मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

वनपाखियों का वसंत गान



ललित निबंध/ गोविंद सिंह                                         
घुघूती-बासूती. यानी घुघूती का वसंत गान. चैत का महीना शुरू होते ही घुघूती का गायन शुरू हो जाता है. कभी घुघूघू तो कभी घुर्रर्र- घुर्रर्र! वह जैसे समस्त पहाड़ों में छा जाती है, भाभर से पर्वत उपत्यकाओं तक. पेड़ की डाल पर, पुआल के ढेर पर, बिजली के तार पर और छत की मुंडेर पर वह गा रही है. पर्वतीय जनजीवन का इतना आत्मीय साक्षी शायद ही कोई और नभचर हो. कभी अपने पिया को संबोधित कर, तो कभी अपने नन्हे मुन्ने बच्चों को पुचकारती हुई. क्या गा रही है, कोई नहीं जानता. फिर भी लोगों ने उसके हर राग का अपना अर्थ निकाल लिया है. कभी वह घुघूती बासूती बोलती है, तो कभी सिर्फ घुर्र- घुर्र बोलती है तो कभी दर्द भरे स्वर में अपने बच्चों का दिल बहलाती है. हर कोई कयास ही लगाता है. गोपाल बाबू गोस्वामी के स्वर में उतर कर जब कोई कुमाउनी नायिका कहती है:

घुघूती नी बासा, घुघूती नी बासा,
आम की डायी में घुघूती नी बासा!
तेरी घुरू घुरू सुनी, मैं लागो उदासा,
स्वामी मेरो परदेश, बर्फीलो लदाखा!!
ऋतू आगे घनी-घनी, गर्मी चैते की,
याद मैं के भौते आगे, अपुन पती की!! घुघूती नी बासा...!
तो जैसे पर्वतीय जीवन का सम्पूर्ण दर्द उभर कर सामने आ जाता है. पहाड़ी नायिका बोलती है, ए घुघूती तू अपना गान रोक दे. तेरे गाने से मेरा जिया घबरा उठता है,  रह-रह कर मुझे अपने पिया की याद आती है, जो लद्दाख की बर्फीली चोटियों में ड्यूटी दे रहा होगा. तेरी तरह पंख होते तो मैं भी उड़ कर स्वामी के पास जाती और जी भर कर उसको निहारती.
इस तरह घुघूती का दर्द और विरह-विदग्ध नायिका का दर्द जैसे एक-मेक हो जाते हैं. उसके स्वर में विरह की वेदना है. प्रिय से बिछोह की हूक कैसी होती है, यह कोई घुघूती से पूछे. कभी उसके स्वर में मार्मिकता सुनाई पड़ती है तो कभी लगता है कि जैसे वह ढाढस बंधा रही है. आम तौर पर वह पति के विछोह में कलपती नायिका का प्रतीक है, लेकिन मायके की याद में बेहाल युवती के अनेक गीत भी उस पर चस्पां किये गए हैं. अल्मोड़े के किसी गाँव की युवती कहती है, ‘नी बासा घुघूती चैत की, मीके नराई लागे मैत की.’ यानी घुघूती तेरे गाने से मुझे अपने मायके की याद सताने लगती है. इसी तरह, ‘नी बास घुघूती, लागछी हिकुरी’. यानी घुघूती तेरे गाने से मुझे बार-बार हिचकी आती है. यह हिचकी सिर्फ हिचकी नहीं है, जब किसी अपने की याद में रुलाई आती है, तब बीच-बीच में जो हिचकी आती है, हिकुरी वही है.
उधर गढ़वाली के जाने-माने कवि नरेन्द्र सिंह नेगी कहते हैं,
घुघूती घुरूण लागी, म्यारा मैत की
बौरी- बौरी आगे ऋतु, ऋतु चैते की
अर्थात, घुघूती के गाते ही युवती के मानसपटल पर अपने मायके का एक बिम्ब खिंच जाता है, ‘चैत का महीना आ गया है, और मेरे मायके की घुघूती अपने दर्द भरे लहजे में गाने लगी है. मेरे मायके से दिखने वाली पर्वत श्रृंखलाओं की बर्फ पिघलने लगी होगी और वनों में फिर से नए पालो यानी पल्लव आ गए होंगे. पहाड़ की नायिका को अक्सर अपने मायके की याद आती है. तमाम लोकगीत इस बात के साक्षी हैं कि उसे मायके से बिछुड़ने का दर्द सालता है. चूंकि पहाड़ का जीवन, खास कर पहाड़ी नारी का जीवन अत्यंत कठोर होता है, उसे बेहद डरावनी पहाडियों में चढ़ कर घास और लकड़ी काटनी पड़ती है, खूंखार जानवरों वाले वनों से वनोपज इकट्ठी करनी पड़ती है, ऐसे में उसे एकमात्र सहारा अपने मायके की याद ही जान पड़ती है. वह ससुराल अकेले नहीं आती, उसके साथ पशु-पक्षी और उनकी यादें भी चली आती हैं. घुघूती का मर्मभेदी गान उसे जाने-अनजाने अपने मायके की यादों से जोड़ देता है.
