सुबह- सवेरे जब अपनी छत पर मैनाओं के झुंड के झुंड देखता हूं तो मन हर्ष विभोर हो उठता है। कभी सोचा भी न था कि इनका चहचहाना इतना ऊर्जस्वित करने वाला होगा। इकट्ठे इतनी मैनाओं को पहले कभी नहीं देखा। दिल्ली में रहते हुए तो जैसे इनके दर्शन ही दुर्लभ हो गए थे। बचपन की याद है, जब गांव में मैनाओं को अपने साथ-साथ चलते-फिरते, लड़ते- झगड़ते, गाना गाते हुए देखा करते थे, लगता ही नहीं था कि ये हम से किसी मामले में अलग हैं। एक बार की बात है, आमूनी के आम के पेड़ की छांव में बैठे हम बच्चों को जोगिया लुहार ने कहा था कि वह इन शिंडालुओं (मैनाओं) की भाषा जान गया है। उसकी इस घोषणा से हम सारे बच्चे खुशी के मारे उछलने लगे थे। तभी उसने पास ही टहल रही दो मैनाओं की तरफ अंगुली करके हमसे पूछा, जानते हो वह क्या बोल रही है। हमारी समझ में कुछ नहीं आया। उनमें से एक मैना अपने एक पैर को उठा कर चोंच से रगड़ रही थी। जोगिया ने कहा, वह अपने घरवाले से कह रही है, ‘देखते नहीं कि मेरे हाथ नंगे हैं, जल्दी से इनमें चूडि़यां पहनाओ’। सचमुच मैना के हाव-भाव और चू-चू की ध्वनि से जो अर्थ निकलता था, जोगिया की सीमित बुद्धि ने उसे ठीक ही पकड़ा था। आशय यह है कि मैना हमारे बीच रची-बसी थी। यही स्थिति गौरैया और बया की थी, बुल बुल और घुघुती (फाख्ता) की थी। गौरैया भी अत्यंत घरेलू किस्म की चिडि़या है, जो आदमी के साथ रहना पसंद करती है। बया की जो प्रजाति हमारे इलाके में मिलती थी, वह जरूर मानव बस्तियों से कुछ दूर रहती थी। लेकिन उसके घोंसले की अद्भुत कारीगरी देख कर हम हतप्रभ रह जाते थे।
जब से शहर और महानगरवासी हुए, धीरे-धीरे इन नभचर साथियों से दूर होते चले गए। पिछले ढाई दशक से तो महानगर दिल्ली में ही रहना हो रहा था। वहां धीरे- धीरे ये चिडि़यां गायब होने लगीं। पहले गौरैया गायब हुई। फिर धीरे-धीरे मैना भी आंखों से ओझल होने लगी। हालांकि मैना अब भी इक्का-दुक्का दिख जाती है, लेकिन उसका वह सहज साथ अब महानगरों में नहीं मिलता। आश्चर्य है कि दिल्ली जैसे शहर में पहाड़ी घुघुती का बिरादर फाख्ता प्रचुरता में दिख जाता है। बुल-बुल के जोड़ों से भी यदा-कदा मुलाकात हो जाती है। लेकिन गौरैया और मैना का लुप्त होना कुछ ज्यादा ही खलता है। मुझे लगता था कि गौरैया, महानगरों में भले ही न हो, गांव में तो मिलेगी। पिछले साल की ग्राम यात्रा के दौरान गौरैया को ढूंढता रहा, लेकिन वह नहीं मिली। पता नहीं, वह कौन से कीटनाशक और जहर उगलती गैसें हैं, जो लगातार इन निरीह जीवों को हम से छीन रही हैं। इधर जब से हल्द्वानी आना हुआ है, अद्भुत तरीके से मैनाओं के दर्शन हुए हैं। मैनाओं का यह रूप पहले कभी नहीं देखा। वे घरों के आस-पास तो ज्यादा नहीं दिखतीं लेकिन सुबह-सवेरे झुंड बनाकर एक छत से दूसरी छत और दूसरी छत से किसी अगले मकान की मुंडेर पर पहुंचती हैं और फिर जब वहां सब की सब इकट्ठे हो जाती हैं, तब आगे की उड़ान भरती हैं। चूंकि इस इलाके में मकान भी दूर-दूर स्थित हैं और सामने खूबसूरत पहाडि़यां हैं। इस तरह वे कई गांवों की सैर कर डालती हैं। पता नहीं उसके बाद कहां जाती होंगी। क्या वे भी जंगलवासी हो गई हैं। अपने गांव में शाम के वक्त पेड़ में उनका कलरव तो सुनते आए थे लेकिन इस तरह शोर करते हुए सुबह-सुबह इतनी लंबी सैर पर निकलना उन्हें अच्छा लगता है, यह मालूम नहीं था। यहां बया भी काफी हैं। ये बया मेरे गांव की बया से कुछ भिन्न हैं। क्योंकि इनके घोंसले में बाहर निकलने का छेद एकदम निचले सिरे पर होता है जबकि मेरे गांव वाली बया के घोंसले में खिड़की कुछ बीच में होती
फिर यह एकदम पालतू जैसी है। एक सुबह गांव की थी। पगडंडियों से गुजरते हुए देखा कि एक घर के बाहर
बया के घोंसले बंदनवार की तरह सजे हैं। और नन्ही बया भी आस-पास ही खूब उछल-कूद कर रही हैं। बया के अलावा यहां कई और चिडि़यां भी दिखाई पड़ती हैं, जो मानव बस्ती में रहने की आदी तो नहीं हैं लेकिन खेत-खलिहानों और जंगलों में दिखती हैं। कीटनाशक और जहरीली गैसों की मात्रा यहां भी कम नहीं है। बल्कि वे दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही हैं। फिर भी लगता है कि यहां की बया और यहां की मैनाओं ने उनका तोड़ निकाल लिया है। वे बची रहें। काश! गौरैया भी बची रह पाती।
धन से भौतिक सुख खरीदने की अदम्य लालसा ने हमें प्रकृति से विरक्त कर दिया है, अब ना वो घोंसले रहे ना ही उन्हें देखने की फुरसत!!! गांव की आबोहवा में लिपटा ह्रदयस्पर्शी लेख और पुराने दिनों की याद दिलाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !!!
जवाब देंहटाएंअच्छा लेख सर.. हम हाल में भरतपुर गए, प्रकृति के साथ थोड़ा समय बिता कर अच्छा लगा। महानगरों में तो अब इनसान भी नहीं दिखते, पक्षियों की बात तो छोड़ दें। आपकी नई जिम्मेदारी के लिए बधाई..
जवाब देंहटाएंअच्छा लेख सर, प्रकृति से जुड़े रहने का मज़ा ही निराला होता है।
जवाब देंहटाएं