हिन्दी दिवस/ गोविंद सिंह
इन दिनों पश्चिमी दुनिया में रह रहे भारतीय और पाकिस्तानी मूल के युवाओं में अपनी भाषा को लेकर एक नयी चेतना जाग रही है. वे हिन्दी और उर्दू को मिलाकर ‘हमारी बोली’ नाम से एक नयी भाषा को स्थापित करने के लिए दुनिया भर में आंदोलन छेड़े हुए हैं. वे व्यक्तिगत रूप से तो इस मिली जुली भाषा का प्रचार-प्रसार कर ही रहे हैं, साथ ही तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी जोर-शोर से अभियान छेड़े हुए हैं. वे यह भी चाहते हैं कि देवनागरी और अरबी लिपियों का झमेला छूटे और रोमन के जरिये काम चलने लगे.
हमारी बोली आन्दोलन के विस्तार में जाने से पहले इसकी पृष्ठभूमि में झांकें. इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद हिन्दी या राष्ट्रभाषा या राजभाषा का मसला भयानक उपेक्षा का शिकार रहा है. हमारे राजनेताओं ने अपने फायदे के लिए इसका दोहन तो बहुत किया लेकिन उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को कभी महसूस नहीं किया. नतीजा यह हुआ कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के मन में हिन्दी के प्रति हिकारत का भाव बना रहा. घटिया और भ्रष्ट अंग्रेजी बोलने और हिन्दी न जानने में गर्व का भाव महसूस किया है हमारी पिछलीपीढ़ी ने. इसी कुंठा के साथ जब यह पीढ़ी वैज्ञानिक, इंजीनियर और प्राध्यापक बन कर यूरोप-अमेरिका गयी तो वहाँ भी इस कुंठा ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. लेकिन संस्कृति के अन्य प्रतीकों को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा. मसलन पूजा-पाठ, कर्म-कांड और शादी-व्याह जैसे अवसरों पर वे विशुद्ध भारतीय बने रहते, कम से कम अपने बच्चों को वैसा होने की नसीहत देते. सत्यनारायण की कथा, ओम जय जगदीश हरे, कराग्रे वसते लक्ष्मी, हनुमान चालीसा ... आदि-आदि के मामले में वे हिंदू बने रहते. उनका आग्रह रहता कि वे बहू हिन्दुस्तान से ही लाएं. वे पूजा-पाठ और शादी-व्याह जैसे अवसरों के लिए स्वदेश जरूर लौटते. आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दी को उन्होंने कभी ऐसा स्थान नहीं दिया. वैसे यह बात भारतीय अभिजनों पर भी लागू होती है.
अपनी भाषा के प्रति ऐसे दोगले व्यवहार के ही कारण अनिवासी भारतीयों की नई पीढ़ी के मन में विद्रोह पैदा हुआ. वे न भारतीय रहे और न ही अमेरिकी हो पाए. उन्हें एबीसीडी यानी अमेरिका बोर्न कन्फ्यूज्ड देसी कहा जाने लगा. लेकिन अब इस दूसरी और तीसरी पीढ़ी के बच्चों के मन में अपनी जड़ों के प्रति अनुराग पैदा होने लगा है. चूंकि उनके मन में किसी तरह की कुंठा नहीं है, इसलिए वे भारत को अपने नज़रिए से देखना चाहते हैं. यहीं भाषा का मसला सामने आता है. एशियाई युवाओं, जिनमें भारतीय, नेपाली और पाकिस्तानी तो हैं ही, बंगलादेशी और कुछ हद तक श्रीलंकाई भी हैं, के मन में एक दक्षिण एशियाई भाषा का सपना कुलबुलाने लगा. उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि जो भाषा एक तरह से बोली जा रही हो, वह कैसे घर पहुँच कर हिन्दी और उर्दू में बदल जाती है. यों भी लिपियों से भाषा नहीं बनती, भाषा बनती है शब्दों, वाक्यों और ध्वनियों से. हाँ, लिपि भाषा का वाहन जरूर बनती है. यह लिपि की क्षमता पर निर्भर करता है कि वह कितनी कुशलता के साथ अपनी सवार भाषा को आगे ले जा सकती है. इसीलिए भाषा वैज्ञानिक हिंदी और उर्दू को दो भाषाएँ नहीं मानते. वे इसे दो लिपियों में एक भाषा कहते हैं. अमेरिकी स्कूलों में तो आज हिन्दी अध्यापक बनने के लिए दोनों लिपियों का ज्ञान जरूरी है.
