हिन्दी दिवस/ गोविंद सिंह
इन दिनों पश्चिमी दुनिया में रह रहे भारतीय और पाकिस्तानी मूल के युवाओं में अपनी भाषा को लेकर एक नयी चेतना जाग रही है. वे हिन्दी और उर्दू को मिलाकर ‘हमारी बोली’ नाम से एक नयी भाषा को स्थापित करने के लिए दुनिया भर में आंदोलन छेड़े हुए हैं. वे व्यक्तिगत रूप से तो इस मिली जुली भाषा का प्रचार-प्रसार कर ही रहे हैं, साथ ही तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी जोर-शोर से अभियान छेड़े हुए हैं. वे यह भी चाहते हैं कि देवनागरी और अरबी लिपियों का झमेला छूटे और रोमन के जरिये काम चलने लगे.
हमारी बोली आन्दोलन के विस्तार में जाने से पहले इसकी पृष्ठभूमि में झांकें. इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद हिन्दी या राष्ट्रभाषा या राजभाषा का मसला भयानक उपेक्षा का शिकार रहा है. हमारे राजनेताओं ने अपने फायदे के लिए इसका दोहन तो बहुत किया लेकिन उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को कभी महसूस नहीं किया. नतीजा यह हुआ कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के मन में हिन्दी के प्रति हिकारत का भाव बना रहा. घटिया और भ्रष्ट अंग्रेजी बोलने और हिन्दी न जानने में गर्व का भाव महसूस किया है हमारी पिछलीपीढ़ी ने. इसी कुंठा के साथ जब यह पीढ़ी वैज्ञानिक, इंजीनियर और प्राध्यापक बन कर यूरोप-अमेरिका गयी तो वहाँ भी इस कुंठा ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. लेकिन संस्कृति के अन्य प्रतीकों को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा. मसलन पूजा-पाठ, कर्म-कांड और शादी-व्याह जैसे अवसरों पर वे विशुद्ध भारतीय बने रहते, कम से कम अपने बच्चों को वैसा होने की नसीहत देते. सत्यनारायण की कथा, ओम जय जगदीश हरे, कराग्रे वसते लक्ष्मी, हनुमान चालीसा ... आदि-आदि के मामले में वे हिंदू बने रहते. उनका आग्रह रहता कि वे बहू हिन्दुस्तान से ही लाएं. वे पूजा-पाठ और शादी-व्याह जैसे अवसरों के लिए स्वदेश जरूर लौटते. आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दी को उन्होंने कभी ऐसा स्थान नहीं दिया. वैसे यह बात भारतीय अभिजनों पर भी लागू होती है.
अपनी भाषा के प्रति ऐसे दोगले व्यवहार के ही कारण अनिवासी भारतीयों की नई पीढ़ी के मन में विद्रोह पैदा हुआ. वे न भारतीय रहे और न ही अमेरिकी हो पाए. उन्हें एबीसीडी यानी अमेरिका बोर्न कन्फ्यूज्ड देसी कहा जाने लगा. लेकिन अब इस दूसरी और तीसरी पीढ़ी के बच्चों के मन में अपनी जड़ों के प्रति अनुराग पैदा होने लगा है. चूंकि उनके मन में किसी तरह की कुंठा नहीं है, इसलिए वे भारत को अपने नज़रिए से देखना चाहते हैं. यहीं भाषा का मसला सामने आता है. एशियाई युवाओं, जिनमें भारतीय, नेपाली और पाकिस्तानी तो हैं ही, बंगलादेशी और कुछ हद तक श्रीलंकाई भी हैं, के मन में एक दक्षिण एशियाई भाषा का सपना कुलबुलाने लगा. उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि जो भाषा एक तरह से बोली जा रही हो, वह कैसे घर पहुँच कर हिन्दी और उर्दू में बदल जाती है. यों भी लिपियों से भाषा नहीं बनती, भाषा बनती है शब्दों, वाक्यों और ध्वनियों से. हाँ, लिपि भाषा का वाहन जरूर बनती है. यह लिपि की क्षमता पर निर्भर करता है कि वह कितनी कुशलता के साथ अपनी सवार भाषा को आगे ले जा सकती है. इसीलिए भाषा वैज्ञानिक हिंदी और उर्दू को दो भाषाएँ नहीं मानते. वे इसे दो लिपियों में एक भाषा कहते हैं. अमेरिकी स्कूलों में तो आज हिन्दी अध्यापक बनने के लिए दोनों लिपियों का ज्ञान जरूरी है.
