पड़ोस/ गोविन्द सिंह
मई में जब नरेन्द्र मोदी ने भारत के प्रधान मंत्री पद की
शपथ ली थी तब सचमुच यह आशा बंधने लगी थी कि शायद अब भारत और पाकिस्तान के रिश्ते
सामान्य हो जायेंगे. भारत और पाकिस्तान में ही नहीं, सारी दुनिया में मोदी की पहल
की सराहना हुई थी. हालांकि पाकिस्तानी कट्टरपंथी हलकों में नवाज शरीफ की भारत
यात्रा का विरोध हुआ था और बाद में यह भी सवाल उठाया गया कि पाकिस्तान को इस
यात्रा से क्या मिला? लेकिन कुल मिला कर पाकिस्तान और भारत के अवाम ने इसका खुले
दिल से स्वागत किया. अपने पड़ोसियों को तवज्जो देने की मोदी की नीति की सराहना होने
लगी. पाकिस्तानी जनता ने भी अपनी तमाम आशंकाओं को भुला कर मोदी की तुलना अटल
बिहारी वाजपेयी से की, जिन्होंने दिल्ली-लाहौर के बीच बस चलाई थी. दोनों देशों की
जनता के मन में आपसी रिश्तों के दिन बहुरने की आशाएं-आकांक्षाएं छलांगें मारने
लगीं. लेकिन 25 अगस्त की प्रस्तावित सचिव-स्तरीय वार्ता से ठीक पहले पाकिस्तानी
उच्चायुक्त के कश्मीरी अलगाववादियों से मिलने और बदले में भारत द्वारा वार्ता को
तोड़ देने से तमाम आशाएं धरी की धरी रह गयी हैं.
दोनों तरफ की जनता
की निराशा की वजह भी है. सबसे बड़ी वजह तो यही है कि दोनों देशों का विभाजन निहायत
कृत्रिम है. हजारों वर्षों से एक साथ रही जनता को एक दिन अचानक मजहब के आधार पर आप
दो देशों में बाँट देंगे तो ऐसा ही होगा. बंटवारे के वक़्त हुए खून खराबे और
चार-चार बार युद्धों में हज़ारों लोगों के मारे जाने के बावजूद दोनों देशों की जनता
के आपस में एक-दूसरे के प्रति नफरत का भाव उतना नहीं है, जितना कि होना चाहिए. मसलन
चीन और भारत के बीच १९६२ में हुई लड़ाई के बाद आपसी रिश्तों की बर्फ १९७८ में जाकर
पिघलनी शुरू हुई. लेकिन १९९९ में पाकिस्तान के साथ हुए कारगिल युद्ध के तत्काल बाद
वार्ता शुरू हो गयी थी और २००१ में मुशर्रफ आगरा भी आ गए थे. यानी दोनों देशों के
रिश्ते वैसे हैं ही नहीं जैसे दो दुश्मन देशों के बीच होते हैं. सरकारों के स्तर
पर भलेही पाकिस्तान हमारा दुश्मन हो लेकिन जनता के स्तर पर वह हमारा सहोदर है और
रहेगा.
इसलिए जब भी भारत और
पाकिस्तान के अवाम के आपसी रिश्तो की बात आती है, सआदत हसन मंटो की कहानी टोबा टेक
सिंह की याद आती है, जिसके नायक पागल बिशन सिंह को अचानक बताया जाता है कि उसका
गाँव अब पाकिस्तान के हिस्से में चला गया है, इसलिए उसे हिन्दुस्तान जाना होगा क्योंकि
वह मुसलमान नहीं है. तब वह नासमझ देश के बंटवारे पर एक अजीब-सी गाली निकालता है,
जिसका कोई अर्थ नहीं है, और अंत में वह दोनों
देशों की सरहद के बीचो-बीच प्राण त्याग देता है. बिशन सिंह की मौत वास्तव में भारत
के बंटवारे पर एक करारा तमाचा है. इसलिए जब बर्लिन की दीवार गिरी और दोनों जर्मनियों
को एक हो जाना पडा तो भारत-पाकिस्तान में भी यह आशा जगी कि एक दिन हम भी एक होंगे.
यहाँ तक कि लाल कृष्ण आडवाणी तक को यह कहते सुना गया कि एक दिन भारत और पाक भी एक
हो सकते हैं.
जिन्ना ने जिस
द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत पर सवार होकर पाकिस्तान की निर्माण करवाया था, वह अब
ध्वस्त हो चुका है. खुद पाकिस्तान के भीतर अनेक तरह की राष्ट्रीयताएँ सर उठाती
रहती हैं. उसे एक रखने के लिए कुछ न कुछ मुद्दा तो चाहिए. इसलिए वहाँ के
कट्टरपंथियों को, वहाँ की फ़ौज को इसी में अपना भला दिखता है कि भारत के साथ हमेशा
एक तनातनी बनी रहे. कश्मीर ही वह मसला है, जिसके जरिये वे अमन की तमाम कोशिशों पर
पानी फेर सकते हैं. वही वे बार-बार करते भी हैं. वरना जब दोनों देश कश्मीर को
द्विपक्षीय मसला मां चुके हैं तो हुर्रियत नेताओं को बीच में लाने का क्या औचित्य
है?
लेकिन दोनों देशों
की सरकारें, फौजें और कट्टरपंथी जमातें चाहे जितनी कोशिश कर लें, दोनों देशों की
अवाम की आशाओं पर पानी नहीं फेर सकतीं. तमाम युद्धों के बावजूद हर साल वाघा बॉर्डर
पर मोमबत्ती जलाने वाले, एक-दूसरे देश में जाकर नाटक करने वाले, गीत-संगीत की महफ़िल
सजाने वाले, मुशायरे जमाने वाले, मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में आकर हंसने-हंसाने
वाले, फिल्मों में काम करने वाले अदाकारों के होंसले कभी कम न होंगे. साहित्य-संस्कृति
ही है जो देश-काल से ऊपर उठकर जनता की आवाज को बुलंद करती है. इसलिए सरकारों के
स्तर पर भलेही बातचीत ठहर गयी हो, लेकिन जनता के दिलों में गर्मजोशी हमेशा बनी
रहेगी.
(दैनिक जागरण, २४ अगस्त, २०१४ से साभार)
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