सोमवार, 26 जनवरी 2015

महान कार्टूनिस्ट लक्ष्मण नहीं रहे

संस्मरण/ गोविन्द सिंह 

साथियो, अभी-अभी पता चला है कि महान कार्टूनिस्ट आरके लक्ष्मण हमारे बीच नहीं रहे. पुणे के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया. वे ९४ वर्ष के हो गए थे. अभी पिछले हफ्ते ही भारतीय कार्टून को याद करते हुए हमने उन्हें याद किया था. क्या पता था कि वे इतनी जल्दी चले जायेंगे. हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि. 
उनसे पहले भारत में शंकर को महानतम कार्टूनिस्ट के रूप में जाना जाता था, लेकिन पिछले ५० साल में वे भारतीय राजनीतिक कार्टून के बेताज बादशाह थे. उनका आम आदमी भारत के तमाम नागरिकों का सामूहिक प्रतिनिधत्व करता था. वे मानव मन की पीड़ा के बारीक चितेरे थे. उसके दर्द की जैसी बारीक पकड़ उन्हें थी, वह शायद ही किसी और में हो. १९८२ से १९८६ तक मुंबई के टाइम्स भवन की दूसरी मंजिल में काम करते हुए, उन्हें रोज सफेद टीशर्ट, काली पैंट और गले में चश्मा लटकाए हुए देखते थे. उनकी छोटी-सी केबिन के बाहर रखे स्टूल पर ढेर सारी ड्राइंग शीट्स पडी होती, जिन पर उनके अधबने कार्टून होते थे. जब तक वे पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हो जाते, वे बनाते ही रहते. एक कार्टून को बनाने से पहले वे कमसे कम २० शीट्स बर्बाद करते होंगे. जब तक कार्टून नहीं बन जाता, उनके चेहरे पर तनाव रहता था. आज सोचता हूँ वे बेकार शीट्स ही संभाल ली होतीं तो कितने काम की होतीं. 
वे किसी से बोलते नहीं थे. उनका बेटा श्रीनिवास लक्ष्मण हमसे कुछ ही बड़ा रहा होगा. जब हम ट्रेनी थे तब वह  टाइम्स में रिपोर्टर हो गया था और एविएशन बीट देखता था. वह बड़ा भोला लगता था लेकिन कभी सहज ढंग से बातचीत नहीं करता था.  कुछ दिनों बाद वह अपने पिता से अलग रहने लगा था. हमें यह बात समझ नहीं आयी. हम मजाक में कहते बाप की ही तरह इसका भी एक पेच ढीला है. 
कई बार उनका इंटरव्यू लेने की कोशिश की, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी. शायद हमारे साथी सुधीर तैलंग शुरू में उनका इंटरव्यू लेने में कामयाब हुए थे. हालांकि बाद के दिनों में वे सुधीर से चिढ़ने लगे थे, ऐसा तैलंग को लगता था. जब तैलंग के कार्टून इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इंडिया में छपने लगे तो एक बार लक्ष्मण ने उसके सम्पादक केसी खन्ना से शिकायत कर दी, जिसके बाद वीकली में तैलंग के कार्टून छपने बंद हो गए. बाद में वह इकनोमिक टाइम्स में कार्टून बनाने लगा, जिसके सम्पादक उन दिनों हैनन एजकील हुआ करते थे. वे मूलतः यहूदी थे. तैलंग उनसे बहुत खुश रहने लगा. कहने का मतलब, शीर्ष पर पहुंचा हुआ व्यक्ति भी कहीं न कहीं से डरता है. तैलंग उन दिनों हमारे साथ हिन्दी में ट्रेनी था, उसमें भी उन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी दिखने लगा.  कहते हैं, ऐसा ही उन्होंने मारियो मिरांडा के साथ किया था. खैर बाद में सुधीर नवभारत टाइम्स दिल्ली में स्थायी हो गया तो चिंता ही ख़त्म. 
लेकिन असल बात यह है कि लक्ष्मण के बराबर व्यंग्य चित्रकार आजादी के बाद और कोई नहीं हो पाया. अबू, लक्ष्मण और सुधीर दर अपने समय के तीन महान कार्टूनिस्ट थे. पर शिखर पर लक्ष्मण ही थे.  


रविवार, 18 जनवरी 2015

कहाँ गए हमारे कार्टून?

