राजनीति/ गोविन्द सिंह
हमारे लोकतंत्र की
सबसे बड़ी कमजोरी क्या है? इस सवाल का तत्काल उत्तर यही हो सकता है कि हमारी चुनाव
प्रणाली ठीक नहीं है. वह योग्य लोगों को चुन कर संसद या विधान सभाओं में नहीं भेज
पाती. और यदि चुनाव प्रणाली की सबसे बड़ी खामी तलाशें तो पता चलता है कि मतदान में
जनता की अल्प भागीदारी ही वह खामी है, जिसकी वजह से हम विश्वसनीय लोकतंत्र नहीं
बना पा रहे. मतदान की गड़बड़ी के ही कारण बहुत कम लोगों के समर्थन से आप चुन कर
संसद-विधान सभा पहुँच जाते हैं. मसलन किसी चुनाव क्षेत्र में दस लाख मतदाता हैं. उनमें
से लगभग ५० प्रतिशत यानी पांच लाख लोग ही मतदान करते हैं. ये ५० प्रतिशत वोट तमाम
उम्मीदवारों में बंट जाते हैं. ये उम्मीदवार दो-चार या दस कितने ही भी हो सकते
हैं. जीतने वाला उम्मीदवार डाले गए वोटों के ज्यादा से ज्यादा ४० प्रतिशत वोट हासिल कर पाता है. अर्थात
मुश्किल से दो लाख मतदाता किसी प्रत्याशी को जिता सकते हैं. यदि किसी क्षेत्र में
दो लाख मतदाता किसी एक जाति या धर्म के हुए और वोटों का ध्रुवीकरण हो गया तो उस
जाति या धर्म का उम्मीदवार चुनाव जीत सकता है. यानी कुल मतदाताओं के २० प्रतिशत
मतदाता किसी चुनाव को जीतने के लिए काफी होते हैं. क्या किसी भी नजरिये से इसे
बहुमत कहा जा सकता है? शायद नहीं. यह लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के विरुद्ध है.
क्या यह जन प्रतिनिधित्व के मानकों पर खरा उतरता है? शायद नहीं. तो इसका क्या
समाधान है?
दुनिया में जहां भी
लोकतांत्रिक व्यवस्था है, ये सवाल उठते रहे हैं. इसलिए २२ देशों में मतदान को
अनिवार्य करने के लिए क़ानून बन चुका है. दस देशों में इसे अनिवार्यतः लागू भी किया
जा चुका है. हमारे देश में भी गुजरात विधान सभा इसे पारित कर चुकी है. अर्थात
देर-सबेर यह लागू हो ही जाएगा. इसलिए जब यह मुद्दा राष्ट्रीय पटल पर उछला तो ज्यादातर
विपक्षी दलों ने चुप्पी साध ली. शायद इसलिए कि इसका श्रेय नरेन्द्र मोदी को मिल
सकता है. लेकिन इसी बीच निर्वाचन आयोग का बयान आया है कि यह अव्यावहारिक होगा.
आयोग की यह टिप्पणी हजम नहीं हो रही, क्योंकि जो आयोग मतदान का प्रतिशत बढाने के
लिए जागरूकता पर सेमीनार करवाता रहता है, आखिर वह क्यों इसकी मुखालफत कर रहा है.
गौरतलब यह भी है कि आयोग तो सिर्फ लागू करने वाली संस्था है. इस तरह से पञ्च फैसला
देने का उसके पास कोई अधिकार नहीं है.
बेशक मतदान को
अनिवार्य करने से पहले इसके तमाम पहलुओं पर विचार-विमर्श होना चाहिए. लेकिन अब समय
आ गया है कि लोकतंत्र में अधिकाधिक लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कोई न
कोई कदम उठाना ही चाहिए. केवल १५-२० फीसदी वोटों से चुनाव जीतने मात्र से ही कोई
बहुसंख्य लोगों का प्रतिनिधि नहीं हो सकता. यह लोकतंत्र के नाम पर रस्म अदायगी है.
जब हमारे संविधान निर्माताओं ने वयस्क मताधिकार का प्रावधान रखा था, तब इसे
अनिवार्य न करने के पीछे एकमात्र कारण यह था कि भारत में शिक्षा का प्रसार नहीं
था, लोग लोकतंत्र के बारे में उस तरह से जागरूक नहीं थे, जैसे आज हैं. आज भी कई
लोग यही कह रहे हैं कि भारत जैसे गरीब और विविधतापूर्ण देश में इसे जबरन लागू करना
व्यावाहारिक नहीं है. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि मतदान को नजरअंदाज करने वाले
ज्यादातर वे ही लोग हैं, जो लोकतंत्र का फल चख कर ही अमीर हुए हैं. अमीर और मध्य
वर्ग के लोग ही ज्यादातर वोट डालने मतदान केंद्र नहीं पहुँचते या वे इसे गंभीरता
से नहीं लेते. आश्चर्य की बात यह है कि जो लोग वोट नहीं डालते, वे ही बात-बात पर
लोकतंत्र को कोसते हैं. अनिवार्य मतदान का विरोध करने के पीछे यह डर भी है कि अभी
तक वे थोड़े से वोटो के बल पर चुनाव जीत लेते थे, इसके लागू होने पर मेहनत ज्यादा
करनी पड़ेगी. फिर वोट बैंक की राजनीति भी इससे ध्वस्त हो जायेगी. ऐसा नहीं हो सकता
कि आप मतदाताओं के एक वर्ग को पटा लें और उसी के बल पर बहुमत पर राज करें. तब वही
जन प्रतिनिधि चुना जाएगा, जो सभी वर्गों और तबकों का समर्थन हासिल कर पायेगा. अमेरिका
जैसे देश में भी अब यह मांग उठ रही है कि क्यों न मतदान को अनिवार्य कर दिया जाए.
आस्ट्रेलिया के अनुभव से प्रेरित होकर तमाम पश्चिमी देश इस तरफ झुक रहे हैं. दरअसल
मताधिकार का मतलब यह नहीं है कि आप अपने अधिकार को किसी और के हाथ गिरवी रख दें.
अनिवार्य मतदान का अर्थ यह भी है कि आप
अपने अधिकार को खुद इस्तेमाल करें और अपने मुस्तकबिल को खुद अपने हाथ से
लिखें. (दैनिक जागरण, २७ अप्रैल, २०१४ से साभार)