शीला भाभी के साथ मुक्तेश जी |
मुक्तेश पन्त एक अद्भुत व्यक्ति हैं. जिन लोगों ने अपने जीवन के उत्तरार्ध में स्थाई तौर पर हल्द्वानी आकर रहने का फैसला किया, उनमें मुक्तेश जी एक हैं. मैं उन्हें नब्बे के दशक से जानता हूँ, जब वह दिल्ली में मेरे नवभारत टाइम्स वाले दफ्तर आया करते थे. पहली बार जब वे मिले थे, तब भी उन्होंने यह नहीं बताया था कि वह पुष्पेश जी के भाई हैं, आज भी जब कोई उनसे पूछता है कि वह पुष्पेश जी के भाई तो नहीं हैं? तो वे व्यग्र और उग्र हो जाते हैं. कहते हैं कि वह मेरा भाई है न कि मैं उसका. चूंकि वे पुष्पेश जी सवा साल बड़े हैं, इसलिए उन्हें पुष्पेश जी के भाई के तौर पर अपना परिचय देना अच्छा नहीं लगता. सचमुच, जितना उनका ज्ञान है, जो उनका अध्ययन है, जितनी तरह की सूचनाएं उनके पास रहती हैं, यदि वे उनका सही इस्तेमाल कर पाते या उन्हें चैनलाइज कर पाते तो उनकी गणना बड़े विद्वानों में होती. क्या साहित्य, क्या संस्कृति, क्या राजनीति और क्या दुनिया भर की जानकारी, वे जहां से शुरू हो जाते हैं, बोलते ही चले जाते हैं. वरना १९६५ में नैनीताल से एम् ए इतिहास करने के बाद उन्हें वहीं पढाने का मौक़ा मिला था, जिसे उन्होंने जल्दी ही छोड़ दिया क्योंकि उन्हें लग गया था कि वे इस सिस्टम में फिट नहीं बैठने वाले. उनके अंदर का विद्रोही उन्हें कोई काम टिक कर करने नहीं देता था. फिर भी उन्होंने १९८२-८३ में हिल रिव्यू नाम का एक अखबार हल्द्वानी से संपादित किया. नब्बे के दशक में ओपिनियन एक्सप्रेस के संपादक रहे. साथ ही थिंक इंडिया का भी संपादन किया. एक खेल पत्रकार के रूप में भी उनकी पहचान रही है.
वे सचमुच एक फक्कड हैं. उनके जैसा बोहेमियन शायद ही कहीं मिले. वे ६७ वर्ष के हो चले हैं लेकिन जैसे कल थे, आज भी वैसे ही हैं. वही हाव-भाव, वही खिलन्दड पन, जिंदगी में लापरवाही, क्षणजीवी स्वभाव और निरंतर बोलते जाना. उनकी बालसुलभ चेष्टाएं और उत्सुकताएं बिलकुल कम नहीं हुई हैं. जिंदगी इतनी आसान भी हो सकती है, कोई मुक्तेश जी से सीखे. दिल्ली के दिनों में जब कभी मैं सुबह-शाम, उनके यहाँ फोन करता तो भाभी शीला जी ही फोन उठाती. वह कहती उनका ठौर-ठिकाना बताना मुश्किल है. वे सुबह उठकर जे एन यू की तरफ निकल गए तो कब लौटेंगे, कोई नहीं बता सकता. वे कहाँ खायेंगे, कहाँ पियेंगे, कहाँ नहाएंगे, किसे मालूम. लोगों के पास उनसे जुड़े इतने किस्से हैं कि लोग लोटपोट हो जाते हैं. वे थोडा सा तुतलाते हैं, लेकिन इसका उनके व्यक्तित्व पर कोई असर नहीं पड़ता. आप कुछ ही पलों में उनके साथ तादात्म्य कायम कर लेते हैं.
सन १९९९ में उन्होंने दिल्ली छोड़ कर भवाली में अपने पैत्रिक मकान में रहना शुरू किया. दोनों बेटे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए थे. मुझे भवाली वाले घर में भी उनसे दो बार मिलने का अवसर मिला. सदा की तरह वे तब भी कुछ युवाओं को पढ़ा रहे थे. सन २००३ में उनके घर में आग लग गयी. फिर उन्हें हल्द्वानी आना पड़ा. शीला जी के मायके वालों के पास ही कुछ जमीन लेकर उन्होंने एक घर बनवाया और वहीं अपने स्वतन्त्रता सेनानी चाचा-चाची के साथ रहने लगे. बाद में उनके बच्चे अमेरिका में ही पढ़ लिख कर सेटेल हो गए. अब मुक्तेश जी और भाभी शीलाजी साल में छः महीने अमेरिका में ही रहते हैं.
मैं जब हल्द्वानी आया तो मैंने उनका पता लगाया. मालूम हुआ कि वे अमेरिका में हैं. लेकिन एक दिन मैं अपने दफ्तर में किसी मीटिंग में था, तभी मुझे एक स्लिप मिली, मुक्तेश पन्त, न्यूयोर्क सिटी, यू एस ए. मैंने बैठने को कहलवाया, लेकिन बाहर आया तो मुक्तेश जी गायब थे. खैर बाद में संपर्क हो गया. मैं उनके घर गया, वे मेरे घर-दफ्तर आये. वे एक ही सांस में दिल्ली के मीडिया जगत के बारे में सैकड़ों सवाल पूछ बैठते हैं. अपनी जानकारियों को अपडेट करते हैं. कहते हैं, मैं भावनाओं में जीता हूँ, वही मेरी थाती हैं. शीला जी को अब भी दिल्ली कि याद आती है. लेकिन मुक्तेश जी अब हल्द्वानी नहीं छोड़ना चाहते. जे एन यू के दिन अलग थे. अब दिल्ली भी बदल गयी है. मुक्त गगन के इस पंछी को दिल्ली कहाँ रास आयेगी?