घुघूती की ही तरह वसंत ऋतु में जिस वनपाखी की आवाज पहाड़ों में सबसे ज्यादा सुनाई देती है, वह है, काफल पाको. घुघूती तो अन्य ऋतुओं में भी दिख जाती है, लेकिन काफल पाको का संगीत सिर्फ चैत, बैशाख और हद से हद जेठ तक सुनाई देता है. जहां घुघूती बहुत धीरे बोलती है, जैसे मांएं अपने सोते हुए बच्चों को लोरी सुनाती हैं, वहीं काफल पाको की आवाज पूरे वन-प्रांतर में गूंजती रहती है. सुबह, दोपहर और रात, वह हर वक्त गाती रहती है. उसके भीतर प्रेम का ज्वार पूरे आवेग के साथ फूट पड़ता है. उसके शब्दों को भी अलग-अलग इलाकों के लोगों ने अपनी-अपनी बोलियों में ढाल लिया है. पर ज्यादातर इलाकों में जो कथा प्रचलित है, वह यही है:
काफल पाको, मील नी चाख्यो!
यानी काफल तो पक गए हैं, लेकिन मैंने नहीं चखे. लगे हाथ यहाँ काफल के बारे में भी बता दें. यह एक जंगली फल है, जो मई-जून में पकता है, और बेहद स्वाद होता है. इसकी कथा कुछ यों चलती है: एक गरीब माँ, गर्मियों में जंगल से काफल टीप कर लाती और उन्हें कस्बों में ले जाकर बेचती. इस तरह वह अपने परिवार का भरण-पोषण करती. एक बार वह एक टोकरी काफल टीप कर ले आयी और घर पर रख कर फिर से काफल टीपने जंगल चली गयी. अपनी बेटी से कह गयी कि खबरदार काफल पर हाथ न लगाना. बेटी ने भी काफल की रखवाली की लेकिन जब माँ लौट कर आयी तो उसे काफल कुछ कम दिखे. उसने बेटी को बहुत मारा, लेकिन अंत तक बेटी यही बोलती रही कि काफल उसने नहीं चखे. भूख-प्यास और गर्मी, ऊपर से माँ की मार. बेटी दम तोड़ देती है. और शाम को जब बरसात के बाद काफल की टोकरी फिर से भरी-भरी दिखती है, तब माँ की समझ में आता है कि वास्तव में काफल बेटी ने नहीं खाए, वे तो धूप में सूख गए थे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. काफल पाको, मील नी चाख्यो, कहने वाला पक्षी वास्तव में कोई और नहीं, वह लड़की ही है, जो अब तक सफाई ही देती आ रही है. काफल पाको के संगीत में इतनी लयात्मकता है कि उस पर अनेक कहानियां गड़ी गयी हैं. ऐसी ही एक कहानी में काम के बोझ की मारी एक बहू बैशाख के महीने में अपनी सास से कहती है कि जंगल में काफल पक गए हैं, लेकिन तुम मुझ से इतने काम करवाती हो कि जंगल जाने और काफल टीपने की फुर्सत ही नहीं मिलती. काम के बोझ की मारी यह बहू एक दिन दम तोड़ देती है. और पक्षी का जन्म पाकर वन-वन गाती फिरती है, ‘काफल पाको, मील नी चाख्यो’! मैं जिस गाँव से आता हूँ, वह घाटी में है, वहाँ काफल नहीं होते. वहाँ लोगों ने उसके संगीत को नए शब्द दे दिए हैं:
घट को छ? गजिया लाटो!
खांछ क्या? ऑटो-पिट्टो!!
यानी चिड़िया पूछती है, घराट (पनचक्की) में  कौन है? उत्तर मिलता है, गजिया नामक लाटा (गूंगा). वह खाता क्या है, आटा-पिठा!! यानी बचा-खुचा आटा.
काफल पाको के बाद जिस चिड़िया की आवाज पर्वत जनों के हृदय को बेधती है, वह है कप्फू या कफुआ. कोयल की तरह इसका संगीत भी एक ही शब्द तक सिमटा हुआ है: कुक्कू! कुक्कू!! इसे आप कफ्फू भी सुन सकते हैं. असल बात यह है कि कफ्फू भी विरह वेदना और मायके की याद का प्रतीक है. पहाड़ी लोकगीत कफुआ के सन्दर्भों से भरे पड़े हैं.
बास कफुआ, मैतन को देश!