मीडिया/ गोविन्द सिंह
के शंकर पिल्लै
कार्टून पर हमले भलेही यूरोपीय देशों में हो रहे हों, लेकिन अपने देश में वह पहले ही मरणासन्न हालत में है. साढ़े तीन दशक पहले जब हमने पत्रकारिता में कदम रखा था तब लगभग हर अखबार में कार्टून छपा करते थे, उन पर चर्चा हुआ करती थी, नामी कार्टूनिस्ट हुआ करते थे. हिन्दी अखबार, जिनकी अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत कमजोर मानी जाती थी, वहाँ भी दो-दो कार्टूनिस्ट होते थे. अस्सी के दशक में नवभारत टाइम्स में दो कार्टूनिस्ट थे. एक दिल्ली में और एक मुंबई में. सैमुएल और कदम. तभी सुधीर तैलंग भी आ गए. इस तरह तीन हो गए. बाद में दिल्ली संस्करण में दो कार्टूनिस्ट हो गए थे, काक और सुधीर तैलंग. यही नहीं लखनऊ से नया संस्करण शुरू हुआ तो वहाँ भी एक कार्टूनिस्ट रखे गए थे, इरफ़ान. बाक़ी अखबारों की भी कमोबेश यही स्थिति थी. जनसत्ता शुरू हुआ तो वहाँ भी काक और राजेन्द्र नियुक्त हुए. यानी कार्टूनिस्ट के बिना अखबार की कल्पना नहीं की जा सकती थी. आज नवभारत टाइम्स में एक भी कार्टूनिस्ट नहीं है. अन्य अखबारों की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है. कहीं फ्रीलांसर कार्टूनिस्ट से काम चलाया जा रहा है तो कहीं पार्ट टाइम कार्टूनिस्ट हैं. कहीं उनसे अतिरिक्त काम लिया जाता है तो कहीं उन्हें रेखांकन और रेखाचित्र बनाने को कहा जाता है. अंग्रेज़ी अखबारों में भी कोई कद्दावर कार्टूनिस्ट नहीं दिखाई पड़ता.
आर के लक्ष्मण
एक ज़माना था, जब इसी देश में शंकर पिल्लई जैसे कार्टूनिस्ट थे, आरके लक्ष्मण थे, अबू अब्राहम, मारियो मिरांडा थे, सुधीर दर थे, कुट्टी थे, रंगा थे. सुधीर तैलंग अब भी हैं, लेकिन शायद किसी बड़े अखबार को उनकी सेवाओं की जरूरत नहीं रही. अन्य अखबारों में भी कार्टूनिस्ट हैं, लेकिन अब वे उस ऊंचाई तक नहीं पहुँच पाते जहां शंकर या आरके लक्ष्मण पहुँच पाए थे. अजीत नैनन, रविशंकर, केशव, सुरेन्द्र, उन्नी, राजेन्द्र धोड़पकर, जगजीत राणा, शेखर गुरेरा, पवन और असीम त्रिवेदी जैसे कार्टूनिस्ट हैं, पर वे अपना अस्तित्व बचाए हुए हैं या कहिए किसी तरह मशाल जलाए हुए हैं. पहले कार्टूनिस्ट का दर्जा भी वरिष्ठ संपादकों के बराबर ही होता था. लक्ष्मण का दर्जा प्रधान सम्पादक के लगभग बराबर था. स्थानीय सम्पादक से ऊपर तो था ही. सम्पादकीय विभाग में वह एक स्वायत्त इकाई थे. शंकर के कार्टूनों से तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू प्रभावित थे.      
दो दशक पहले तक अखबारों के पहले पेज पर तीन-चार कॉलम का एक बड़ा कार्टून छपता था, पॉकेट कार्टून होता था और अन्दर भी सम्पादकीय पेज या उसके सामने वाले पेज पर बड़ा कार्टून होता था. आज पॉकेट कार्टून ही नहीं बचा तो बड़े कार्टून की क्या बिसात! सम्पादकीय पेज पर कभी कभार कार्टून दिखता तो है, पर उसे किसी घटना पर स्वतःस्फूर्त बना कार्टून नहीं कहा जा सकता, वह महज लेख को सप्लीमेंट करने वाला स्केच बनकर रह जाता है. पॉकेट कार्टून की जगह सिंडिकेटेड कार्टून छप रहे हैं, जिनमें थोड़ा बहुत हास्य होता है, करारा व्यंग्य तो नहीं ही होता. लक्ष्मण के बड़े कार्टून रोज-ब-रोज की घटनाओं पर तीखा प्रहार करते थे, साथ ही पॉकेट कार्टून भी आम आदमी के दर्द को मार्मिकता के साथ उभारता था. ये कार्टून दिन भर की किसी खबर पर कार्टून के जरिये एक तीखी टिप्पणी किया करते थे. आर के लक्ष्मण ने एक बार कहा था, ‘परिस्थितियाँ इतनी खराब हैं कि यदि मैं कार्टून न बनाऊँ तो आत्महत्या कर लूं.’ इससे पता चलता है कि कार्टून कितना अपरिहार्य था. इनका महत्व सम्पादकीय के समान होता था. आज यह सब गायब है. पहले पेज पर से बड़े कार्टून को गायब हुए कितने ही साल हो गए हैं. हिन्दू को छोड़कर बहुत कम अखबारों में राजनीतिक कार्टून दीखते हैं.
आर के लक्ष्मण अपने महान चरित्र आम आदमी के साथ 
हालात देखकर वाकई लगता है कि यह दौर कार्टून के लिए ठीक नहीं है. ऐसा क्यों हुआ? इसकी शुरुआत नब्बे के दशक में आए आर्थिक सुधारों के साथ ही हो गयी थी. अखबार के पन्नों पर से विचार की जगह लगातार सिमटती चली गयी. अखबारों का निगमीकरण शुरू हुआ. अखबार किसी एक पक्ष में खड़े नहीं दिखना चाहते थे. वे किसी से दुश्मनी मोल नहीं ले सकते थे. फिर समाज से सहिष्णुता भी धीरे-धीरे कम होने लगी. राजनेता कार्टून को अपने ऊपर हमला मानने लगे. एक समय था, जब नेता इस बात पर खुश होते थे कि उन्हें कार्टून का विषय के तौर पर चुना गया. लक्ष्मण एक वाकया सुनाते हैं, १९६२ के युद्ध के बाद उन्होंने नेहरू का मजाक उड़ाते हुए एक कार्टून बनाया. उनसे भी ज्यादा मजाक उनके तत्कालीन रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन का उड़ाया. कार्टून छापा तो सवेरे ही नेहरू का उन्हें फोन आया. लक्ष्मण डरे हुए थे कि पता नहीं प्रधान मंत्री कार्टून का बुरा ना मान गए हों. लेकिन दूसरी तरफ से आवाज आयी कि उनका कार्टून देखकर मजा आया. क्या लक्ष्मण उस कार्टून को अपने दस्तखत करके उन्हें उपहार में दे सकते हैं? लक्ष्मण बताते हैं कि वे गदगद हो गए. ऐसे ही सुधीर तैलंग बताते हैं कि एक बार उन्हें डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने फोन किया कि क्यों तैलंग ने छः महीने से उन पर कार्टून नहीं बनाया? क्या वे भारतीय राजनीति के लिए अप्रासंगिक हो गए हैं? काक साहब कहा करते थे कि हमारा सबसे पहला हमला अगले की नाक पर होता है. इस हमले को सहने की ताकत धीरे-धीरे हमारे नेताओं और हमारे समाज में कम होती जा रही है.
दरअसल कार्टून अत्यधिक शक्तिशाली होता है. कभी-कभी वह सम्पादकीय से भी ताकतवर होता है. कार्टून चूंकि एक तरह की बौद्धिक लड़ाई है, हमला है, इसलिए उसे झेल पाने की क्षमता भी कम होने लगी. पत्र-स्वामियों को लगा कि क्यों इस तरह का जोखिम लिया जाए. लिहाजा उन्होंने धीरे-धीरे कार्टून को बेदखल करना शुरू किया. उसकी जगह मनोरंजन ने ली. आज कार्टून अखबार से उठकर टीवी के परदे पर पहुँच रहा है तो इसीलिए कि मनोरंजन के रूप में उसकी कीमत बढ़ रही है.

