पहाड़-यात्रा-3/ गोविन्द सिंह
पिछले अंकों में
आपने पढ़ा कि लेखक ने अपनी पिथौरागढ़ यात्रा के दौरान क्या-क्या देखा? किस तरह बदल
रहा है अपना पहाड़? पढाई-लिखाई, खेती-बड़ी, पलायन और शराबखोरी के कारण किस तरह तबाह
हो रहे हैं अपने गाँव? पहाड़-यात्रा की अंतिम कड़ी में इस बार प्रस्तुत है:
उल्का देवी मंदिर से पिथौरागढ़ |
अपने गाँव सौगाँव और
ननिहाल लीमा-जौराशी से लौटते हुए हम पिथौरागढ़ पहुंचे. यहाँ इजा को पेंशन लेनी थी.
उनकी उम्र 94 वर्ष हो चुकी है. अब काफी कमजोर हो चुकी हैं. साल-छः महीने में जाकर
वहीं से पेंशन लेनी पड़ती है. हल्द्वानी ट्रांसफ़र करवाने की कुछ कोशिश की, लेकिन
हुई नहीं. पिताजी बर्मा वाले थे. 1967 में उनकी मृत्यु के
बाद 1990 में इजा को बड़ी मुश्किल से पेंशन लगी थी. लोग
कहते हैं, बर्मा वालों कि ट्रान्सफर नहीं होती. अंगूठा-टेक होने से बैंक वाले भी
मदद नहीं करते. हमने भी ज्यादा जोर नहीं लगाया. कम से कम इसी बहाने साल में एक बार
गाँव जा आते हैं. ईस्ट देव के मंदिर में एक गोदान दे आते हैं. पुरखों की भूमि है,
उसे इतनी जल्दी अपनी स्मृतियों से अलविदा नहीं किया जा सकता. यूं भी इजा के आधे
प्राण वहीं अटके रहते हैं. पहाड़ जाने के नाम पर उनमें नया जोश आ जाता है. हम लोग
भी जड़ों से जुड़े रहते हैं.
पिथौरागढ़ से आठ-दस
किलोमीटर पहले पलेटा नाम का गाँव पड़ता है. देखा कि यहाँ सड़क के नींचे पहाड़ी पर से
पिथौरागढ़ का कूड़ा-कचरा फेंका गया था. इस कचरे से धुएं की एक अनवरत लट उठ रही थी,
जो अत्यंत बदबूदार थी. इस कचरे में प्लास्टिक-पौलीथीन होगा, अस्पतालों का जहरीला कचरा
होगा और न जाने क्या-क्या होगा. जो बदबूदार धुआं इससे उठ रहा था, वह कितना
हानिकारक होगा, उसकी आप कल्पना नहीं कर सकते. पलेटा से लेकर नैनीपातल तक और
पिथौरागढ़ की तरफ जाजरदेवल तक के लोग इस धुएं को ग्रहण करने को अभिशप्त हैं. आकाश
में मिलकर जिस तरह से यह धुंआ समस्त वायुमंडल को प्रदूषित कर रहा है, वह और भी
चिंताजनक है. प्लास्टिक, पॉलीथीन और
थर्मोकोल के जलने से जो धुआं निकलता है, उसमें हाइड्रोजन
सायनाइड और क्लोरो फ्लोरो कार्बन जैसी गैसें होती हैं। यह परखी हुई बात है कि इन
गैसों से कैंसर जैसे असाध्य रोग होते हैं। ये गैसें सेहत के लिए तो घातक होती ही
हैं, पर्यावरण के लिए भी अत्यंत नुकसानदेह हैं। यह कोई नई
बात नहीं है कि पॉलीथीन धरती के लिए भी घातक है और पानी के लिए भी। रंगीन पॉली
बैग्स में लेड और कैडमियम जैसे रसायन होते हैं जो जहरीले और सेहत के लिए खतरनाक
होते हैं। जो लोग इस तरह नितांत अवैज्ञानिक तरीके से कचरे को ठिकाने लगा रहे हैं,
ऐसा नहीं हो सकता है कि वे इसके दुष्परिणामों से अपरिचित हों. यदि जानबूझकर भी वे
ऐसा कर रहे हैं तो वे खुल्लमखुल्ला अपराध कर रहे हैं. लेकिन ऐसे लोग भी हैं, जो
इसके दुष्परिणामों के बारे में नहीं जानते. शहरों की गलियों-बाजारों में
सुबह-सवेरे लोग प्लास्टिक कचरे को जलाते हैं और अपनी मौत का धुवां पीते हैं.
