मीडिया/ गोविंद सिंह
मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी हैं. हैं तो वह बिजनेस मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर लेकिन हिंदी, उर्दू, अंग्रेज़ी और संस्कृत के भी अच्छे जानकार हैं. किसी मसले पर जब वह टिप्पणी करते हैं तो उन्हें ध्यान से सुना जाता है. वे बोले, आप पत्रकारिता में दखल रखते हैं, कृपया यह बताइए कि न्यूज चैनलों का इस कदर पतन क्यों हो गया है? शाम को जब समाचार देखने को मन होता है, एक भी चैनल पर खबर नहीं चल रही होती. जो चैनल खुद को देश का सबसे उत्तम चैनल होने का दावा करता है, उसमें विज्ञापन ही विज्ञापन होते हैं. खबरों को वह फिलर की तरह दिखाता है. जो चैनल खुद को बौद्धिक बताता है, वह शाम को एक के बाद एक अनर्गल परिचर्चाओं में उलझाए रखता है. हमारे कालेजों की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का स्तर भी उनसे बेहतर होता है. एक चैनल है, जो मामूली खबर को भी ऐसे दिखाता है, जैसे कि कोई तूफ़ान आ गया हो. मजबूर होकर मैं अपने इलाकाई चैनल पर आता हूँ. लेकिन उसके संवाददाताओं की हिन्दी और उर्दू इतनी खराब होती है कि उबकाई आने लगती है. कुल मिलाकर टीवी समाचार देख कर अपना ही माथा पीटने को जी करता है.
मुझे लगा कि अनेक मौकों पर मैं भी यही महसूस करता हूँ. अखबार में था तो मेरे वरिष्ठ सहयोगी भी अक्सर यही कहा करते थे. समाज के किसी संभ्रांत व्यक्ति से चर्चा कीजिए तो वह भी ऐसा ही अनुभव बताता है. खुद टीवी चैनलों में काम करने वाले साथी अपने काम से संतुष्ट नज़र नहीं आते. हर कोई टीआरपी का रोना रोता है. इस टीआरपी ने ऐसा जाल रचा है कि अच्छे-अच्छों की बुद्धि कुंद हो गयी है. वे हमेशा उस फार्मूले की तलाश में रहते हैं, जो उन्हें टीआरपी दिला सके. वे टीआरपी का कोई अपना फार्मूला आजमाने का साहस भी नहीं कर पाते. संयोग से कोई नया आइडिया किसी के दिमाग में कोंध भी गया तो उसे अंजाम देने में डर लगता है. यदि फेल हो गया तो? यानी हर दिन, हर पल हमारा न्यूज प्रोडूसर टीआरपी के आतंक से ग्रस्त रहता है.
ऐसे में सबसे ज्यादा नुक्सान तो खबर का ही होता है, जो दिखाए जाने की पात्रता रखते हुए भी नहीं दिखाई जाती. दूसरा नुक्सान दर्शक को होता है, जो १५-२० हज़ार का एक टीवी सेट खरीदता है और हर महीने दो-ढाई सौ रुपये केबल वाले या डीटीएच वाले को देता है, इस आशा में कि उसे खबर देखने को मिलेगी और वह दुनिया-जहां के बारे में अपनी और अपने बच्चों की जागरूकता बढ़ाएगा. लेकिन रोज कोई ना कोई ऐसी हरकत हमारे चैनल वाले कर देते हैं कि मन मसोस कर रह जाना पड़ता है. अब गडकरी के मंच टूट्ने की ही घटना को देखिये, एक ही दृश्य को आप दसियों बार दिखाते हैं. क्या मतलब है? एक बच्चे ने अपनी अध्यापिका को चाकू मारा. एंकर महोदय ऐसे बोल रहे थे, जैसे कि बच्चे ने कोई बहादुरी का काम कर दिया हो. उनके शब्द थे, बच्चे ने टीचर को मौत के घाट उतार दिया. इस बात को वह एक बार नहीं, बार बार दोहरा रहे थे. क्या आप खबर की ऐसी प्रस्तुति को देखना चाहेंगे? हमने तो तुरंत स्विच ऑफ कर दिया था.