 (आउटलुक , १६-३१ जनवरी, २०१५ के अंक में प्रकाशित टिप्पणी का मूल रूप)             

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

लड़ने से नहीं डरते उत्तराखंड के खसिया

समाज/ गोविन्द सिंह
पिथौरागढ़ का युद्ध नृत्य छोलिया 
उत्तराखंड के खसिया. यानी ठाकुर यानी क्षत्रिय जातियों का समूह. हालांकि इस समूह में यहाँ की अनेक ब्राह्मण जातियां भी शामिल रही हैं लेकिन अब यह संबोधन यहाँ के ठाकुरों के लिए रूढ़ हो गया है. एक ज़माना था जब इस भू-भाग पर खसों का शासन था. महाभारत काल से लेकर एक हजार ईस्वी के आसपास तक पूरे हिमालय क्षेत्र में इनका राज था. आज यह उत्तराखंड का सबसे बड़ी आबादी वाला जाति समूह है. यहाँ की ज्यादातर जातियों के बारे में यह भ्रम है कि वे बाहर से आकर यहाँ बसी हैं. इसमें कुछ सचाई जरूर है लेकिन खश जातियों के सम्बन्ध में यह पूरी तरह से सच नहीं है. हाल के वर्षों में हुए अनुसंधानों से यह साबित होता है कि वास्तव में वे हज़ारों वर्षों से यहाँ हैं. कुछ इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि वे आर्यों से भी पहले या लगभग उसी समय मध्य एशिया के काकेशस पर्वत क्षेत्र से भारत के हिमालयी अंचल में आकर रहने लगे थे. ऐसा मानने की मुख्य वजह यह है कि शुरुआती दौर में उनके रीति-रिवाज आर्यों से काफी भिन्न थे. धीरे-धीरे वे वैदिक कर्म-कांडों के संपर्क में आये और भारत की मुख्यधारा में शामिल हुए. लेकिन कुछ विद्वान कहते हैं कि यह भी वैदिक आर्यों की ही एक शाखा थी, अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों में रहने के कारण उनका खान-पान और रीति-रिवाज अलग हो गए. संस्कृत विद्वान् डीडी शर्मा की पुस्तक, ‘हिमालय के खाश’ के अनुसार, ऐतिहासिक खोजों से यह भी पता चलता है कि खश किसी एक जाति का नाम नहीं है, वैदिक आर्यों की तरह ही हिमालयी खश भी एक पूरी प्रजाति थी, उसके भीतर ब्राह्मण और राजपूत थे. एल डी जोशी, तारादत्त गैरोला और अटकिन्सन जैसे इतिहासकार मानते हैं कि हिमालय क्षेत्र के लगभग ९०% ब्राह्मण खश जाति से सम्बंधित हैं. यहाँ के लोगों के नैन-नक्श, खान-पान, बोली-भाषा और रहन-सहन में साम्यता से भी यह बात सिद्ध होती हैं.     
चूंकि वे मध्य एशिया के पहाड़ी प्रदेश से यहाँ आये थे, इसलिए अत्यंत मेहनती और कष्टकारी थे. पहाड़ ही उन्हें अच्छे लगते भी थे. उन्होंने पहाडी तलहटियों को पाट कर खेती-योग्य बनाया. अनेक खाद्यान्नों की तलाश की. खेती और पशुपालन के नए-नए तौर-तरीके ईजाद किये. प्रकृति को अपने अनुरूप करने के तरीके निकाले. वनस्पतियों का वर्गीकरण किया. औषधियों की खोज की और कठिन परिस्थितियों में रहने का नया फलसफा दिया. अब तो फिर भी सड़कें बन गयी हैं, लेकिन जब भी अपने गाँव जाता हूँ, सोच-सोच कर हैरान हो जाता हूँ कि आखिर कैसे हमारे पूर्वज यहाँ आये होंगे, क्यों आये होंगे, कैसे उन्होंने जंगलों को काट कर खेत बनाए होंगे, कैसे खूंखार जंगली जानवरों से खुद को बचाया होगा? घने जंगलों के बीच कच्ची झोपड़ियां बनाकर रहे होंगे? अब तो एक ही आपदा में लोग पहाड़ों से सामूहिक पलायन करने लगते हैं. क्या तब ऐसी आपदाएं नहीं आती होंगी? खूंखार जानवरों की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियां, भूत-प्रेतों की डरावनी कहानियां और भयानक प्राकृतिक आपदाओं की यादें अक्सर अपने पूर्वजों से हमने सुनी हैं, लेकिन कभी उस धरती को छोड़ने की बातें नहीं सुनीं.
