उत्तराखंड/ गोविन्द सिंह
पिछले पखवाड़े जारी
हुई देश के बीस स्मार्ट शहरों की सूची में उत्तराखंड के किसी भी शहर को स्थान न
मिल पाने से उत्तराखंड के लोग खासे मायूस हुए. प्रदेश सरकार ने देहरादून के करीब
एक नया स्मार्ट शहर स्थापित करने का जो प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा, वह अपने आप
में इतना मुकम्मल नहीं था कि उसे पहले बीस शहरों में स्थान मिल पाता. कुछ कांग्रेस
नेताओं ने इसे राजनीतिक रंग देने और केंद्र पर उत्तराखंड के साथ भेदभाव करने के
आरोप भी लगाए लेकिन मुख्यमंत्री हरीश रावत ने ज्यादा परिपक्वता का परिचय देते हुए
कहा कि इसमें किसी तरह का राजनीतिक पूर्वाग्रह नहीं दिखाई देता.
चलो, यह तो राजनीतिक
बात हुई, असल बात यह है कि आम जनता को भी लगा कि क्या हमारा प्रदेश इस लायक भी
नहीं कि यहाँ के किसी एक शहर को स्मार्ट शहर बनाया जाए. हालांकि आम लोगों को नहीं
मालूम कि स्मार्ट शहर क्या होता है, उसे चुनने की क्या प्रक्रिया होती है और वह
कैसे बनता है? सबसे पहले हम स्मार्ट शहर के बारे में जानते हैं. यह एक ऐसा शहर
होता है, जहां हर आधुनिक सुविधा उपलब्ध होती है. आधुनिक सुविधा से आशय मुख्यतः
सूचना-प्रौद्योगिकी से जुडी सुविधाएं होती हैं. यानी वहाँ की सड़कें हर रोज कोई न
कोई तार डालने या नाली बिछाने के लिए खुदी नहीं होंगी. वे सब पहले से ही मौजूद
होंगी. आप अपने घर से ही बहुत सी सेवाएँ और काम संचालित कर पायेंगे. इस योजना के
तहत स्मार्ट शहर बनने पर हर साल सौ करोड़ रुपये भी मिलते हैं. जाहिर है, वहाँ रहने
वालों को इन सुविधाओं के उपभोग करने की कीमत देनी होगी. लेकिन ये चीजें दूर से
देखने को अच्छी तो लगती ही हैं. ऐसा नहीं कि स्मार्ट शहर बन जाने से पूरे देहरादून
की समस्त प्रजा को ये सारी सुविधाएं मिलने लगेंगी. लेकिन कम से कम सुनने में तो
अच्छा लगता है.
तो क्यों नहीं बन
पाया देहरादून स्मार्ट शहर?
स्मार्ट शहर के लिए
तीन तरह की योजनायें केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय ने प्रस्तुत की थीं. पहली
योजना यह थी कि वर्तमान शहर में पहले से उपलब्ध संरचनाओं का विकास कर इस लायक
बनाया जाए कि वह स्मार्ट बन सके. दूसरी योजना के तहत शहर के मौजूदा ढाँचे को
ध्वस्त कर के पुनर्निर्माण किया जाए. और तीसरी योजना के तहत किसी नई जगह खाली जमीन
का अधिग्रहण करके वहाँ नया शहर बसाया जाए. हमारी राज्य सरकार को पहली दोनों
याजनाएं अव्यावहारिक लगीं, इसलिए उसने तीसरी योजना पर काम किया. सरकार का कहना है
कि पुराने शहर को तोड़-फोड़ करने में बहुत मुश्किलें आयेंगी और परियोजना को अंजाम
देने में देर भी लगेगी. इसलिए तीसरे विकल्प को अपनाया गया. सहसपुर के पास के चाय
बागानों पर नजर पड़ी. चाय बागानों की तकरीबन दो हजार एकड़ जमीन के अधिग्रहण की योजना
बनी. लेकिन तभी विरोध के सुर तेज होने लगे. विरोधियों ने आरोप लगाए कि इससे जमीनों
के खरीद-फरोख्त का धंधा चल पड़ेगा. साथ ही चाय बागान की जमीन के अधिग्रहण पर भी
तकनीकी दिक्कतें आयीं. सरकार को लगा कि वह फंस रही है. अंत में 350 एकड़ जमीन पर
करार हुआ. सरकार ने इस हरित पट्टी पर नया स्मार्ट शहर का प्रस्ताव केंद्र को भेज दिया.
लेकिन जानकार कहते हैं कि प्रस्ताव बिना एसयूवी अर्थात स्पेशल परपज वीहकल के ही
भेजा गया. साथ ही एक दिक्कत यह भी रही कि ग्रीनफील्ड प्लान के तहत बनने वाले शहर
के लिए कमसे कम दो हजार करोड़ रुपये का प्रत्यक्ष निवेश चाहिए, क्या राज्य सरकार वह
सब जुटा पायेगी? लिहाजा देहरादून को पहले बीस शहरों में जगह नहीं मिल पायी. लेकिन
संतोष की बात यह भी है कि ग्रीनफील्ड प्लान वाले किसी भी प्रस्ताव को इस खेप में
नहीं लिया गया है. अब अप्रैल में 23 और शहरों की घोषणा होनी है. सरकार को आशा है
कि दूसरी लिस्ट में देहरादून को जरूर स्थान मिलेगा. लेकिन यहाँ भी निराशा की आशंका
व्यक्त करने वालों की कमी नहीं है. वे बता रहे हैं कि देहरादून का प्रस्ताव इतना
कमजोर है कि उसका नंबर 97वां है. इसलिए उसरी लिस्ट से भी बहुत आशा नहीं है.
कुल मिलाकर स्मार्ट
सिटी को लेकर उत्तराखंड की झोली अभी तक खाली है. जिनके नेता दृष्टिसंपन्न हैं,
जिनके अफसर स्मार्ट हैं, उन्होंने एक से अधिक स्मार्ट शहर हथिया लिए हैं. जिनके
अफसर ढीले-ढाले हैं, वे पीछे रह गए हैं. हमारी यही नियति है. एक तो हमारे नेता और
अफसरों को देहरादून के अलावा और कहीं कुछ दीखता ही नहीं. दूसरे, उन्हें हर चीज में
राजनीति और स्वार्थ दिखता है. यही वजह है कि 15 साल बाद भी हम गर्व से नहीं कह
सकते कि हमने नया राज्य बनाकर बहुत अच्छा किया! (खटीमा दीप, 15 फरवरी, 2016 में प्रकाशित)
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