श्रद्धांजलि/ गोविंद सिंह
दिल्ली से मित्र राजीव कटारा का फोन आया, ‘लांस डेन नहीं रहे. कल ही मुंबई में उनका देहांत हो गया. हिंदू में खबर छपी है, शायद आपने न पढ़ी हो, इसलिए फोन किया.’ वाकई दुःख हुआ. जाने-अनजाने इस बूढे अँगरेज़ से मेरा एक अजीब-सा अपनापा हो गया था. कोई दस साल पहले उनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी. हम एक ही सोसाइटी में रहते थे. लेकिन जुडाव का कारण यह नहीं था. उनके प्रति आकर्षित होने का कारण उनकी कद-काठी और गांधीवादी जीवन शैली थी. आते-जाते उन्हें देखता तो मन होता कि कैसे इस व्यक्ति से बातचीत का सिलसिला बढ़ाया जाए. एक बार साहस करके बात कर ही ली. पता चला कि ८० साल का यह बूढा अँगरेज़ दूसरे महायुद्ध में भाग ले चुका है. बर्मा में. मेरे पिता जी भी उस दौरान वहीं थे. मेरे पिता जी उनसे कुछ बड़े ही थे. लेकिन महायुद्ध के बाद लांस डेन भारत आ गए और इंग्लैण्ड नहीं गए. फोटोग्राफी, कलात्मक वस्तुओं की खोज, पुरानी चीजों को इकट्ठा करने में लग गए. जिन दिनों मेरी मुलाक़ात हुई, वे कामसूत्र पर काम कर रहे थे. उसके बाद उनसे मेरी मित्रता ही हो गयी. मेरे सबसे ज्यादा उम्र के दोस्त, मेरे पिताजी की उम्र के. वे अक्सर फोन करते. कभी बिजली न आने की शिकायत, कभी पानी की, कभी केबल वाले की. उन्हें लगता कि सोसाइटी की कार्यकारिणी में होने की वजह से मैं शायद हर समस्या का हल खोज सकता हूँ. एक बार उन्होंने अजीब सी शिकायत की, यह शिकायत थी- कबूतरों के बारे में, कि क्यों वे खिड़की में बीट करके चली जाती हैं? बोले, गुप्त काल में भी नगरीय लोग इनसे परेशान थे. ( वे तब गुप्त काल पर फ्रांस में लगने वाली एक प्रदर्शिनी पर काम कर रहे थे). उनके पास भारत के पुराने सिक्के, कलात्मक वस्तुएं, किताबें, मूर्तियां और भी कई चीजें थीं. कला के ऐसे संग्रहकर्ता अब कहाँ मिलेंगे? २०१० में जब मैं कादम्बिनी में था, हमने भारत में रह रहे विदेशियों के बारे में अगस्त अंक निकालने का मन बनाया तो इसके पीछे वही मुख्य प्रेरणा थे. मैंने उनसे बातचीत की और उन्हीं की तरफ से एक आलेख बनाया. यहाँ उसे ज्यों का त्यों रखना उचित होगा:
लेकिन दो-तीन वर्षों में ही मुझे लगा कि मैं इसके लिए भी नहीं
बना हूं। जब भी मुझे समय मिलता, मैं
धर्मस्थलों, मंदिरों, प्रागैतिहासिक
स्थलों और कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों को देखने लगा। मेरे एक चाचा ने मुझे
एक अच्छा कैमरा दिया। इस तरह मैं भारतीय कलानिधि की फोटोग्राफी करने लगा। मैंने
कला को संचार के माध्यम के तौर पर देखना-समझना शुरू किया। तभी मेरी दिलचस्पी को
देखते हुए डॉली साहिया नाम की एक पारसी लड़की ने मशहूर लेखक और कला मर्मज्ञ
मुल्कराज आनंद से मेरी मुलाकात करवाई। वे मार्ग पत्रिका के संपादक थे। और मुझ से
भारतीय कला पर लेख लिखवाते और फोटो खिंचवाते। एक बार उन्होंने मुझे केरल के हिंदू
मंदिरों के मंदिर वास्तु पर लिखने को कहा। वहां गया तो पता चला कि मंदिर जाने के
लिए हिंदू होना जरूरी है और केवल धोती पहन कर ही वहां जाया जा सकता है। बड़ी
मुश्किल थी। लेकिन मंदिर में जाना भी जरूरी था। बिना देखे लिखते कैसे? इसलिए तय किया कि आर्य समाजी पद्धति से हिंदू धर्म ग्रहण किया जाए। और मैं
