राजनीति/ गोविन्द सिंह
अपने देश में 14 वर्ष के काल-खंड का ख़ास महत्व है. इसी अवधि में
भगवान् राम चन्द्र ने वनवास पूरा किया और आसुरी प्रवृत्तियों को पराजित कर एक नयी
व्यवस्था अर्थात राम-राज्य कायम किया. ऐसा राज्य, जिसमें न भय हो और न भेदभाव हो. यानी
14 वर्ष का काल भलेही थोड़ा-सा लगे पर यदि मन में
संकल्प हो तो क्या नहीं किया जा सकता! उत्तराखंड राज्य भी आज 14 वर्ष पूरे कर 15वें
वर्ष में कदम रख रहा है. लेकिन क्या हम कह सकते हैं कि हमने अपने मकसद को पा लिया
है? निश्चय ही राज्य प्राप्ति की लड़ाई भी कोई कम नहीं थी. रामपुर तिराहा काण्ड की
याद करते ही आज भी पूरा वजूद ही सिहरन करने लगता है. तब लगता था कि संघर्ष की आग
से तप कर निकले लोग बेहतर शासक सिद्ध होंगे, उत्तरांचल के रूप में अलग हुआ भू-भाग
तरक्की करेगा और यहाँ के लोग खुशहाल होंगे. नरेन्द्र सिंह नेगी की कुछ पंक्तियाँ
हैं:
ये दौर जुल्म का
बदलेगा,
निखरेंगे दिन-रात
देखना
भूगोल पहाड़ों का
बदलेगा,
बदलेगा इतिहास देखना.
गिरीश तिवारी गिर्दा
ने नए राज्य की परिकल्पना कुछ यों प्रस्तुत की थी:
जै दिन नान-ठुलो नि रौलो, जै दिन त्यर-म्यरो नि होलो
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जै दिन चोर नि फलालि, क्वैके जोर नि चलोलो
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में (कोरस)
जैता एक दिन तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में
जैता कभि न कभि तो आलो, ऊ दिन यो दुनी में (कोरस)
राज्य मिल गया,
देखते ही देखते 14 वर्ष भी बीत गए लेकिन क्या वह सब मिला, जिसकी
परिकल्पना की गयी थी? क्या वैसी व्यवस्था कायम हो पाई? क्या गरीब जनता को कुछ
हासिल हुआ? क्या महिलाओं के अपमान का बदला लिया गया? क्या भ्रष्टाचार-
भाई-भतीजावाद से मुक्ति मिली? शायद नहीं. खुद हमारे नेता ही कह रहे हैं,
‘उत्तराखंड में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है, इससे तो हम उत्तर प्रदेश में ही भले
थे!’
ऐसा नहीं है कि नया
राज्य बनने के बाद यहाँ कुछ हुआ ही नहीं. बहुत कुछ हुआ भी है. मैदानी इलाकों में
उद्योग-धंधे शुरू हुए हैं. विकास दर बढ़ी है, गांवों में बिजली पहुंची है, शहरों का
विस्तार हुआ है, स्कूल-कालेजों का जाल फैला है, 108 नंबर
सेवा शुरू हुई है, पहाडी युवक अब दिल्ली-लखनऊ के ढाबों में बर्तन नहीं मांजते, वे
पहाड़ों में ही जीप दौड़ा रहे हैं. गाँव-कस्बों तक अंग्रेज़ी स्कूल खुल गए हैं,
गाँव-गाँव तक सड़कें पहुँच रही हैं. ग्राम-प्रधान से लेकर गाँव के बेरोजगार युवक तक
सब ठेकेदारी करने लगे हैं. पाथर वाले घरों की जगह लेंटर वाले मकान बन रहे हैं, घर-घर
टीवी-मोबाइल पहुँच रहे हैं. अब पहाडी बहुएं अपने परदेशी पिया के वियोग में न्योली
नहीं गातीं, मोबाइल नंबर मिला कर बात कर लेती हैं. शादी-व्याह में ब्यूटी पार्लर
का चलन बढ़ रहा है. लोग अब छपेली की तान पर नहीं, डीजे पर बजने वाले पंजाबी भांगड़े
पर थिरकते हैं. खेती सिकुड़ रही है, व्यापार फल-फूर रहा है. जी हाँ, यदि विकास इसी
को कहते हैं, तो हमारा उत्तराखंड खूब विकास कर रहा है.
