शुक्रवार, 1 अगस्त 2014

कबड्डी-कबड्डी-कबड्डी!

खेल/ गोविन्द सिंह
भला हो आनंद महेंद्रा और चारु शर्मा का, जिन्होंने कबड्डी जैसे खालिस हिन्दुस्तानी खेल को राष्ट्रीय परिदृश्य में स्थापित करने का बीड़ा उठाया है. आज आईपीएल की तर्ज पर देश में प्रो-कबड्डी लीग के लिए आठ टीमें कबड्डी-कबड्डी करती हुई टीवी के परदे पर दौड़ रही हैं और आमिर खान, ऐश्वर्या राय जैसी सेलीब्रिटी तालियाँ बजा रही हैं. हो सकता है, लोग कबड्डी जैसे गंवई खेल के इस तरह आधुनिक हो जाने का बुरा मनाएं, हो सकता है, मुफ्त का यह खेल भी भविष्य में पैसे वालों की जागीर बन जाए लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस देश की मिट्टी में रचे-बसे हिन्दुस्तानी खेलों को उनका जायज हक़ मिलना चाहिए. विदेशी खेलों के बरक्स उन्हें हिकारत के भाव से देखने की नीति अब बंद होनी चाहिए.
दरअसल खेल किसी भी समाज के शारीरिक सौष्ठव, ताकत, शौर्य और साहस की अभिव्यक्ति होते हैं. वे शारीरिक संस्कृति के द्योतक हैं. इसलिए वे समाज की गतिविधियों से कटे नहीं हो सकते. यह भी नहीं हो सकता कि एक खेल पूरे साल चलता ही रहे. जैसे तीज-त्यौहार, गीत-संगीत, साहित्य-कलाएं समाज की अभिव्यक्तियाँ हैं, उसी तरह से खेल भी यह बताते हैं कि फलां समाज कैसा है. वे व्यक्ति और समाज के भीतर दया और आशावाद का संचार करते हैं. पश्चिमी दुनिया फुटबाल के पीछे यों ही दीवानी नहीं होती. वह उनके खून में रचा-बसा रहता है. इसी तरह से हमारे यहाँ भी हर समाज के अपने खेल हैं. उत्तर-पूर्व के खेल, मध्य भारत के खेल, पहाड़ी अंचलों के खेल, रेगिस्तान के खेल, समुद्र तटीय इलाकों के खेल और दिमागी खेल. न जाने कितने ही किस्म के खेल इस देश में हजारों वर्षों से प्रचलित रहे हैं, जिन्हें हमने एक ही झटके में भुला दिया.
राजस्थान की रेतीली भूमि पर ऊँटगाड़ी की दौड़ जो आनंद दे सकती है, क्या वही आनंद बेसबॉल की हार-जीत दे सकती है भला? या केरल के तटवर्ती इलाकों में ओणम के अवसर पर वल्लमकल्ली नामक नौका दौड़ को देखने में जो मजा है, क्या वह लॉन टेनिस में प्राप्त हो सकता है? कबड्डी की ही तरह उत्तर भारत बैल गाड़ी, भैंसा गाड़ी की दौड़, खो-खो, कुस्ती, पंजाब में गतका, केरल में कलारीपयत्तु, मध्य भारत में मल्लखम्ब, रस्सा-कशी, मणिपुर का ठंग-टा जैसे अनेक खेल हैं, जिनके बारे में हम नहीं जानते लेकिन यदि एक बार भी देख लिया तो हम उनके मुरीद हो जायेंगे. इसी तरह से दिमागी सेहत के प्रतीक पचीसी और चौपड़ का कोई सानी नहीं.              

आजादी के बाद हमने अपने देसी खेलों के प्रति कोई ध्यान नहीं दिया. औपनिवेशिक प्रभाव के तौर पर हमें क्रिकेट के अलावा और कुछ सूझा ही नहीं. अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए हमने टेनिस, बैडमिन्टन या शतरंज जैसे खेलों में भी तरक्की की. लेकिन कालांतर में ये सब भी धन के दास हो गए. आज क्रिकेट या टेनिस या शतरंज में आगे बढ़ने के लिए बहुत पैसा खर्च करना पड़ता है. ये खेल अब आम आदमी की पहुँच से बहुत ऊपर हो चुके हैं. इसलिए अपनी खेल संस्कृति को बचाए रखने के लिए हमें अपने खेलों को तवज्जो देनी होगी. इस सन्दर्भ में पंजाब के किला रायपुर के ग्रामीण ओलम्पिक की जितनी तारीफ़ की जाए कम है. वे कम से कम अपने खेलों को बचाए तो हुए हैं. प्रो-कबड्डी ने राष्ट्रीय फलक पर एक देशज खेल को स्थापित करने की कोशिश की है, उसे भी सराहा जाना चाहिए.( हिन्दुस्तान, एक अगस्त, २०१४ से साभार)  

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