हिमालय के खसिया स्वभाव से ही जोखिम उठाने वाले, अत्यंत परिश्रमी और प्रकृति-प्रेमी थे. चूंकि वे कबीलाई जिन्दगी जीते थे, इसलिए लड़ना-भिड़ना उनके रक्त में था. अंग्रेजों ने उन्हें मार्शल कौम माना. चम्पावत जिले में देवीधूरा के बाराही देवी के मंदिर प्रांगण में रक्षाबंधन पर लगने वाला बग्वाल मेला खशों की युद्ध परम्परा की गवाही देता है, जहां रणबांकुरों के दो दल पत्थरों से एक दूसरे पर प्रहार करते हैं और तब तक लड़ते रहते हैं, जब तक कि एक व्यक्ति के बराबर खून नहीं बह जाता. युद्ध के प्रति इनके जज्बे को देखते हुए ही अंग्रेजों ने उन्हें हर संभव छूट देकर फ़ौज में शामिल किया. कुमाऊँ और गढ़वाल के लोगों के लिए उन्होंने अलग-अलग रेजिमेंट बनवाईं. पहले विश्व युद्ध में बड़ी संख्या में यहाँ के लोगों ने शहादत दी. गबर सिंह को विक्टोरिया क्रॉस मिला. लगभग हर रेजिमेंट में वे भरती होते थे. दूसरे विश्व युद्ध में भी वे लडे. आज़ाद हिन्द फ़ौज में भी उन्होंने बड़ी संख्या में शिरकत की. यही नहीं चन्द्र सिंह गढ़वाली जैसे सेनानी के नेतृत्व में पेशावर में बगावत में भी आगे रहे. देश में उत्तराखंड ही ऐसा प्रांत है, जो अपनी आबादी के अनुपात में देश को सबसे ज्यादा फ़ौजी जवान और अफसर दे रहा है. उत्तराखंड का पिथौरागढ़ जिला देश का सबसे ज्यादा फौजियों वाला जिला है. ऐसा इसलिए है कि खसिया लड़ने से डरता नहीं. खासकर देश के लिए लड़ने में उसे ख़ास आनंद आता है. लड़कों के मन में बचपन से ही फ़ौज में जाने के संस्कार भर दिए जाते हैं. मैंने कभी किसी मां-बाप को अपने इकलौते बच्चे को फ़ौज में जाने से रोकते हुए नहीं देखा. जो लोग फ़ौज से बीच में ही नाम कटवाकर घर लौट आते हैं, उन्हें कभी अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता. इसलिए हर पहाडी लोकगीत में किसी न किसी रूप में फ़ौजी जीवन का जिक्र होता है. बचपन में सुने एक गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं, जिसे सुनकर हम उछल पड़ते थे:
नागाहिल लड़ाई लागी, भट्टम भट्टम गोली.
सिपाई दाज्यू लडनै ग्यान, छाती खोली-खोली.
ज्यादातर मार्शल जातियों में स्त्रियों की स्थिति बेहतर होती है. क्योंकि पुरुष लम्बे समय के लिए बाहर जाते हैं और स्त्रियाँ घर के मोर्चे पर डटी रहती हैं. केरल के नायर-मेनन हों या मेघालय के खासी, इसीलिए वहाँ मातृसत्तात्मक व्यवस्था है. उत्तराखंड में भी स्त्रियों की स्थिति बेहतर रही है. उन्हें शहरी समाजों की तरह केवल घर की शोभा बनाकर नहीं रखा गया है. घर की अर्थव्यवस्था में उनकी भूमिका पुरुषों से किसी भी मायने में कम नहीं है. शादी-ब्याह की प्रथा भी अपेक्षाकृत ज्यादा लचीली रही है. दहेज़ प्रथा अब जाकर शहरी प्रभाव से चली है. वरना एक ज़माना था, जब कन्या के पिता को बारात के स्वागत के लिए कुछ रकम दी जाती थी. खसियों में आज भी लड़की खोजने के लिए लड़के का पिता लड़की वालों के घर जाता है. कई बार बारात में लड़के का जाना जरूरी नहीं भी होता. वर पक्ष के चार-छः लोग जाकर बधू को डोली में बिठा कर ले आते हैं. बाद में सुविधा से फेरे ले लिए जाते हैं. यौन रिश्ते भी इतने रूढ़ नहीं थे, जितने कि शहरी समाजों में होते हैं. उन्हें संगीन जुर्म नहीं समझा जाता था. कुछ समाजों में यह भी व्यवस्था थी कि यदि कोई विवाहिता स्त्री किसी अन्य पुरुष का वरण करती है तो उसे भी समाज यह छूट देता था. हाँ, जिस पुरुष के साथ वह जा रही है, उसे पूर्व पति को उसका मूल्य चुकाना होता था. ऐसी स्त्री को ‘छन मण की बान’ कहा जाता था. अर्थात ऐसी सुन्दरी जिसका पति मौजूद है. उस स्त्री को प्राप्त करना गर्व की बात समझी जाती थी.