संचार के क्षेत्र में नईटेक्नोलोजी के आने से नई पीढ़ी में अपनी भाषा के प्रति मोह यकायक उमड़ने लगा. लिपिउन्हें न देवनागरी आती थी और न ही अरबी. हाँ, उन्हें बोली आती थी, जिसे उन्होंनेअपने घरों में अपने बुजुर्गों को बोलते हुए सुना था. चाहे उसे हिन्दी कहिए याउर्दू. वे रोमन लिपि में धडल्ले से अपनी भाषा का प्रयोग करने लगे. ई-मेल, चैटिंग,सोशल मीडिया, सब तरफ रोमन हिन्दी का इस्तेमाल हो रहा है. यह बात भारत में भी बड़ेपैमाने पर हुई. फिल्मों के संवाद हों या टीवी की पटकथाएं, रोमन में हीअभिनेता-अभिनेत्रियों को दी जातीं. यूनिकोड में हिन्दी के आने से पहले तो बड़ेपैमाने पर रोमन का इस्तेमाल हुआ और मोबाइल में तो आज भी बहुत हो रहा है. विदेशयात्राओं पर जाने वाले हिन्दी पत्रकार रोमन में ही अपनी कॉपी भेजते. यहीं से हमारीबोली की अवधारणा जन्म लेने लगी. पाकिस्तानी पृष्ठभूमि के युवाओं को यह और भी जरूरीलगा, क्योंकि उनके यहाँ उर्दू लिपि कुछ देर से यूनिकोड में आई और देवनागरी कीतुलना में वह उतनी लोकप्रिय भी नहीं है. फिर अतीत यानी हिन्दी-उर्दू के उद्भव कालपर नजर दौडाई तो पाया कि ब्रिटिश भारत के पहले शिक्षा संस्थान फोर्ट विलियम कालेजके हेड मास्टर गिलक्राइस्ट ने भी दोनों भाषाओं के लिए रोमन लिपि की ही वकालत कीथी. उन्होंने हिन्दी-उर्दू के लिए जो रोमन सामानांतर दिए, आज भी वही चल रहे हैं. इसके अलावा वे १९९२ मेंशिकागो में हुए पहले अंतर्राष्ट्रीय उर्दू सम्मलेन में सैय्यद फसीह उद्दीन और कादर उन्नीस बेगम द्वारा प्रस्तुत उद्दीन-बेगम हिन्दी-उर्दू रोमनीकरण स्कीम के भी अंध समर्थक हैं क्योंकि इस प्रस्ताव में भी हिन्दी-उर्दू और हिन्दुस्तानी के लिए रोमन लिपि की वकालत की गयी है.
हमारी बोली के प्रवर्तकों की दलील यह है कि देवनागरी और अरबी लिपियाँ चाहे-अनचाहे धार्मिक रूप सेएक-दूसरे को अस्वीकार्य हो गयी हैं. हिंदू समझते हैं कि अरबी लिपि इस्लाम की प्रतीक है और मुसलमान समझते हैं कि देवनागरी हिंदू धर्म से जुडी है. इस झगड़े में भाषा का अहित हो रहा है. दोनों भाषाएँ यदि एक हो जाएँ तो वह दुनिया की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी भाषा बन जाती है. मंदारी के बाद. चीन ने भी ऐसा ही किया. वहाँ सांस्कृतिक क्रान्ति से पहले प्रचलित तमाम भाषाओं को मिलाकर आधुनिक चीनी बना दी गयी थी. जिसे हम मंदारी कहते हैं. साथ ही हमारी बोली वाले हिन्दी में से कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्दों और उर्दू में से कठिन अरबी-फारसी शब्दों को हटाने और प्रचलित अंग्रेजी शब्दों को मिलाने की वकालत करते हैं.
ऊपर से उनकी बात ज्यादा व्यावहारिक लगती है. यदि हम अपनी नई पीढ़ी को देखें तो भाषा का यह नया रूप उनकेज्यादा करीब बैठता है. लेकिन जिस हमारी बोली की बात वे कह रहे हैं, उसकी सबसे कुशल वाहक देवनागरी ही है. देवनागरी का वर्तमान रूप भी अपनी लम्बी संशोधन यात्रा के बाद बना है. दुर्भाग्य यह है कि नई पीढ़ी को नागरी लिपि का पता ही नहीं है. यदि नई पीढ़ी देवनागरी की वैज्ञानिकता का बारीकी से अध्ययन करे तो वह पायेगी कि इसमें कितना दम है. उसे केवल हिंदू लिपि कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. उसमें कुछ और संशोधन कर लिए जाएँ तो वह बखूबी नई भूमिका को निभा सकती है. ( दैनिक हिंदुस्तान, १३ सितम्बर, २०१२ से साभार.)
