संस्मरण/ गोविन्द सिंह
तीस तारीख की सुबह
देहरादून में था. कोई दस बजे होंगे. दून विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में एक
बैठक में जाने को तैयार हो ही रहा था कि तभी शिमला से अपने बालसखा डॉ. रजनी कांत
पाण्डेय का फ़ोन आया. स्क्रीन पर उसका नाम देख दिल की धड़कन कुछ तेज हुई. वह ऐसे ही
फोन नहीं करता. क्या बात होगी! तभी उस तरफ से आवाज आयी कि डॉ भारद्वाज नहीं रहे.
दिल में गहरे तक चुभ गए ये शब्द. 1978 से 1981 तक उनकी कक्षाओं में बिताये तीन वर्ष और उसके
बाद के ये 35 साल एक ही झटके में आँखों के भीतर से बाहर आने को जैसे धक्के मारने
लगे. अभी 15 दिन पहले ही पांडे ने बताया था कि ‘डॉ भारद्वाज की तबियत ठीक नहीं है.
पीजीआई में भरती हैं. मौक़ा मिले तो दर्शन कर जाओ. कैंसर है. पहले भी महीने भर
अस्पताल हो आये हैं. इस बार कुछ ज्यादा ही खतरा लग रहा है.’ 17 मार्च को कुरुक्षेत्र गया तो उनके चरण छूने
चंडीगढ़ भी हो आया, अपने एक और सहपाठी डॉ. सुखपाल वर्णी के साथ. तब डॉ. साहब को देख
बड़ा कष्ट हुआ. जिन्दगी की जंग लड़ रहे थे. बहुत छटपटा रहे थे. फिर भी एक हलकी-सी
मुस्कान हमारी तरफ बिखेर गए. बहन संगीता अमेरिका से पापा की सेवा के लिए आयी हुई
थी. उसने पहले ही आगाह कर दिया था कि बाहरी लोगों का अन्दर आना मना है. इसलिए दूर
से ही देख लेना. हमने वैसा ही किया. वार्ड के बाहर ही आंटी जी से हाल-चाल लेते
रहे. फिर लौट आये. आज पांडे के शब्दों से जहां दिल को गहरा झटका लगा, वहीं एक भाव
यह भी आया कि चलो डॉ. साहब को कष्ट से मुक्ति मिली.
1978 की जुलाई में हमने पंजाब विश्वविद्यालय के
हिन्दी विभाग में एमए प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया. जिन प्राध्यापकों का मार्गदर्शन
मिला, उनमें प्रो. मैथिली प्रसाद भारद्वाज भी एक थे. छोटा कद और दुबली काठी. भीड़
में जाएँ तो खो जाएँ. लेकिन क्लास में पढ़ाने को खड़े होते तो चारों तरफ खामोशी छा
जाती. ऐसे अनुशासित और प्रतिबद्ध शिक्षक कभी नहीं देखे. उन्होंने हमें बिहारी
पढ़ाया, दिनकर की उर्वशी पढाई, और पढ़ाया काव्यशास्त्र. एम फिल में उनकी पढाई शोध
प्रविधि आज तक काम आ रही है. बिहारी का मांसल प्रेम हो या उर्वशी का कामाध्यात्म,
वे जैसे प्याज के छिलकों की तरह से अर्थ की परतें निकालते जाते. कई बार लगता कि वे
साहित्य नहीं, समाजशास्त्र पढ़ा रहे हैं. बिहारी को पढ़ते हुए छात्र-छात्राएं आँखें
नींची कर लेते. लेकिन भारद्वाज जी के चेहरे पर शिकन तक नहीं आती. वे बार बार कहते,
‘नाव यू आर एडल्ट, यू हैव एवरी राईट टु नो अबाउट सेक्स.’ पाश्चात्य काव्यशास्त्र
के वे गहरे पारखी थे. यदि वे न होते तो हम लोग पाश्चात्य काव्य दर्शन से अनभिज्ञ
ही रहते. उनका ज्ञान हिन्दी की किताबें पढ़कर हासिल किया हुआ ज्ञान नहीं था, सीधे
अंग्रेज़ी की मूल किताबों से प्राप्त ज्ञान था. इसलिए अक्सर हिन्दी की कक्षा में भी
वे कई बार अंग्रेज़ी में समझाते हुए मिलते. अच्छा ही हुआ कि उन्होंने अपने नोट्स को
तरतीब देते हुए बाद में किताबें छपवाईं. पाश्चात्य काव्यशास्त्र के सिद्धांत और शोध
प्रविधि हिन्दी में अपनी तरह की श्रेष्ठ पुस्तकें हैं.