ईजा मेरी सुणली, तो भिटौली भेजली!!
युवती कफुआ से कहती है, मेरे प्यारे कफ्फू, तू मेरे मायके जा, वहाँ मेरे घर के सामने के पेड़ पर बैठ कर गीत गाना, तेरी आवाज सुनकर मेरी माँ समझ जायेगी और मुझे बुलाने के लिए भिटौली के साथ मेरे भाई को भेजेगी.
एक और गीत में:
कफुआ बासन लागो, फूली गैछा दैना!
कफुआ गीत गाने लगा है, वन-प्रांतर फूलों से महकने लगे हैं. चैत में सब बहनें मायके आयेंगी. तू नहीं आयेगी तो हमारे आंसू निकल आयेंगे!
ऐसे ही एक गीत में:
गैला पातळ न्योली बासछी, घामिलो दिन उदास लागछ!
ऊंचा डाणा मा कफुआ बासछा, कफू-कफू के मन काटी खांछा!!
यानी घाटियों में न्योली और ऊंचे पर्वतों में कफू अपनी दर्द भरी आवाज से विरह वेदना को बढ़ा देता है.
पर्वतीय जीवन के दर्द को अपनी आवाज में समाये हुए एक और पक्षी वसंत ऋतु में पूरे पहाड़ में गाता फिरता है. कफू तो सिर्फ पहाड़ों में ही मिलता है लेकिन यह पहाड़ की तलहटी में भी खूब सुनाई पड़ता है. इस हम इसके गान से ही जानते है, केसिदा!  
ओ केसीदा! ब्यू छड़ी दे!!
ओ केसीदा! ब्यू छड़ी दे!!
सुबह हो या दोपहर, शाम हो या रात, इसे कभी चैन नहीं. काफल पाको की ही तरह इसकी आवाज में भी जबरदस्त लय और कसक है. इसके पीछे भी एक दर्द भरी कहानी है: बैशाख में गेहूं कट जाने के बाद जब सबके खेतों में धान की बुवाई हो गयी तो एक बिधवा के खेत बिना बुवाई के ही रह गए, क्योंकि उसके खेत में बीज छिडकने वाला कोई नहीं था. केसिदा नामक मुंह बोले भाई को वह मदद के लिए कहती रही लेकिन आशाढ में किसके पास फुर्सत! इसी बीच वह विधवा चल बसी और खेत अनबोये ही रह गए. वही बिधवा इस मौसम में चिड़िया बन कर केसिदा को याद दिलाती रहती है कि मेरे खेत अनबोए ही ना रह जाएँ, इसलिए ओ केसिदा, बीज छिड़क दे!
घुघूती को छोड़ कर बाक़ी पक्षी वसंत और ग्रीष्म ऋतु में ही पहाड़ों में आते हैं. इन्हें कोयल वंशी कहा जा सकता है. क्योंकि ये कोयल की ही तरह बेहद शर्मीले होते हैं. इनकी आवाज तो वनों में गूंजती रहती है, लेकिन वे कभी दिखाई नहीं पड़ते. कफु, कोयल, काफल पाको और केसिदा न सिर्फ आकार-प्रकार में एक जैसे हैं, इनकी गायन शैली भी एक जैसी है. इनकी आवाज में जो आवेग है, वह अन्यत्र नहीं सुनाई पड़ता. कोयल को कुमाऊँ में न्योली कहते हैं. जब तक शहर नहीं पहुंचा था, तब तक मैं भी न्योली नामक चिड़िया को ही जानता था. लेकिन शहर आने के बाद पता चला कि दरअसल हमारा न्योली ही मैदानों का कोयल है. न्योली के बारे में भी कई कथाएं हैं. न्योली पूछती है, को हो को हो? अर्थात बटोही कौन है? यानी विरह-विदग्ध नायिका को बटोही को देख अपने पिया की याद हो आयी. वह पूछ रही है, बटोही कौन है, कौन है? न्योली यहाँ की एक अलग गीत-विधा भी है जो विरह गीतों के लिए जानी जाती है.
कहना न होगा कि ये वनपाखी वसंत ऋतु में अपनी वंशबेल बढाने के लिए ही पहाड़ों में आते हैं, लेकिन पर्वतीय समाजों ने इनके सुरों को अपने जीवन और दर्द से जोड़ लिया है. वास्तव में वन और वनपाखी हज़ारों वर्षों से मानव जीवन के सहचर रहे हैं, इसलिए उनके दुःख-दर्द और अपने दुःख-दर्द को एक ही तराजू पर रख कर तौलने से संतुलन बना रहता है. जिस दिन यह भाव बदलने लगता है, मनुष्य और प्रकृति का संतुलन भी गडबडा जाता है.
(गगनांचल, मार्च-अप्रैल, २०१२ से साभार)

1 टिप्पणी: