शिक्षा/ गोविन्द सिंह
जब दुनिया के २५०
श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ का नाम आया तो
देश भर के शिक्षाविदों की आँखें फटी रह गयीं. जिस विश्वविद्यालय का नाम देश के
अंदरूनी संस्थानों की सूची में ही कहीं न हो, कैसे उसने इतनी ऊंची छलांग लगाई?
लेकिन यह सच है. और चूंकि लन्दन टाइम्स का सर्वे निर्विवाद रहा
है, इसलिए उस पर भरोसा न करने का कोई कारण भी नहीं है. यही नहीं, एक बार फिर इसी
विश्वविद्यालय ने ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) और दुनिया
की उभरती अर्थव्यवस्था वाले १७ देशों के विश्वविद्यालयों में १३वां स्थान पाया है.
यह सर्वे भी टाइम्स उच्च शिक्षा रैंकिंग ने ही करवाया है. आलोचक कह रहे हैं कि चूंकि
देश के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह इसी विश्वविद्यालय से निकले हैं, इसलिए उन्होंने
इसकी सिफारिश की होगी. कोई कह रहा है कि इन सर्वे एजेंसियों पर बिलकुल भरोसा नहीं
करना चाहिए क्योंकि ये पैसा लेकर सर्वे करवाती हैं. अर्थात लोगों को पंजाब
विश्वविद्यालय की रैंकिंग हजम नहीं हो रही है. वे टाइम्स की रैंकिंग को ही कोस रहे
हैं.
लेकिन इन पंक्तियों
के लेखक को पंजाब विश्वविद्यालय की इस छलांग पर कतई आश्चर्य नहीं हुआ. बल्कि हैरत
होती है कि उसे यह सम्मान इतनी देर से क्यों मिला? हर साल होने वाले देशी
सर्वेक्षणों की साख पर भी सवालिया निशान लगता है कि कैसे वे अपने देश के एक
श्रेष्ठ विश्वविद्यालय को नजरअंदाज करते रहे हैं? लगता है कि जो आरोप आज टाइम्स के
सर्वे पर लगाए जा रहे हैं, वास्तव में वे इन स्वदेशी सर्वे एजेंसियों पर लगते हैं,
जो ईमानदारी के साथ सर्वे नहीं करते हैं. भारत में सर्वे एजेंसियों की विश्वसनीयता
आज भी नहीं बन पायी है तो इसीलिए कि वे अपने काम में पारदर्शिता और निष्पक्षता नहीं बरतते.
संभव है कि पंजाब
विश्वविद्यालय ने आज तक अपने आपको मार्केट करने की कोई कोशिश नहीं की हो, संभव है
कि उसने इस बार टाइम्स के सर्वे में शामिल होने के लिए अपने आंकड़ों को अच्छी तरह
से तराश लिया हो, संभव है कि आंकड़े कुछ बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किए हों. ये सारी
बातें संभव हैं, लेकिन फिर भी क्या किसी गली छाप संस्थान को आप देश का सर्वश्रेष्ठ
संस्थान घोषित कर सकते हैं? वह भी वैश्विक साख वाला टाइम्स संस्थान कैसे ऐसी गलती
कर सकता है?
अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर आकलन के कुछ मानदंड हैं, जिनके बिना आप उस दौड़ में कहीं नहीं ठहरते. अधिकाँश
भारतीय विश्वविद्यालयों के लिए इन्हें छू पाना भी संभव नहीं हो पाता. इनमें प्रमुख
हैं: छात्र- शिक्षक अनुपात, कितने नोबेल विजेता विद्वान विश्वविद्यालय ने पैदा किये,
अनुसंधान का स्तर और परिमाण, अंतर्राष्ट्रीय फैकल्टी, अंतर्राष्ट्रीय छात्र, कितने
पुरस्कार अध्यापकों और छात्रों को मिले हैं, अनुसंधान और नव-प्रवर्तन में निवेश,
पढ़ाई का स्तर, नियोक्ताओं की नजर में प्रतिष्ठा, उद्योग जगत से होने वाली आय
अर्थात विश्वविद्यालय किस हद तक उद्योग जगत से जुड़ा हुआ है, कितने और कैसे
अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान होते हैं और कुल मिलाकर विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा
कैसी है? ये कुछ मानदंड हैं, जिनमें भारतीय विश्वविद्यालय बहुत पीछे हैं. तीसरी
दुनिया में ही हम चीन, ताइवान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया से बहुत पीछे हैं. आज की
दुनिया में यह सब अर्जित करने के लिए धन खर्च करना पड़ता है, जिसमें हम बहुत पिछड़
जाते हैं. पहली बात तो यह है कि हमारे यहाँ अभी तक ज्यादातर विश्वविद्यालय सरकारी
क्षेत्र में रहे हैं. वहाँ धन का सदा ही अकाल रहता है. हाल के वर्षों में निजी
क्षेत्र के लिए दरवाजे खोले तो हैं, लेकिन हमारे देश में व्यापारी लोग शिक्षा के
क्षेत्र में भी विशुद्ध मुनाफे के मकसद से उतर रहे हैं. ऐसे में शिक्षा के स्तर की
किसे परवाह! सबसे बड़ी बात यह है कि किसी विश्वविद्यालय की साख दो-चार रोज में नहीं
बनती. न ही दूसरे ही वर्ष से धन-वर्षा होने लगती है. आप खुद ही तुलना कीजिए:
दुनिया के पहले-दूसरे स्थान पर रहने वाले हार्वर्ड विश्वविद्यालय का सालाना बजट
जहां २२,५०० करोड़ रुपये है, वहीं हमारे श्रेष्ठ संस्थानों का बजट भी बमुश्किल
५००-६०० करोड़ का होता है. ऐसे भी विश्वविद्यालय हैं, जिनका बजट फक्त दस करोड़ भी
नहीं होता है. ऐसे में आप अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मुकाबले की सोच भी कैसे सकते
हैं?