संचार के क्षेत्र में नईटेक्नोलोजी के आने से नई पीढ़ी में अपनी भाषा के प्रति मोह यकायक उमड़ने लगा. लिपिउन्हें न देवनागरी आती थी और न ही अरबी. हाँ, उन्हें बोली आती थी, जिसे उन्होंनेअपने घरों में अपने बुजुर्गों को बोलते हुए सुना था. चाहे उसे हिन्दी कहिए याउर्दू. वे रोमन लिपि में धडल्ले से अपनी भाषा का प्रयोग करने लगे. ई-मेल, चैटिंग,सोशल मीडिया, सब तरफ रोमन हिन्दी का इस्तेमाल हो रहा है. यह बात भारत में भी बड़ेपैमाने पर हुई. फिल्मों के संवाद हों या टीवी की पटकथाएं, रोमन में हीअभिनेता-अभिनेत्रियों को दी जातीं. यूनिकोड में हिन्दी के आने से पहले तो बड़ेपैमाने पर रोमन का इस्तेमाल हुआ और मोबाइल में तो आज भी बहुत हो रहा है. विदेशयात्राओं पर जाने वाले हिन्दी पत्रकार रोमन में ही अपनी कॉपी भेजते. यहीं से हमारीबोली की अवधारणा जन्म लेने लगी. पाकिस्तानी पृष्ठभूमि के युवाओं को यह और भी जरूरीलगा, क्योंकि उनके यहाँ उर्दू लिपि कुछ देर से यूनिकोड में आई और देवनागरी कीतुलना में वह उतनी लोकप्रिय भी नहीं है. फिर अतीत यानी हिन्दी-उर्दू के उद्भव कालपर नजर दौडाई तो पाया कि ब्रिटिश भारत के पहले शिक्षा संस्थान फोर्ट विलियम कालेजके हेड मास्टर गिलक्राइस्ट ने भी दोनों भाषाओं के लिए रोमन लिपि की ही वकालत कीथी. उन्होंने हिन्दी-उर्दू के लिए जो रोमन सामानांतर दिए, आज भी वही चल रहे हैं. इसके अलावा वे १९९२ मेंशिकागो में हुए पहले अंतर्राष्ट्रीय उर्दू सम्मलेन में सैय्यद फसीह उद्दीन और कादर उन्नीस बेगम द्वारा प्रस्तुत उद्दीन-बेगम हिन्दी-उर्दू रोमनीकरण स्कीम के भी अंध समर्थक हैं क्योंकि इस प्रस्ताव में भी हिन्दी-उर्दू और हिन्दुस्तानी के लिए रोमन लिपि की वकालत की गयी है.
हमारी बोली के प्रवर्तकों की दलील यह है कि देवनागरी और अरबी लिपियाँ चाहे-अनचाहे धार्मिक रूप सेएक-दूसरे को अस्वीकार्य हो गयी हैं. हिंदू समझते हैं कि अरबी लिपि इस्लाम की प्रतीक है और मुसलमान समझते हैं कि देवनागरी हिंदू धर्म से जुडी है. इस झगड़े में भाषा का अहित हो रहा है. दोनों भाषाएँ यदि एक हो जाएँ तो वह दुनिया की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी भाषा बन जाती है. मंदारी के बाद. चीन ने भी ऐसा ही किया. वहाँ सांस्कृतिक क्रान्ति से पहले प्रचलित तमाम भाषाओं को मिलाकर आधुनिक चीनी बना दी गयी थी. जिसे हम मंदारी कहते हैं. साथ ही हमारी बोली वाले हिन्दी में से कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्दों और उर्दू में से कठिन अरबी-फारसी शब्दों को हटाने और प्रचलित अंग्रेजी शब्दों को मिलाने की वकालत करते हैं.