उत्तराखंड के खसिया लोग अभी हाल-हाल तक पौरोहित्य कर्मकांड से काफी हद तक बचे हुए थे. आज भी बहुत से मंदिरों में खसिया ही पुजारी भी होता है. कई पूजाएँ निचले वर्ग के लोग भी किया करते थे. छुआछूत जरूर था, लेकिन जातियों के आपस में रिश्ते सौहार्दपूर्ण थे. वे एक-दूसरे पर निर्भर थे. यानी ब्राह्मणवाद का असर कम था. हालांकि अब यह असर लगातार बढ़ता जा रहा है. साथ ही जातिवाद भी बढ़ रहा है. यह समाज मुख्यधारा में आ चुका है, लेकिन अपनी अच्छी बातें छोड़ कर मुख्यधारा की बुराइयों को ग्रहण कर रहा है. आज इस जाति-समूह में भी दहेज़ प्रथा शुरू हो गयी है. शादियों में वैसी ही तामझाम, जैसी कि मैदानी इलाकों में होती है. एक और संकट, शराबखोरी बढ़ रही है. असंख्य परिवार इसकी वजह से तबाह हो चुके हैं. हजारों वर्षों से जिन पहाड़ों को हमारे पूर्वजों ने अपना निवास-स्थान बनाया था, उसके प्रति उदासीनता दिख रही है. खसिया अपने पारंपरिक काम-धंधों से मुंह मोड़ रहा है. खेती-बाडी और पशुपालन से मोहभंग हो रहा है. जिसकी वजह से बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है. पढाई-लिखाई को लेकर जागरूकता बहुत बढी है, लेकिन फिर भी कुछ ही बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण कर पा रहे हैं. लेकिन खुलापन उनकी आज भी विशेषता है. बाहर निकल कर वे काफी तरक्की कर रहे हैं. अंतरजातीय और अंतर्धार्मिक विवाह भी कर रहे हैं. एक बात और. राजनीति में उत्तराखंड के खसियाओं को उनका जायज हक मिलना अभी बाक़ी है. (नवभारत टाइम्स, ९ जनवरी, २०१५ में प्रकाशित संक्षिप्त लेख का मूल रूप) 

