समाज/ गोविंद सिंह
जिस तरह पहाड़ से
निकलने वाली नदी मार्ग में आने वाले पठारों और चट्टानों से बचते-बचाते अपना रास्ता
बना ही लेती है, उसी तरह से संस्कृतियाँ भी अपनी राह के अवरोधों को हटाते हुए आगे
बढ़ती हैं. उत्तराखंडी समाज में होने वाली शादियों को देख कर खुशनुमा एहसास होता
है. इन दिनों यहाँ शादियों का मौसम है और ज्यादातर शादियाँ दोपहर में हो रही हैं.
कुछ शहरी संभ्रांत परिवारों में जरूर रात की शादियाँ हो रही हैं, लेकिन छोटे
कस्बों, गांवों और निम्न मध्य और निम्न वर्ग में शादियाँ दिन में हो रही हैं. यह
पिछले १५ वर्ष का चलन है. पहले यहाँ भी रात की ही शादियां हुआ करती थीं. लेकिन जब
रात की शादी बोझ लगने लगी तो बगावत के रूप में दिन की शादी शुरू हुई.
ऐसा इसलिए हुआ
क्योंकि पहाड़ी समाज में पिछले तीस-चालीस सालों में शाराबखोरी का चलन भी बेतहाशा
बढ़ा है. और शराबियों के कारण विवाह जैसे पावन अवसर पर रंग में भंग पड़ जाया करता
था. अनेक मौके ऐसे देखे गए, जब दूल्हा स्वयं केष्टो मुखर्जी वाले अंदाज में
लडखडाते हुए शादी के पंडाल में पहुंचता और लड़की वालों से जूझता. लडखडाते बारातियों
का स्वागत भी अक्सर लात-घूंसों से होता. शराबबंदी के लिए अनेक बार आन्दोलन भी हुए.
समाज सुधारक लोग भी बीच-बीच में आवाज उठाते रहे लेकिन शराबखोरी का चलन बढ़ता ही चला
गया. इससे पहाड़ों की अर्थ-व्यवस्था को तो नुक्सान हुआ ही, समाज भी बुरी तरह से
चरमरा गया. जिसके बारे में कवि “अहा! ग्राम्य जीवन भी क्या है” कह कर आह भरते थे,
वह नारकीय होता चला गया.
इसी कीचड में से एक
विचार-कमल खिला. क्यों न शादी का विधान रात की बजाय दिन में कर दिया जाए. क्या
जरूरत है, रात के तीन बजे ही लग्न का मुहूर्त निकाला जाये? कुमाउनी और गढ़वाली
शादी के आधे से अधिक विधान पंजाबी रूप धारण कर चुके हैं, तब रात की शादी से भी
क्यों न मुक्ति पायी जाए? जरूर इसके पीछे कुछ अक्लमंद पंडितों की बुद्धि रही होगी.
हालांकि यदि यजमान तैयार न होते तो पंडित ही क्या कर लेते? यह भी संभव है कि सिखों
की देखा-देखी इस रिवाज ने जन्म लिया हो. दिन की शादी से कई फायदे हुए. एक, शराब का
चलन कम हुआ, लगभग ८० प्रतिशत शराबखोरी (शादी के दौरान) बंद हो गयी. दूसरा, लाइटिंग
में जो अतिरिक्त खर्चा होता था, वह बच गया. बहुत सी सहूलियतें हुईं. बरात भलेही
अगली गली से आ रही हो, लेकिन वह पहुँचती थी, ११ बजे ही. इसलिए लोग बिना खाना खाए
ही निकल जाते थे. अब ऐसा नहीं होता. रात में चोरियां हुआ करती थीं, उन पर रोक लगी.
रात भर जागने की जो सजा भुगतनी पड़ती थी, उससे भी निजात मिली. पिछले दिनों मुझे ऐसी
कई शादियों में शरीक होने का मौक़ा मिला. दिन की भी और रात की भी. दिन की शादियाँ
आम तौर पर निम्न मध्य वर्ग या किसानों की थीं. वे काफी सादगीपूर्ण थीं, उनमें
खर्चा कम हुआ था. अतिरिक्त तड़क-भड़क नहीं के बराबर थी. इक्का-दुक्का ही लोग शराब
पिए हुए थे. जबकि रात को होने वाली शादियाँ बड़े बेंकिट हालों में हुई थीं, वे अमीर
लोगों की थीं. तड़क-भड़क भी ज्यादा थी. बाराती ज्यादातर पिए हुए थे. नाचते हुए भी
लड़खड़ा रहे थे. इस तरह तुलना करने पर लगा कि दिन की शादी एक तरह से तड़क-भड़क वाली
शादी से बगावत की तरह से है. समाज के लिए वह कहीं बेहतर है और उस से कुरीतिओं को
बढ़ावा नहीं मिलता. हालांकि शहरी उच्च वर्ग में यह प्रथा आनी अभी बाक़ी है. उन्हें
भी इसे अपनाकर सादगी की मिसाल पेश करनी चाहिए.
निश्चय ही शादी दो
युवाओं और दो परिवारों का मिलन है. समाज उसमें शरीक होकर एक तरह से इस मिलन को
मान्यता देता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आप किसी सामाजिक रिवाज के चलते इतने
दब जाएँ कि उठ ही ना सकें. हमारे यहाँ विवाह व्यवस्था नें काफी हद तक समाज को बचा
रखा है, लेकिन उसने अनेक कुरीतियों को भी जन्म दिया है. दहेज, तड़क-भड़क, शोबाज़ी,
शराबखोरी, अतिशय खर्च, चमक-दमक इसीके हिस्से हैं. पहाड़ी समाज ने काफी हद तक
अपने-आप को बदला है. दिन की शादी को बढ़ावा देकर शराबखोरी पर रोक लगी है, लेकिन अभी
यह पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है. लोग दिन में विवाह-स्थल पर तो शराब पिए हुए नहीं
दिखाई पड़ते, लेकिन घर लौट कर रात को खूब शराब चलती है. स्त्रियों को भी इसमें
शामिल कर लिया जाता है. कोइ मारता है, या पैदा होता है, लोगों को हर बार शराब
चाहिए. शराब के कारण पहाड़ का जीवन तबाह हो रहा है. काश कोई अक्लमंद दिन की शादी की
तरह और अवसरों से भी शराब से मुक्ति दिलाए!
(अमर उजाला, ३० अप्रैल, २०१२ से साभार)