आर्य समाजी हिंदू बन गया। धोती पहनने का अभ्यास किया। इस तरह मंदिर पर लेख लिखा।
मुल्कराज आनंद वर्णन सुनकर प्रभावित हुए। वे भी मेरे साथ मंदिर देखने गए। मैं धोती
में था, तो मुझे पुजारियों ने बेधड़क अंदर जाने दिया, लेकिन सूट-बूट वाले मुल्कराज आनंद को बाहर ही रोक दिया।
मैंने आनंद के साथ कामसूत्र पर काम किया। चूंकि मेरे पास
बेहिसाब चित्र थे, जगह-जगह
से इकट्ठा किए हुए कामसूत्र के संस्करण थे, घुमक्कड़ी का
अनुभव था, और मुल्कराज आनंद के पास खूबसूरत भाषा और गहरी
कलादृष्टि थी। इस तरह 1984 में कामसूत्र की पहली आधुनिक
व्याख्या लिखी गई। बाद में मैंने कामसूत्र पर स्वतंत्र रूप से भी टीका लिखी,
जिसके लिए मुझे पाली और प्राकृत के विद्वानों के साथ भी बैठना पड़ा।
इन भाषाओं को समझना पड़ा। ताकि उसकी मौलिकता को बरकरार रखा जा सके। कामसूत्र सचमुच
एक अद्भुत ग्रंथ है, जिसे मैं सेक्स का नहीं, मानव व्यवहार की महान कृति कहता हूं। यौन संबंध मनुष्य को ईश्वर प्रदत्त
वरदान है। स्त्री-पुरुष के लिए एक-दूसरे को समझने का इससे बेहतर कोई जरिया नहीं।
दुनिया में इस विषय पर इससे बेहतर कोई रचना नहीं है। भारतीय सभ्यता की महानता
देखिए कि यह सब भी ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी में हो गया था। भारत सचमुच एक अद्भुत
देश है। यहां समस्याएं भी कम नहीं हैं, फिर भी देश चलता रहता
है।
कामसूत्र के अलावा मैंने गुप्त काल पर भी काफी काम किया है। मेरी छह प्रमुख किताबें हैं और इस समय भी मेरे हाथ में पांच प्रोजेक्ट हैं। यही नहीं, मेरे पास हजारों दुर्लभ सिक्के, कलाकृतियां, मूर्तियां और एंटीक हैं, जिन्हें जल्द ही एक ट्रस्ट बनाकर सौंपने की तैयारी है। देखता हूं क्या-क्या कर पाता हूं।
दिल्ली से मित्र राजीव कटारा का फोन आया, ‘लांस डेन नहीं रहे. कल ही मुंबई में उनका देहांत हो गया. हिंदू में खबर छपी है, शायद आपने न पढ़ी हो, इसलिए फोन किया.’ वाकई दुःख हुआ. जाने-अनजाने इस बूढे अँगरेज़ से मेरा एक अजीब-सा अपनापा हो गया था. कोई दस साल पहले उनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी. हम एक ही सोसाइटी में रहते थे. लेकिन जुडाव का कारण यह नहीं था. उनके प्रति आकर्षित होने का कारण उनकी कद-काठी और गांधीवादी जीवन शैली थी. आते-जाते उन्हें देखता तो मन होता कि कैसे इस व्यक्ति से बातचीत का सिलसिला बढ़ाया जाए. एक बार साहस करके बात कर ही ली. पता चला कि ८० साल का यह बूढा अँगरेज़ दूसरे महायुद्ध में भाग ले चुका है. बर्मा में. मेरे पिता जी भी उस दौरान वहीं थे. मेरे पिता जी उनसे कुछ बड़े ही थे. लेकिन महायुद्ध के बाद लांस डेन भारत आ गए और इंग्लैण्ड नहीं गए. फोटोग्राफी, कलात्मक वस्तुओं की खोज, पुरानी चीजों को इकट्ठा करने में लग गए. जिन दिनों मेरी मुलाक़ात हुई, वे कामसूत्र पर काम कर रहे थे. उसके बाद उनसे मेरी मित्रता ही हो गयी. मेरे सबसे ज्यादा उम्र के दोस्त, मेरे पिताजी की उम्र के. वे अक्सर फोन करते. कभी बिजली न आने की शिकायत, कभी पानी की, कभी केबल वाले की. उन्हें लगता कि सोसाइटी की कार्यकारिणी में होने की वजह से मैं