ऊपर से उनकी बात ज्यादा व्यावहारिक लगती है. यदि हम अपनी नई पीढ़ी को देखें तो भाषा का यह नया रूप उनकेज्यादा करीब बैठता है. लेकिन जिस हमारी बोली की बात वे कह रहे हैं, उसकी सबसे कुशल वाहक देवनागरी ही है. देवनागरी का वर्तमान रूप भी अपनी लम्बी संशोधन यात्रा के बाद बना है. दुर्भाग्य यह है कि नई पीढ़ी को नागरी लिपि का पता ही नहीं है. यदि नई पीढ़ी देवनागरी की वैज्ञानिकता का बारीकी से अध्ययन करे तो वह पायेगी कि इसमें कितना दम है. उसे केवल हिंदू लिपि कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. उसमें कुछ और संशोधन कर लिए जाएँ तो वह बखूबी नई भूमिका को निभा सकती है. ( दैनिक हिंदुस्तान, १३ सितम्बर, २०१२ से साभार.)
इन दिनों पश्चिमी दुनिया में रह रहे भारतीय और पाकिस्तानी मूल के युवाओं में अपनी भाषा को लेकर एक नयी चेतना जाग रही है. वे हिन्दी और उर्दू को मिलाकर ‘हमारी बोली’ नाम से एक नयी भाषा को स्थापित करने के लिए दुनिया भर में आंदोलन छेड़े हुए हैं. वे व्यक्तिगत रूप से तो इस मिली जुली भाषा का प्रचार-प्रसार कर ही रहे हैं, साथ ही तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी जोर-शोर से अभियान छेड़े हुए हैं. वे यह भी चाहते हैं कि देवनागरी और अरबी लिपियों का झमेला छूटे और रोमन के जरिये काम चलने लगे.
हमारी बोली आन्दोलन के विस्तार में जाने से पहले इसकी पृष्ठभूमि में झांकें. इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद हिन्दी या राष्ट्रभाषा या राजभाषा का मसला भयानक उपेक्षा का शिकार रहा है. हमारे राजनेताओं ने अपने फायदे के लिए इसका दोहन तो बहुत किया लेकिन उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को कभी महसूस नहीं किया. नतीजा यह हुआ कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के मन में हिन्दी के प्रति हिकारत का भाव बना रहा. घटिया और भ्रष्ट अंग्रेजी बोलने और हिन्दी न जानने में गर्व का भाव महसूस किया है हमारी पिछलीपीढ़ी ने. इसी कुंठा के साथ जब यह पीढ़ी वैज्ञानिक, इंजीनियर और प्राध्यापक बन कर यूरोप-अमेरिका गयी तो वहाँ भी इस कुंठा ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. लेकिन संस्कृति के अन्य प्रतीकों को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा. मसलन पूजा-पाठ, कर्म-कांड और शादी-व्याह जैसे अवसरों पर वे विशुद्ध भारतीय बने रहते, कम से कम अपने बच्चों को वैसा होने की नसीहत देते. सत्यनारायण की कथा, ओम जय जगदीश हरे, कराग्रे वसते लक्ष्मी, हनुमान चालीसा ... आदि-आदि के मामले में वे हिंदू बने रहते. उनका आग्रह रहता कि वे बहू हिन्दुस्तान से ही लाएं. वे पूजा-पाठ और शादी-व्याह जैसे अवसरों के लिए स्वदेश जरूर लौटते. आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दी को उन्होंने कभी ऐसा स्थान नहीं दिया. वैसे यह बात भारतीय अभिजनों पर भी लागू होती है.