हिन्दी की दुनिया
में वे एक अपरिचित नाम थे क्योंकि साहित्यिक खेमेबाजी में उनकी दिलचस्पी नहीं थी.
लेकिन छात्रों के लिए वे एक श्रेष्ठ अध्यापक थे. कक्षा में उन्होंने कभी किसी
छात्र को लिबर्टी नहीं लेने दी. कोइ चुन तक नहीं कर सकता था. हम जैसे छात्र जब
उनके करीब जाने की कोशिश करते तो वे जैसे दूर होकर कहते कि बच्चू, बिना मेहनत के
मेरे पास मत फटकना. वे कहते भी कि पढाई-लिखाई के लिए मेरे पास कभी भी आ सकते हो,
लेकिन फ़ालतू बातों के लिए मेरे पास समय नहीं है. वे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
के शिष्य रहे थे. मध्यकालीन रोमांस पर उनका काम था. एक अध्यापक के तौर पर वे हमेशा
अप टू डेट रहते थे. बेहद सख्त अध्यापक थे. समय के हमेशा पाबन्द. उनका लेक्चर कभी 45
मिनट से एक मिनट भी कम नहीं हुआ. वे पहले ही कह देते, जिसने नहीं पढ़ना हो, वह कक्षा
से चला जाये. हाजिरी लग जायेगी लेकिन और छात्रों को डिस्टर्ब न करे. अत्यधिक
अनुशासनप्रिय होने के कारण ज्यादातर विद्यार्थी उनके करीब जाने में घबराते. वे
हिमाचल के चंबा के मूल निवासी थे. पहाड़ों की सादगी उन्हें विरासत में मिली थी.
एक बार विभाग में
कोई सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ. प्राध्यापकों ने भी कुछ न कुछ बोला या कविता-गीत
गाया. उनका नंबर आया तो पहले उन्होंने सीटी बजाने की कला पर पांच मिनट व्याख्यान
दिया. उसके बाद सीटी के जरिये “गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा..” वाला गाना गया. मैंने
इससे पहले किसी व्यक्ति को इतना सुरीला गीत और वह भी सीटी के जरिये गाते नहीं सुना
था. सचमुच उन्होंने इतना मधुर गाया कि हमने उसके बाद उनकी सख्त अध्यापक की छवि
अपने मन से निकाल फेंकी.
यह 1078-79 की बात है. तब देश में जनता पार्टी की सरकार थी.
प्राध्यापकों की राजनीति में जनसंघ वालों के अच्छे दिन आये हुए थे. प्रो. भारद्वाज
घोर मार्क्सवादी थे. इसलिए कुछ उखड़े-उखड़े-से लगते थे. विभागाध्यक्ष डॉ. धर्मपाल
मैनी परम्परावादी थे. उनसे उनकी ख़ास नहीं बनती थी. इसलिए प्रो. भारद्वाज या तो
क्लास में होते या अपने कमरे में पढ़ते-लिखते हुए मिलते. अध्यक्ष के दरबार में बिलकुल
हाजिरी नहीं लगाते. मेरे जैसे कुछ छात्र, जो हर गतिविधि में भाग लेते, वे
स्वाभाविक रूप से अध्यक्ष के ग्रुप में चले गए. उन दिनों मैनी जी के गुट में युवा
लेक्चरर डॉ. लक्ष्मीनारायण शर्मा भी थे. वे कठिन भाषा के धनी थे. सहज बातचीत में
भी अत्यंत कठिन भाषा का प्रयोग करते. हम उनकी भाषा की नक़ल करने की असफल कोशिश किया
करते. वे ही सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रभारी हुआ करते थे. हम लोगों के वही
सरपरस्त थे. हमें बहुत प्यार देते. हम यानी मैं, रजनीकांत पांडे, सुखपाल वर्णी,
हमसे वरिष्ठ राकेश मल्हन और कुछ लडकियां. एमए द्वितीय वर्ष में इन लोगों ने मुझे
अध्यक्ष का चुनाव लडवा दिया और मैं भारी बहुमत से जीत भी गया. इस घटना के बाद हम
पूरी तरह से मैनी जी के गुट के हो गए. लिहाजा बाक़ी प्राध्यापक हमें ख़ास तवज्जो
नहीं देते. हालांकि भारद्वाज जी को इस गुटबाजी से कोई लेना-देना नहीं था, लेकिन
हमें खुद ही लगता कि शायद कहीं इसी वजह से वे हमसे कटे-कटे न रहते हों.