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

संस्कार: मकसद के बिना जीवन अधूरा

जीवन शैली/ गोविन्द सिंह
गुलाम रसूल संतोष की कलाकृति 
समाज में हर रोज नई-नई विकृतियाँ जन्म लेती जा रही हैं. चोरी-डकैती, हत्या-लूटमारी जैसी बीमारियों के अलावा छेड़-छाड़ और बलात्कार की खबरें पढ़ कर हर सुबह कोफ़्त होती है. पश्चिमी देशों में भी ये बीमारियाँ हैं लेकिन वहाँ लोगों ने मजबूत नागरिक कानून बनाकर इन पर नकेल कस ली है. लेकिन अपने देश में ये सुरसा के मुंह की तरह रोज-ब-रोज फैलती जा रही हैं. आखिर क्यों इन बीमारियों से ग्रस्त हो गया है अपना देश? क्या पहले भी ऐसा ही था? यदि जीवन की समस्याओं से निबटने का यही तरीका हमारे पूर्वजों ने भी अपनाया होता तो क्या हमारी सभ्यता बच पाती? शायद नहीं.
आज भलेही हम जिस भी हालत में हों, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारी सभ्यता कभी उन्नत रही थी. जिस तरह की व्यवस्थाएं समाज को चलाने के लिए बनाई गयी थीं, वे किसी पिछड़े समाज में नहीं हो सकती थीं. सोलह संस्कारों की बात छोड़ भी दें तो मनुष्य जीवन को अनुशासित रखने और तदुपरांत उसे सुखमय बनाने के लिए वर्णाश्रम व्यस्था की गयी थी. जीवन लक्ष्यहीन न गुजर जाए, इसलिए उसके चार पुरुषार्थ निर्धारित किये गए थे. इन व्यवस्थाओं के चलते समाज में विकृति आने की आशंका उत्तरोत्तर कम होती जाती थी. हाँ, यह जरूर है कि इन्हें लागू करने के लिए अनुशासन की दरकार होती थी. बिना अनुशासन के कुछ भी संभव नहीं है. आज अमेरिका आगे है तो उसके पीछे भी अनुशासन ही है. चार दिन अमरीकी लोग अनुशासन का पालन करना छोड़ दें तो सबकुछ उलट-पुलट हो जाएगा.
पहले वर्णाश्रम व्यवस्था को लें. समाज की व्यवस्था को ठीक से चलाने के लिए चार वर्ण बनाए गए थे. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. आज भलेही यह व्यवस्था विकृत हो गयी हो, लेकिन अपने मूल स्वरुप में यह एक आदर्श व्यवस्था रही होगी. ब्राह्मण का मतलब विद्या अर्थात समाज के लिए हित-चिंतन करने वाले. इसी तरह समाज व्यवस्था की रखवाली करने वाले क्षत्रिय हुए. समाज-व्यवस्था के आतंरिक कारोबार को करने वाले वैश्य हुए तो समाज की सेवा करने वाले शूद्र हुए. यह विभाजन गुणों और कर्मों के आधार पर था पैत्रिक आधार पर नहीं. अर्थात ब्राह्मण का बेटा भी ब्राह्मण ही बने, यह जरूरी नहीं. जिसके जैसे गुण होगे, उसे वैसा ही काम मिलेगा. यानी शूद्र का पुत्र भी ब्राह्मण या क्षत्रिय बन सकता था. जैसे आज फ़ौज में भरती होते वक़्त व्यक्ति की जाति नहीं, कर्म और पात्रता देखी जाती है या शिक्षक की भरती के लिए ब्राह्मण जाती का होना जरूरी नहीं है, उसी तरह जाती का सम्बन्ध जन्म से नहीं था. हमारे एक दोस्त तीन साल के लिए चीन गए तो बोले कि जिस होटल में उन्हें टिकाया गया था, उसके सबसे बड़े अधिकारी की पत्नी उसके कमरे में झाडू-पोछा करती थी. यानी कर्म के आधार पर भेदभाव भी नहीं था. न ही किसी काम को छोटा या बड़ा समझा जाता था. मन और शरीर के कामों को अलग-अलग कोटियों में जरूर रखा गया था, लेकिन उनमें भेदभाव नहीं था. जब तक यह व्यवस्था चली, तब तक समाज-व्यवस्था बहुत अच्छी चल रही थी. लेकिन धीरे-धीरे पेशे के अनुरूप कुछ विशेषाधिकार भी मिलने लगे. खासकर ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्णों को श्रेष्ठ समझा जाने लगा. इससे हुआ यह कि मानव मन में मोह घर करने लगा. ब्राह्मण को लगा कि क्यों न उसका बेटा भी ब्राह्मण बनकर उसी की तरह समाज से मिले विशेषाधिकारों का उपभोग करे. क्षत्रिय को भी लगने लगा कि उसकी सारी मेहनत का फल क्यों किसी और का बेटा भोगे? कहा जाता है कि ब्राह्मण ग्रन्थ जब लिखे जाने लगे तब तक इस तरह की प्रवृत्तियाँ पनपने लगी थीं. यहीं से स्खलन शुरू होने लगा. और आज एक विकृत जाति प्रथा हमारे सामने है. उसकी वजह से समाज में अनेक बीमारियाँ आ गयी हैं. तमाम आरक्षणों, नियम-कानूनों के बावजूद समाज के भीतर से अस्पृश्यता, भेदभाव ख़त्म नहीं हो रहा है. कहा जा सकता है कि विकृत रूप में ही सही, आज तक यह व्यवस्था चल रही है और समाज को बचाए रख पायी है. यह भी कुछ हद तक सही है. लेकिन हमें कोशिश करनी होगी कि वर्ण-व्यवस्था को बदलना होगा. जाती के आधार पर नहीं, कर्म के आधार पर समाज में व्यक्ति की जगह होनी चाहिए.