अपनी भाषा के प्रति ऐसे दोगले व्यवहार के ही कारण अनिवासी भारतीयों की नई पीढ़ी के मन में विद्रोह पैदा हुआ. वे न भारतीय रहे और न ही अमेरिकी हो पाए. उन्हें एबीसीडी यानी अमेरिका बोर्न कन्फ्यूज्ड देसी कहा जाने लगा. लेकिन अब इस दूसरी और तीसरी पीढ़ी के बच्चों के मन में अपनी जड़ों के प्रति अनुराग पैदा होने लगा है. चूंकि उनके मन में किसी तरह की कुंठा नहीं है, इसलिए वे भारत को अपने नज़रिए से देखना चाहते हैं. यहीं भाषा का मसला सामने आता है. एशियाई युवाओं, जिनमें भारतीय, नेपाली और पाकिस्तानी तो हैं ही, बंगलादेशी और कुछ हद तक श्रीलंकाई भी हैं, के मन में एक दक्षिण एशियाई भाषा का सपना कुलबुलाने लगा. उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि जो भाषा एक तरह से बोली जा रही हो, वह कैसे घर पहुँच कर हिन्दी और उर्दू में बदल जाती है. यों भी लिपियों से भाषा नहीं बनती, भाषा बनती है शब्दों, वाक्यों और ध्वनियों से. हाँ, लिपि भाषा का वाहन जरूर बनती है. यह लिपि की क्षमता पर निर्भर करता है कि वह कितनी कुशलता के साथ अपनी सवार भाषा को आगे ले जा सकती है. इसीलिए भाषा वैज्ञानिक हिंदी और उर्दू को दो भाषाएँ नहीं मानते. वे इसे दो लिपियों में एक भाषा कहते हैं. अमेरिकी स्कूलों में तो आज हिन्दी अध्यापक बनने के लिए दोनों लिपियों का ज्ञान जरूरी है.
संचार के क्षेत्र में नईटेक्नोलोजी के आने से नई पीढ़ी में अपनी भाषा के प्रति मोह यकायक उमड़ने लगा. लिपिउन्हें न देवनागरी आती थी और न ही अरबी. हाँ, उन्हें बोली आती थी, जिसे उन्होंनेअपने घरों में अपने बुजुर्गों को बोलते हुए सुना था. चाहे उसे हिन्दी कहिए याउर्दू. वे रोमन लिपि में धडल्ले से अपनी भाषा का प्रयोग करने लगे. ई-मेल, चैटिंग,सोशल मीडिया, सब तरफ रोमन हिन्दी का इस्तेमाल हो रहा है. यह बात भारत में भी बड़ेपैमाने पर हुई. फिल्मों के संवाद हों या टीवी की पटकथाएं, रोमन में हीअभिनेता-अभिनेत्रियों को दी जातीं. यूनिकोड में हिन्दी के आने से पहले तो बड़ेपैमाने पर रोमन का इस्तेमाल हुआ और मोबाइल में तो आज भी बहुत हो रहा है. विदेशयात्राओं पर जाने वाले हिन्दी पत्रकार रोमन में ही अपनी कॉपी भेजते. यहीं से हमारीबोली की अवधारणा जन्म लेने लगी. पाकिस्तानी पृष्ठभूमि के युवाओं को यह और भी जरूरीलगा, क्योंकि उनके यहाँ उर्दू लिपि कुछ देर से यूनिकोड में आई और देवनागरी कीतुलना में वह उतनी लोकप्रिय भी नहीं है. फिर अतीत यानी हिन्दी-उर्दू के उद्भव कालपर नजर दौडाई तो पाया कि ब्रिटिश भारत के पहले शिक्षा संस्थान फोर्ट विलियम कालेजके हेड मास्टर गिलक्राइस्ट ने भी दोनों भाषाओं के लिए रोमन लिपि की ही वकालत कीथी. उन्होंने हिन्दी-उर्दू के लिए जो रोमन सामानांतर दिए, आज भी वही चल रहे हैं. इसके अलावा वे १९९२ मेंशिकागो में हुए पहले अंतर्राष्ट्रीय उर्दू सम्मलेन में सैय्यद फसीह उद्दीन और कादर उन्नीस बेगम द्वारा प्रस्तुत उद्दीन-बेगम हिन्दी-उर्दू रोमनीकरण स्कीम के भी अंध समर्थक हैं क्योंकि इस प्रस्ताव में भी हिन्दी-उर्दू और हिन्दुस्तानी के लिए रोमन लिपि की वकालत की गयी है.