लेकिन इस विकास के
लिए हमने नहीं लड़ी थी अलग राज्य की लड़ाई. इस तरह का विकास तो हर राज्य के हर कोने
में हुआ है. इसमें हमारी सरकारों का क्या
योगदान है? यदि पृथक राज्य बनने के बाद आये बदलाव का आकलन करें तो सबसे बड़ा
परिवर्तन पलायन के रूप में दिखता है. यों तो पलायन हमारे पर्वतों की त्रासदी शुरू
से ही रही है, लेकिन राज्य बनने के बाद इसमें कई गुना तेजी आयी है. सरकारी आंकड़े
ही बताते हैं कि वर्ष 2000 के बाद ही कोई 1700 गाँव
पूरी तरह से उजड़ चुके हैं और इतने ही आधे बंजर हैं. अब खेती कोई नहीं करना चाहता.
गाँव की जिस जमीन की कीमत 20 साल पहले एक लाख रुपये थी आज शून्य है. समर्थ
लोग हल्द्वानी, रामनगर या कोटद्वार की तरफ सरक रहे हैं. जबकि शहरी जमीन आसमान छू
रही है. गाँव के जो स्कूल बच्चों के शोरगुल से गुलजार रहते थे, आज वीरान हैं.
इक्का-दुक्का बच्चे जो आते भी हैं, वे मिड दे मील खाकर भाग जाते हैं. अध्यापक खुश
हैं कि पढाना नहीं पड़ रहा. यूं भी वहाँ कोई रहना नहीं चाहता. रहे भी क्यों? जब
सारी सुविधाएं शहरों में ही केन्द्रित हैं तो गाँवों में, दुर्गम पहाड़ों में कोई
क्यों रहे? अपनी ही भूमि से ऐसा मोह-भंग पहले कभी नहीं देखा.
लोग कहते हैं कि नए
राज्य का सबसे ज्यादा फायदा नेताओं-ठेकेदारों और ब्यूरोक्रेटों ने उठाया है. हमारे
प्रजातंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी शायद यही है कि उसने गाँव-गाँव में ठेकेदारों की
फ़ौज खडी की है. इस प्रथा ने गाँव के अंतिम व्यक्ति तक को भ्रष्ट बना दिया है.
क्योंकि गाँव का ही ठेकेदार गाँव के ही मजदूर को बिना काम किये आधी मजदूरी पर
दस्तखत करवाते हैं, इस तरह उस मजदूर को भी भ्रष्ट बना रहे हैं. बड़े स्तर के
भ्रष्टाचार की बात हम नहीं करते. राज्य के विधान सभाध्यक्ष तक इस राज्य में फैले
भ्रष्टाचार का दर्द बयान कर चुके हैं.
दुखद पहलू यह भी है
कि राज्य बनने से हमारे प्रदेश का अति राजनीतिकरण हुआ है. यहाँ हर आदमी नेता है. हर
आदमी मुख्यमंत्री पद का दावेदार है. जो पहले ग्राम-प्रधान नहीं बन सकता था, वह
मंत्री बन जाए तो नयी पीढी को वही रोल मॉडल दिखाई पड़ता है. इसलिए राजनीति की
प्रयोगशालाओं (छात्र संघों) में अब जबरन वसूली और ठेकेदारी के गुर सिखाये जाते
हैं. मेहनत के रास्ते पर कोई नहीं चलना चाहता.
हमारी 14 बरस की कुल जमा यात्रा कोई सुकून नहीं देती.
गंभीरता से देखने पर लगता है कि हम सचमुच पीछे की ओर जा रहे हैं. एक खुशहाल पहाडी
राज्य का सपना अब भी अधूरा है. (दैनिक जागरण, हल्द्वानी, नौ नवम्बर, २०१४ से साभार)
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