नोट: मुक्तेश जी को जानने वाले मित्रों से अनुरोध है कि वे उनके साथ जुड़े अपने अनुभव जरूर शेयर करें.
मुक्तेश जी के बाल सखा देवेन्द्र मेवाडी ने दिल को छूने वाला एक संस्मरण सुना भेजा है:
जवाब देंहटाएंहाय मुक्तेश, दिल्ली से देश-विदेश का दौरा पूरा करके हल्द्वानी में आखिर डेरा डाल ही दिया है, जानकर बहुत खुशी हुई कि चलो अब पहाड़ के द्वार पर ही धूनी रमाए हैं तो आते-जाते मेल मुलाकात हो ही जाएगी। हल्द्वानी में हम उखड़ते अखाड़ों के जोगियों का अपने घर का सपना तो सपना ही रह गया लेकिन आप जैसे रमता जोगी ने घर-आश्रम जमा लिया, साधु! साधु!
हल्द्वानी लाइव और हल्द्वानी शहर भी आप जैसे घुलते-मिलते अजीजों के कारण आबाद रहेगा। आपके शब्दों में आप-हम तो बाल-सखा हुए, इसलिए यादों का लंबा गलियारा डी एस बी में पढ़ाई के दिनों से लेकर बाद के तमाम वर्षों की तस्वीरों से भरा रहता है। छठे दशक के आखिरी वर्षों में सप्रू हाउस में पुष्पेश के ठिकाने पर मुलाकातें हुई थीं, जब आप बैडमिंटन की चिड़िया उछाला करते थे। बाद में राजेन्द्र नगर में कैलाश साह जी के आसपास आप लोगों ने डेरा डाला, जहां सईद की भी संगत मिलती रहती थी। निरंजन आपका करीबी था ही। सुनते थे एक बार आप तेजी से आए , झोले-झंटे जमा किए और उनमें सोम-शक्ति भर कर माह भर के लिए आश्रम के किसी कोने में अज्ञात वास पर रहे! अलख निरंजन!
और , पंतनगर में आपके धूमकेतु की तरह आ धमकने का वह दिन भला मैं कैसे भूल सकता हूं ? आप ही इन चार दशकों में बार-बार उसकी याद दिलाते रहे हैं। आपने कहा था तब कि दिल्ली से देर शाम किसी सीधे, सरल मगर सतर्क सरदारजी की टैक्सी लेकर आप अपने मित्र और उनकी मित्राणी के साथ सीधे भवाली को कूच कर गए। लेकिन, रामपुर से आधी रात के अंधेरे में आपका पीछा शुरू हो गया। पीछा करने वाली कार ने आपका रास्ता रोका और आपको हल्द्वानी के लिए घनघोर टांडा जंगल का रास्ता सुझाया। भला हो आग तापते उस आदमी का जिसने आपको आगाह किया और पंतनगर की राह दिखाई।
सजग सरदारजी की सतर्कता के कारण वहां से आपकी खतरनाक फिल्मी कार रेस शुरू हुई और आपने पंतनगर के कन्या छात्रावास में जाकर शरण ली। बची-खुची रात वहां बिताई और ब्राह्म मुहूर्त में पता लगाते-लगाते मेरे आश्रम में पहुंचे। वहां एकाध दिन विश्राम किया और फिर भुवाली को कूच कर गए। जिन्हें हम आपकी कृपा से आए दंपत्ति समझ रहे थे, बाद में पता चला वे दम्पत्ति बनने की राह में भटक रहे थे। जय हो परोपकारी बाबा! उसके भी काफी समय बाद पता लगा कि उन द्विधर्मियों के साथ-साथ तो खतरा भी उसी तेजी से घूम रहा था। लेकिन , क्या करते। सहम कर रह गए थे।
खैर छोड़िए। जे एन यू में कई बार मिलने आता था। आप मिले कई बार। एक बार अपनी विज्ञान कथाओं के सीरियल का प्रस्ताव भी दिया था जो पुष्पेश को दिया जाना था। वह कहां गया, कौन जाने। जब भी घर पर आया, शीला जी के हाथ की बनी सब्जी और दाल-भात जरूर खाई। हल्द्वानी आया तो आपके आश्रम में एक बार फिर उनके हाथ का बना दाल-भात जरूर खाऊंगा। उन्हें मेरा सादर नमन। -देवेंद्र मेवाड़ी
ऐसे मुक्त-मन मस्त मौला लोग आज कल एक विलुप्त प्रजाति कि तरह हैं. ऐसे मुक्त गगन के पंछी से मुलाकात करवाने के लिए धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंइस सिलसिले को चलाए रखिए, स्वामी.
जवाब देंहटाएंआपका ब्लॉग अच्छा लगा .मैं कभी मुक्तेश्जी से नहीं मिली पर पिताजी से कभी कभार इनका जिक्र अवश्य सुनती थी ,एक बार भवाली वाले घर में गयी भी थी.इनके पिताजी मुक्तेश्वर में डाक्टर थे. इसलिए मुक्तेश्वर के कई पुराने लोग मिलने जाते थे .
जवाब देंहटाएंWonderful profile article on Muktesh pant.
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