हमारी बोली के प्रवर्तकों की दलील यह है कि देवनागरी और अरबी लिपियाँ चाहे-अनचाहे धार्मिक रूप सेएक-दूसरे को अस्वीकार्य हो गयी हैं. हिंदू समझते हैं कि अरबी लिपि इस्लाम की प्रतीक है और मुसलमान समझते हैं कि देवनागरी हिंदू धर्म से जुडी है. इस झगड़े में भाषा का अहित हो रहा है. दोनों भाषाएँ यदि एक हो जाएँ तो वह दुनिया की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी भाषा बन जाती है. मंदारी के बाद. चीन ने भी ऐसा ही किया. वहाँ सांस्कृतिक क्रान्ति से पहले प्रचलित तमाम भाषाओं को मिलाकर आधुनिक चीनी बना दी गयी थी. जिसे हम मंदारी कहते हैं. साथ ही हमारी बोली वाले हिन्दी में से कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्दों और उर्दू में से कठिन अरबी-फारसी शब्दों को हटाने और प्रचलित अंग्रेजी शब्दों को मिलाने की वकालत करते हैं.
ऊपर से उनकी बात ज्यादा व्यावहारिक लगती है. यदि हम अपनी नई पीढ़ी को देखें तो भाषा का यह नया रूप उनकेज्यादा करीब बैठता है. लेकिन जिस हमारी बोली की बात वे कह रहे हैं, उसकी सबसे कुशल वाहक देवनागरी ही है. देवनागरी का वर्तमान रूप भी अपनी लम्बी संशोधन यात्रा के बाद बना है. दुर्भाग्य यह है कि नई पीढ़ी को नागरी लिपि का पता ही नहीं है. यदि नई पीढ़ी देवनागरी की वैज्ञानिकता का बारीकी से अध्ययन करे तो वह पायेगी कि इसमें कितना दम है. उसे केवल हिंदू लिपि कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. उसमें कुछ और संशोधन कर लिए जाएँ तो वह बखूबी नई भूमिका को निभा सकती है. ( दैनिक हिंदुस्तान, १३ सितम्बर, २०१२ से साभार.)
बेहद रोचक लेख है सर। इसे मैं अपने फेसबुक पर भी डाल रहा हूं। वैसे स्थानीय खबरों के लिए भास्कर को बंद करके हिंदुस्तान लेना शुरु कर दिया है। सुबह आपकी फोटो देखी अखबार में लेकिन लेख अभी पढ़ा।
जवाब देंहटाएंसही कहा. हमारी बोली की जरूरत सबको है. भद्र जनों और शासकों को भी. पर रोमन लिपि में नहीं. उससे बहुत से शब्दों को समझने के दिक्कत आती है और आएगी. हमारी बोली की सारी ध्वनियों के लिए रोमन लिपि अपर्याप्त है. देवनागरी लिपि को लोकप्रिय बनाना अत्यावश्यक है.
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही कहा आपने. १००% सहमत
हटाएंजय हो !
