बुधवार, 16 सितंबर 2015

सरकारी स्कूलों को बचाइए


शिक्षा/ गोविन्द सिंह
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सचमुच आँखें खोल दी हैं. उसने केवल उत्तर प्रदेश के सरकारी प्राइमरी स्कूलों की दशा की पोल नहीं खोली है, वरन पूरे देश की सरकारी स्कूल व्यवस्था पर करारा तमाचा जड़ दिया है. आखिर ये नेता, ये अफसर, ये अमीर लोग आम जनता को समझते क्या हैं? अपने लिए अच्छे-अच्छे स्कूल, साहब बनाने वाले स्कूल और गरीब जनता के लिए सड़े-गले स्कूल. जहां न पानी है, न टॉयलेट है, न भवन है, न प्रयोगशाला है. जहां न शिक्षक है और न ही किताबें हैं. ऐसी अंधेरगर्दी तो अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं थी. तब इक्का-दुक्का ही स्कूल अमीरों के लिए या राजे-रजवाड़ों के बच्चों के लिए आरक्षित थे, बाक़ी सब एक समान सरकारी स्कूलों में पढ़ते थे. सरकारी स्कूल भी ठीक-ठाक थे. संख्या में वे ज्यादा नहीं थे, पर जितने थे, अच्छे थे. आज की तरह भलेही साधन-संपन्न नहीं थे, किन्तु वहीं से पढ़कर आज के हुक्मरान निकले थे.
आज से चालीस साल पहले कितने पब्लिक स्कूल थे? लगभग ९८ फीसदी लोग सरकारी स्कूलों में जाते थे. क्या वहाँ से निकल कर लोग डाक्टर या इंजीनीयर नहीं बने? क्या अध्यापक-प्रोफ़ेसर नहीं बने? क्या आईएएस-आईपीएस नहीं बनते थे? क्या वे अंग्रेज़ी नहीं जानते थे? क्या उन्हें विज्ञान या गणित नहीं पढ़ाया जाता था? सचाई यह है कि उन स्कूलों में पढ़े हुए लोग कहीं ज्यादा योग्य, समझदार और प्रतिभाशाली निकलते थे. उनमें पढ़ाने वाले अध्यापक कहीं ज्यादा प्रतिबद्ध और अपने काम के प्रति समर्पित थे.
अंग्रेज़ी माध्यम के तथाकथित पब्लिक स्कूलों की ऐसी आंधी आयी कि सरकारी स्कूल-व्यवस्था भरभराकर गिर गयी. हमारे राजनेताओं और ब्यूरोक्रेटों ने भी इस आंधी के समक्ष शतुरमुर्ग की तरह आँखें मूँद लीं. उन्होंने यह मान लिया कि सरकारी स्कूल बेकार हैं, वहाँ भेजकर बच्चे को बर्बाद ही करना हुआ. तो उन्होंने सबसे पहले अपने बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूलों में भेजना शुरू किया. समाज के अमीर-वर्ग को तो मौक़ा चाहिए था. धीरे-धीरे पूरे मध्य-वर्ग ने सरकारी स्कूलों से खुद को बाहर निकाला. उनकी देखा-देखी निम्न मध्य-वर्ग और निम्न वर्ग भी पब्लिक स्कूलों की ओर अग्रसर होने लगा. केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों के लिए केन्द्रीय विद्यालय खोल दिए. ऐसे ही नवोदय विद्यालय भी कुछ बच्चों के लिए आरक्षित हो गए. यानी हर स्तर के लोगों के लिए पब्लिक स्कूल हाजिर होने लगे. बचे रह गए गरीब और उनके लिए सरकारी स्कूल. नतीजा यह हुआ कि सरकारी स्कूलों में वीरानी का साया मंडराने लगा. इससे भी ज्यादा यह हुआ कि जब समाज के प्रभावशाली वर्ग का इन स्कूलों से रिश्ता टूट गया तो इनकी तरफ ध्यान देना भी बंद कर दिया गया. एक पूरे प्राइमरी स्कूल में एक ही अध्यापक से काम चलाने की प्रथा चल पड़ी. कहीं-कहीं तो वह भी शिक्षा-मित्र यानी ठेके के मुलाजिम से यह काम लिया जाने लगा. सस्ती वाहवाही लूटने के लिए नेता धड़ाधड स्कूल खोलने की घोषणाएँ करने लगे, बिना यह देखे कि कोष में अध्यापक रखने के लिए धन भी है या नहीं? स्कूल के लिए जगह भी है या नहीं. स्कूलों की संख्या जितनी ही ज्यादा होती गयी, शिक्षा का स्तर उतना ही नीचे गिरता गया. लिहाजा आज गाँव के लोग, जो थोड़ा भी खर्च उठा सकते हैं, अपने बच्चों को गाँव के स्कूल में न भेज कर नजदीकी कसबे के कथित पब्लिक स्कूल में पढने भेज रहे हैं. मृग-मरीचिका यह है कि वहां भी जो शिक्षा दी जा रही है, वह बेहद अधकचरी है. ऊपर से हमारे राजनेताओं की अदूरदर्शिता और अज्ञान यह कि कभी वे परीक्षा में खुल्लम-खुल्ला नक़ल करने का क़ानून बनाते तो कभी बिना परीक्षा पास किये अगली कक्षा में प्रोन्नत करने के आदेश देने लगे. जिसने पूरे उत्तर भारत में शिक्षा को बरबाद करके रख दिया.
पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढाई का स्तर कुछ सुधरा है. चंडीगढ़ में सरकारी स्कूलों का स्तर लगभग वैसा ही है, जैसा केन्द्रीय विद्यालयों का होता है. लेकिन उत्तर भारत के बाक़ी राज्यों का हाल बेहद खराब है. इसके लिए सबसे ज्यादा दोषी अगर कोई है तो वह है राजनेता, जिसके स्वार्थ के कारण शिक्षा का राजनीतिकरण हुआ. जिसकी अदूरदर्शिता के कारण स्कूलों की संख्या तो बढी, किन्तु शिक्षा का स्तर गर्त में चला गया. जिसके गलत फैसलों की वजह से शिक्षा का अपराधीकरण हुआ. उसके बाद ब्यूरोक्रेसी दोषी है. जिसे अदालत ने शायद सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना है. उसने सरकारी स्कूलों की व्यवस्था की तरफ से आँखें मूँद लीं. निस्संदेह हम सब लोग भी उतने ही दोषी हैं, जो अपनी सरकारों की आपराधिक लापरवाही को नजरअंदाज करते रहे.
सवाल यह है कि अब क्या होगा? क्या वाकई उच्च न्यायालय का आदेश लागू होगा? अभी से इसे अव्यावहारिक कह कर मखौल उड़ाया जाने लगा है. अदालत सख्ती करेगा तो शायद अगली अदालत में चुनौती देने की जुगत भी हो रही होगी. वास्तव में नासूर इतना भयावह हो चुका है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले से इसका ऑपरेशन हो पायेगा, संभव नहीं लगता. अलबत्ता न्यायालय ने छः महीने के भीतर इस हेतु जो योजना बनाने का निर्देश दिया है, यदि वह भी बन जाए तो बहुत बड़ी बात होगी. इससे भी जरूरी यह है कि अन्य राज्य भी ऐसी ही योजना बनाएं और अपने स्कूलों को बेमौत मरने से बचाएं. (दैनिक जागरण, 23 अगस्त, २०१५ से साभार)     
  

               

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