भाषा समस्या/ गोविन्द सिंह
विश्व हिन्दी सम्मलेन से पहले कुछ हिन्दी
प्रेमी मित्रों ने यह आशंका जताई थी कि इस बार के सम्मेलन का एक हिडन एजेंडा भी है,
कि सम्मेलन में ऐसा प्रस्ताव पारित हो सकता है कि हिन्दी के विस्तार को देखते हुए
देवनागरी की जगह रोमन को हिन्दी की लिपि के रूप में स्वीकार कर लिया जाए. आशंका के
विपरीत सम्मेलन में ऐसा कुछ नहीं हुआ. उलटे कुछ सत्रों में यह चिंता जाहिर की गयी
कि इस तरह की किसी भी कोशिश का मुंहतोड़ जवाब दिया जाना चाहिए. आशंका जताने वालों
का तर्क यह था कि चूंकि इस बार माइक्रोसॉफ्ट, गूगल,
सीडेक या ऐसी ही बड़ी कंपनियों को बुलाया जा रहा है, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय
व्यापारियों की मांग को देखते हुए ऐसा फैसला हो सकता है. कम्पनियां भी आयीं और
उन्होंने हिन्दी में हो रहा अपना काम भी प्रदर्शित किया, लेकिन रोमन लिपि का आग्रह
किसी सत्र में नहीं दिखाई पड़ा.
भलेही इस सम्मेलन में ऐसी कोई बात नहीं हुई,
लेकिन यह सच है कि हिन्दी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती लिपि की ही है. इसमें कोई
दो-राय नहीं कि हिन्दी का परिदृश्य लगातार बदल रहा है. उसमें विस्तार हो रहा है. लेकिन
उसकी चुनौतियां भी कम नहीं हो रहीं. कुछ चुनौतियां कृत्रिम हैं तो कुछ जायज भी
हैं. लिपि की चुनौती को मैं जायज मानता हूँ. इसलिए कि हिन्दी भाषी समाज में यह समस्या
जंगल की आग की तरह फ़ैल रही है. गिनती के मामले में अंग्रेज़ी के अंकों को स्वीकार
कर हम पहले ही समर्पण कर चुके थे. नतीजा यह हुआ कि आज की पीढ़ी में शायद ही हिन्दी
की गिनती को कोई समझता हो. अंग्रेज़ी के अंकों को हिन्दी में क्या बोलते हैं, यह भी
नई पीढी नहीं जानती है. हिन्दी चैनलों में काम करने को आने वाले युवा पत्रकारों को
सबसे ज्यादा मुश्किल इसी में होती है. हिन्दी पढ़े-लिखे युवा भी अभ्यास न होने की
वजह से वर्णमाला के सभी अक्षरों को नहीं बोल सकते. नई टेक्नोलोजी के आने के बाद
वाकई देवनागरी में व्यवहार मुश्किल होता गया. चूंकि कम्प्यूटर का आविष्कार पश्चिम
में ही हुआ, और जो भी कोई नई प्रगति होती है, वह भी वहीं से होती है, इसलिए सब कुछ
अंग्रेज़ी में ही आरम्भ होता है. जो देश प्रौद्योगिकी की दृष्टि से उन्नत हैं, वे
जरूर अपनी भाषाओं में शुरुआत करते होंगे. लेकिन हमारे यहाँ चूंकि अंग्रेज़ी का
बोलबाला है, इसलिए कोई भी नई चीज हमारे यहाँ पहले अंग्रेज़ी में ही पहुँचती है.
मीडिया की जरूरतों के कारण कोई चीज हिन्दी या भारतीय भाषाओं में आती भी है तो बहुत
देर से. मसलन इन्टरनेट आया तो हमारे सामने फॉण्ट की समस्या पैदा हुई. शुरुआती
दिनों में हिन्दी की जो साइटें बनती थीं, पहले उनके फॉण्ट डाउनलोड करने पड़ते थे. मेल
के साथ फॉण्ट भी भेजने पड़ते थे. लिहाजा हिन्दी की साइटें बड़ी बोझिल होती थीं, वे
खुलने में ही बड़ी देर कर देती थीं. वर्ष 2000 में जाकर माइक्रोसॉफ्ट ने कम्प्यूटर
के भीतर ही मंगल नामक यूनिकोड फॉण्ट देना शुरू किया. लेकिन यह बड़ा ही कृत्रिम लगता
है. देवनागरी का सौन्दर्य उसमें दूर-दूर तक नहीं झलकता. खैर बाद में कुछ और फॉण्ट
यूनिकोड पर आये और हिन्दी की दशा सुधरी. लेकिन की-बोर्ड की समस्या बरकरार रही.
पुराने लोग या पारंपरिक तरीके से टाइप करने वाले लोग रेमिंगटन की-बोर्ड में काम
करते हैं, सी-डेक ने फोनेटिक की-बोर्ड बनाया. यह ज्यादा वैज्ञानिक है, किन्तु
पुराने लोग इसे नहीं अपनाते. इसी तरह गूगल के ट्रांसलिटरेशन सॉफ्टवेर के जरिये
टाइप करने वाले रोमन के आधार पर करते हैं. इसके आने से पहले ई-मेल भी हम हिन्दी
में नहीं कर पाते थे. अखबारों के दफ्तरों में अक्सर कम्प्यूटरों पर तीन तरह के की-बोर्ड
बने होते हैं. ताकि किसी को मुश्किल न हो. अर्थात एक अजीब-सी अराजकता यहाँ भी
व्याप्त हो गयी. इसलिए कंप्यूटर का आम उपयोगकर्ता इस झमेले में पड़े बिना सीधे रोमन
में काम शुरू कर देता है. चाहे मेल करना हो या कोई छोटा-मोटा नोट लिखना हो. वरना
उसे किसी पेशेवर टाइपिस्ट की शरण लेनी पड़ती है. इसी तरह अंग्रेज़ी में स्पेलिंग चेक
करने वाला सॉफ्टवेर होता है, व्याकरण जांचने वाला सॉफ्टवेर होता है, हिन्दी में बीस
साल बाद अब जाकर इस तरह के प्रयास सामने आ रहे हैं, फिर भी वे बहुत कम इस्तेमाल हो
रहे हैं. यही बात मोबाइल पर भी लागू होती है. किसी भी नई अप्लिकेशन के हिन्दी में
आते-आते छः महीने लग जाते हैं. इसलिए नए बच्चे धड़ल्ले से रोमन में हिन्दी लिख रहे
हैं. वे रोमन को इसलिए नहीं अपनाते कि यह बहुत अच्छी लिपि है, इसलिए कि यह सहज ही
उपलब्ध है और सब तरफ इसी का माहौल है. दूसरी तरफ देवनागरी लिपि को लोकप्रिय बनाने
के लिए हमने कुछ किया ही नहीं.