यानी 1980 में एमए
कर चुकने तक भारद्वाज जी के साथ हमारा सम्बन्ध सामान्य छात्र-शिक्षक जैसा ही था.
मुझे याद नहीं पड़ता कि हम कभी उनके घर गए हों. न मैं, न पाण्डेय. लेकिन उन्हीं
दिनों एक अप्रिय विवाद हुआ. मेरा सर्वप्रिय दोस्त रजनी कांत पाण्डेय एमए करके अपने
घर चला गया. उसके पिताजी का ट्रांसफ़र मेरठ हो गया था. वह भी वहीं चला गया. जुलाई
में मैंने उसे चिट्ठी लिखी कि मेरठ में क्या करोगे, एम फिल की प्रवेश परीक्षा होने
वाली है. तुम भी आवेदन कर दो. उसका मन नहीं था. फिर भी उसने आवेदन कर दिया.
परीक्षा हुई, इंटरव्यू हुआ. 15 सीटें थीं. रजनी कांत का नंबर नहीं आया. हमें
आश्चर्य हुआ. वह इतना गया-बीता भी नहीं था कि 15 में भी न आ सके! हमने लक्ष्मी
नारायण शर्मा जी से बात की. उन्होंने संकेत दिया कि रजनी का नंबर तो चुने गए
छात्रों में था पर पता नहीं क्यों अंतिम सूची में रह गया. उन्होंने यह भी संकेत
दिया कि शायद भारद्वाज जी कुछ बता सकें. भारद्वाज जी के पास जाने में हमें डर लगता
था. पता नहीं क्या सोचें?
मरता क्या न करता.
हम दोनों भारद्वाज जी के पास गए. उन्होंने शाम को घर पर बुलाया. पता चला कि रजनी
का नाम जानबूझ कर बाहर कर दिया गया था. हमें आश्चर्य हुआ कि मैनी जी तो हमें बहुत चाहते
थे. रजनी को भी वे अच्छा विद्यार्थी मानते थे, फिर उनके मन में ऐसी क्या ग्रंथि रह
गयी कि एक योग्य विद्यार्थी का नाम ही सूची से गायब कर दिया? मैनी जी कुछ भी सुनने
को राजी नहीं थे. दूर-दूर तक कोई कारण समझ में नहीं आया. रजनी उदास हो गया.