दूसरी व्यवस्था आश्रम की थी. मनुष्य का जीवन चार आश्रमों में विभाजित था. ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास. जीवन काल को चार खण्डों में बाँट कर समाज को बहुत सी बुराइयों से मुक्त कर दिया गया था. हर आश्रम के बाद यह तय था कि उसे तरक्की करते हुए अगले आश्रम में पहुँचना है. और हर आश्रम के दायित्व भी निश्चित थे. ब्रह्मचर्य में यदि व्यक्ति को शिक्षा ग्रहण करने पर ध्यान केन्द्रित करना होता था तो गृहस्थ धर्म में परिवार बनाने में पूरा ध्यान लगाना होता था. इसी तरह वानप्रस्थ में निस्वार्थ कर्म करने और संन्यास अवस्था में केवल आत्मा-परमात्मा का चिंतन बताया गया है. यदि अनुशासन के साथ इन चार आश्रमों का पालन किया जाए तो गड़बड़ी हो ही नहीं सकती. आधुनिक काल में भी हमने रिटायरमेंट की आयु तो निर्धारित कर दी, लेकिन उसके बाद वह क्या करे, उसे नहीं बताया. लिहाजा वह कुंठित होने लगा. किसी का ब्रह्मचर्य ३०-३५ साल तक चलता रहता है तो किसी का गृहस्थ ७५ तक भी पूरा नहीं होता. ऐसे में कैसे विकार नहीं पैदा होंगे? संन्यास आश्रम का तो शायद ही कोई पालन करता होगा. जो संन्यासी है वह भी व्यापारी जैसा कर्म कर रहा है.
सबसे बड़ी व्यवस्था चार पुरुषार्थ की थी. धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष्य. धर्म अर्थात जिम्मेदारी अर्थात अपने से अधिक दूसरे के हित का ध्यान रखना. ‘परहित सरिस धर्म नहीं भाई’. यह सबसे कठिन है. लेकिन इसे पहले नंबर पर रखा गया है. अर्थ और काम में विचलन की आशंका सबसे ज्यादा है, इसलिए उन सबके साथ भी धर्म को जोड़ दिया गया है. कोई भी काम धर्म को लक्ष्य में रख कर ही किया जाता था. अर्थ का मतलब पैसा कमाना. लेकिन उसमें भी परहित का ध्यान रखना अनिवार्य था. दूसरे को नुकसान पहुंचाकर आप धनोपार्जन नहीं कर सकते. इसी तरह काम यानी प्रेम यानी यौन सम्बन्ध यानी प्रजनन को भी धर्म से नत्थी कर दिया गया. क्योंकि यौन को खुला छोड़ दिया तो समाज में उच्छ्रंखलता फ़ैल जायेगी. समाज को जोड़े रखना है तो हर कर्म को धर्म के अनुशासन में बाँध दो. अंत में मोक्ष्य था. यानी हरेक पुरिषार्थ के पीछे एक मकसद था. और मोक्ष्य सभी कर्मों की पूर्णाहुति था. यदि सभी काम धर्म के साथ करोगे तो मोक्ष्य मिलेगा. मोक्ष्य नहीं मिलेगा तो क्या होगा. उस स्थिति की भी व्याख्या थी. मनुष्य को मोक्ष्य के फायदे और मोक्ष्य न मिलने के नुकसान समझाए गए थे. यहीं कर्मफल ने जन्म लिया. यदि इस जन्म में गलत काम किये तो अगले जन्म में उसका फल भोगना पडेगा. लिहाजा मनुष्य क्यों अपने अगले जन्म को खराब करे? वह किसी भी गलत काम को करने से पहले हजार बार सोचता था.
ऐसा नहीं हो सकता कि तब समाज में समस्याएं नहीं थीं. समस्याएं तब भी होती होंगी. लेकिन समाज के अधिकाँश हिस्से में अनुशासन था. हर व्यक्ति के जीवन का कोई न कोई मकसद था. इसलिए वह विक्षिप्त नहीं होता था, वह यों ही किसी को तंग नहीं करता था. समाज से प्राप्त अधिकार और जिम्मेदारी को वह यों ही गंवाना नहीं चाहता था. आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमें पता ही नहीं कि हम क्यों हैं? हमारे जीवन का मकसद क्या है? देश-समाज के प्रति हमारी क्या जिम्मेदारी है? हमारे समस्त क्रिया-कलापों का एकमात्र मकसद स्वार्थ और भोग रह गया है. जब तक हर नागरिक को स्वतःस्फूर्त तरीके से अपनी इन जिम्मेदारियों का एहसास नहीं होगा, तब तक हम और हमारा समाज विकृतियों से कैसे मुक्त हो सकेगा? (देहरादून से प्रकाशित ‘नैवेद्य’ पत्रिका, दिसंबर, २०१४ में प्रकाशित) 

