पर्यावरण/ गोविंद सिंह
इस बार की पहाड़-यात्रा के दौरान कुछ
अच्छा-सा नहीं लगा. हल्द्वानी से रानीखेत होते हुए कौसानी और वहाँ से बागेश्वर,
गंगोलीहाट, थल, डीडीहाट होते हुए पिथौरागढ़ और फिर वापस हल्द्वानी! एक भी इलाका ऐसा
नहीं दिखा, जहां आग न लगी हो. पानी की भारी किल्लत और जबरदस्त गर्मी. दिन में
जंगली रास्तों में तो धुएं का सामना करना पड़ा ही, सुबह-शाम को भी शुद्ध ताजा हवा
की जगह धुआं और बदबूदार हवा ही नसीब हुई. पता चला कि इसी बीच सोनिया गांधी कौसानी
पहुँची, उन्हें सूर्योदय नहीं दिखा. दिखता भी कहाँ से. पर्वत श्रृंखलाएं धुंध से
आच्छादित जो हैं. कौसानी में हमने देखा कि पर्यटक सुबह चार बजे से ही सूर्योदय
देखने के लिए पंचचूली पर्वतमाला की तरफ टकटकी लगाए हुए थे, लेकिन उनके हिस्से धुआं
ही धुआं आया. यही हाल चौकोड़ी का था. और तो और, जिस हिमालय को देखने लोग दूर-दूर से
आते हैं, उसके दर्शन से भी वे वंचित ही रहे. सचमुच बहुत दुख हुआ. दुःख यह देख कर
भी हुआ कि जंगल की आग उत्तराखंड के लिए कोई मुद्दा नहीं है. कहीं किसी राजनेता का
बयान या चिंता नहीं सुनाई पड़ी. सरकारी अफसर शहरों के आस-पास तो सक्रिय दिखाई देते
हैं, लेकिन दूर-दराज के अंचलों में उनका नामो-निशाँ तक नहीं दिखाई पड़ता.
इस साल गर्मी शुरू
होते ही पहाड़ों में आग लगनी शुरू हो गयी थी. चूंकि बारिश बहुत कम हुई, इसलिए गर्मी
के चढ़ते ही आग की घटनाएं बढ़ने लगीं. इस समय लगभग पूरे उत्तराखंड में आग लगी हुई
है. गढवाल क्षेत्र में टोंस घाटी, अपर यमुना घाटी, बड़कोट, उत्तरकाशी, चकराता,
देहरादून, मसूरी, टिहरी, केदारमठ, रुद्रप्रयाग, नंदादेवी, बदरीनाथ मार्ग, नरेन्द्र
नगर, राजाजी नेशनल पार्क, हरिद्वार, लेंसडोंन, कोर्बेट रिजर्व, पौड़ी, अल्मोड़ा,
बागेश्वर, विनसर, पिथौरागढ़, चम्पावत, नैनीताल आदि शायद ही कोई इलाका हो जो दावानल
के प्रकोप से बचा हो. यदि जल्दी बारिश नहीं हुई तो यह और फैलेगी. उत्तराखंड में
कुल ३४,६५,००० हेक्टेअर यानी कुल क्षेत्रफल के ६१ प्रतिशत इलाके में वन हैं. यदि
सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें तो इस साल १५०० हेक्टेअर जंगल जल चुके हैं. ७० से अधिक वनों में आग की १४०० घटनाएं घट चुकी
हैं. पौड़ी और बागेश्वर जिले में एक-एक मौत
और कई लोग घायल हो चुके हैं. जबकि पिछले साल सिर्फ २३२ हेक्टेअर वन भूमि में ही आग
लगी थी. हालांकि जितने व्यापक पैमाने पर आग लगी हुई है, उसे देखते हुए सरकार के इन
आंकड़ों पर भरोसा नहीं होता. वर्ष २००३ और २००४ में ४७००, ४८०० हेक्टेअर जंगल आग से
स्वाहा हुए थे, इस बार भी दावानल का वैसा ही रूप दिखाई पड़ रहा है. पिछले आठ-दस साल
से तो हम ही इस मौसम में अपने गाँव जाते रहे हैं. लेकिन इतना धुआं कभी नहीं दिखा.
ऐसा नहीं है कि आग पहले नहीं लगती थी. आग पहले
भी लगती थी, लेकिन तब लोग और शासन इतने उदासीन नहीं दिखाई पड़ते थे. फिर वह इस कदर
भाबर से बद्रीनाथ-केदारनाथ तक नहीं फैला करती थी. पहले आग लगती थी तो लोग उसे
बुझाने को निकल पड़ते थे. लेकिन अब वे उसके प्रति या तो उदासीन हो गए हैं या वे भी
आग लगाने वालों के गिरोह में शामिल हो गए हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह
है कि वन कानूनों के चलते गाँव वासियों को अब वनों से एकदम बेदखल कर दिया है. पहले
वे अपनी छोटी-मोटी जरूरतों के लिए वनों पर निर्भर रहा करते थे और बदले में वनों की
रखवाली भी करते थे. अब वनों पर उनका अधिकार नहीं रहा तो वे भी वनों के प्रति
उदासीन हो गए हैं. सरकारी अफसर कह रहे हैं कि ९० प्रतिशत घटनाओं में खेती वाली आग
ही जंगलों में पहुँच कर विकराल रूप धारण कर लेती है. लेकिन वे यह नहीं बताते कि
ऐसा क्यों हो रहा है. यह सच है कि ग्रामीण रबी की फसल के बाद अपने खेतों में आग
लगाते रहे हैं, ताकि धरती की उर्बरा शक्ति बेहतर हो सके. साथ ही वे अपनी बंजर जमीन
में भी आग लगाते थे ताकि चारे के लिए घास पैदा हो सके. लेकिन पहले यह आग जंगल तक
नहीं पहुँचती थी क्योंकि चीड़ के पेड़ गाँव की परिधि में नहीं थे. हाल के वर्षों में
चीड़ ने जबरदस्त घुसपैठ की है. वह १००० फुट तक नीचे उतर साल वनों में घुस आया है.