इन दिनों पश्चिमी दुनिया में रह रहे भारतीय और पाकिस्तानी मूल के युवाओं में अपनी भाषा को लेकर एक नयी चेतना जाग रही है. वे हिन्दी और उर्दू को मिलाकर ‘हमारी बोली’ नाम से एक नयी भाषा को स्थापित करने के लिए दुनिया भर में आंदोलन छेड़े हुए हैं. वे व्यक्तिगत रूप से तो इस मिली जुली भाषा का प्रचार-प्रसार कर ही रहे हैं, साथ ही तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी जोर-शोर से अभियान छेड़े हुए हैं. वे यह भी चाहते हैं कि देवनागरी और अरबी लिपियों का झमेला छूटे और रोमन के जरिये काम चलने लगे.
हमारी बोली आन्दोलन के विस्तार में जाने से पहले इसकी पृष्ठभूमि में झांकें. इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद हिन्दी या राष्ट्रभाषा या राजभाषा का मसला भयानक उपेक्षा का शिकार रहा है. हमारे राजनेताओं ने अपने फायदे के लिए इसका दोहन तो बहुत किया लेकिन उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को कभी महसूस नहीं किया. नतीजा यह हुआ कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के मन में हिन्दी के प्रति हिकारत का भाव बना रहा. घटिया और भ्रष्ट अंग्रेजी बोलने और हिन्दी न जानने में गर्व का भाव महसूस किया है हमारी पिछलीपीढ़ी ने. इसी कुंठा के साथ जब यह पीढ़ी वैज्ञानिक, इंजीनियर और प्राध्यापक बन कर यूरोप-अमेरिका गयी तो वहाँ भी इस कुंठा ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. लेकिन संस्कृति के अन्य प्रतीकों को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा. मसलन पूजा-पाठ, कर्म-कांड और शादी-व्याह जैसे अवसरों पर वे विशुद्ध भारतीय बने रहते, कम से कम अपने बच्चों को वैसा होने की नसीहत देते. सत्यनारायण की कथा, ओम जय जगदीश हरे, कराग्रे वसते लक्ष्मी, हनुमान चालीसा ... आदि-आदि के मामले में वे हिंदू बने रहते. उनका आग्रह रहता कि वे बहू हिन्दुस्तान से ही लाएं. वे पूजा-पाठ और शादी-व्याह जैसे अवसरों के लिए स्वदेश जरूर लौटते. आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दी को उन्होंने कभी ऐसा स्थान नहीं दिया. वैसे यह बात भारतीय अभिजनों पर भी लागू होती है.
अपनी भाषा के प्रति ऐसे दोगले व्यवहार के ही कारण अनिवासी भारतीयों की नई पीढ़ी के मन में विद्रोह पैदा हुआ. वे न भारतीय रहे और न ही अमेरिकी हो पाए. उन्हें एबीसीडी यानी अमेरिका बोर्न कन्फ्यूज्ड देसी कहा जाने लगा. लेकिन अब इस दूसरी और तीसरी पीढ़ी के बच्चों के मन में अपनी जड़ों के प्रति अनुराग पैदा होने लगा है. चूंकि उनके मन में किसी तरह की कुंठा नहीं है, इसलिए वे भारत को अपने नज़रिए से देखना चाहते हैं. यहीं भाषा का मसला सामने आता है. एशियाई युवाओं, जिनमें भारतीय, नेपाली और पाकिस्तानी तो हैं ही, बंगलादेशी और कुछ हद तक श्रीलंकाई भी हैं, के मन में एक दक्षिण एशियाई भाषा का सपना कुलबुलाने लगा. उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि जो भाषा एक तरह से बोली जा रही हो, वह कैसे घर पहुँच कर हिन्दी और उर्दू में बदल जाती है. यों भी लिपियों से भाषा नहीं बनती, भाषा बनती है शब्दों, वाक्यों और ध्वनियों से. हाँ, लिपि भाषा का वाहन जरूर बनती है. यह लिपि की क्षमता पर निर्भर करता है कि वह कितनी कुशलता के साथ अपनी सवार भाषा को आगे ले जा सकती है. इसीलिए भाषा वैज्ञानिक हिंदी और उर्दू को दो भाषाएँ नहीं मानते. वे इसे दो लिपियों में एक भाषा कहते हैं. अमेरिकी स्कूलों में तो आज हिन्दी अध्यापक बनने के लिए दोनों लिपियों का ज्ञान जरूरी है.
