मीडिया/ गोविन्द सिंह
शाहजहांपुर में जिस
तरह से जगेन्द्र सिंह नाम के स्वतंत्र पत्रकार की आग लगाकर कथित हत्या की गयी,
उसने एक बार फिर भारत को प्रेस-विरोधी देशों की अग्र-पंक्ति में लाकर रख दिया है.
रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की प्रेस फ्रीडम सूची में भारत 180 में से 136वें पायदान पर है. इस सूची में हम बहुत-से गरीब अफ्रीकी
देशों और नेपाल जैसे पड़ोसी देश से पीछे हैं. हाँ, पाकिस्तान, बांग्लादेश और चीन
जरूर हमसे भी पीछे हैं. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दम भरने वाले देश के
लिए यह कोई बहुत अच्छी स्थिति नहीं है.
प्रेस की आजादी और मानवाधिकारों की निगरानी
रखने वाली दुनिया भर की संस्थाओं ने जगेन्द्र की हत्या की भर्त्सना की है और मामले
की निष्पक्ष जांच करवाने की अपील की है. लेकिन निष्पक्ष जांच कहाँ से होगी! बल्कि
खबर यह भी आ रही है कि एक और पत्रकार धीरज पांडे को सत्ता पक्ष के एक अन्य नेता
द्वारा जबरदस्त यातना देने के बाद राजधानी लखनऊ के अस्पताल में भरती कराना पडा है.
पीलीभीत में एक पत्रकार को घसीट-घसीट कर पीता गया. इधर मध्य प्रदेश में भी एक और
पत्रकार संदीप कोठारी को भी मारा गया है. जिस ढिलाई के साथ उत्तर प्रदेश सरकार जगेन्द्र
मामले को ले रही है और मुख्य आरोपी के खिलाफ कोई कदम उठाने में हिचक रही है, उससे
हमारी क़ानून-व्यवस्था, राजनीति और राजनेताओं के इरादों पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगता
है. जब देश और दुनिया भर में इस मामले में पत्रकार और मानवाधिकार संगठन लामबंद
होने लगे तो सरकार ने जगेन्द्र के परिजनों को कुछ धन और नौकरी देने का आश्वासन
देकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की है. लेकिन असल बात यह है कि उत्तर प्रदेश,
बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र में पत्रकारों की स्थिति लगातार खराब होती जा रही है.
उन पर हमले बढ़ रहे हैं.
आखिर क्यों ऐसा हो
रहा है? क्यों छोटे शहरों में पत्रकारिता करना लगातार मुश्किल होता जा रहा है?
पुलिस, अफसर और राजनेता क्यों पत्रकारों को हिकारत भरी निगाहों से देखते हैं? इसके
लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. सरकारों के अलावा
पत्रकारों, पत्रकार संगठनों, पत्र-स्वामियों को भी इस विषय पर गंभीरता से सोचना-विचारना
होगा. इक्का-दुक्का पत्रकारों की रहस्यमय हत्याएं पहले भी होती थीं, लेकिन अब यह
बहुत ही आम-फहम हो गया है. हाल के वर्षों में पत्रकारों के प्रति घृणा-भाव में
बेतहाशा वृद्धि हुई है. पहले पत्रकारों के पक्ष में समाज खडा रहता था. सम्पादक
स्वयं पत्रकारों के अधिकारों के लिए लड़ जाया करते थे. पत्रकार-संगठन और ट्रेड
यूनियनें हमेशा पीछे खड़ी रहती थीं. पत्र-स्वामी स्वयं भी जुझारू हुआ करते थे.
पत्रकारीय मूल्यों के पक्ष में डटे रहते थे. सरकारों के भीतर भी ऐसे लोग हुआ करते
थे, जो पत्रकारीय मूल्यों से इत्तिफाक रखते थे. जब भी पत्रकार और पत्रकारिता पर
कोई संकट आता था, समाज उसके पक्ष में ढाल बनकर खडा हो जाता था.
