शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

हमें कैसा उत्तराखंड चाहिए?

उत्तराखंड/ गोविन्द सिंह
पृथक उत्तराखंड राज्य के लिए जब आन्दोलन चल रहा था, तब अक्सर हम कहा करते थे कि उत्तराखंड के लोग देश के तमाम उच्च पदों पर हैं. वे वैज्ञानिक हैं, अर्थशास्त्री हैं, समाज शास्त्री हैं, टॉप ब्यूरोक्रेट हैं, रक्षा सेनाओं के शीर्ष पर तैनात हैं. राजधानी दिल्ली के बौद्धिक हलकों में उन दिनों पर्वतीय लोगों की धाक हुआ करती थी. बड़ी संख्या में लोग पत्रकारिता में थे. लोग अक्सर सवाल किया करते कि आप लोग कैसे चलाएंगे सरकार? आपके पास क्या है? हम लोग कहते कि हमारे पास बौद्धिक मेधा है. लोग अच्छे, कर्मठ और योग्य होंगे तो खुद अपना रास्ता बना लेंगे.
राज्य की घोषणा भी हो गयी. धीरे-धीरे सारे अरमान धुंधले पड़ने लगे. हमें लगा कि जो बौद्धिक मेधा अब तक दिल्ली में दिखाई पड़ती थी, भविष्य में देहरादून में दिखाई पड़ेगी. एक दिन मशहूर समाज-अर्थशास्त्री प्रो. पीसी जोशी से बात हो रही थी. वे दिल्ली में इंस्टिट्यूट ऑफ़ इकॉनोमिक ग्रोथ के निदेशक थे. एनएसडी और भारतीय जनसंचार संस्थान के अध्यक्ष थे. दूरदर्शन को सुधारने के लिए इंदिरा गांधी ने उन्हें एक महत्वपूर्ण समिति का अध्यक्ष बनाया था. मैंने उनसे कहा कि आप क्यों नहीं नए राज्य की प्लानिंग में अपना सहयोग करते? वे बोले, कोई मांगे तो जरूर देंगे. उन्हीं दिनों उत्तराखंड पर उनकी एक किताब आयी थी. नए राज्य को लेकर उनके विचार बहुत महत्वपूर्ण थे. गत वर्ष देहांत से पहले तक वे लगातार उत्तराखंड को लेकर चिंतित रहते थे. लेकिन उनसे कभी किसी मुख्यमंत्री ने राय नहीं ली.
बात केवल प्रो. जोशी की नहीं है. और भी अनेक विद्वान देश के अन्य हिस्सों में हैं, जो नए राज्य के पुनर्निर्माण में अपना योगदान करना चाहते थे और हैं. लेकिन हमारी सरकारें उन्हें घास नहीं डालतीं. हमारे राजनेता राज्य की प्रगति को देखकर अपने मुंह मियाँ मिट्ठू हैं. पिछले दिनों हल्द्वानी में हिन्दुस्तान अखबार की तरफ से आयोजित एक कार्यक्रम में दो पूर्व और वर्तमान मुख्यमंत्री को सुना. दुखद आश्चर्य हुआ कि तीनों ही मुख्यमंत्री इस बात से बेहद खुश थे कि राज्य ने 15 वर्षों में खूब तरक्की की है.
मुख्यमंत्री रावत तो खैर अपनी सरकार की तारीफ करेंगे ही, लेकिन जिस तरह से डॉ. निश्शंक ने और कुछ हद तक कोशियारी जी ने तरक्की का बखान किया, वह मेरे लिए चोंकाने वाला था. जबकि मुझे लगता है कि उत्तराखंड की जो तरक्की हुई है, उसमें कोई विजन नहीं दिखाई देता. तरक्की जरूर हुई है, लेकिन उसमे राजनेताओं का कोई हाथ नहीं है. कोई ऐसी नीति या कार्यक्रम नहीं, जिसका असर 50 साल तक रहे. पहाड़ों से बेतहाशा पलायन हो रहा है. गाँव के गाँव खाली हो रहे हैं. गांवों से लोग शहर की ओर आ रहे हैं. लोग वहाँ रहना ही नहीं चाहते. रहें भी क्यों? वे क्यों न शहर की तरह सुविधाएं मांगें? किसानों का खेती से मोहभंग हो चुका है.
लोग नौकरी के लिए दर-दर भटक रहे हैं, लेकिन अपना काम नहीं करना चाहते. युवाओं में आत्मविश्वास का घोर अभाव है. सरकारी शिक्षा में भयावह गिरावट आ गयी है. पहले कम कॉलेज थे लेकिन अच्छी पढाई थी, आज कॉलेज ज्यादा हैं लेकिन स्तर गिर गया है. एमए पास लड़के आवेदन पात्र लिखना नहीं जानते. अब यहाँ से युवा बहुत कम आईएएस में निकल पाते हैं जबकि पहले अभावों के बावजूद काफी लोग बड़ी नौकरियों में चुने जाते थे. इसलिए प्रदेश के लिए गंभीर विजन की जरूरत है. सौ साल आगे की सोच कर योजनायें बनें. पांच साल के चुनाव को ध्यान में रख कर नहीं. जनता को भी सोचना चाहिए कि वे कैसा भविष्य चाहते हैं? (खटीमा दीप, 15 जनवरी, 2016 में प्रकाशित)   

     

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-04-2016) को अति राजनीति वर्जयेत् (चर्चा अंक-2314) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. चिंतनीय, त्वरित समाधान समस्या का मिल भी जाए पर सम्पूर्ण निराकरण की जरुरत है।
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