मीडिया कानून/ गोविन्द सिंह
देश की सर्वोच्च
अदालत ने आपराधिक मानहानि क़ानून को बरकरार रख कर जहां एक तरफ बड़बोले नेताओं को
किसी के भी खिलाफ निराधार आरोप लगाने से हतोत्साहित किया है, वहीं अभिव्यक्ति की
आजादी के पैरोकारों को भी निराश किया है. हालांकि दोनों के सन्दर्भ और मकसद
अलग-अलग हैं फिर भी आज के अराजक होते राजनीतिक माहौल को देखते हुए यह फैसला उचित
ही जान पड़ता है.
हाल के वर्षों में यह
देखने में आया है कि अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने और अपने प्रतिद्वंद्वियों से
निबटने के लिए नेता गण कुछ भी अनर्गल आरोप लगा देते हैं. इससे न सिर्फ अगले का
राजनीतिक करियर चौपट हो सकता है अपितु जीवन भी खतरे में पद सकता है. यह प्रवृत्ति
बढ़ती ही जा रही है. संयोग से हमारे समय के तीन सर्वाधिक मुखर राजनेता अरविन्द
केजरीवाल, सुब्रह्मण्य स्वामी और राहुल गांधी ने सर्वोच्च अदालत के समक्ष ये गुहार
लगाई थी कि ‘मानहानि सिद्ध होने
पर उन्हें सिर्फ जुर्माना किया जाए। सजा न दी जाए। मानहानि को अपराध न माना जाए’।
यह बताने की जरूरत नहीं कि इन तीनों ही नेताओं के खिलाफ दिल्ली की निचली अदालतों
में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के बारे में अनाप-शनाप आरोप लगाने के लिए
मुकदमे चल रहे हैं. चूंकि आरोप लगाते समय इन्होंने सोचा नहीं कि जो आरोप वे लगा
रहे हैं, वह प्रमाणित किया भी जा सकता है या नहीं, इसलिए अब जब अदालत में आरोप
सिद्ध करने में इन्हें नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं, तो सर्वोच्च न्यायालय से गुहार
लगा रहे हैं कि उनकी सजा कम की जाए.
दरअसल अपने देश
में, खासकर चुनाव के वक़्त राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ कुछ भी आरोप लगाने की नेताओं
को आदत-सी पड़ गयी है. पहले कुछ बडबोले और मसखरे किस्म के नेता ही इस तरह के आरोप
लगाया करते थे, लिहाजा कोई उन्हें गंभीरता से नहीं लेता था. लेकिन गंभीर और संजीदा
किस्म के या बड़े कद के नेता भी अब ऐसा करने लगे हैं. यह प्रवृत्ति राजनीति से होकर
समाज के निचले गलियारों तक पहुँचने लगी है. इस तरह यह एक गंभीर बीमारी का रूप धारण
कर रही है. यह उसी तरह से है, जैसे महाभारत युद्ध के दौरान अगर कोई मामूली सैनिक ‘अश्वत्थामा
हतः...’ कहता तो शायद गुरु द्रोणाचार्य नहीं मानते, लेकिन जब दबे स्वर में ही सही,
युधिष्ठिर ने यह बात कही तो द्रोण ने मान लिया कि उनका पुत्र मारा गया है. नतीजा
उनकी अपनी मौत. जब जिम्मेदार नेता अपने विरोधियों के खिलाफ झूठे, निराधार और
दुर्भावनापूर्ण आरोप लगाते हैं तो जनता सहज ही उन पर विश्वास कर लेती है, प्रचार
माध्यम भी बिना आरोपों की तस्दीक किये प्रकाशित-प्रसारित कर देते हैं. इस आलोक में
सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय स्वागतयोग्य है. कम से कम इससे बडबोले नेताओं की जबान
पर तो लगाम लगेगी.
दूसरा पक्ष
अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर लोगों का है, जो चाहते हैं कि अभिव्यक्ति पर किसी
तरह की लगाम न लगे. यह विश्वव्यापी अभियान का हिस्सा है. दुनिया भर में मानहानि को
क़ानून के दायरे से बाहर करने की मुहिम चली हुई है. इन्टरनेट पर अपने मन की भड़ास
निकालने वाले लोग इसकी अगुवाई कर रहे हैं. गत वर्ष भारत में सूचना प्रौद्योगिकी की
धारा 66-ए को समाप्त करवाकर इन्होंने एक बड़ी लड़ाई जीती है. मीडिया का एक बड़ा वर्ग
भी चाहता है कि मानहानि क़ानून समाप्त हो या कम से कम इसकी धार कुछ कुंद की जाए.