हटाएंबहुत अच्छा लेख है। नई पीढ़ी को समझना चाहिए कि भाषा का लालित्य उसकी मूल लिपि हिंदी में ही निखरता है और यही लिपि हमें भाषा की गहरी जड़ों से जोड़ती है।
जवाब देंहटाएंगोविंद जी,
जवाब देंहटाएंहमारे यहाँ तो देवनागरी में अँग्रेज़ी के अख़बार छप रहे हैं. कुछ शीर्षकों का आनंद आप भी लें --- (.....इसे क्या कहा जाए? ये शीर्षक नईदुनिया, पत्रिका, दैनिक भास्कर के हैं.)
मोबाइल एप्स पर वर्कशॉप,
इन्सपायर अवॉर्ड सेरेमनी कल,
कॉलेज स्टूडेंट्स के लिए फिजियोथेरेपी कैंप,
कंस्ट्रक्शन का 50% इंटीरियर पर,
हॉंगकॉंग में सोलर इलेक्ट्रीसिटी से पावर सप्लाय,
हेयर के लिए हो परफ़ेक्ट डाइट,
मानसून ड्राइव@तेलिया वाटर फाल्स.....
बाल मुकुंद सिन्हा:
जवाब देंहटाएंhindi wala lekh padha, badhia tha.
विमल चंद्र पाण्डेय:
जवाब देंहटाएंbahut achha aur gyanvardhak hai sir, shukriya
राजेंद्र उपाध्याय:
जवाब देंहटाएंachchha hai. south africa nahi ja rahe hain?
जवाब देंहटाएंकेवल आनंद जोशी:
Mujhe bhi !!! ab aise likhne wale bahut kam hen!! aasp jaise. kabhi phone par
batiya len--09810202780
आदित्य शुक्ल:
जवाब देंहटाएंसच में शानदार लेख है सर, सुबह ही पढ़ लिया था दैनिक हिन्दुस्तान में।
हिमांशु बी. जोशी:
जवाब देंहटाएंDajyu bahut achchha laga article. Aapka no. badal gaya kya? kal mein Haldwani mein tha phone kiya to mila hi nahi. raat mein hi vapas aa gaya.
जवाब देंहटाएंअनीता सिंह:
lekh bahut aacha hai. subah devender aur maine padh liya tha.
सत्यानन्द निरुपम:
जवाब देंहटाएं"कीजिये क्यों हायहाय... पढ़िए Govind Singh का लेख, जिसमें वो बता रहे हैं कि "इन दिनों पश्चिमी दुनिया में रह रहे भारतीय और पाकिस्तानी मूल के युवाओं में अपनी भाषा को लेकर एक नयी चेतना जाग रही है. वे हिन्दी और उर्दू को मिलाकर ‘हमारी बोली’ नाम से एक नयी भाषा को स्थापित करने के लिए दुनिया भर में आंदोलन छेड़े हुए हैं. वे व्यक्तिगत रूप से तो इस मिली जुली भाषा का प्रचार-प्रसार कर ही रहे हैं, साथ ही तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी जोर-शोर से अभियान छेड़े हुए हैं. वे यह भी चाहते हैं कि देवनागरी और अरबी लिपियों का झमेला छूटे और रोमन के जरिये काम चलने लगे.""
Hammad Farooqui:
जवाब देंहटाएंGovind Singh ji ki taan vaheen tootee jo Hindi kie shukla granthi he..Hindi lipi aur bhasha he shrestha he, baqi adjust karen...
फारुकी साहब, ऐसा नहीं है. चूंकि हिन्दी भी यहीं की भाषा है और उर्दू भी. और नागरी भी इसी धरती में विकसित हुई है. इसलिए हमारा कहना है कि नागरी यह काम बेहतर कर सकती है, कर रही है. आप देख रहे हैं कि उर्दू के अनेक अखबार और पत्रिकाएं आज देवनागरी में निकल ही रहे हैं. महकता आँचल पत्रिका को ही ले लीजिए, जब तक वह अरबी लिपि में निकलती थी, बहुत कम बिकती थी. नागरी में आ जाने से उसका प्रसार बहुत बढ़ गया है. उर्दू से किसे परहेज हो सकता है?
