भाषा समस्या/ गोविंद सिंह
यह महज एक संयोग ही है कि एक तरफ सुप्रीम
कोर्ट ने राजभाषा हिन्दी को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जबकि दूसरी तरफ न्यायपालिका और प्रशासन में भारतीय भाषाओं को लागू करने की
मांग को लेकर राजधानी दिल्ली में दो बड़े धरने चल रहे हैं और देश के कोने-कोने से
इस तरह की आवाजें उठ रही हैं. कांग्रेस मुख्यालय के बाहर पिछले पांच महीनों से
श्याम रूद्र पाठक सुप्रीम कोर्ट में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता खत्म करने को लेकर धरने
पर बैठे हैं तो भारतीय भाषा आंदोलन के तहत पुष्पेन्द्र सिंह चौहान और अन्य लोग
जंतर-मंतर पर सुप्रीम कोर्ट और यूपीएससी में भारतीय भाषाओं को लागू करने की मांग
को लेकर धरना दिए हुए हैं. ये दोनों ही लोग भारतीय भाषाओं को उनका जायज हक दिलाने
के लिए अतीत में भी निर्णायक लड़ाई लड़ चुके हैं. लेकिन इस बार की लड़ाई सचमुच कठिन
है, क्योंकि अदालतों में भारतीय भाषाओं को लागू करने को लेकर
हमारा संविधान भी चुप है. जाहिर है इसके लिए हमारी संसद को भी आगे आना होगा, तभी पूर्ण
स्वराज्य का सपना साकार हो पायेगा.
खैर, अत्यंत
सकारात्मक सूचना यह है कि इसी हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसे मामले को संज्ञान में
लिया और हिन्दी के पक्ष में फैसला दिया, जिसका बड़े पैमाने पर
सरकारी दफ्तरों में हनन होता रहा है. मामला यह है कि भारतीय नौसेना के एक कर्मचारी
मिथिलेश कुमार सिंह के खिलाफ कोई विभागीय कार्रवाई चल रही थी. सिंह ने मांग की कि
उन्हें कार्रवाई से सम्बंधित कागजात हिन्दी में दिए जाएँ. लेकिन कार्यालय ने ऐसा
नहीं किया. सिंह ने भी आगे की कार्रवाई में सहयोग नहीं दिया. यह कोई नई बात नहीं
है. अमूमन हर विभाग के हर दफ्तर में ऐसा होता रहा है. कार्रवाई अंग्रेज़ी में ही
होती है. हिंदीभाषी इलाकों में भी. कर्मचारी भी प्रताडित होने के भय से उसे हिन्दी
में करवाने की मांग नहीं करते. और न सरकारी दफ्तर और न ही अदालतें इस मामले में
राजभाषा का साथ देती हैं. जैसा कि इस मामले में भी हुआ. मिथिलेश कुमार सिंह केन्द्रीय
कर्मचारियों के प्रशासनिक अधिकरण (कैट) के पास भी गए और मुम्बई हाई कोर्ट भी.
लेकिन दोनों ही जगहों से उन्हें दुत्कार ही मिली. यह इसलिए नहीं हुआ कि क़ानून उनके
पक्ष में नहीं था. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहले हमारी अदालतों ने राजभाषा से
सम्बंधित कानूनों पर कभी गौर ही नहीं फरमाया. वे नया कुछ करने से बचती हैं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एचएल दत्तू और जेएस
केहर ने पहली बार राजभाषा से सम्बंधित कानूनों को खंगाला और उन्हें व्यावहारिक
क़ानून के दायरे में रख कर समझा. अभी तक हम इन कानूनों को नख-दन्त-विहीन क़ानून मानते
आये हैं. क्योंकि संविधान में पर्याप्त स्थान पाने और राजभाषा अधिनियम, नियम, संकल्प और तरह-तरह के आदेशों के बावजूद आज भी
लोग इन्हें सिर्फ सूक्ति वाक्यों की तरह ही लेते हैं, कोई
इन्हें व्यवहार में लाने लायक नहीं समझता.