दुःख इस बात का है कि हमारे हिन्दी चैनल वाले साथी सोचते नहीं. वे हमेशा फार्मूलों की तलाश में रहते हैं. किसी एक चैनल का एक फार्मूला हिट हो गया तो सभी उसी दिशा में दौड पड़ते हैं. अपनी बुद्धि नहीं लगाते. एक ने चूहे-बिल्ली दिखाई तो सब वही तलाशेंगे. एक ने संक्षिप्त खबरें दिखाई तो सब उसी और दौडेंगे. एक ने अपराध कथाएं दिखाई तो सभी अपराध ही तलाशते हैं. और वह भी पूरे नाटक के साथ. भाई, नाटक ही करना है तो पत्रकार की क्या जरूरत, नाट्य विद्यालय के छात्र को ही यह काम सौंप दीजिए, वह इस काम को बेहतर अंजाम देगा. यह भीडतंत्र हमारे टेलीविजन समाचार को कहाँ ले जाएगा, समझ में नहीं आता. खबरों के गायब होने का यह ब्रेक कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया है. अब तो इसे टूटना ही चाहिए.
हिन्दुस्तान, १३ फरवरी २०१२ से साभार.
बिलकुल ठीक कहा आपने, अक्सर सब सोचते हैं मगर कहते नहीं !
जवाब देंहटाएं- हेमंत भटनागर
लेख में उठाए गये सवाल सबके मन में हैं.दर्शक भी और शायद टीवी पत्रकार भी.
जवाब देंहटाएंकुछ समय पहले निराशा होती थी लेकिन अब तो हताशा होने लगी है.
-शालिनी जोशी
हर संवेदनशील व्यक्ति यही सोचता है. अब आप जैसे वरिष्ठ पत्रकार शिक्षक बन गए हैं. क्यों न पत्रकारिता की पढ़ाई में आमूलचूल परिवर्तन किया जाए. नए पत्रकार को दृष्टि तो मिले, भाषा का संस्कार तो मिले, किसी न किसी को तो बिगुल बजाना ही होगा .
जवाब देंहटाएंअसरदार सामयिक टिप्पणी
जवाब देंहटाएंAdarneey agraz Bilkul sach kaha aapne lekin halat dheere-dheere hindi akhabaron ki bhi kuchh aisi hi hoti ja raha hai
जवाब देंहटाएंबिचारनीय टिप्पणी.
जवाब देंहटाएंTejendra Sharma: Govind bhai, in London I have 2 Hindi news channels - STAR and Aaj Tak and believe you me I keep on waiting - Yaan News kab aaegi? News Reader dahadtey hain aur sensationlism mein vishwas rakhtey hain. Aap ne apney blog mein merey dil kee baat kahi hai.
जवाब देंहटाएंRajkishore Upadhyay
जवाब देंहटाएंजब तक मीडिया कारपोरेटीकरण के चंगुल से मुक्त न हो जाय विगत दिनों का नीरा राडिया टेप इसबात का उदाहरण है.इनके हितों के लिये ये किस हद तक आदिवासियों,गरीब-कमजोर वर्गों , दलितौं के खिलाफ जा सकते हैं- राष्ट्रीय संपदा , संसाधनों- जल,वन,खनिज, जमीन पर कब्जे और अंधाधुंद दोहन के लिये इनकी मंशा/आचरण किसी से छुपे भी नहीं हैं तो किस तरह लौटेंगी टीवी पर खबरें आखिर जब मुकेश अंबानी /रिलायंस औरअन्मीय बड़े..मीडिया मैदान में जन सेवा के लिये तो नहीं आ रहे ..