धर्म-दर्शन/ गोविन्द सिंह
सतलोक आश्रम के बाबा
रामपाल ने कानून-व्यवस्था से बैर मोल लेकर अपने आप को तो डुबाया ही, पंजाब-हरियाणा
के अन्य डेरों को लेकर भी संदेह के घेरे में ला खड़ा कर दिया है. यही वजह है कि पंजाब-हरियाणा
हाई कोर्ट को दोनों राज्यों की सरकारों को ये आदेश देना पड़ा कि वे अपने यहाँ स्थित
डेरों का जायजा लेकर एक मुकम्मल रिपोर्ट प्रस्तुत करें. अदालत भी यह देख रही है कि
किस तरह से ये डेरे इन राज्यों के सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर रहे हैं और
अपने आप को राज्य से ऊपर साबित करने की एक नई किस्म की होड़ को जन्म दे रहे हैं.
इससे पहले डेरा सच्चा सौदा के बाबा राम रहीम सिंह को अम्बाला की अदालत में पेश
करने में जिस तरह से पुलिस-प्रशासन को नाकों चने चबाने पड़े थे और उससे भी पहले
२००९ में विएना में डेरा सचखंड के दो बाबाओं पर जानलेवा हमला और एक की हत्या के
बाद पंजाब में जिस तरह हिंसक झड़पें हुई थीं, उनसे ये संकेत मिल रहे थे कि पंजाब
में सबकुछ ठीक-ठाक नहीं है. इसलिए देश के इस उत्तर-पश्चिमी हिस्से की
सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि पर एक नजर डालनी चाहिए.
दरअसल डेरे आज न
सिर्फ पंजाब-हरियाणा, बल्कि समूचे उत्तर भारत की एक सचाई हैं. लगभग पूरे हिन्दी-पंजाबी
भाषी समाज पर उनका गहरा असर है. यह ठीक है कि रामपाल या आसाराम बापू जैसे बाबाओं
के कारण आज सारे ही डेरे-आश्रम या संत-बाबा कठघरे में आ गए हैं, लेकिन अपने
शुरुआती चरण में उन्होंने समाज-जीवन को काफी हद तक प्रभावित भी किया है. वे समाज
हित के अनेक काम करते हैं, दलितों, वंचितों और भटके हुओं के जीवन में आशा का संचार
भी करते रहे हैं, इसीलिए उनके अनुयायी भी तेजी से बढ़ते हैं. वह बात अलग है कि
प्रतिष्ठा के चरम पर पहुँचने के बाद अक्सर उनका पतन शुरू हो जाता है और उनका हश्र
रामपाल सरीखा होता है. उत्तर भारत में आज सतलोक आश्रम के अतिरिक्त संत निरंकारी
मंडल, डेरा सच्चा सौदा, राधा स्वामी सत्संग (ब्यास), डेरा सचखंड बल्लां, डेरा बाबा
बुड्ढा दल, डेरा भानियारवाला, दिव्य ज्योति जागृति संस्थान जैसे बड़े डेरे हैं,
जिनके अनुयायियों की संख्या लाखों-करोड़ों में है, तो हर गाँव, हर कसबे में
छोटे-छोटे डेरे भी हैं, जिनकी अनुयायी-संख्या १० हजार से एक लाख के बीच है.
पंजाब-हरियाणा में कुल दस हजार के आसपास डेरे अस्तित्व में आ चुके हैं. ये डेरे अब
पंजाब-हरियाणा की सरहदें लांघ कर उत्तर प्रदेश, हिमाचल, उत्तराखंड, बिहार,
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ तक पहुँच रहे हैं.
उत्तर भारत में
डेरों का इतिहास ५०० साल से भी पुराना है. डेरा का मतलब है एक तरह का अध्यात्मिक शिविर
या अड्डा. शुरू में कोई एक संत या अध्यात्मिक नेता अपने कुछ अनुयायिओं के साथ डेरे
की स्थापना करता है. दरअसल भारत में इस्लाम के आगमन के साथ डेरों का भी आगमन हुआ.
पीरों-फकीरों ने सबसे पहले अपने डेरे बनाए. पश्चिमी पाकिस्तान में तो ये डेरे आज
बड़े शहरों का आकार ले चुके हैं. अपने यहाँ देहरादून शहर भी कभी गुरु का डेरा ही
था. असल में सिख पंथ का उद्भव भी एक डेरे के रूप में ही हुआ. सिख पंथ के साथ कुछ
और डेरे भी जन्मे. उदासी डेरा, डेरा बाबा राम थमन, नामधारी और नानकसर. ये डेरे
सचाई का पाठ पढ़ाते थे. उनका मकसद समतावादी समाज की रचना करना होता था. वे भटके हुए
इंसान को बुराई से भलाई के मार्ग पर लाने की कोशिश करते थे. इनके संसर्ग में आने
से बहुतों के घर रोशन हुए. बहुतों ने नशाखोरी छोडी, बहुतों ने बुराई का रास्ता छोड़
अच्छाई का रास्ता अपनाया. तिहाड़ जेल में कैदियों को अच्छी राह पर लाने का काम भी
इन्होने किया. वे सरकार, राजनीति और
धार्मिक-सांस्कृतिक नेतृत्व की कमियों को पूरा करते हैं. वे गरीब जनता के हितों का
बखूबी ध्यान रखते हैं. आपदा के समय उनके स्वयंसेवक मदद के लिए पहुँचते हैं. पंजाब-हरियाणा
में ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय हिन्दू या अन्य धर्मों की संस्थाएं
भी यह काम कर रही हैं. इसलिए हर डेरे को शक की निगाह से नहीं देखा जा सकता.