लक्ष्मी जी सिर्फ लेक्चरर ही थे, इसलिए बहुत ज्यादा साथ नहीं दे सकते थे. मैनी जी
के प्रति सम्मान होते हुए भी उनके साथ खुल कर लड़ाई लड़ी जानी थी. कौन साथ दे! मैं
कक्षा में प्रथम था, सबकी नजर में एक आज्ञाकारी बालक. लड़ने-भिड़ने का मेरा स्वभाव
नहीं था. रजनी ने अपने पिताजी को चिट्ठी लिखी कि क्या करूं? अन्याय हुआ है. अन्याय
का प्रतिकार करूं कि नहीं. उसके पिताजी फ़ौज में बटालियन पंडित थे. उनका उत्तर आ
गया. लड़ाई से पीछे नहीं हटना. तब एकमात्र सहारा बने प्रो. भारद्वाज. उन्होंने न
जाने कितनी चिट्ठियाँ लिखवाईं. हम दोनों रोज विभाग जाते ही छात्र नेताओं से मिलते,
अध्यापक नेताओं से मिलते, वीसी ऑफिस जाते, सीनेटरों से मिलते. फिर शाम को प्रो
भारद्वाज को रिपोर्ट देते. हमारे पास वे सारे दस्तावेज थे, जिनसे साबित होता था कि
रजनी के साथ अन्याय हुआ है. वीसी राम चंदर पॉल, एसवीसी डीडी ज्योति, डीयूआई गोसल
साहब, प्रो. वीसी पांडे, सीनेटर सत्यपाल जैन सबने मैनी जी को मनाया कि मान जाओ,
क्यों बच्चे के साथ अन्याय कर रहे हो? लेकिन मैनी जी नहीं माने. उन्होंने कहा कि
इसे रखना है तो मैं इस्तीफा दे दूंगा. हालांकि उनके पास इसके पीछे कोई कारण नहीं
था. तब अंत में जैन साहब (सत्यपाल जैन) ने किसी हाई कोर्ट का एक केस लाकर वीसी को
दिखाया कि कोर्ट में जायेंगे तो आप फँस जायेंगे. भलाई इसी में है कि रजनी को
दाखिला दे दो. तब जाकर वीसी ने मैनी जी को बुलाकर रजनी को एडमिशन देने का आदेश
दिया. फिर भी रजनी को बुलाकर कहा गया कि पहले गुरूजी से माफी मांगनी होगी, ताकि
उन्हें बुरा न लगे. ऐसा ही किया गया. इस लड़ाई में लगभग दो महीने लग गए. लेकिन
एडमिशन हुआ. और हमारी पढाई भी तभी शुरू हो पाई.
इस लड़ाई से जहां हम
मैनी जी से दूर हो गए, वहीं भारद्वाज जी के रूप में एक नए और सच्चे मार्गदर्शक
गुरु मिल गए. उन्होंने अपने हिस्से की मेरी हाजिरी भी पूरी कर दी. अन्य अध्यापकों
के बीच भी हमारी छवि सुधारने का काम किया. इस बीच हम उनके घर के स्थायी सदस्य बन
गए. उनकी एकमात्र बेटी संगीता तब शायद 11वी में पढ़ती थी. गुरुमाता
भी हमें बहुत स्नेह देने लगीं. इस तरह हमने एमफिल किया और दोनों को ही नौकरियाँ भी
एमफिल करते करते मिल गयीं. इस तरह हमारा चंडीगढ़ छूट गया.
लेकिन बाद में भी
प्रो. भारद्वाज का मार्गदर्शन निरंतर मिलता रहा. रजनी ने तो उनके निर्देशन में ही
पीएच डी भी की. जब मैं टाइम्स ऑफ़ इंडिया ग्रुप में प्रशिक्षार्थी पत्रकार बन कर
मुंबई चला गया तो एक बार वे सपरिवार मुंबई भी आये. मैंने कहा कि किसी गेस्ट हाउस
में कमरा बुक करवाने का जुगाड़ करता हूँ तो उन्होंने सख्त मना कर दिया. बोले हम
तुम्हारे साथ ही रहेंगे. मैं वडाला की झोपडपट्टी से सटी साल्ट लैब के मजदूरों की
कॉलोनी में रहता था, छोटी सी चाल में. एक ही कमरा था. टॉयलेट-बाथरूम भी बाहर था.
हमने फर्श में ही दरी-चादर बिछाई और सब साथ ही सो गए. संगीता को अटपटा लगा तो बोले
कि ये ही जीवन की सच्चाई है. वे बहुत व्यावहारिक थे. आलस्य उनमें बिलकुल भी नहीं
था. खाना बहुत अच्छा बनाते थे. अनेक बार हमें भी खिलाया. बेहद सात्विक. जब भी मैं
नौकरी बदलता, उन्हें जरूर सूचित करता. कई बार उन्हें लगता कि मैं शायद फिजूल ही
उछलकूद कर रहा हूँ. इसलिए पूछ लेते कि मैं तरक्की के लिए नौकरी बदल रहा हूँ या यूं
ही? अमर उजाला में कार्यकारी सम्पादक हुआ तो मैंने उनसे कुछ संस्मरण लिखवाए.
