गुरुवार, 8 जनवरी 2015

क्या सचमुच बहुरेंगे रेडियो के दिन?

मीडिया/ गोविन्द सिंह
यों तो साल २०१४ में बहुत-सी बातें पहली बार हुईं, लेकिन मीडिया के क्षेत्र जो सबसे ज्यादा चोंकाने वाली बात हुई, वह थी, रेडियो को मिली अप्रत्याशित तवज्जो. जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेडियो को अपने मन की बात कहने के माध्यम के रूप में चुना, उससे यह उम्मीद बंधी कि आने वाले दिनों में रेडियो के दिन बहुरेंगे. मोदी अब तक तीन बार रेडियो के जरिये अपने मन की बात कह चुके हैं. जल्द ही वे चौथी बार आकाशवाणी पर सुनाई पड़ेंगे और लगभग हर महीने-दो महीने में बतियाएंगे. इंदिरा गांधी के बाद शायद मोदी ही ऐसे राजनेता हैं, जिसने रेडियो की ताकत को पहचाना है और उसे अपने संदेशवाहक के रूप में चुना है.
शहरों में हमें यह लग सकता है कि रेडियो को अब सुनता ही कौन है, जो उसे प्रधान मंत्री ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है. टीवी और अखबार आज भी गाँव-गाँव नहीं पहुँच पाए हैं. अखबार बमुश्किल देश की 30 प्रतिशत आबादी तक पहुंचा है तो टीवी की हालत भी इससे कुछ ही बेहतर है. जबकि रेडियो की पहुँच देश की 99 प्रतिशत आबादी तक है. गांवों में यह आज भी जनता की पहली पसंद है. फिर यह सबसे सस्ता है. हर महीने इसका कोइ किराया नहीं देना पड़ता. अब तो जेब में रखने लायक सेट भी आ गए हैं, लिहाजा इन्हें कहीं भी लाया-ले जाया जा सकता है. रेडियो का जाल देश भर में बिछा हुआ है ही. थोड़े-से प्रयास से ही आप दूर-दराज के गांववासियों, वनवासियों और गिरिवासियों तक पहुँच सकते हैं. मोदी ने यही देखा. वे देश के उन लोगों तक पहुंचना चाहते हैं, जिन तक कोई और शासक नहीं पहुंच पाया था. सचमुच उन्हें इसमें कामयाबी भी मिली. रेडियो ने तो उनकी मन की बात सुनाई ही, अन्य निजी एफएम और टीवी चैनलों ने भी उसे सुनाया. फिर देश की विभिन्न भाषाओं में अनूदित कर मोदी की बात को आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से भी प्रसारित किया गया. छः बड़े शहरों में ही 66% आबादी ने उसे सुना. जबकि हम यह मान चुके थे कि शहरों में रेडियो ख़त्म हो गया है. उनकी बातों का असर भी जनता पर अच्छा-खासा रहा. उन्होंने खादी को अपनाने की बात कही तो खादी की बिक्री में 150% उछाल आ गया. यहाँ यह ध्यान में रकने वाली बात यह है कि मोदी तो प्रधानमंत्री हैं, इसलिए उन्हें रेडियो पर सूना गया, टीवी वालों ने भी उसे सुनाया. शायद और लोगों की बात उतनी शिद्दत के साथ न सुनी जाए.
हैरत की बात यह है कि रेडियो के महत्व को क्यों हमारे शासकों ने नहीं समझा? क्यों उसकी इस कदर उपेक्षा की गई कि वह हमारे घरों से ही गायब हो गया? आज लगता है कि यदि रेडियो की तरफ थोड़ा भी ध्यान दिया गया होता तो आज वह बेहतर हाल में होता.
हालांकि हर नए माध्यम के आविष्कार के साथ पुराने माध्यम की चमक फीकी पड़ती है. लेकिन आम तौर पर यह तब होता है जब पुराने माध्यम की सारी की सारी खूबियाँ नया माध्यम अपना लेता है और पहले से भी बेहतर ढंग से परोसता है. पहले संचार का माध्यम कबूतर थे, मुनादी करने वाले लोग थे, धावक थे, घुड़सवार थे. फिर अखबार आये. चार पेज के अखबार में दुनिया भर की खबरें एक साथ अनेक शहरों, अनेक लोगों तक पहुँचने लगीं. पुराने माध्यम अप्रासंगिक हो गए. उन्होंने पुराने माध्यमों की जगह ली. फिर रेडियो आया तो अखबार में कमियाँ नजर आने लगीं. रेडियो उन जगहों तक भी पहुँचने लगा, जहां अखबार नहीं पहुँच सकते थे. जाहिर है रेडियो जैसे शक्तिशाली माध्यम के सामने अखबार कहाँ टिकता! देखते ही देखते रेडियो सारी दुनिया में छा गया. लेकिन अखबार फिर भी बने रहे. क्योंकि अखबार में कुछ ऐसी विशेषताएं थीं जिनकी भरपाई रेडियो नहीं कर सकता था. फिर टीवी आया. हमें लगा कि अब तो न अखबार बचेगा और न ही रेडियो. कुछ अरसा तक ऊहापोह की स्थिति बनी रही. टीवी ने अखबार और रेडियो दोनों की ही सीमा में अतिक्रमण किया लेकिन जल्द ही उसकी सीमारेखा भी तय हो गयी. लेकिन इसके लिए अखबारों और रेडियो को भी कम मशक्कत नहीं करनी पडी. उन्हें अपने रंग-रूप को बदलना पडा. रेडियो को भी एफएम का नया अवतार लेना पडा. हमारे देश में चूंकि रेडियो का बड़ा हिस्सा सरकार के नियंत्रण में था, खासकर खबरों और समसामयिक कार्यक्रमों वाला, लिहाजा वह नहीं बदला. इसलिए वह पिछड़ता चला गया. घरों से रेडियो-ट्रांजिस्टर गायब होने लगे. उसकी इज्जत एफएम ने रखी जरूर लेकिन वह एकदम दूसरे छोर पर चला गया. ऐसा उसने अपने मनोरंजन का स्तर गिरा कर किया. जबकि पश्चिमी देशों में ऐसा नहीं हुआ. वहाँ रेडियो ने टीवी के सामने समर्पण नहीं किया. जरूरी परिवर्तन करके उसने अपनी जगह बरकरार रखी. समाचार और सामयिक घटनाक्रमों के मामले में भी वह श्रोताओं की पसंद बना रहा. अमेरिका में ऐसे भी चैनल हैं, जो बिना विज्ञापन के, सिर्फ जनता के चंदे पर चल रहे हैं. इसलिए आज रेडियो के सुनहरे दिन बरबस याद आते हैं. जब वह समाचारों, सामयिक कार्यक्रमों और गीत-संगीत और संस्कृति का एकमात्र विश्वसनीय माध्यम था. एक पूरी की पूरी पीढी रेडियो के साथ बड़ी हुई है. जबकि आज उसे न समाचार-विचार के प्रथम माध्यम के तौर पर जाना जाता है, और न ही मनोरंजन के माध्यम के रूप में. एफएम जरूर मनोरंजन का माध्यम है लेकिन वह लगातार फूहड़ होता जा रहा है.
मोदी ने रेडियो में बेशक प्राण फूंके हैं, लेकिन बहुत काम होना बाक़ी है. रेडियो को अपनी विश्वसनीयता वापस अर्जित करनी होगी. हमारे यहाँ एफएम का तीसरा चरण जल्दी ही अमल में आने वाला है. 839 नए एफएम स्टेशन खुलने हैं. वह जल्द ही  एक लाख की आबादी वाले शहरों तक पहुँच जाएगा. इस दौर में पहुंचकर खबरें और सामयिक कार्यक्रम सुनाने की छूट भी सरकार उन्हें देना चाहती है. यह निश्चय ही एक बड़ी क्रान्ति होगी. साथ ही बड़ी संख्या में कम्युनिटी रेडियो भी आ रहे हैं. इसके साथ ही गाँव-गाँव पहुँचने वाली आकाशवाणी को भी अपनी पुरानी केंचुल उतार फेंकनी होगी. उसे अपने कंटेंट और प्रस्तुति, दोनों ही स्तरों पर आमूल बदलाव करने की जरूरत है. मोदी उसके महत्व को रेखांकित कर सकते हैं, तात्कालिक प्राम फूंक सकते हैं, असल बदलाव तो उसके अपने भीतर से आना है. (अमर उजाला, ७ जनवरी, २०१५ से साभार)    

