शुक्रवार, 23 मार्च 2012

उत्तराखंड की जनता दिग्भ्रमित क्यों है?

राजनीति/ गोविंद सिंह

यों तो उत्तराखंड का जनादेश, जब से राज्य बना है,  तब से ही लगातार भ्रमित करने वाला रहा है, लेकिन इस बार उसने इस शांत राज्य को गंभीर राजनीतिक अस्थिरता के दलदल में झोंक दिया है. खतरा यह है कि कहीं मध्यावधि चुनाव की नौबत न आ जाए. नब्बे के दशक में जिस तरह से उत्तर प्रदेश में राजनीतिक अस्थिरता रही, उसकी याद से ही सिहरन-सी होने लगती है.
आश्चर्य की बात यह है कि जब देश की संसद के लिए चुनाव होता है, तब उत्तराखंड की जनता बहुत ही समझदारी से वोट डालती है, कभी किसी तरह का भ्रम नहीं रहता. लेकिन विधान सभा के लिए अपना प्रतिनिधि चुनने में वह बेबाकपन नहीं दिखा पाती. अक्सर दो-चार सीटें कम रह ही जाती हैं. वर्ष २००२ में कांग्रेस तीन निर्दलीय विधायकों की मदद से सरकार बना पाई थी तो २००७ में भाजपा को तीन निर्दलीय और तीन उक्रांद विधायकों की मदद लेनी पडी थी. इस बार जब ३० जनवरी को उत्तराखंड से भारी संख्या में मतदान की खबरें आ रही थीं, तब एक बारगी ऐसा लगने लगा था कि शायद जनता आर-पार का फैसला दे देगी, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं. नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात. और फिर उसी तरह निर्दलीय विधायकों की खरीद-फरोख्त और ब्लैकमेलिंग. भलेही निर्दलीय विधायक बिना शर्त समर्थन दे रहे हों, लेकिन इस से माहौल तो दूषित होता ही है. जैसे प्रदेश चौराहे पर आकर खड़ा हो गया है. यह सिलसिला यहीं थमेगा नहीं. जब सरकार बनाने में ही इतना समय लग गया तो भविष्य कैसा होगा, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है. इसलिए यह सवाल बना ही हुआ है कि आखिर उत्तराखंड की जनता क्यों किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं देती? क्यों वह ‘तुम भी सही, तुम भी सही’ के अंदाज में अस्पष्ट जनादेश देती है? अंततः उसका अनिर्णय अपने और प्रदेश के लिए घातक साबित होता है!
इसका सीधा-सा मतलब यह निकलता है कि उत्तराखंड का मतदाता राजनीतिक समझ के लिहाज से अभी परिपक्व नहीं हुआ है. वह समझ नहीं पा रहा कि किसे सत्ता सौंपी जाए. राज्य बनने के बाद विधानसभा क्षेत्र बहुत छोटे-छोटे हो गए हैं. जबकि समाज आपस में बहुत गुंथा हुआ है. आपस में रिश्तेदारियां हैं. एक ही गाँव, एक ही बिरादरी में लोग चुनाव के कारण बंट रहे हैं. राजनीतिक विचारधाराएं गौण हो जाती हैं. लोग राजनीतिक प्राथमिकताओं और निजी पसंदगियों के बीच फर्क नहीं कर पाते. ऐसे में किसको जिताएं, किसको हराएं, भ्रमित हो जाना स्वाभाविक है. एक उम्मीदवार यदि एक गाँव के लिए उपयुक्त है तो दूसरे गाँव के लिए अनुपयुक्त. क्योंकि वह भी उसी गाँव में विकास योजनाएं ले जाता है, जहां उसकी रिश्तेदारी होती है. इसीलिए जहां लोकसभा चुनाव में उत्तराखंड की जनता का फैसला बहुत स्पष्ट हुआ करता है, वहीं विधान सभा चुनाव में वह लड़खड़ा जाता है.
यद्यपि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की राजनीति के बीच तुलना नहीं की जा सकती, लेकिन यह मानना होगा कि उत्तर प्रदेश को इस मुकाम तक पहुँचने में लगभग दो दशक लग गए. वहाँ भी वर्ष १९९० से लेकर २००७ तक लगातार खंडित जनादेश ही आता रहा. जिस से प्रदेश को लगातार राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजरना पड़ा. जब मतदाता को लगा कि इस तरह का लंगड़ा जनादेश अंततः प्रदेश के ही नहीं, अपने पैरों में भी कुल्हाड़ी मारने जैसा है, तब उसने दो बाहुबलियों में से एक को गद्दी सौंपना बेहतर समझा. इस तरह उत्तर प्रदेश का मतदाता लगातार परिपक्व हो रहा है और प्रदेश हित में फैसले कर रहा है. हालांकि अभी वह पूरी तरह से परिपक्व नहीं हुआ है, इसलिए एक तरफ वह एक ही दल को पूर्ण बहुमत भी दिला देता है तो दूसरी तरफ मुख्तार अंसारी जैसे लोगों को भी विधान सभा में भेज देता है. आशा करनी चाहिए कि आने वाले वर्षों में वह नीर-क्षीर विवेकी बन पाएगा. 
उत्तराखंड की दूसरी समस्या यह है कि पिछले १२ वर्षों में यहाँ की प्रादेशिक राजनीति का बहुत ज्यादा पतन हुआ है. लोगों ने देखा कि किस तरह उनका पड़ोसी इस राजनीति की सीढ़ी पर चढ कर पांच साल में ही मालामाल हो गया. इसलिए इन १२ वर्षों में जनता का अतिराजनीतिकरण भी हुआ है. यह बात पहले कही गयी बात की अंतर्विरोधी लग सकती है, इसलिए कृपया राजनीतिकरण को राजनीतिक परिपक्वता न समझा जाए. राज्य बन गया पर अभी तक लोगों की राजनीतिक दीक्षा नहीं हुई. जबकि राजनीति के राजमार्ग पर चल कर तथाकथित तरक्की की आकांक्षा असमय ही उनके भीतर जाग गयी. लोग किसी राजनीतिक विचारधारा या सामूहिक हित के लिए वोट नहीं डाल रहे, बल्कि अपने निहित स्वार्थ के लिए वोट डालते हैं. यह राजनीतिक अपरिपक्वता उन्हें अंततः किसी निर्णय तक नहीं पहुँचने देती. हालांकि दीर्घावधि में यह उसके लिए लोमड़ी के खट्टे अंगूरों की तरह साबित होती है. पर यह सत्य अभी उनकी समझ में नहीं आ रहा.
यही आकांक्षा विधायकों के स्तर पर मंत्री और मुख्यमंत्री बनने की होड़ के रूप में भी देखने को मिलती है. आखिर क्यों इतने लोगों के भीतर मुख्यमंत्री बनने की आकांक्षा जागी? आपके भीतर सरपंच बनने की भी काबलियत नहीं है, लेकिन आप विधायक बन गए. और आप इतनी जल्दी मुख्यमंत्री की दौड में भी शामिल हो गए! आपने तनिक भी सोचा कि मुख्यमंत्री का क्या मतलब होता है? आखिर क्यों यहाँ हर व्यक्ति मंत्री और मुख्यमंत्री बनना चाहता है? इसलिए कि ऐसा होने पर वह बिना काम किये ही रातोरात मालामाल हो जाता है. यही पिछले १२ वर्षों में हुआ है. जबकि होना यह चाहिए था कि मंत्री-विधायक प्रदेश के हित में रात-दिन परिश्रम करते. समाज के समक्ष ईमानदारी की मिसाल कायम करते. जाहिर है कि अगली बार वही व्यक्ति चुनाव जीतता जो परिश्रम की उससे भी लंबी रेखा खींचने में सक्षम हो. तब राजनीति सचमुच काँटों का ताज समझी जाती. ऐसी राजनीति में ईमानदार लोग आते और जनहित में काम होता. जाहिर है तब इतने लोग मंत्री पद की दौड में शामिल भी नहीं होते. आशा है कि उत्तराखंड की जनता इस विभ्रम से बाहर निकलेगी और इस चुनाव से सबक सीख कर भविष्य में स्पष्ट फैसला करेगी.  ( दैनिक जागरण, २२ मार्च से साभार)
http://epaper.jagran.com/epaperimages/22032012/21nnt-pg10-0.pdf
  