शायद हर समस्या का हल खोज सकता हूँ. एक बार उन्होंने अजीब सी शिकायत की, यह शिकायत थी- कबूतरों के बारे में, कि क्यों वे खिड़की में बीट करके चली जाती हैं? बोले, गुप्त काल में भी नगरीय लोग इनसे परेशान थे. ( वे तब गुप्त काल पर फ्रांस में लगने वाली एक प्रदर्शिनी पर काम कर रहे थे). उनके पास भारत के पुराने सिक्के, कलात्मक वस्तुएं, किताबें, मूर्तियां और भी कई चीजें थीं. कला के ऐसे संग्रहकर्ता अब कहाँ मिलेंगे? २०१० में जब मैं कादम्बिनी में था, हमने भारत में रह रहे विदेशियों के बारे में अगस्त अंक निकालने का मन बनाया तो इसके पीछे वही मुख्य प्रेरणा थे. मैंने उनसे बातचीत की और उन्हीं की तरफ से एक आलेख बनाया. यहाँ उसे ज्यों का त्यों रखना उचित होगा:
मंदिर में घुसने के लिए बना हिंदू- लांस डेन
मेरे पिता जी ब्रिटिश आर्मी के शेरवुड फोरेस्टर रेजिमेंट में वरिष्ठ अधिकारी थे। लेकिन मेरा जन्म इंग्लैंड के नॉटिंघम में हुआ। बहुत खूबसूरत जगह थी वह। बड़े ही मनोहारी कैसल थे वहां। लेकिन छह वर्ष का रहा हूंगा कि हमारा परिवार भारत आ गया। हम पिताजी के साथ दक्षिण भारत में रहे थे। हालांकि पिताजी का काम गुप्त संदेशों के विश्लेषण से जुड़ा था लेकिन वे तरह-तरह के लोगों से मिलते रहते थे। उनके मित्रों में बड़ी संख्या भारतीयों की थी। और भारतीयों के साथ उनके रिश्ते बहुत ही अच्छे थे। उनके साथ काम करने वाले एक सज्जन थे- एसडी श्रीनिवास राजगोपालाचारी। पिताजी ने उन्हें मेरा गॉडफादर जैसा बना दिया था। मैं भी उन्हें अपने पिता की ही तरह मानता था। वे मुझे हर जन्मदिन पर सोने का एक सिक्का दिया करते थे, जिन्हें आज तक मैंने संभाल कर रखा है।
मेरी मां अत्यंत घुमककड़ स्वभाव की थीं। वह कहीं भी जाने के लिए हमेशा तैयार रहती थीं। मैंने बचपन में दक्षिण भारत के लगभग सारे मंदिर देख लिए थे। मेरी मां मुझे अकसर प्राचीन मंदिरों, भवनों, संग्रहालयों और सांस्कृतिक स्थलों में ले जातीं और खुद भी आनंदित होतीं। इस तरह मुझे बचपन से ही भारत की संस्कृति को बारीकी के साथ देखने-समझने का मौका मिला। 1938 में जब दूसरा महायुद्ध हुआ, तो मैं महज 15 साल का था लेकिन हमारे भीतर भी अपने देश को बचाने की भावनाएं हिलोरें लेने लगीं। खैर 1940 में मुझे ब्रिटिश आर्मी में वार कमीशन मिल गया। मैं सिग्नल कोर में था। युद्ध से संबंधित संदेशों को पहुंचाने की जिम्मेदारी थी। मुझे बर्मा में रखा गया। कुछ समय मांडले और कुछ समय इंफाल में रहा। बर्मा के बौद्ध-स्थलों के दर्शन किए और उत्तर-पूर्वी भारत की लोक संस्कृति को भी करीब से देखा। 1947 तक मैं फौज में रहा। लेकिन मैं मन से कभी फौजी नहीं बन पाया। 15 अगस्त को मैं रंगून में ही था। वहीं हमने नेहरू का भाषण रेडियो पर सुना।
भारत की आजादी के बाद मेरे सामने यह सवाल आ खड़ा हुआ कि अब मैं क्या करूं? मेरे एक सीनियर पाकिस्तान में रक्षा स्टाफ कॉलेज के इंचार्ज बने तो उन्होंने मुझे वहां आने का न्योता दिया। मैं वहां गया भी। लेकिन अनिर्णय बना रहा। उसके बाद मैं इंग्लैंड गया। अपने जन्मस्थान नॉटिंघम शायर। लेकिन मेरे घुमक्कड़ मन को रह-रह कर भारत की याद आती रही। मेरी दो बहनें मुंबई में ही अस्पताल में डॉक्टर थीं। मुझे लगा कि मैं भारत के लिए ही बना हूं। यह विशाल देश मुझे बरबस अपनी ओर खींचता। मैं कोई ऐसा काम चाहता था, जिसमें मुझे देश घूमने का मौका मिले। तभी पता चला कि बंबई की एक दवा कंपनी को मुझ जैसे घुमक्कड़ की जरूरत है, जो दवाओं की मार्केटिंग कर सके। और इस तरह मैं भारत का ही होकर रह गया।
