उत्तराखंड/ गोविन्द सिंह
स्मार्ट शहरों की पहली सूची में देहरादून को स्थान न मिल पाने की वजह से भलेही सरकार दुखी हो, लेकिन इससे एक सबक यह मिला है कि हमारे नीति-नियोजकों को प्रदेश के शहरी-नियोजन पर पुनर्विचार करने का मौक़ा मिला है. देहरादून के निकट 350 एकड़ में स्मार्ट शहर बन भी जाता तो क्या होता! प्रदेश के बाक़ी शहरों की क्या हालत हो गयी है, यह हम अच्छी तरह देख रहे हैं. उत्तराखंड के शहरों को देख कर जाहिर हो जाता है कि हमारे हुक्मरानों के मन में नए राज्य को लेकर कोई विजन नहीं रहा है.
जब नए राज्य को लेकर
आन्दोलन हो रहा था, तब अक्सर ये चर्चाएँ हुआ करती थीं कि हमारे शहर कैसे होंगे,
गाँव कैसे होंगे, कैसे उद्योग लगेंगे, कैसी खेती-बागवानी होगी, कैसे वन होंगे,
कैसा वन्य-जीवन होगा, किस तरह प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल होगा? लेकिन राज्य
बनने के बाद जैसे सारे सपने तितर-बितर हो गए. पहले और दूसरे मुख्यमंत्री तो
अस्थायी ही थे. तीसरे यानी पहले स्थायी मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी शुरू से
उत्तराखंड राज्य के विरोधी रहे. पहाड़ को लेकर उन्होंने कभी सोचा ही नहीं था. बेशक
उन्होंने नए राज्य के लिए बहुत कुछ किया, लेकिन जो कुछ किया मैदानों में ही किया.
हरिद्वार और उधम सिंह नगर में ही बड़े औद्योगिक आस्थान बनाए. नतीजा यह हुआ कि तराई
की खेती की जमीन पर कंक्रीट के जंगल उगने लगे. उनके बाद खंडूरी आये, निश्शंक आये,
वे भी तिवारी जी की लकीर को मिटा नहीं पाए. क्योंकि वही आसान रास्ता था. नतीजा यह
हुआ कि एक भी मुद्दे पर गंभीरता से चिंतन-मनन नहीं हुआ. जिस पहाड़ के लिए राज्य बना
था, वहाँ के लोग खुद को छला हुआ महसूस करने लगे. लोग पहाड़ों से मैदानों की ओर
खिसकने लगे. देखते ही देखते गाँव के गाँव खाली होने लगे. सीमान्त राज्य होने की
वजह से सामरिक दृष्टि से भी यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है.
आज आलम यह है कि शहर
लबालब भर गए हैं, वहाँ पैर धरने की जगह नहीं है, वहाँ की जमीनें आसमान छू रही हैं,
जबकि पहाड़ उजड़ रहे हैं. मुफ्त में भी कोई खेती करने को तैयार नहीं है. पहाड़ी
गांवों में जमीन की कोई कीमत नहीं रह गयी है. लोग अपने गाँव की करोड़ों की जमीन छोड़
कर हल्द्वानी, देहरादून जैसे शहरों में आ रहे हैं, जहां एक छोटे से प्लाट में ही
संतोष करने को विवश हैं. राज्य बनने के बाद 3000 गाँव उजड़ चुके हैं, इतने ही उजड़ने
के कगार पर हैं. अब लग रहा है कि न हमने गांवों के बारे में सोचा और न ही शहरों के
बारे में.
सारा ‘विकास’
देहरादून, ऊधम सिंह नगर और हरिद्वार जिलों में हो रहा है. वहीं विश्वविद्यालय खुल
रहे हैं, वहीं स्कूल-कॉलेज खुल रहे हैं, वहीं होटल और हॉस्पिटल हैं. यहाँ रहने
वाले लोग पहाड़ों की कठोर जिन्दगी से डरते हैं, लिहाजा वहाँ कोई नहीं जाना चाहता. जो
पहाड़ों से यहाँ आ गए हैं, वे भी नहीं. इससे शहरों पर आबादी का दबाव बढ़ता ही जा रहा
है. जबकि अब तक शहरी नियोजन पर किसी ने कुछ सोचा ही नहीं था. देहरादून, हल्द्वानी,
कोटद्वार, रामनगर, रुद्रपुर, खटीमा जैसे मैदानी शहरों में बड़े पैमाने पर लोग
पहाड़ों से चल कर बस रहे हैं. लेकिन यहाँ शहर जैसी सुविधाएं नदारद हैं. सोना उगलने
वाली जमीन में आज जगह-जगह प्लाट कटे हुए नजर आते हैं. प्रॉपर्टी डीलर और छुटभैये
बिल्डर चांदी काट रहे हैं. न सडकों की व्यवस्था है, न सीवर की और न कचरे के निपटान
को लेकर कोई चिंतित है. लोग कचरे को जलाकर कैंसर को बुलावा दे रहे हैं. बिजली-पानी
का तो कहना ही क्या? जो शहर कभी तीन किलोमीटर के दायरे में सिमटे हुए थे, आज 15
किलोमीटर में फ़ैल चुके हैं. जनगणना की किताबों में भलेही शहर की आबादी एक लाख
बतायी जा रही हो, लेकिन वास्तव में वह 5 लाख को पार कर चुकी है. राज्य में 2011 की जनगणना के हिसाब से एक लाख से अधिक आबादी
वाले शहर सिर्फ सात हैं, लेकिन वास्तव में यह संख्या दर्जन भर से अधिक पहुँच चुकी
है. और जिन शहरों की आबादी एक-दो लाख बतायी गयी है, वे कबके पांच लाख को पार कर
चुके हैं. दरअसल आज मैदानी शहरों के आस-पास के गाँव शहर बन चुके हैं. जबकि प्रशासन
उन्हें शहर नहीं मान रहा. न शहर जैसी सुविधाएं ही मुहैया करवाना चाहता है.
जबसे मोदी सरकार ने
स्मार्ट शहर का शिगूफा छोड़ा है, तबसे लोग यह सपना बुनने लगे हैं कि काश उनका शहर भी
स्मार्ट होता! सरकार केंद्र के कोटे से देहरादून को स्मार्ट बनाना चाहती है. इसके
अलावा छः और शहरों को स्मार्ट बनाना चाहती है. कुछ शहरों को अमृत अर्थात अटल मिशन
फॉर रिजुवनेशन एंड अर्बन ट्रान्स्फोर्मेशन नामक योजना के तहत सुधारना चाहती है.
लेकिन हमारा तो कहना है कि जब तक सरकारें पूरे राज्य के भूगोल को ध्यान में रखकर
समेकित विकास के बारे खुद नहीं सोचती, तब तक वह एक कदम आगे तो दो कदम पीछे वाली
कहावत को ही चरितार्थ करेगी.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें