आज बहुत वर्षों बाद किसी शिक्षा संस्थान में गणतंत्र दिवस समारोह में शामिल होने का अवसर मिला. किस तरह आज भी शिक्षक बिरादरी बड़े उत्साह के साथ गणतंत्र दिवस को मनाती है, इसका नजदीक से एहसास हुआ. सचमुच मुझे अपने बचपन के दिन स्मरण हो आये.
बचपन में जिस प्राइमरी पाठशाला में शुरुआती शिक्षा मिली, वहाँ छब्बीस जनवरी बेहद धूमधाम से मनाई जाती थी. हमारा स्कूल एक छप्पर वाले बड़े से कमरे में चलता था. पहली से पांचवीं तक कुल तीस बच्चे थे. सब एक ही कमरे में अलग-अलग पंक्तियों में बैठते थे. गाँव से एक किलोमीटर दूर खेतों और जंगल के बीच यह स्कूल था. हम लोग महीने भर पहले से तैय्यारी करते थे. तरह-तरह के गाने-तराने याद करते थे. ‘इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन-जापान देश.’ ‘जो हमसे टकराएगा, चूर चूर हो जाएगा’, ‘नागाहिल लड़ाई लागी भट्टम भट्टम गोली, सिपाई दाज्यू लड़ना ज्ञान, छाती खोली खोली.’ आदि-आदि. कुछ नारे हिंदी में थे तो कुछ कुमाऊनी में. हम लोग आठ बजे स्कूल में इकट्ठे होते थे और वहाँ से प्रभात फेरी निकालते हुए पूरे गाँव का चक्कर लगाते थे. हर घर से कुछ पैसे बख्शीश के रूप में मिलते थे. फिर एक जगह पर खेल-कूद की प्रतियोगिताएं हुआ करती थीं. दोपहर बाद नदी के उस पार दूसरे स्कूल में इकट्ठे होते थे. उस स्कूल के बच्चों के साथ. और फिर सामूहिक प्रतिस्पर्धाएं हुआ करती थीं. फिर पुरस्कार मिलते थे. पेन्सिल, रबर, कापी, पेन्सिल बॉक्स आदि. जिन्हें पुरस्कार नहीं मिला, उन्हें गुड़ की डली से संतोष करना पड़ता था. आखीर में गला फाड कर ‘हर्ष हर्ष, जय जय!!’ बोलना पड़ता था. फिर बहुत दिनों तक इसके संस्मरण सुना सुना कर हम लोग समय काटा करते थे. अहा, वे क्या दिन थे!!
गणतंत्र दिवस के प्रति यह उत्साह, जूनिअर हाई स्कूल और हाई स्कूल तक जारी रहा. फिर मैं चंडीगढ़ आ गया कालेज की पढाई के लिए. वहाँ के कालेज इतने बड़े थे कि वहाँ इस तरह के आयोजनों में वैसा अपनत्व नहीं दिखाई देता था. मैं अपने बच्चों के स्कूल-कालेजों में भी देखता हूँ, कोई खास उत्साह नहीं दिखाई पड़ता. शायद समाज में भी गणतंत्र दिवस को लेकर अब वैसा उत्साह नहीं रह गया है. लोग इसे भी एक छुट्टी का दिन मान बैठते हैं. अमेरिकियों की तरह.
पत्रकारिता में आने के बाद मुझे याद नहीं पड़ता कि कहीं किसी संस्थान में कोई आयोजन होता हो. हमारे लिए ऐसे दिवस का मतलब मन में फर्जी जोश जगा कर लेख लिख देना या कुछ लोगों से लेख मंगवा कर छाप देना या कोई सप्प्लीमेंट प्लान कर देना भर रह गया था. कुछ अरसा सरकारी नौकरियों में भी रहा, वहाँ भी झंडा फहराने के अलावा कभी कोई आयोजन नहीं होता था. कोलकाता में जरूर जिस कालोनी में हम रहते थे, वहाँ कुछ आयोजन होता था लेकिन लोग दस बजे की बजाये ११ बजे आयोजन स्थल पर पहुँचते. वैसे कोलकाता की बंगाली बस्तियों में जोर-शोर से छब्बीस जनवरी मनाई जाती थी. कुछ वर्षों से दिल्ली की जिन हाउसिंग सोसाइटियों में मैं रहा हूँ, वहाँ भी झंडारोहण होता है, लेकिन जो बात आज मुझे अपने विश्वविद्यालय में देखने को मिली, वह बीच के तीस वर्षों में नहीं दिखी. शायद इसलिए कि हमारा विश्वविद्यालय अभी नया नया है, और हर किसी के मन में कुछ न कुछ अरमान हैं. देश और समाज के प्रति यह भाव बना रहे, यही कामना है.
ठेठ 'बचपन' में पहुचा दिया आपने - आभार.
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