2 टिप्‍पणियां:

  1. Raghubar Datt Rikhari :
    मोदी के रेडियो प्रचार का नतीजा -
    सुखबीर का BJP पर पलटवार, बीजेपी शासित राज्यों में होती है नशे की खेती


    Ved Uniyal :
    गोविंदजी का अच्छा लेख है। मुझे रेडियो से बहुत लगाव रहा है। विविध भारती के कार्यक्रम बहुत मन से सुने। छायागीत, भूले बिसरे गीत, मेट्रो के मंनोरंजक मुक्कदमे जैसे कार्यक्रमों की याद मन में बसी हुई है। इसके अलावा रेडियो में हाकी और क्रिकेट की कमेंट्री ने मुझे रेडियो से जोड़ कर ऱखा। इससे ज्यादा और क्या कि रात के ठीक बारह बजे है। मैं अपने फिलिप्स रेडियों में एफ एम चैनल पर पर अन्नू कपूर का प्रोग्राम सुन रहा हूं। गीत आ रहा है धीरे धीरे मचल ए दिल कोई आता है। मुझे मोबाइल पर रेडियों सुनने में उतना अच्छा नहीं लगता , जितना सीधे रेडियो पर।


    Vedvrat Kamboj:
    इस में दो राय नहीं की रेडिओ के दिन फिर से बहुर रहे हैं. हमारे गांवों में तो यह माध्यम आज भी लोकप्रिय है.


    Rajendra Kweera:
    Sir haldwani me bhi khulega Radio station..


    Pooran Bisht:
    Radio ne lambe samay tak jansanchar ka uttar dayitwa nibhaya hai. wakt ka takaja hai ab use swam me badlav lana hoga.

    जवाब देंहटाएं
  2. Govind Singh has written really a meaningful article. Radio has been neglected by Indian govt. So that Govt. policy on Radio harmed vary much to our rural village society to large extant, where the Radio is being only source of information. Now Narendra Modi has recognized the power of Radio.

    जवाब देंहटाएं