हम लोग इस बात से बेहद चिंतित हैं कि पहाड़ों में
कैंसर का प्रकोप दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है.
दो साल पहले मेरे गाँव के पास की गोबुली दीदी केंसर की भेंट चढ़ गयी. इस साल मुवानी
के पास के एक गाँव से एक गरीब महिला हल्द्वानी आयी थी, जिसे आँतों का केंसर लील
गया. रोज-ब-रोज कैंसर के मरीजों की संख्या बढ़ती ही जा रही है. बड़े-बूढ़े कहते हैं,
ये कैसा ज़माना आ गया है. कैसी-कैसी बीमारियाँ सुनने में आ रही हैं. ग्रामवासियों
को नहीं मालूम कि कैंसर क्यों पहाड़ भर में पसर गया है? इसका एक ही कारण है हमारी
आधुनिक जीवन शैली. प्लास्टिक-पौलीथीन पर अत्यधिक निर्भरता. खेती में अत्यधिक रासायनिक
खादों और कीटनाशकों का इस्तेमाल. पहले जमाने में पहाड़ों के लोग शुद्ध अनाज खाते
थे. गोबर की खाद में उगी सब्जियां खाते थे. बांज-रयांज के जंगलों का ठंडा पानी
पीते थे. गोठ की गाय-भैंस का दूध-घी पीते थे. मोटा और ताकतवर अनाज होता था. और खूब
पैदल चलते थे. इसलिए बीमारियाँ भी पास नहीं फटकती थीं. अब धीरे-धीरे ये सब चीजें
गायब होती जा रही हैं. लोग सुविधाभोगी हो रहे हैं. हमने अपने बच्चों को शारीरिक
काम न करने के संस्कार दिए हैं. इसलिए नई पीढ़ी खेतों में काम नहीं करना चाहती.
बाजार से तो मिलावटी चीजें ही मिलेंगी. ऊपर से रही-सही कसर गरीबों को मिलने वाला
मुफ्त अनाज पूरी कर दे रहा है. इसके लालच में लोग अपनी खेती छोड़ रहे हैं. उन्हें
नहीं मालूम कि यह अनाज किस तरह की रासायनिक खादों से उगा है! कितना घातक है उनके
लिए. पहाड़ों में कूड़े के निपटान की कोइ व्यवस्था न हो पाना हमारे नेताओं और अफसरों
की कार्यशैली पर बड़ा सा सवालिया प्रश्नचिह्न लगाता है. खटीमा दीप, १६ अप्रैल, २०१६ में प्रकाशित
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-04-2016) को ''सृष्टि-क्रम'' (चर्चा अंक-2313) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत बहुत धन्यवाद शास्त्री जी.
हटाएंमरते हुए शहरों के ऊपर बहुत ही सार्थक लेख लिखा है आपने। अच्छा लिखते हें आप। आपको अपने ब्लाग पर और अधिक ध्यान देने की आवश्यक्ता है। विजिटर और पेज व्यूज बढ़ाने की दिशा आगे बढ़ने का प्रयास कीजिए। साथ ही हिंंदी ब्लागिंग को लाभ की स्थिति में ले जाने का प्रयास कीजिए।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया जमशेद भाई. प्रयास करता हूँ.
जवाब देंहटाएंविज्ञान और तकनीक की अंधाधुंध तरक्की मानव सभ्यता का अंत ही कर डालेगी, यह निश्चित है। जिस तीव्र गति से हम पर्यावरण को हानि पहुँचा रहे हैं उससे तो यही लगता है कि पूरा मानव समुदाय आत्महत्या करने पर तुला है। आपका यह आलेख स्पष्ट चेतावनी दे रहा है।
जवाब देंहटाएं