लेकिन दो-तीन वर्षों में ही मुझे लगा कि मैं इसके लिए भी नहीं
बना हूं। जब भी मुझे समय मिलता, मैं
धर्मस्थलों, मंदिरों, प्रागैतिहासिक
स्थलों और कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों को देखने लगा। मेरे एक चाचा ने मुझे
एक अच्छा कैमरा दिया। इस तरह मैं भारतीय कलानिधि की फोटोग्राफी करने लगा। मैंने
कला को संचार के माध्यम के तौर पर देखना-समझना शुरू किया। तभी मेरी दिलचस्पी को
देखते हुए डॉली साहिया नाम की एक पारसी लड़की ने मशहूर लेखक और कला मर्मज्ञ
मुल्कराज आनंद से मेरी मुलाकात करवाई। वे मार्ग पत्रिका के संपादक थे। और मुझ से
भारतीय कला पर लेख लिखवाते और फोटो खिंचवाते। एक बार उन्होंने मुझे केरल के हिंदू
मंदिरों के मंदिर वास्तु पर लिखने को कहा। वहां गया तो पता चला कि मंदिर जाने के
लिए हिंदू होना जरूरी है और केवल धोती पहन कर ही वहां जाया जा सकता है। बड़ी
मुश्किल थी। लेकिन मंदिर में जाना भी जरूरी था। बिना देखे लिखते कैसे? इसलिए तय किया कि आर्य समाजी पद्धति से हिंदू धर्म ग्रहण किया जाए। और मैं
आर्य समाजी हिंदू बन गया। धोती पहनने का अभ्यास किया। इस तरह मंदिर पर लेख लिखा।
मुल्कराज आनंद वर्णन सुनकर प्रभावित हुए। वे भी मेरे साथ मंदिर देखने गए। मैं धोती
में था, तो मुझे पुजारियों ने बेधड़क अंदर जाने दिया, लेकिन सूट-बूट वाले मुल्कराज आनंद को बाहर ही रोक दिया।
मैंने आनंद के साथ कामसूत्र पर काम किया। चूंकि मेरे पास
बेहिसाब चित्र थे, जगह-जगह
से इकट्ठा किए हुए कामसूत्र के संस्करण थे, घुमक्कड़ी का
अनुभव था, और मुल्कराज आनंद के पास खूबसूरत भाषा और गहरी
कलादृष्टि थी। इस तरह 1984 में कामसूत्र की पहली आधुनिक
व्याख्या लिखी गई। बाद में मैंने कामसूत्र पर स्वतंत्र रूप से भी टीका लिखी,
जिसके लिए मुझे पाली और प्राकृत के विद्वानों के साथ भी बैठना पड़ा।
इन भाषाओं को समझना पड़ा। ताकि उसकी मौलिकता को बरकरार रखा जा सके। कामसूत्र सचमुच
एक अद्भुत ग्रंथ है, जिसे मैं सेक्स का नहीं, मानव व्यवहार की महान कृति कहता हूं। यौन संबंध मनुष्य को ईश्वर प्रदत्त
वरदान है। स्त्री-पुरुष के लिए एक-दूसरे को समझने का इससे बेहतर कोई जरिया नहीं।
दुनिया में इस विषय पर इससे बेहतर कोई रचना नहीं है। भारतीय सभ्यता की महानता
देखिए कि यह सब भी ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी में हो गया था। भारत सचमुच एक अद्भुत
देश है। यहां समस्याएं भी कम नहीं हैं, फिर भी देश चलता रहता
है। कामसूत्र के अलावा मैंने गुप्त काल पर भी काफी काम किया है। मेरी छह प्रमुख किताबें हैं और इस समय भी मेरे हाथ में पांच प्रोजेक्ट हैं। यही नहीं, मेरे पास हजारों दुर्लभ सिक्के, कलाकृतियां, मूर्तियां और एंटीक हैं, जिन्हें जल्द ही एक ट्रस्ट बनाकर सौंपने की तैयारी है। देखता हूं क्या-क्या कर पाता हूं।