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और मुल्क राज आनंद पर उन्होंने बेहतरीन संस्मरण
लिखे, जिन्हें हमने छापा. नवम्बर 2012 में मेरे बेटे पुरु
की शादी चंडीगढ़ में हुई तो वे रात एक बजे तक बैठे रहे और हम सबसे गप्प करते रहे.
ऐसे गुरु कहाँ मिलते
हैं? रजनी कांत पाण्डेय निस्संदेह भाग्यशाली रहे कि उन्हें न सिर्फ भारद्वाज जी
जैसा गाइड मिला, अपितु उनका विश्वास भी प्राप्त हुआ. इससे भी बड़ी बात यह कि अंतिम
समय में प्रो. भारद्वाज की सेवा का अवसर भी उसे मिला. मेरा विश्वास रहा है कि यदि
भारद्वाज जी जैसा गुरु न मिला होता तो रजनी की ऊर्जा चैनलाइज नहीं हो पाती. यह भी
विधि का विधान ही था कि अंतिम समय में रजनी उनके पास रहा. (इस संस्मरण का संपादित संक्षिप्त रूप 10 अप्रैल, २०१६ के दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित हुआ.)
श्रद्धापूर्वक नमन...
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-04-2016) को अति राजनीति वर्जयेत् (चर्चा अंक-2314) पर भी होगी।
--
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर श्रद्धा सुमन .
जवाब देंहटाएंसादर श्रद्धा सुमन .
जवाब देंहटाएंप्रो.भारद्वाज के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला। 1980-81 में एम.फिल. करने के दौरान मुझे भी अमृतसर में उनके दर्शन करने का अवसर मिला है। मैंने अपना ज्ञान बघारने के लिए उनसे पूछ लिया, आपके यहां से प्रतिशोध नामक शोध पत्रिका निकलती है न। उन्होने विनोदप्रियता और सौम्यता से उत्तर दिया, हमारा तो किसी से प्रतिशोध नहीं है। हां परिशोध पत्रिका जरूर निेकलती है। मेरे पास खिसियाने के सिवा कोई चारा न था।
जवाब देंहटाएंबाद में हिमाचल पत्रिका निकाली तब भी उनसे संपर्क किया।
भावभाीनी श्रद्धांजलि।
गोपाल गौड़: आप को जब हम अपने हृदय में रखना चाहते हैं, तो आप के गुरु तो अंतर मन में विराजमान होंगे ही !
जवाब देंहटाएंशत शत नमन
शत शत नमन
शैला दुबे: Sahi shrandhajali hain
जवाब देंहटाएंसतीश शर्मा: अपने गुरू को नमन और आपके गुरू जी को भावभीनी श्रद्धांजली।
जवाब देंहटाएंचन्द्र दत्त तिवारी: ईश्वर उनकी आत्मा को शांति व परिजनों को इस दुख को सहने की शक्ति ।
जवाब देंहटाएंप्रीति पाण्डेय: Saadar Naman!
जवाब देंहटाएंडॉ. राम गोपाल शर्मा: एक अच्छे अध्यापक का जाना दुखद है।पाश्चात्य काव्य शास्त्र के वो विशेषज्ञ थे।हम उनसे पढ़े। भगवान उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें।
जवाब देंहटाएंप्रत्यूष गुलेरी: बहुत अफसोसजनक हिंदी की महान
जवाब देंहटाएंशख्सीयत चली गई जिसने हिमाचल
की सुगंध देश में समस्त फैलाई!
पंजाब विश्वविद्यालय में सेवाएं देकर
नाम ऊंचा किया|शिष्यों के प्रति ही
प्रेमशील नहीं रहे किसी भी शोधछात्र
की मदद के लिए तत्पर रहे!सादर
नमन्!! ओम् शांति शांति!!