सरकारी कामकाज में हिन्दी को लागू करने को
लेकर कोई भी गंभीर नहीं है. हिन्दी दिवस
पर हर साल एक रस्म अदायगी होती है. हिन्दी में काम करने के नाम पर कर्मचारियों को
पुरस्कार बांटे जाते हैं. हर दफ्तर, शहर, विभाग, मुख्यालय, मंत्रालय और संसद, हर
जगह हिन्दी कार्यान्वयन समितियां बनी हुई हैं. लोग भाषण देकर चले जाते हैं. लेकिन
हिन्दी में काम नहीं होता. काम के लिए हिन्दी कक्ष बना दिए गए हैं. यह प्रक्रिया
१९७६ में राजभाषा नियम बनने के बाद शुरू हुई, लेकिन इससे भी कोई गुणात्मक सुधार
नहीं आ पाया. हिन्दी अनुवादकों और अफसरों की भर्ती तो हो गयी लेकिन हिन्दी में
मौलिक लेखन नहीं बढ़ पाया. लिहाजा हिन्दी अनुवाद की भाषा यानी दोयम दर्जे की भाषा बनकर
रह गयी. १९९१ में नयी अर्थव्यवस्था आने के बाद हिन्दीकरण की इस प्रक्रिया को भी धक्का
लगा, जब हिन्दी से जुड़े स्टाफ को सरकारी दामाद समझा जाने लगा और हिन्दी अफसरों पर इस
बात के लिए दबाव डाला जाने लगा कि वे हिन्दी का काम छोड़ कर किसी और विभाग का काम
सीख लें. इस तरह हिन्दी कक्ष का काम सिर्फ आंकड़े पूरे करना भर रह गया है.
जहां तक हिन्दी को राजभाषा के रूप में सख्ती
से लागू करने का सवाल है, उसकी प्रगति एक कदम आगे, दो कदम पीछे वाली रही है.
संविधान के अनुच्छेद ३४३ में स्पष्ट व्यवस्था होने के बावजूद व्यावहारिक स्तर पर
हिन्दी आज तक अंग्रेज़ी की सौतेली बहन ही बनी हुई है. १९६३ में राजभाषा अधिनियम बना
लेकिन साथ ही दक्षिण भारत में हिन्दी विरोधी दंगे करवा दिए गए. जिससे १९६७ में
इसमें कुछ संशोधन करने पड़े. संशोधन के बाद हिन्दी की स्थिति और भी कमजोर हो गयी.
कहा गया कि ‘अंग्रेजी का प्रयोग तब तक जारी रहेगा,
जब तक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग समाप्त कर देने के लिए ऐसे सभी
राज्यों के विधान मण्डलों द्वारा, जिन्होंने हिन्दी को अपनी राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया
है, संकल्प
पारित नहीं कर दिए जाते और जब तक पूर्वोक्त संकल्पों पर विचार कर लेने के पश्चात्
ऐसी समाप्ति के
लिए संसद के हर एक सदन द्वारा संकल्प पारित नहीं कर दिया जाता’। अर्थात पहले सभी राज्य हाँ करें, फिर संसद के दोनों सदन हाँ कहें, तब
जाकर हिन्दी पूर्ण राजभाषा हो पायेगी. यह असंभव लगता है. कोई भी अहिंदी भाषी राज्य
क्यों ऐसा करेगा? इंदिरा गांधी इस बात को समझ गयीं. इसीलिए आपातकाल के दौरान उन्होंने
कुछ हिन्दी प्रेमियों के आग्रह पर राजभाषा नियम बनाए. चूंकि तब आपातकाल था, इसलिए
यह नियम बन गया, वरना यह भी संभव नहीं था. बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने जिस नियम को
आधार बनाकर नौसेना के मिथिलेश कुमार सिंह को न्याय दिलाया है, वह यही नियम है,
जिसमें १९६७ के अधिनियम के तहत राजभाषा के रूप में हिन्दी को लागू करने में कुछ
सख्ती बरतने की बात है.
कहने का आशय यह है कि हमारे पास नियम है,
क़ानून है, लेकिन कभी किसी ने उन्हें क़ानून की नजर से नहीं देखा. हर महीने-तीन
महीने में हिन्दी कार्यान्वयन की रिपोर्ट राजभाषा विभाग को भेजी जाती है. जिनमें
दवा किया जाता है कि शत प्रति शत नहीं तो ९० प्रतिशत काम हिन्दी में हो रहा है.
सबको पता होता है कि ये आंकड़े झूठे हैं, लेकिन कोई कुछ नहीं बोलता. सरकारी अफसर
इसे एक बला की तरह से लेते हैं. यहाँ तक कि संसदीय समिति भी दौरे तो बहुत करती है,
लेकिन सांसदों की दिलचस्पी भी हिन्दी को लागू करवाने में कम, ‘उपहार बटोरने में
ज्यादा होती है’. इसलिए हिन्दी को लागू करने का अनुष्ठान महज एक प्रहसन बनकर रह
गया था. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह हस्तक्षेप हिन्दी को लागू करने की दिशा में
मील का पत्थर साबित हो सकता है. अदालत का थोड़ा सा भी भय ब्यूरोक्रेसी को हो तो वाह
राजभाषा कानूनों की अवहेलना नहीं करेगी. (अमर उजाला, २० मई, २०१३ को प्रकाशित. साभार)