लेकिन पंजाब-हरियाणा
में डेरों की समस्या कुछ अलग है. पंजाब में कुल १२००० गाँव हैं जबकि ९००० डेरे
हैं. ये डेरे आम तौर पर सिख पंथ के समान्तर खड़े हुए हैं. इनमें से ज्यादातर डेरे
दलित और पिछड़े वर्गों के हैं. हालांकि सिख पंथ की स्थापना ही जातिविहीन और
समतावादी समाज बनाने के लिए हुई थी, लेकिन कालान्तर में यह जातिवाद वहाँ भी उठ खडा
हुआ. चूंकि दलित और पिछड़ी जातियों को सिख पंथ में वह जगह नहीं मिल पायी, जिसकी
उन्हें अपेक्षा थी, इसलिए उन्होंने डेरे बनाने शुरू कर दिए, जहां उनकी अध्यात्मिक
भूख शांत होती है. और देखते ही देखते ये लोकप्रिय भी होने लगे. हाशिए में पडी
जमातों ने इन्हें सर आँखों पर बिठाना शुरू कर दिया. अब चूंकि सिख पंथ में गुरु
ग्रन्थ साहिब के अतिरिक्त कोई और गुरु नहीं बन सकता, इसलिए जब दलित और पिछड़ी
जातियों के संत या बाबा गुरु की तरह उपदेश देने लगते हैं तो तनाव पैदा होता है. चूंकि
अब ये जमातें भी आर्थिक तौर पर काफी तरक्की कर रही हैं. इसलिए उन्हें दबाया नहीं
जा सकता क्योंकि वे उद्योग-व्यापार में हैं, सरकारी नौकरियों में हैं. साथ ही
शिक्षा प्राप्त कर जागरूक भी हो रही हैं. यहाँ भी बड़े पैमाने पर विदेश से धन आ रहा
है. तनाव की असली वजह यही है.
लेकिन असली समस्या
तब पैदा होती है जब डेरा-प्रमुख अपने को कानून-व्यवस्था से ऊपर समझने लगता है.
चूंकि इनके पास अनुयायियों की बड़ी संख्या होती है, इसलिए राजनीतिक दलों को उनमें
अपना वोट बैंक दिखाई पड़ता है. हर राजनीतिक दल के लोग, यहाँ तक कि अकाली दल भी,
उनके दरवाजे पर हाजिरी बजाते हैं. डेरे के संचालक भी चूंकि अल्पसंख्यकवाद और एक
तरह के भय से ग्रस्त रहते हैं, इसलिए बड़े नेताओं के आगमन को वे भी अपने अस्तित्व
के लिए शुभ मानते हैं. चूंकि डेरा- प्रमुख कोई बहुत अध्यात्मिक पुरुष नहीं होते,
इसलिए वे आसानी से नेताओं के प्रलोभन में आ जाते हैं, उनकी महत्वाकांक्षा जागने
लगती है. राजनीतिक संरक्षण मिलते ही डेरे अपने रास्ते से भटकने लगते हैं. वे स्वयं
को नियम-क़ानून से ऊपर मान बैठते हैं और वे तमाम काम करने लगते हैं, जिनकी उनसे अपेक्षा
नहीं की जाती. यों देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय संस्थाएं भी इसी तरह काम करती
हैं, लेकिन पंजाब-हरियाणा में चूंकि आबादी की संरचना कुछ अलग है, इसलिए वहाँ तनाव
की स्थिति बनी रहती है.
अर्थात डेरों का
मसला काफी पेचीदा और नाजुक है. डेरे जरूर हों, क्योंकि उनका होना कहीं न कहीं समाज
के लिए हितकारी भी है, वे सरकार का हाथ
बंटाते हैं, लेकिन उन्हें वोट बैंक के रूप में न देखा जाए. उनकी गतिविधियों पर सरकारों
को सख्त निगरानी रखनी चाहिए ताकि वे पथभ्रष्ट न हों. ( हिन्दुस्तान, २५ नवम्बर, २०१४ से साभार)
वाह वाह बहुत खूब ,सुन्दर प्रस्तुति .बहुत बधाई आपको . कभी यहाँ भी पधारें
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