   


4 टिप्‍पणियां:

  1. त्रिनेत्र जोशी लिखते हैं:
    उत्तराखण्ड के ताज़ा राजनीतिक हालात पर आपकी टिप्पणियां दरअस्ल एक प्राकृतिक किस्म की बौद्धिक चिंता के रंग से सराबोर हैं और विचारोत्तेजक हैं। आपकी चिंताओं से सहमत होते हुए इस चीज़ की गुंजाइश उभर कर आती है कि बुद्धिजीवी समुदाय को पहाड़ की गायब होती जीवन-लय और दुखद राजनीतिक कार्यकलाप से बिगड़ गई परिस्थिति को पुनः धुरी पर स्थापित करने के लिए स्वयं सक्रिय हस्तक्षेप का बीड़ा उठाने को तैयार होना चाहिए। अगर इससे नाइत्तिफा्की न हो, तो इस बहस को आगे बढ़ाया जा सकता है।
    बेशक आपके ब्लाग की टिप्पणियों से हल्द्वानी ’लाइव’ होता नज़र आ रहा है। टिप्पणियों पर आई प्रतिक्रियाएं एक नया जीवंत सुकून पैदा करती हैं। पहाड़ और उसकी लय को जीवित रखने का भविष्य इन्हीं प्रति-टिप्पणियों में झिलमिलाता दीख पड़ता है। खेतों से लेकर अनौपचारिक संगीत तक आपकी कलम चली है और खूब चली है। यह संवेदना की एक समग्र दृष्टि को अंकित करती है। आपका ब्लाग इसी जीवंत हलचल को जिंदा रखने के क्रम में आगे बढ़ता रहे। शुभकामनाएं।

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  2. aap ne bahut dinu se apna blog nahi likah, kya karan hai?

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  3. wan pahadam baaner barki rayeen,jag jaga syav basi rayeen,waan kudi khanyari hwege yaan ke kancha parvachane hei rayeen.
    bauee goch pahad jaan le dekho waan cho dahaad,hamur pahadak hamu kul vikas bal,din dofari daun hei rayeen,mobile bei phone hei rayeen,ejaa fikar nikar mee chu nei tyar chyal bal.
    professor gobind bhai ki apni jadaun ko wapsi achee lagi,kalam ka sipahi kabhi thakta nahi,pahad ki ummeed hei gobindhai ki kalam.

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