संचार के क्षेत्र में नईटेक्नोलोजी के आने से नई पीढ़ी में अपनी भाषा के प्रति मोह यकायक उमड़ने लगा. लिपिउन्हें न देवनागरी आती थी और न ही अरबी. हाँ, उन्हें बोली आती थी, जिसे उन्होंनेअपने घरों में अपने बुजुर्गों को बोलते हुए सुना था. चाहे उसे हिन्दी कहिए याउर्दू. वे रोमन लिपि में धडल्ले से अपनी भाषा का प्रयोग करने लगे. ई-मेल, चैटिंग,सोशल मीडिया, सब तरफ रोमन हिन्दी का इस्तेमाल हो रहा है. यह बात भारत में भी बड़ेपैमाने पर हुई. फिल्मों के संवाद हों या टीवी की पटकथाएं, रोमन में हीअभिनेता-अभिनेत्रियों को दी जातीं. यूनिकोड में हिन्दी के आने से पहले तो बड़ेपैमाने पर रोमन का इस्तेमाल हुआ और मोबाइल में तो आज भी बहुत हो रहा है. विदेशयात्राओं पर जाने वाले हिन्दी पत्रकार रोमन में ही अपनी कॉपी भेजते. यहीं से हमारीबोली की अवधारणा जन्म लेने लगी. पाकिस्तानी पृष्ठभूमि के युवाओं को यह और भी जरूरीलगा, क्योंकि उनके यहाँ उर्दू लिपि कुछ देर से यूनिकोड में आई और देवनागरी कीतुलना में वह उतनी लोकप्रिय भी नहीं है. फिर अतीत यानी हिन्दी-उर्दू के उद्भव कालपर नजर दौडाई तो पाया कि ब्रिटिश भारत के पहले शिक्षा संस्थान फोर्ट विलियम कालेजके हेड मास्टर गिलक्राइस्ट ने भी दोनों भाषाओं के लिए रोमन लिपि की ही वकालत कीथी. उन्होंने हिन्दी-उर्दू के लिए जो रोमन सामानांतर दिए, आज भी वही चल रहे हैं. इसके अलावा वे १९९२ मेंशिकागो में हुए पहले अंतर्राष्ट्रीय उर्दू सम्मलेन में सैय्यद फसीह उद्दीन और कादर उन्नीस बेगम द्वारा प्रस्तुत उद्दीन-बेगम हिन्दी-उर्दू रोमनीकरण स्कीम के भी अंध समर्थक हैं क्योंकि इस प्रस्ताव में भी हिन्दी-उर्दू और हिन्दुस्तानी के लिए रोमन लिपि की वकालत की गयी है.
हमारी बोली के प्रवर्तकों की दलील यह है कि देवनागरी और अरबी लिपियाँ चाहे-अनचाहे धार्मिक रूप सेएक-दूसरे को अस्वीकार्य हो गयी हैं. हिंदू समझते हैं कि अरबी लिपि इस्लाम की प्रतीक है और मुसलमान समझते हैं कि देवनागरी हिंदू धर्म से जुडी है. इस झगड़े में भाषा का अहित हो रहा है. दोनों भाषाएँ यदि एक हो जाएँ तो वह दुनिया की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी भाषा बन जाती है. मंदारी के बाद. चीन ने भी ऐसा ही किया. वहाँ सांस्कृतिक क्रान्ति से पहले प्रचलित तमाम भाषाओं को मिलाकर आधुनिक चीनी बना दी गयी थी. जिसे हम मंदारी कहते हैं. साथ ही हमारी बोली वाले हिन्दी में से कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्दों और उर्दू में से कठिन अरबी-फारसी शब्दों को हटाने और प्रचलित अंग्रेजी शब्दों को मिलाने की वकालत करते हैं.
ऊपर से उनकी बात ज्यादा व्यावहारिक लगती है. यदि हम अपनी नई पीढ़ी को देखें तो भाषा का यह नया रूप उनकेज्यादा करीब बैठता है. लेकिन जिस हमारी बोली की बात वे कह रहे हैं, उसकी सबसे कुशल वाहक देवनागरी ही है. देवनागरी का वर्तमान रूप भी अपनी लम्बी संशोधन यात्रा के बाद बना है. दुर्भाग्य यह है कि नई पीढ़ी को नागरी लिपि का पता ही नहीं है. यदि नई पीढ़ी देवनागरी की वैज्ञानिकता का बारीकी से अध्ययन करे तो वह पायेगी कि इसमें कितना दम है. उसे केवल हिंदू लिपि कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. उसमें कुछ और संशोधन कर लिए जाएँ तो वह बखूबी नई भूमिका को निभा सकती है. ( दैनिक हिंदुस्तान, १३ सितम्बर, २०१२ से साभार.)