पिछले दिनों कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी
ने संसद में बड़े जोरदार तरीके से सरकार पर हमला किया. वे हिन्दी में बोल रहे थे,
लेकिन उनके हाथ में जो पर्ची थी, वह रोमन में थी. इस पर बड़ा हंगामा हुआ. टीवी रिपोर्टों
में दिखाया गया कि राहुल इतनी-सी हिन्दी भी नहीं जानते. वास्तव में हिन्दी तो वह
जानते हैं, पर देवनागरी लिपि में अभ्यस्त न होने से उन्हें ऐसा करना पड़ा होगा.
इसमें हाय-तौबा करने वाली कोई बात नहीं थी, क्योंकि आज बड़ी संख्या में देश के युवा
ऐसा ही कर रहे हैं. चूंकि हमारे यहाँ अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है, बच्चों को स्कूल
से ही हिन्दी से हिकारत करना सिखाया जाता है, इसलिए उन्हें रोमन का ही अभ्यास रहता
है. फिल्म इंडस्ट्री में काम करने वाले तमाम दक्षिण भारतीय कलाकार रोमन में ही अपनी
पटकथा बांचते हैं. अहिन्दी भाषियों को जाने दीजिए, पढ़े-लिखे हिन्दी भाषी ही फक्र
के साथ यह कहते हुए सुने जाते हैं कि ‘आई डोंट नो हिन्दी’. विज्ञापन जगत में काम
करने वाले ज्यादातर लोग यही करते हैं. कुछ हिन्दी मीडिया घराने भी चाहते हैं कि
हिन्दी की लिपि देवनागरी हो जाए. वे यदा-कदा अपने अखबारों में हिन्दी के बीच में
अंग्रेज़ी के प्रचलित शब्दों को रोमन लिपि में छापते भी हैं. पिछले दिनों अंग्रेज़ी
के बहु-चर्चित लेखक चेतन भगत ने भी घिसी-पिटी दलीलों के साथ रोमन की वकालत करने
वाला लेख लिख मारा, जिसे एक बड़े अंग्रेज़ी अखबार ने तो छापा ही, बड़े हिन्दी अखबार
ने भी छाप डाला. इसमें इन युवाओं का कोई दोष नहीं है. दोष है तो हमारी सरकारों का.
जिसने हिन्दी को शिक्षा से लगभग बेदखल कर रखा है, जो बचपन में ही हमारे नौनिहालों
के मन में हिन्दी के प्रति घृणा भाव भर देती है और अंग्रेज़ी को श्रेष्ठ भाषा मानने
को विवश कर देती है. सरकार चाहे तो नई टेक्नोलोजी को हिन्दी में लागू करवा सकती
है. कम्प्यूटर में, मोबाइल में, टैबलेट में, अईपैड में, अंग्रेज़ी की बजाय हिन्दी
को पहली भाषा बनवा सकती है. लेकिन उसने कभी ऐसा नहीं किया. पिछले छः दशकों के साथ
यह हो रहा है. रोमन या देवनागरी से ज्यादा यह हमारी सरकारों के मानसिक दीवालियेपन
का सबूत है.
एक बार फिर रोमन-परस्त ताकतें सर उठा रही हैं.
आजादी से पहले भी ये लोग रोमन की वकालत कर रहे थे. लेकिन तब राष्ट्रवाद का ज्वार
इतना तेज था कि ये अलग-थलग पड़ गए. वे यह नहीं जानते कि देवनागरी लिपि इस देश की
भाषाओं की अभिव्यक्ति की सबसे उपयुक्त लिपि है. वह केवल सौ साल में नहीं बनी. वह ब्राह्मी-खरोष्ठी और शारदा का
स्वाभाविक विकसित रूप है और दुनिया की सर्वाधिक वैज्ञानिक लिपि है. उन्हें यह भी
नहीं पता कि रोमन लिपि अंग्रेज़ी भाषा को ही ठीक से व्यक्त नहीं कर पाती. वह एक
अत्यंत अराजक लिपि है. अंग्रेज़ी के महान लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ खुद इस लिपि को
किसी लायक नहीं समझते थे. उन्होंने अपनी वसीयत में एक अच्छी-खासी रकम इस लिपि की
जगह किसी नई लिपि के विकास के लिए रखी थी. रोमन लिपि न उच्चारण की दृष्टि से मानक
है और न ही एकरूपता के लिहाज से, जबकि देवनागरी लिपि जैसी बोली जाती है, वैसी ही
लिखी भी जा सकती है. ऐसी लिपि की अवहेलना निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण होगा. (अमर
उजाला, 27 सितम्बर, 2015 को प्रकाशित लेख का अविकल
रूप)