश्वत के आगे सब झुक जाते हैं, फिर चाहे कोई हमारे पेट पर ही क्यों न डाका दाल
रहा हो!
Good article,govindji.
जवाब देंहटाएंगुरू जी यह तो विचित्र लीला है। आपने कई यात्रियों के मन की बात यहां उकेरी है। मैं भी उनमें से एक हूं।
हटाएंमैं भी इन समस्याओं से कई बार दो.चार हुआ। एक बार मैं हल्द्वानी से दून जा रहा था। रात का समय था। जब बस रूद्रपुर से काफी दूर निकल गई तो स्वयं कंडक्टर बीड़ी पीने लगाए एक सह.यात्री ने आवाज उठाई अवगत होने पर हमने भी साथ दिया। कंडक्टर साहब थे कि उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। बड़ी ऊटपटांग भाषा थी उसकी--- अब हम काषीपुर से कुछ दूर पर थे। अचानक बस रूकी लेकिन सबने हल्के में लियाए जब आधा घंटा बीत गया तो लोग उबने लगे। सबको समय पर गंतब्य तक पहुंचने की चिंता सताने लगी। फिर बस में आवाजें उठी। पता चला कि अब ड्रावर साहब कहीं आसपास गए हुए हैं। जैसे.तैसे सुबह दून पहुंचे। मैंने मोबाइल पर समय का मिलान किया तो पता चला हम अनुमानित समय से तीन घंटे से भी ज्यादा लेट थे।
यथार्थ,. इस बिडम्बना से मुझे भी कई बार दो चार होना पड़ा था. कुछ वर्ष पूर्व एक केंद्रीय अधिकारी भी इस हालात से गुजरे, उन्होंने दिल्ली वापस आ कर इन लोकल ढाबे वालों की वो खबर ली की आनन् फानन में सभी ढाबे बंद हो गए. शासन द्वारा उत्तराखंड व् उत्तरप्रदेश परिवहन की बसों हेतु एक सुब्यवस्थित ढाबा निर्धारित कर दिया गया था. पुन: पुरानी स्थिति लौट आइ होगी.... सोचनीय स्थिति .... वर्षों बाद भी सोच में कुछ अंतर नहीं . उ.प्र. की असली तस्वीर ...
जवाब देंहटाएंवेद विलास उनियाल:
जवाब देंहटाएं"गोविंदजी , यह बड़ी समस्या है। यह पूरा रैकेट है। जिसमें ढाबे वाल, बस चालक कंडक्टर ही नहीं, परिवहन विभाग और पुलिस भी शामिल हैं। यात्रियों की जेब काटी जाती है। उन्हें गंदा महंगा खाना खाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। कई जगह पर चाय ( गुंनगुना मीठा पानी) के दस रुपए लिए जाते हैं। इन ढाबों में चाय सबसे गंदी होती है। मैंने तो अब थर्मस में चाय ले जाना शुरू कर दिया है।"
@अधिकृत ढाबों पर ही गाड़ी रोकें
जवाब देंहटाएंअधिकृत ढाबों की रखवाली कौन करेगा.... फिर भी ढाबों पर खाना होटलों से बेहतर होता है.
@
जवाब देंहटाएंकृपया सिद्ध करें कि आप कोई रोबोट नहीं हैं
कृपा वर्ड वेरिफिकेशन हटा दीजिए.... टीप करने में बहुत 'जेहमत' उठानी पड़ती है..
सादर
प्रेम मेहता:
जवाब देंहटाएंPunjab and chandigarh highway roadside dhaba are far better than U.P dhaba.
प्रेम जी, आपने सही लिखा है. लेकिन आज से तीस साल पहले मुरथल की हालत भी वैसी ही थी. तब भी मैंने चंडीगढ़ के ट्रिब्यून में लिखा था. इसी अनाप-शनाप कमाई की बदौलत आज जी टी करनाल रोड पर आलीशान ढाबे बन गए हैं, जहां, दिल्ली के शौकीन लोग वीक एंड्स पर सिर्फ आलू-परांठे खाने जाते हैं. तब गजरौला के ढाबे बेहतर थे, लेकिन आज कुछेक को छोड़ कर उनकी हालत खराब है.
जवाब देंहटाएंसुनीता शानू:
जवाब देंहटाएंआप सही कह रहे हैं गोविंद भाईसाहब। सड़क किनारे के ढ़ाबों से अच्छे खाने की उम्मीद कम ही होती है। इन ढाबों पर छोटे बच्चे काम करते नज़र आते हैं या वृद्ध लोग। जिसे देख कर मन अशान्त हो जाता है। सबसे बेकार बात तो यह है कि आप पीने का पानी बिसलेरी ले सकते हैं किन्तु खाने में पकने वाला पसीना, गंदे हाथ, बासी खाने की मिलावट कई चीज़े ऎसी हैं जो चाह कर भी झुठलाई नही जा सकती। मै तो मजबूरी में ही खाती हूँ अन्यथा घर का खाना ही पैक कर ले जाती हूँ। आपको कहीं जाना हो तो बता दीजियेगा मै पैक कर दूँगी खराब खा कर उल्टी दस्त करने से अच्छा है मै ही बना दूँ...:)
कमाल है मुझे बेनामी क्यों लिखा गया? :(
जवाब देंहटाएंaapne sir sahi likha hai lekin phir driver aur conductor ko free me kaun khana kilayega. mufta me khana khane ki aadat jo pad gayi hai
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