लेकिन आज पत्रकार पिट
रहे हैं, बेमौत मारे जा रहे हैं. यदि थोड़ा-सा भी समाज का भय होता तो क्या जगेन्द्र
को इस तरह से जलाकर यातनाएं दी जातीं? जगेन्द्र तो किसी अखबार से भी सम्बद्ध नहीं
था! फिर भी इतनी असहिष्णुता? वास्तव में हमारे समाज से सहिष्णुता लगातार कम हो रही
है. सत्ता-केन्द्रों पर बैठे लोग तनिक भी अपने खिलाफ नहीं सुन सकते. सत्य की दुर्बल
से दुर्बल आवाज से भी वे खौफ खाए रहते हैं. जैसे ही उन्हें लगता है कि कोई उनकी सचाई
उजागर कर रहा है, वे उसे निपटाने में लग जाते हैं. लेकिन दुर्भाग्य इस बात का भी
है कि स्थानीय पत्रकारिता में मूल्यों का अन्तःस्खलन भी कम नहीं हुआ है.
पत्रकारिता का अतिशय फैलाव होने से इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में दलाल उतर आये हैं.
उन की वजह से यह पेशा बदनाम होता जा रहा है. ऐसे व्यापारी इस क्षेत्र में कदम रख
रहे हैं, जिनके पास पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है. पत्रकारिता का कोई मकसद उनके
पास नहीं है. वे अपने काले धंधों को सफ़ेद करने के लिए पत्रकारिता को ढाल की तरह से
इस्तेमाल करते हैं. पत्रकारिता के जरिये अपने खिलाफ कार्रवाई करने वाले विभागों के
खिलाफ ब्लैकमेल करते हैं. वे कुछ दिन तक तो पत्रकारों को नौकरी पर रखते हैं, उसके
बाद उन्हें नौकरी से हटा देते हैं. समाज में थोड़ी-सी छवि बनते ही वे दलालों को भरती
करने लगते हैं या फिर बहुत कम मेहनताने पर पत्रकारों को नियोजित करते हैं, ताकि
पत्रकार खुद ही ब्लैकमेलिंग के दुष्चक्र में फँस जाएँ. ऐसे पत्रकारों का समाज में क्या
आदर होगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है.
इसलिए समाज में अमूमन पत्रकारों के
प्रति आदर घटता जा रहा है. कुछ साल पहले पटना में हमारे बहुत अच्छे मित्र एन डी टी
वी के संवाददाता प्रकाश सिंह की भी बेमतलब पिटाई हो गयी थी. जबकि उनकी कोई गलती थी
ही नहीं. चूंकि राजनेता पत्रकारों से खफा था, वह किसी एक पत्रकार को पीटकर यह
सन्देश देना चाहता था कि वह ऐसा भी कर सकता है, इसलिए जो भी पत्रकार हाथ आ गया
उसके साथ बदतमीजी कर ली गयी. मेरे एक मित्र दिल्ली के बड़े चैनल में वरिष्ठ पत्रकार
हैं, वे कहते हैं, एक दिन आयेगा जब समाज हमें चुन-चुन कर पीटेगा, लोग दौड़ा-दौड़ा कर
मारेंगे. जब पत्रकारिता की नौकरी छोड़ कर पढ़ाने आया तो शुरू में तो लोग स्वागत
करते, लेकिन बाद में पूछते कि आखिर इस पेशे का ये हाल क्यों ऐसा हो गया? क्यों ऐसे
लोग पत्रकार बनने लगे हैं? अकसर लोग यह पूछते हैं कि क्या इस पेशे में प्रशिक्षण
की कोइ व्यवस्था नहीं है? कोई शिकायत करता कि इस पेशे के लोग इतने बदजुबान क्यों
हो गए हैं? जबकि आज से तीन दशक पहले जब हम पत्रकारिता में आये थे, तो लोग इस पेशे
को बहुत इज्जत देते थे. उनके लिखे को ध्यान से पढ़ा जाता था. आज एकदम उलट हो गया
है. जब प्रेस परिषद् के अध्यक्ष काटजू साहब ने कहा था कि इस पेशे के लिए भी
योग्यता तय होनी चाहिए, तो लगा था कि इसमें गलत क्या है! यही वजह है कि अब किसी
पत्रकार को पिटता हुआ देख कर कोई बचाने नहीं आता. यह स्थिति लगातार बिगडती जा रही
है. बड़े शहरों की बात नहीं कहता, छोटे शहरों-कस्बों में स्थिति हद से बाहर हो रही
है. जबकि यही हिन्दी पत्रकारिता की आधारभूमि है. इसे बचाया जाना चाहिए.
(हिन्दुस्तान, १६
जून, २०१५ में छपे लेख का विस्तारित रूप.)