हटाएंइतना ही नहीं, देवनागरी में ध्वनियों को बेहतर ढंग से चिह्नित करने की भी क्षमता है.
हटाएंso to hai
हटाएंPramod Singh:
जवाब देंहटाएंये सही है. सुंदर संसारा..
Ravish Kumar:
जवाब देंहटाएंTCS ne 72 ghante me urdu sikhaane ka software bana dia hai.
Omparkash Hathpasaria:
जवाब देंहटाएंAaj " Dainik Hindustan " ( Delhi ) mai padh kar ananad aa gaya .......atyant suchanaparad hai ..Dhanyawad Sir .
bohat bohat shukria, nawaazish, karam, meherbaani, dhannyawaad Sir! hum ne Hamara Boli ka zimma is liye uthaya hai k aaj zabaan ko modernize karna prerequisite hai agar hum waaqai effectively and successully address karna chahte hain Educational problems ko, most importantly the vernacular-English medium apartheid..
जवाब देंहटाएंmany thx Aamir Sahab.. didnt mean to b offensive or anything, only suggesting a possible solution.. opensource is indeed very promising in Indo-Pak context.. my take is that even before any textbook reforms, we need extensive language reform first..
The Hamari Boli Initiative is a People-to-People collaboration and Language Planning enterprise aimed at Hindi-Urdu (erstwhile Hindustani) Script, Style, Style, Status & Lexical reform and modernization.
debuted Project Wiki recently with a petition to UN and SAARC governments for adoption of Hindi-Urdu as 7th Official Language in collaboration with Stanford Peace Innovation Lab. essentially, the approach is global wiki-based opensource collaboration in areas involving Hamari Boli. i.e. literature, education, bollywood, digital corpus, software/web based language tools etc. P2P communication and confidence building will be bonus effects..
aap logon k comments ka intezaar rahe ga :)
azad@hamariboli.com
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हमारी बोली + ہماری بولی
just to make it clear i personally would prefer Devanagari for Hindi-Urdu being Indo-Aryan language.. but that has far too many issues that we can not do away just wishing for it.. we need to make a practical compromise for the sake of utility.. that is Roman.. but Hamari Boli is not merely about script, but a full-scale Language Planning enterprise
जवाब देंहटाएंOmparkash wrote:
जवाब देंहटाएं"Aaj " Dainik Hindustan " ( Delhi ) mai padh kar ananad aa gaya .......atyant suchanaparad hai ..Dhanyawad ."
Pawan Sharma:
जवाब देंहटाएं"Bahut achcha article hai sir, dil ko chhune wala."
अखिलेश आर्येंदु:
जवाब देंहटाएंHindustan men Aap ne Hindi our urdoo ki sthiti par lekh likha hai use hame pasand Aaya. nai jankari ke liye dhanyawad. desh dunia men hindi ke liye bahut kuchh ho raha hai lekin ham to Hindi ki Bindi hee mitane par lagen hai. ese Hindi ka dubhagya kahen ya desh ka ya Hamra. Hindi dinia ki sab se sambridh bhasha hai lekin hamne isme bhee milawat kar dee hai, milawat karna to hamara janam shidh Adhikar jaise ho gaya hai. Aap ko lekh ke liye dhanyawad
Akhilesh Chandra:
जवाब देंहटाएंGyanwardhak, Sir!
इस पोस्ट के लिए खुद को ही धन्यवाद देने का मन हो रहा है, क्योंकि इस बार मुझे आठ पाठक पाकिस्तान से मिले हैं. मेरी जानकारी के मुताबिक़ वहाँ सिर्फ एक ही विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाई जाती है, उसमें भी बहुत कम लोग हिन्दी पढ़ते हैं. लेकिन इससे लगता है कि मेरी जानकारी गलत थी और पाकिस्तान में हिन्दुस्तानी या हमारी बोली के लिए ज्यादा छटपटाहट है.