तो ७००० फुट ऊपर तक भी पहुँच गया है, जहां बांज-बुरांस और देवदार के जंगल थे. जहां
चीड़ पहुंचा है, वहाँ आग पहुँची है. आज चार लाख हेक्टेअर क्षेत्र में चीड़ पसर चुका
है. इतने ही क्षेत्र को वह दूषित कर चुका है. हर साल २१ लाख टन पिरुल यानी चीड़ की
ज्वलनशील पत्तियां झड जाती हैं, जिसको ठिकाने लगाने की कोई व्यवस्था नहीं है. कौसानी
में लक्ष्मी आश्रम की अध्यक्ष राधा बहन बोलीं, अब तो सरकार को गंभीरता से हिमालय
की वन नीति पर पुनर्विचार करना ही चाहिए. चीड़ को जब तक खत्म नहीं करेंगे, तब तक
वनों को नहीं बचाया जा सकता है. क्योंकि चीड़ की प्रज्ज्वलनशील पत्तियां अर्थात
पिरूल ही आग का असली कारण हैं. चीड़ के सूखे फल दूर-दूर तक गिरकर जंगल में आग
फैलाने का काम करते हैं. फिर चीड़ किसी और वनस्पति को अपने आस-पास नहीं पनपने देता.
जंगल की सारी नमी को सोख लेता है. ऐसा खुश्क जंगल आग पकड़ने के लिए उर्वर होता है.
इसलिए जंगल की आग का ७५ फीसदी कारण चीड़ का वृक्ष है. हम तो गाँव-गाँव में यही कह
आये कि चीड़ उखाडोगे तो पुण्य मिलेगा.
जंगल की आग के विकराल होने के पीछे एक कारण यह
भी है कि हाल के वर्षों में उसे सुलगाने और फैलाने वालों का एक गिरोह भी बन गया
है. उसमें सरकारी मुलाजिम भी हैं और ग्रामवासी भी हैं. इनके लिए आग एक जरूरत बन
गयी है. हर साल उसका एक बजट बनता है. यह गिरोह इस बजट को ठिकाने लगाने की फिराक
में रहता है. आग रोकने के लिए उपकरण लिए जाते हैं, लोगों को अस्थायी नौकरी पर रखा
जाता है. यह सब कागज़ पर पूरा हो जाता है. और आग सारी खानापूरी कर लेती है. सरकार
कह रही है कि उसने पर्याप्त उपकरण खरीदे हैं, आग बुझाने के लिए समुदाय आधारित प्रणाली विकसित कर ली है,
आग के खिलाफ जागरूकता अभियान चलाये हैं. मास्टर कंट्रोल रूम बनाए, तरह-तरह के
उपकरण खरीदे गए, आग संभावित क्षेत्रों का जीआईएस मानचित्र तैयार किया गया. लेकिन
यह सब कागजों में ही हुआ होगा, क्योंकि आग लगने पर न इन उपकरणों का इस्तेमाल किसी
ने देखा और न ही आग बुझाने को कोई आगे ही आया!
दरअसल न सरकार और न ही जनता यह जानती है कि वे
आग के प्रति इस बेरुखी से मानव जाति का कितना नुकसान कर रहे हैं! पहाड़ों में इस
बार हमें न कफुवा पक्षी का गान सुनाई दिया और न ही काफल पाको का गीत. न्योली यानी
पहाड़ी कोयल भी अब अपने विरह गीत सुनाने को कोई और ठिकाना तलाश रही है. कितनी
वनस्पतियां, कितनी औषधीय प्रजातियां ख़ाक हो जाती हैं, कितने वनचर, नभचर अकाल मौत
के शिकार हो जाते हैं, इसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता. पहाड़ के जलस्रोत सूख रहे
हैं. तापमान लगातार बढ़ रहा है. भूजल-स्तर लगातार गिर रहा है. भू-स्खलन भी इसीलिए
बढ़ रहे हैं और चारे की समस्या बढ़ रही है. बीमारियाँ फ़ैल रही हैं. लेकिन हमारे
नीति-नियंता अपनी राजनीति में व्यस्त हैं. शहरों में पर्यावरण दिवस मनाने से क्या
होगा जब जंगल ही रेगिस्तान में बदल रहे हों! (अमर उजाला, ७ जून, २०१२ से साभार)