क्या सचमुच बहुरेंगे रेडियो के दिन?

मीडिया/ गोविन्द सिंह
यों तो साल २०१४ में बहुत-सी बातें पहली बार हुईं, लेकिन मीडिया के क्षेत्र जो सबसे ज्यादा चोंकाने वाली बात हुई, वह थी, रेडियो को मिली अप्रत्याशित तवज्जो. जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेडियो को अपने मन की बात कहने के माध्यम के रूप में चुना, उससे यह उम्मीद बंधी कि आने वाले दिनों में रेडियो के दिन बहुरेंगे. मोदी अब तक तीन बार रेडियो के जरिये अपने मन की बात कह चुके हैं. जल्द ही वे चौथी बार आकाशवाणी पर सुनाई पड़ेंगे और लगभग हर महीने-दो महीने में बतियाएंगे. इंदिरा गांधी के बाद शायद मोदी ही ऐसे राजनेता हैं, जिसने रेडियो की ताकत को पहचाना है और उसे अपने संदेशवाहक के रूप में चुना है.
शहरों में हमें यह लग सकता है कि रेडियो को अब सुनता ही कौन है, जो उसे प्रधान मंत्री ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है. टीवी और अखबार आज भी गाँव-गाँव नहीं पहुँच पाए हैं. अखबार बमुश्किल देश की 30 प्रतिशत आबादी तक पहुंचा है तो टीवी की हालत भी इससे कुछ ही बेहतर है. जबकि रेडियो की पहुँच देश की 99 प्रतिशत आबादी तक है. गांवों में यह आज भी जनता की पहली पसंद है. फिर यह सबसे सस्ता है. हर महीने इसका कोइ किराया नहीं देना पड़ता. अब तो जेब में रखने लायक सेट भी आ गए हैं, लिहाजा इन्हें कहीं भी लाया-ले जाया जा सकता है. रेडियो का जाल देश भर में बिछा हुआ है ही. थोड़े-से प्रयास से ही आप दूर-दराज के गांववासियों, वनवासियों और गिरिवासियों तक पहुँच सकते हैं. मोदी ने यही देखा. वे देश के उन लोगों तक पहुंचना चाहते हैं, जिन तक कोई और शासक नहीं पहुंच पाया था. सचमुच उन्हें इसमें कामयाबी भी मिली. रेडियो ने तो उनकी मन की बात सुनाई ही, अन्य निजी एफएम और टीवी चैनलों ने भी उसे सुनाया. फिर देश की विभिन्न भाषाओं में अनूदित कर मोदी की बात को आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से भी प्रसारित किया गया. छः बड़े शहरों में ही 66% आबादी ने उसे सुना. जबकि हम यह मान चुके थे कि शहरों में रेडियो ख़त्म हो गया है. उनकी बातों का असर भी जनता पर अच्छा-खासा रहा. उन्होंने खादी को अपनाने की बात कही तो खादी की बिक्री में 150% उछाल आ गया. यहाँ यह ध्यान में रकने वाली बात यह है कि मोदी तो प्रधानमंत्री हैं, इसलिए उन्हें रेडियो पर सूना गया, टीवी वालों ने भी उसे सुनाया. शायद और लोगों की बात उतनी शिद्दत के साथ न सुनी जाए.
हैरत की बात यह है कि रेडियो के महत्व को क्यों हमारे शासकों ने नहीं समझा? क्यों उसकी इस कदर उपेक्षा की गई कि वह हमारे घरों से ही गायब हो गया? आज लगता है कि यदि रेडियो की तरफ थोड़ा भी ध्यान दिया गया होता तो आज वह बेहतर हाल में होता.
हालांकि हर नए माध्यम के आविष्कार के साथ पुराने माध्यम की चमक फीकी पड़ती है. लेकिन आम तौर पर यह तब होता है जब पुराने माध्यम की सारी की सारी खूबियाँ नया माध्यम अपना लेता है और पहले से भी बेहतर ढंग से परोसता है. पहले संचार का माध्यम कबूतर थे, मुनादी करने वाले लोग थे, धावक थे, घुड़सवार थे. फिर अखबार आये. चार पेज के अखबार में दुनिया भर की खबरें एक साथ अनेक शहरों, अनेक लोगों तक पहुँचने लगीं. पुराने माध्यम अप्रासंगिक हो गए. उन्होंने पुराने माध्यमों की जगह ली. फिर रेडियो आया तो अखबार में कमियाँ नजर आने लगीं. रेडियो उन जगहों तक भी पहुँचने लगा, जहां अखबार नहीं पहुँच सकते थे. जाहिर है रेडियो जैसे शक्तिशाली माध्यम के सामने अखबार कहाँ टिकता! देखते ही देखते रेडियो सारी दुनिया में छा गया. लेकिन अखबार फिर भी बने रहे. क्योंकि अखबार में कुछ ऐसी विशेषताएं थीं जिनकी भरपाई रेडियो नहीं कर सकता था. फिर टीवी आया. हमें लगा कि अब तो न अखबार बचेगा और न ही रेडियो. कुछ अरसा तक ऊहापोह की स्थिति बनी रही. टीवी ने अखबार और रेडियो दोनों की ही सीमा में अतिक्रमण किया लेकिन जल्द ही उसकी सीमारेखा भी तय हो गयी. लेकिन इसके लिए अखबारों और रेडियो को भी कम मशक्कत नहीं करनी पडी. उन्हें अपने रंग-रूप को बदलना पडा. रेडियो को भी एफएम का नया अवतार लेना पडा. हमारे देश में चूंकि रेडियो का बड़ा हिस्सा सरकार के नियंत्रण में था, खासकर खबरों और समसामयिक कार्यक्रमों वाला, लिहाजा वह नहीं बदला. इसलिए वह पिछड़ता चला गया. घरों से रेडियो-ट्रांजिस्टर गायब होने लगे. उसकी इज्जत एफएम ने रखी जरूर लेकिन वह एकदम दूसरे छोर पर चला गया. ऐसा उसने अपने मनोरंजन का स्तर गिरा कर किया. जबकि पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं हुआ. वहाँ रेडियो ने टीवी के सामने समर्पण नहीं किया. जरूरी परिवर्तन करके उसने अपनी जगह बरकरार रखी. समाचार और सामयिक घटनाक्रमों के मामले में भी वह श्रोताओं की पसंद बना रहा. अमेरिका में ऐसे भी चैनल हैं, जो बिना विज्ञापन के, सिर्फ जनता के चंदे पर चल रहे हैं. इसलिए आज रेडियो के सुनहरे दिन बरबस याद आते हैं. जब वह समाचारों, सामयिक कार्यक्रमों और गीत-संगीत और संस्कृति का एकमात्र विश्वसनीय माध्यम था. एक पूरी की पूरी पीढी रेडियो के साथ बड़ी हुई है. जबकि आज उसे न समाचार-विचार के प्रथम माध्यम के तौर पर जाना जाता है, और न ही मनोरंजन के माध्यम के रूप में. एफएम जरूर मनोरंजन का माध्यम है लेकिन वह लगातार फूहड़ होता जा रहा है.
मोदी ने रेडियो में बेशक प्राण फूंके हैं, लेकिन बहुत काम होना बाक़ी है. रेडियो को अपनी विश्वसनीयता वापस अर्जित करनी होगी. हमारे यहाँ एफएम का तीसरा चरण जल्दी ही अमल में आने वाला है. 839 नए एफएम स्टेशन खुलने हैं. वह जल्द ही  एक लाख की आबादी वाले शहरों तक पहुँच जाएगा. इस दौर में पहुंचकर खबरें और सामयिक कार्यक्रम सुनाने की छूट भी सरकार उन्हें देना चाहती है. यह निश्चय ही एक बड़ी क्रान्ति होगी. साथ ही बड़ी संख्या में कम्युनिटी रेडियो भी आ रहे हैं. इसके साथ ही गाँव-गाँव पहुँचने वाली आकाशवाणी को भी अपनी पुरानी केंचुल उतार फेंकनी होगी. उसे अपने कंटेंट और प्रस्तुति, दोनों ही स्तरों पर आमूल बदलाव करने की जरूरत है. मोदी उसके महत्व को रेखांकित कर सकते हैं, तात्कालिक प्राम फूंक सकते हैं, असल बदलाव तो उसके अपने भीतर से आना है. (अमर उजाला, ७ जनवरी, २०१५ से साभार)