विवाद/ गोविन्द सिंह
सचिन तेंडुलकर को
भारत रत्न से नवाजकर सरकार ने जैसे बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है. खेल की
दुनिया बंट गयी है. राजनेता मुखर होकर कह रहे हैं, क्रिकेट से अरबों रुपये कमाने
वाले खिलाड़ी को क्यों भारत रत्न दिया गया? बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि जो शख्श उपहार
में मिली फेरारी कार की कस्टम ड्यूटी तक नहीं देना चाहता और मिलते ही उसे डेढ़ करोड़ में बेच देता है, उसने
देश के लिए कौन-सा त्याग किया है, जो भारत रत्न से नवाजा जा रहा है? राष्ट्रीय
जनतांत्रिक गठबंधन के नेता एक सुर से कह रहे हैं, अटल बिहारी वाजपयी का भारत रत्न
पर पहला हक़ बनता था. कोई कह रहा है कि पहले चौधरी चरण सिंह को दो, कोई कह रहा है
कि डॉ लोहिया को दो. खेल प्रेमी कह रहे हैं कि गुलामी के दौर में हाकी जैसे खेल
में लगातार स्वर्ण पदक दिलाकर उसे स्थापित करने वाले ध्यान चंद को सरकार ने कैसे
भुला दिया? वे कह रहे हैं कि ठीक है, आप सचिन को भी दीजिए, लेकिन खेल श्रेणी से यदि
किसी को भारत रत्न दिया जाता है तो उस पर पहला हक़ ध्यान चंद का बनता है. क्रिकेट
में ही एक खेमा कह रहा है कि जो व्यक्ति अपनी कप्तानी में खेले गए 13 टेस्ट मैचों में से सिर्फ चार ही जिता पाया हो,
और वन डे कप्तान के रूप में भी 23 के मुकाबले 43 मैच हारा हो, उसे
कैसे महानतम खिलाड़ी कहा जा सकता है?
यों, भारत रत्न का
विवादों में घिर जाना कोई नई बात नहीं है. सचिन की जगह किसी और को यह पुरस्कार
दिया जाता, तो भी वह निर्विवाद नहीं होता. इसमें कोई दो राय नहीं कि सचिन की विफल कप्तानी के बावजूद
वे भारतीय क्रिकेट के सबसे चमकते सितारे हैं. उनके अथक स्टेमिना, धैर्य, लम्बे क्रिकेट करियर और धीर प्रशांत
व्यक्तित्व की जितनी तारीफ़ की जाए, कम है. इसलिए सचिन को भारत रत्न की घोषणा पर
कमोबेश खुशी का माहौल दिखा. लेकिन गंभीरता से विचार करने पर लगता है कि सरकार ने
जल्दबाजी की है. यदि पिछले दो साल की घटनाओं पर नजर डालें तो सरकार ने ऐसा करके राजनीतिक
स्वार्थ साधने की कोशिश की है. जाहिर है, विपक्षी दलों को अब इसे राजनीतिक मुद्दा बनाने
का मौक़ा मिल गया है. लेकिन यह भी सही है कि भारत रत्न पर हमेशा से राजनीति का साया
रहा है.
भारत रत्न देश का
सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है. पहले यह ‘कला, साहित्य और विज्ञान के उन्नयन हेतु
अद्वितीय कार्य तथा श्रेष्ठतम स्तर की सार्वजनिक सेवा’ के लिए दिया जाता था.
दिसंबर 2011 में इसमें संशोधन करके ‘मानवीय प्रयासों के किसी
भी क्षेत्र में अद्वितीय सेवा/ प्रदर्शन’ के लिए कर दिया गया. निश्चय ही यह उपबंध
खेल के हलके से उठी मांग को ध्यान में रखते हुए ही जोड़ा गया था. लेकिन अब लग रहा
है कि वास्तव में यह कवायद सचिन के लिए ही की गयी थी. पहले उन्हें राज्यसभा में
भेजा गया और फिर भारत रत्न की घोषणा की गयी. साथ ही यह मुद्दा भी कम महत्वपूर्ण
नहीं है कि ‘सेवा’ के बरक्स ‘प्रदर्शन’ शब्द भी बहुत छोटा पड़ता है. कहा जा रहा है
कि यह शब्द भी सचिन को ध्यान में रख कर ही रखा गया था. क्योंकि खेल संसार में ही
देखें तो ध्यान चंद के त्याग और शौर्य की तुलना में सचिन कहीं नहीं ठहरते. आज
भलेही सचिन हमें बहुत ऊंचे दिखाई दे रहे हों लेकिन जब बात पूरे खेल जगत से चुनने
की हो रही हो तो श्रेष्ठतम का ही चुनाव होना चाहिए.
दुर्भाग्य इस बात का
है कि सरकार चाहे किसी की हो, भारत रत्न या अन्य पद्म-पुरस्कार हमेशा से राजनीति
के शिकार रहे हैं. अब तक नवाजे गए 43 रत्नों में से 23 अकेले राजनीति से हैं. अन्य क्षेत्रों में भी
समाज सेवा, शिक्षा, विज्ञान और गीत-संगीत के लोगों को ही भारत रत्न दिया गया.
साहित्य में अब तक किसी को यह अलंकरण नहीं दिया गया है. जिसकी सरकार होती है, वह अपने लोगों को पुरस्कार
देता है. इसमें कोई दो राय नहीं कि अब तक जितनों को भी ये अलंकरण प्रदान किये गए,
उनसे बेहतर नाम उपलब्ध हो सकते थे. लेकिन सत्ताएं ऐसे ही काम करती हैं.
जहां तक सचिन की
पात्रता का सवाल है, वह आज की पीढी के हीरो हैं. कुछ उनके भीतर पात्रता है और कुछ
मीडिया ने निर्मित की है, बाज़ार ने बनाई है. घोर पूंजीवाद के इस युग में बाज़ार ही
असली सूत्रधार है. पहले बाज़ार समाज के आदर्श खड़े करता है. फिर समाज उसका अनुसरण
करता है. यह जरूर है कि वह खोखले महल नहीं खड़े करता. लेकिन जिसे खडा करता है, उससे
कीमत भी वसूलता है. इसलिए ऐसे व्यक्ति को भारत रत्न देना कमजोर सरकार की मजबूरी
है. लोकप्रियता हमारे जैसे पूंजीवादी लोकतंत्र की सबसे बड़ी कसौटी है. बेशक उसमें
सचिन खरे उतरते हैं. पर लोकप्रियता से आप सांसद भलेही बन जाएँ, भारत रत्न नहीं बन
सकते. वरना अमिताभ बच्चन या किसी भी और व्यक्ति में क्या बुराई है? इस तरह तो यह
भारत रत्न नहीं सरकारी रत्न बन जाएगा. (यथावत, दिसंबर, २०१३ से साभार)