क्योंकि नेताओं, नौकरशाहों और सरकारों के खिलाफ बोलने वालों पर ही नहीं, बोले हुए
को छापने वाले मीडिया पर भी खतरा मंडराता रहता है. हालांकि मानहानि का सम्बन्ध हर
किसी से है, लेकिन निशाना तो अंततः प्रेस को ही बनाया जाता है. वर्ष 1987-88 में जब देश में
बोफोर्स दलाली काण्ड की आग लगी हुई थी, राजीव गांधी से इंडियन एक्सप्रेस में रोज
दस सवाल पूछे जा रहे थे, तब राजीव गांधी की सरकार मानहानि विधेयक-1988 लेकर आयी थी,
जिसके खिलाफ देश भर का मीडिया लामबंद हो गया था. वह विधेयक सचमुच प्रेस के प्रति
अत्यंत क्रूर था. सरकार के घोर समर्थक मीडिया घराने भी इस विधेयक के विरोध में आ
खड़े हुए. तब एक स्वर से तमाम विपक्षी दलों और मीडिया ने कहा था कि जब हमारे पास
भारतीय दंड संहिता में पहले ही मानहानि क़ानून मौजूद है तो संविधान संशोधन की क्या
जरूरत है? अंततः राजीव गांधी को वह विधेयक वापस लेना पड़ा. इससे पहले 1982 में बिहार प्रेस
बिल में भी कुछ ऐसे ही प्रावधान थे, जब बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ
मिश्र ने प्रेस पर नकेल लगाने की कोशिश की थी. उसका भी देश भर में विरोध हुआ था.
और तब जाकर वह बिल भी वापस लिया गया था. यानी जब-जब प्रेस को निशाना बनाकर उस पर
नकेल कसने की कोशिश की गयी, तब-तब देश की जनता ने, समूचे प्रेस ने उसका मुंहतोड़
जवाब दिया था.
भारतीय दंड संहिता
की धारा 499 और 500 को अमूमन उतना क्रूर नहीं माना जाता. धारा 499 में मानहानि का
अर्थ स्पष्ट किया गया है तो धारा 500 में मानहानि करने पर दंड का प्रावधान है. 499
के मुताबिक़ दुर्भावना के साथ बोले गए या लिखे गए शब्दों या चित्रों या संकेतों
द्वारा लांछन लगाकर किसी व्यक्ति की इज्जत या ख्याति पर हमला किया जाता है और उससे
उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा पर बुरा असर पड़ता है, तब मानहानि होती है, जो विधिक तौर
पर दंडनीय अपराध है. लेकिन जब यही आरोप लोक हित को ध्यान में रख कर या सद्भावना के
साथ लगाया जाता है, तो वह मानहानि के दायरे में नहीं आता. यदि किसी व्यक्ति का
अपराध साबित हो जाता है, उसे दो वर्ष की सजा का प्रावधान है.
अरविन्द केजरीवाल
का कहना था कि लार्ड मैकाले के इस औपनिवेशिक क़ानून को ख़त्म कर देना चाहिए. यह बात
सही है कि ये क़ानून अंग्रेज़ी हुकूमत की रक्षा के लिए बनाए गए थे. तब इन कानूनों का
जमकर इस्तेमाल भी होता था. आजादी के बाद भी आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने इसे
ढाल की तरह इस्तेमाल किया था. व्यक्तियों के खिलाफ भी और प्रेस के खिलाफ भी. दूर
क्यों जाएँ, स्वयं अरविन्द केजरीवाल ने सत्ता में आते ही मीडिया को इन कानूनों की
घुडकी दिखाई थी. वह बात अलग है कि जल्दी ही वे संभल गए और आदेश वापस लिया. यानी
सत्ता में बैठा व्यक्ति किसी क़ानून का कैसा इस्तेमाल करेगा, कहना मुश्किल है.
लेकिन जैसा कि सर्वोच्च अदालत का कहना है, केवल इस आशंका पर किसी को भी किसी के
आत्मसम्मान पर हमला करने का अधिकार नहीं मिल जाता. यह ठीक है कि यह औपनिवेशिक युग
का क़ानून है. लेकिन संविधान के अनुच्छेद 21 के मुताबिक़ आत्म-प्रतिष्ठा भी व्यक्ति
का मौलिक अधिकार है. व्यक्ति के आत्मसम्मान को बचाए रखना भी अभिव्यक्ति की आज़ादी
के समान ही महत्वपूर्ण है. इसलिए बेलगाम होते लोगों को नियंत्रण में रखने के लिए
कुछ न कुछ प्रावधान तो होना ही चाहिए. (अमर उजाला, 24 मई, २०१६ को प्रकाशित लेख का विस्तृत रूप)