स्टूडेंट्स सेंटर : कॉफ़ी हाउस |
जहां तक पंजाब
विश्वविद्यालय का सवाल है, उसके पीछे १३० साल की समृद्ध विरासत है. १८८२ में लाहौर
में स्थापित यह विश्वविद्यालय आजादी से पहले भी देश के पहली कतार के संस्थानों में
था. १९४७ में देश के बंटवारे के वक़्त यह भी बंट गया. पहले शिमला और बाद में चंडीगढ़
में इसे ठौर मिली. अच्छी बात यह हुई कि तब के हुक्मरानों ने इसके महत्व को समझा और
इसके साथ राजनीति नहीं खेली. चंडीगढ़ को डिजाइन करने वाले वास्तुविद ली कार्बूजिए
ने विश्वविद्यालय का डिजाइन तैयार किया था. ५५० एकड़ में फैले इस विश्वविद्यालय में
तब के श्रेष्ठ अध्यापकों को आमंत्रित किया गया. अंतर्राष्ट्रीय स्तर के वैज्ञानिक,
समाज विज्ञानी, लेखक और साहित्यकार यहाँ अध्यापक बनकर आये. पत्रकारिता-शिक्षा के
आदि गुरु पृथ्वीपाल सिंह, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और मुल्क राज आनंद इनमें
कुछ हैं. आज यहाँ ७०० प्राध्यापक हैं, ७५ विभागों में पढाई और प्रशिक्षण की भरपूर
सुविधाएं हैं. सुन्दर कैम्पस है, खूबसूरत अध्यापन ब्लॉक हैं, सुविधा संपन्न
होस्टल, मनोहारी लैंडस्केप और तालाब, म्यूजियम, बौटेनिकल गार्डन हैं. १८८
एफ़िलिएटेड कालेजों और चार क्षेत्रीय कैम्पसों की बदौलत आज यह विश्वविद्यालय विश्व
स्तर पर उभरा है तो यूं ही नहीं उभरा है. सत्तर-अस्सी के दशक में यहाँ पढाई माहौल
वाकई अद्भुत था. तब यहाँ दाखिला हो जाना या अध्यापकी पा जाना किसी ख्वाब से कम
नहीं होता था.
अच्छी बात यह हुई कि चंडीगढ़
में स्थित होने के कारण इसमें राजनीति का साया नहीं पडा. पहले इसका साथ प्रतिशत
खर्चा केंद्र सरकार उठाती थी तो चालीस प्रतिशत पंजाब सरकार. अब इसका पूरा खर्च
केंद्र सरकार उठाती है. इसलिए यहाँ प्रादेशिक राजनीति का दखल नहीं के बराबर रहा
है. साथ ही क्लासरूम की पवित्रता भी बचाए रखी. यहाँ दाखिले को नियंत्रित और
पारदर्शी रखा गया. इसीलिए इसकी गुणवत्ता भी बची रह पायी. बीच में एक बार बीजे
गुप्ता जी के फर्जी शोध की वजह से इसकी छवि को बड़ी ठेस पहुंची. मैं यह नहीं कहता
कि यह विश्वविद्यालय ही एकमात्र श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है, बलिक अभी तक इसकी
अच्छाई का श्रेय इसे नहीं मिला. बेहतरीन पढाई का माहौल होते हुए भी कभी इसकी गणना
उम्दा संस्थानों में नहीं होती थी. अस्सी के दशक में आतंकवाद की काली छाया इसके
ऊपर भी पडी. तब हमारे अध्यापकों को सुरक्षा गार्डों के साए में रहना पड़ता था.
कैम्पस एकदम उजाड़-सा लगता था. इसकी बीरानी बहुत कचोटती थी. आज यह फिर से तरक्की की
चौकड़ी भरने लगा है, यह देख कर मन खुशी से भर जाता है. (अमर उजाला, ११ दिसंबर, २०१३
से साभार)
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