जवाब देंहटाएंसंत समीर:
जवाब देंहटाएंबढ़िया लेख। कल के अख़बार में ही पढ़ लिया था, पर आज नेट पर देखा तो अपनी डिजिटल लाइब्रेरी में सहेजना आसान हो गया। मैकाले का मन्तव्य देकर आपने पूरे लेख को दस्तावेज़ी बना दिया है। आप जैसों के किए-धरे से अपने जैसों को बल मिलता है, इसलिए लेखन को कुछ और वक्त दे पाएँ तो अच्छा रहे।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंडॉ. महाबीर सरन जैन:
जवाब देंहटाएंहिन्दी एवं उर्दू का अद्वैत शीर्षक आलेख में मैने दोनों की एकता स्थापित की है जिसका लिंक अवलोकनार्थ प्रस्तुत है:
http://www.scribd.com/doc/22142436/Hindi-Urdu
सुभाष चंद्र कुशवाहा:
जवाब देंहटाएंaap ka lekh maine padha tha Ummda hai. badhai
Dr.kokila Chatbar:
जवाब देंहटाएंDevanaagari ke binaa Hindi ki kalpanaa bhee nahin ki ja sakati. Aap kripiya boora naa maanen : aapake vichaar se mera vichaar mel nahien khaataa.
Dr. Mahabeer Saran Jain:
जवाब देंहटाएंMai bhee devanaagaree kee vaigyaanikataa evam upayogitaa se sahamat hoon tathaa maine is sambandh men kai aalekh bhee likhe hian. magar jab baat bhaashaa evam lipi kee aatee hai ti donon kaa bhed spashat hai jisako maine apanee pustak " Bhaashaa evam Bhaashaavigyaan" ( Language and Linguistics) men dpaSht kiyaa hai. ( aap vistaar se adhyayan kar sakatee hain: • Bhaashaa Evam Bhaashaa Vigyaan: Lok Bharati Prakashan, Allahabad, pp. 34-36
yeh lekh man mudit kar gaya. pahle bhi padha aur ab bhi. vastav mein, dharma aur bhoogol na kah kar sampraday aur bhoogol bhi kah sakte the. par baat ka saaraansh yahi hai ki snaskriti jodtee hai, boli bhi sanskriti ka hi hissa hai. Pakistaan mein basant aur Bangla Desh mein Bhasha aur sanskaar majhabi kattarvaad se bahut upar hain.
जवाब देंहटाएंaapki lekhni se aise anek aur lekh milein, yahi kaamnaa hai.
punah badhaai sahit
Tarun Vijay
बहुत बहुत धन्यवाद तरुण जी. आपने सही कहा है, धर्मं शायद कहीं ऊंची चीज है. धर्मं जोड़ता है, जबकि साम्प्रदायिकता तोडती है. मेरा आशय साम्प्रदायिकता से ही था.
हटाएंअकबर इलाहबादी का शेर है -
जवाब देंहटाएंवो हिदीं को संस्कृत क्यों न करें और हम उर्दू के अरबी क्यों न करें
अंग्रेज का जिससे दिल बहलता हो अरे वो मजमून तराशा क्यों न करे?
काले अंग्रेजों के 65 वर्षीय शासन काल में भी अंग्रेजों की रवायतें बदस्तूर जारी रही हैं। भाषा, मजहब और क्षेत्रवाद आदि के सहारे फूट डालो और राज करो।
Sir, kabhi aapne socha hae ke kitne rajya haen Bharat maen jo hindi kaa upyog naheen kartee? Aap jaese log Sanskrit to seekh lenge magar tamil yaa bangali naheen, isiliye to angrezi ka varchasva hae. Duniya se bandhe rehne ke liye aapne keaa prayas kiye haen? Kea aapko Chini yaa Japani aatee hae?
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