भाषा विवाद/ गोविन्द सिंह
अपने देश
में कुछ भी संभव है. जो होना चाहिए, वह नहीं होगा. जिसकी दूर-दूर तक कोई संभावना न
हो, अचानक पता चलेगा कि वह हो गया. क्यों हुआ, कैसे हुआ, इसका किसी को पता नहीं.
देश भर के 500
केन्द्रीय विद्यालयों के 78 हजार छात्रों पर एक दिन चुपचाप
जर्मन भाषा थोप दी गयी, किसी को कानों-कान खबर नहीं लगी. केन्द्रीय विद्यालय संगठन
और जर्मनी के गोएथे संस्थान ने 23 नवम्बर, 2011 को नई दिल्ली के मैक्समूलर भवन में इस आशय के एक करार पर दस्तखत कर दिए.
यहाँ तक कि ‘केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय तक को नहीं बताया गया.’ बस मंत्री
महोदय कपिल सिबल को सूचित कर दिया गया. और जिस मंत्रालय से केन्द्रीय विद्यालय की
पहली कक्षा में दाखिले और ट्रांसफर-पोस्टिंग तक का पल-पल का हिसाब रखा जाता है,
उसे अँधेरे में रखा गया! करार यह था कि छठी से आठवीं तक के विद्यार्थियों को तीसरी
भाषा के रूप में जर्मन पढनी होगी. आश्चर्य की बात यह है कि देश भर में चूं तक नहीं
हुई. बच्चे तो अबोध हुए, क्या बोलें, अभिभावक भी कुछ नहीं बोले. किसी ने यह नहीं
पूछा कि इतनी किताबें और अध्यापक कहाँ से आयेंगे? किसी पत्रकार को यह नहीं सूझा कि
अचानक केंद्रीय विद्यालय संगठन को यह जर्मन का भूत कैसे लग गया? जो तमिलनाडु
हिन्दी में एक चिट्ठी आ जाने पर आग-बबूला हो जाता है, उसे पता ही नहीं चला कि क्या
हो रहा है? केवल संस्कृत के अध्यापक थोड़े-बहुत बेचैन दिखे क्योंकि उन्हें अपनी
रोजी-रोटी पर लात पड़ती दिखी. उन्हें भी बाद में ट्रेनिंग के बहाने जर्मनी भेज कर
चुप करा दिया गया.
और अब,
जबकि २७ अक्टूबर को केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की अध्यक्षता
में केन्द्रीय विद्यालय संगठन के संचालक मंडल ने 2011 के जर्मन थोपने वाले करार से हाथ वापस खींचने का
फैसला किया है, लोग शोर कर रहे हैं. पूर्व मानव संसाधन मंत्री कपिल सिबल कहते हैं,
‘जर्मन को त्यागना दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि इससे ग्लोबलाइज्ड दुनिया में हमारे
बच्चे पिछड़ जायेंगे.’
अंग्रेज़ी
मीडिया स्मृति ईरानी के इस फैसले को जबरदस्ती जर्मन बनाम संस्कृत का विवाद बना रहा
है. जबकि विवाद जर्मन बनाम त्रिभाष सूत्र का है, विदेशी भाषा बनाम स्वदेशी भाषा का
है. जहां पहले संस्कृत पढाई जा रही थी, वहाँ उसे बहाल किया जाएगा, और जहां
त्रिभाषा सूत्र के तहत कोई और आधुनिक भारतीय भाषा पढाई जा रही थी, वहाँ वही पढाई
जायेगी. जहां संस्कृत की जगह अरबी-फारसी पढाई जा रही थी, वह भी उसी तरह जारी
रहेगी. इसमें कोई विवाद कहाँ है. विवाद तो इस बात में होना चाहिए था कि कैसे
आधुनिक विदेशी भाषा के रूप में चुपचाप जर्मन को थोप दिया गया? क्या केवल जर्मन ही
आधुनिक विदेशी भाषा है? क्या चीनी (मंदारिन), जापानी, कोरियाई, फ्रेंच और स्पेनिश
का कोई महत्व नहीं? प्रसार के लिहाज से देखा जाए तो मंदारिन दुनिया की सबसे बड़ी
भाषा है. उसके बाद हिन्दी-उर्दू, फ्रेंच, अंग्रेज़ी और स्पेनिश का नंबर आता है. यदि
व्यापार की दृष्टि से देखें तो भी आज जर्मनी की तुलना में चीन, जापान से ज्यादा
व्यापार हो रहा है. यदि आवाजाही के लिहाज से देखें तो भी जर्मनी कोई ऐसा देश नहीं
है, जहां बड़ी संख्या में भारतीय जाते हों. उससे ज्यादा लोग तो खाड़ी की ओर जाते
होंगे. उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए भी वह हमारे युवाओं का पहला गंतव्य नहीं है.
अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड कहीं ज्यादा बच्चे जाते हैं. तो ऐसा क्या हो गया
कि केंद्र के इस मामूली-से फैसले पर जर्मन राजदूत माइकेल स्टीनर को प्रेस कांफरेंस
बुलानी पडी और चांसलर अंगेला मर्केल को जी-20 जैसे महत्वपूर्ण शिखर सम्मेलन के बीच में
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से हस्तक्षेप की अपील करनी पडी? इतना हाय-तौबा तो तब ब्रिटेन
ने भी नहीं मचाया, जब हिन्दी को संविधान ने राजभाषा घोषित किया. कोई इनसे पूछे कि
क्या ये अपने देश के स्कूलों में हिन्दी को अनिवार्य तीसरी मातृभाषा के रूप में
पढ़ाएंगे? यह ठीक है कि हमारे युवाओं को आधुनिक विदेशी भाषाएँ आनी चाहिए, लेकिन
इसके लिए किसी एक विदेशी भाषा को नन्हे-मुन्नों पर थोपने का औचित्य समझ से परे है.
यदि आपको विदेशी भाषा से इतना ही मोह है तो बेहतर होगा कि तमाम जरूरी विदेशी
भाषाओं पर पुनर्विचार किया जाए और विद्यार्थियों को इन्हें पढने के विकल्प दिए
जाएँ. बेहतर हो कि यह छठी से नहीं कालेज स्तर पर हो.
दरअसल
भाषा का मसला अपने देश में ‘गरीब की जोरू’ की तरह है. आज़ादी के बाद हमारी
पाठशालाओं में भाषा को लेकर दोहरी नीति रही. कुछ राज्य सरकारों के स्कूलों में
पहली कक्षा से अपनी मातृभाषा और छठी के बाद अंग्रेज़ी और संस्कृत पढाई जाती थी,
जबकि कुछ बोर्डों में पहली कक्षा से ही अंग्रेज़ी पढाई जाने लगी. इससे कुछ राज्यों
के बच्चे पिछड़ने लगे क्योंकि बाकी सब जगहों पर अंग्रेज़ी का ही बोलबाला था. इस
विषमतामूलक व्यवस्था को हटाने और देश में भाषाई समरसता कायम करने के मकसद से 1968 में कोठारी आयोग ने
त्रिभाषा सूत्र की सिफारिश की. इसके मुताबिक़ हिन्दी भाषी इलाकों के बच्चों को
हिन्दी अंग्रेज़ी के अतिरिक्त एक आधुनिक भारतीय भाषा पढने को कहा गया. इसी तरह
अहिंदीभाषी इलाकों के बच्चे अपनी मातृभाषा और अंग्रेज़ी के अलावा हिन्दी को तीसरी
भाषा के रूप में पढ़ें. केरल जैसे कुछ राज्यों ने इसे अपना लिया लेकिन उत्तर भारत
के ज्यादातर राज्यों ने नहीं माना. उन्होंने अमूमन हिन्दी, संस्कृत-उर्दू और
अंग्रेज़ी को अपनाया. कुछ राज्यों ने अपना अलग ही फार्मूला निकाला. लेकिन मुख्य बात
यह है कि त्रिभाषा सूत्र को 1968 से लेकर 1986 की नई शिक्षा नीति और 1992 के राष्ट्रीय पाठ्यक्रम
फ्रेमवर्क तक, सबने अपनाए रखा. और यह सब कांग्रेस के ही शासनकाल में हुआ. इसलिए
चिंता की बात यह है कि कैसे राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत नीति को धता बताते हुए
केन्द्रीय विद्यालय संगठन ने इतना बड़ा फैसला ले लिया?
यहीं पर
शिक्षा घोटाले की बू आती है. कहा जा रहा है कि जर्मन राजदूत ने ‘हजार स्कूलों में
जर्मन’ नामक कोई नीति बनाई है, जिसे वे भारत में लागू करवाना चाहते थे. उन्होंने
इसके लिए अपने कुछ भारतीय ‘मित्रों’ को पकड़ा. इसके पीछे जर्मनी के कुछ उच्च शिक्षा
संस्थान भी बताये जाते हैं. उनका मकसद है कि जर्मनी के उच्च शिक्षा बाज़ार को गति
दी जाए. छठी से आठवीं तक जर्मन भाषा पढ़ चुके कुछ विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए
जर्मनी जा सकते हैं. इसीलिए जर्मन सरकार ने इसमें खूब पैसा झोंका. अध्यापक नहीं
थे, अन्य शिक्षकों को जर्मन का प्रशिक्षण दिया गया. जर्मन पढ़ा रहे शिक्षकों को
जर्मनी बुला कर आवभगत की गयी. सोचने की बात यह है कि आखिर कोई सरकार क्यों किसी और
देश के बच्चों पर अपनी भाषा थोपने में इतनी दिलचस्पी लेगी? अच्छा हुआ कि सरकार को
समय रहते इस साजिश का पता चल गया और नई पीढी किसी जाल में फंसने से बाख गयी.